श्रीमद भागवद पुराण चौथा अध्याय [स्कंध ९]( नाभाग और अम्बरीष का वृतान्त) नाभाग का पुत्र अम्बरीष जिसका बाह्मणों के शाप से कुछ भी अनिष्ट न हुआ।

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

नवीन सुख सागर  श्रीमद  भागवद  पुराण चौथा अध्याय [स्कंध ९] ( नाभाग और अम्बरीष का वृतान्त)  दोहा- भये नभग मनुसे प्रकट भतिनते नाभाग। यह चतुरथ अध्याय में अम्बरीष कर भाग।।   श्रीशुकदेवजो कहने लगे---   नभका बेटा नाभाग विद्या पढ़ने के लिये अपने गुरु के घर चला गया था, उसके भाइयों ने पिता का सब धन आपस में बांट लिया। सोचा कि वह सदा ब्रह्मचारी हो रहेगा। जब नामाग गुरु के घर से आया, तो उसने अपने भाइयों से अपना भाग माँगा वे कहने लगे कि तुम्हारे भाग में पिता आया है, उसे ले लो।   यह सुन वह पिता के पास गया और कहने लगाकि आप मेरे भाग में आये है। पिता ने कहा उनकी बात मत मानो ऐसा उन्होंने तुझे धोखा देने के निमित्त कहा है, क्योंकि द्रव्य के समान भोग का साधन मैं नहीं हूँ । तथापि उन्होंने भाग रूप से मुझे दिया है तो मैं तुझे जीवन निर्वाह का उपाय बताता हूँ।    अङ्गिरा के बुद्धिमान गोत्रज्ञ द्वादशाह यज्ञ करते हैं, ये छठे दिन के कर्तव्य कर्म को भूल जाते हैं। इससे तुम वहाँ जाकर उनको विश्वे देवताओं के दो सूत पढ़ा दो। जब वे स्वर्ग को जायेंगे यज्ञ का शेष धन तुमको दे जायेंगे।   यह सुन उसने वहाँ जाकर वैसा ही किया और वे यज्ञ के शेष धन को उसे देकर स्वर्ग को चले गये। जब वह धन को इकटठा कर रहा था तब कृष्णवर्ण का एक मनुष्य उत्तर दिशा से आकर यह कहने लगा कि यह यज्ञ का धन मेरा है---   नाभाग बोला कि मेरा है, मुझको ऋषियों ने दिया है।   यह मनुष्य बोला हमारे तेरे इस झगड़े का निबटारा तेरा पिता ही करेगा, चल उसके पास चलें।   तब नाभाग ने पिता से पूछा । तब उसके पिता ने कहा कि यह भूमि में शेष रहा हुआ धन सब रुद्र का है ऐसा दक्ष के यज्ञ में ऋषियों ने निर्णय कर दिया है इससे यह सब धन इन्ही का हो।    तब नामाग नमस्कार करने लगा, हे प्रभु ! यह सब द्रव्य आप ही का है यही मेरे पिता ने कहा है, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। यह सुन वह बोला तेरे पिता से धर्म की बात कही और तू सच बोलता है इसलिये मेरे अनु ग्रह से तुझको ब्रह्मा का साक्षातकार हो। यह यज्ञ का शेष द्रव्य भी तुझको देता हूँ तू इसे ले यह कह कर रुद्र भगवान अन्त र्ध्यान हो गये   उसी नाभाग का पुत्र अम्बरीष हुआ जिसका बाह्मणों के शाप से कुछ भी अनिष्ट न हुआ।    परीक्षित ने पूछा हे मुनिवर ! मैं उस राजर्षि का चरित्र सुनना चाहता हूँ कि ब्रह्म दण्ड भी जिसका कुछ न कर सकता था। श्री शुकदेव जी बोले- हे महा भाग ! अम्बरीष को सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी, अक्षय लक्ष्मी और अतुल वैभव मिल गया था। इन सब वस्तुओं को पाकर भी वह उनको तुच्छ और स्वप्नवत समझने लगा। भगवान और उनके भक्त साधुजनों में अम्बरीष की ऐसी दृढ़ प्रीति थी कि वह इस जगत को मिट्टी के ढेले के समान जानता था।   इससे अपना मन श्री कृष्ण के चरणारविन्दों में, वाणी- भगवद्गुण वर्णन में, हाथ- हरि मन्दिर की स्वच्छता में, कान- भगवान को कथा सुनने में, नेत्र- भगवान के दर्शनों और भगवद्भक्तों के अंगों में अपने अंग लगा दिये। भगवान के चरणों पर रक्खी हुई तुलसी के सूघने में नाक और भगवान का अर्पण किया हुआ प्रसाद पाने में जिह्वा लगा दी। तीर्थ यात्रा में चरण और हृषी केष के में नमस्कार करने को सिर लगा दिया। उसकी सेवा दास्यभाव की थी, किन्तु विषयों की भावना से वह सेवा नहीं करता था। इसकी अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने इसकी रक्षा के लिये अपना सुदर्शनचक्र नियत कर दिया | अपने समान शीलवाली रानी के संग कृष्ण भगवान की आराधना के लिए इसने एक वर्ष के एकादशी के व्रतों का संकल्प लिया। फिर मथुरा में जाकर कार्तिक महीने में ब्रत के अन्त में तीन दिन उपवास कर यमुनाजी में स्नान कर मधुवन को चला गया। और वहाँ भगवान का पूजन करने लगा तथा सब सामग्रियों को इकटठा कर महाअभिषेक विधि से भगवान को स्नान कराय गन्ध, फूल, माला आदि चढ़ाय, स्वच्छ वस्त्र पहराय हृदय से भगवान के पूजन में तत्पर हुआ।   तत्पश्चात् साठ करोड़ गौ साधु, ब्राह्मणों को दीं। सन्तुष्ट हुए ब्राह्मणों की आज्ञा से राजा पारण करने को ही था कि इतने में दुर्वासा ऋषि अतिथि बनकर आ गये।   राजा वे उठकर अध्यपाद्य अर्पण कर बैठने को आसन दिया और चरणों में गिरकर भोगन करने के लिए प्रार्थना की।   राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ऋषि मध्यान्ह सन्ध्या करने के लिये गये और कालिन्दी के पवित्र जल में स्नान कर भगवान का ध्यान करने लगे। व्रत खोलने के लिए द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रही थी। इससे राजा बड़े धर्म संकट में पड़ गया और ब्राह्मणों के साथ विचार करने लगा।     हे ब्राह्मणो ! ब्राह्मण अतिक्रमण में दोष है अथवा द्वादशी में व्रत न खोलने में दोष है ? इन दोनों में से मुझको वह काम बतलाइये, जिससे अधर्म मुझको स्पर्श न कर सके।   मेरी समझ में जल से पारण करना आता है क्योंकि जलभक्षण भोजन करने में गिना भी है और नहीं भी गिना है। इसी तरह राजर्षि जल से पारण कर दुर्वासा के आने की प्रतीक्षा करने लगा। इतने ही में दुर्वासा भी नित्यकर्म से निश्चिन्त हो वहाँ आये, राजा ने उठकर आदर किया, परन्तु बुद्धि से राजा की चेष्टा देख कर पहचान लिया कि इसने कुछ पारण किया है । उसी समय क्रोध से भृकुटी चढ़ा दुर्वासा ने कहा----   " देखो, इस लक्ष्मी के वैभव से उन्मत्त विष्णु के अभक्त राजा ने मुझ अतिथि का निमन्त्रण करके बिना मुझको भोजन कराये स्वयं भोजन कर लिया इसका फल इसे इसी समय चखाऊंगा। "   यह कह अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर क्रोध के मारे उससे कालाग्नि के समान एक कृत्या उत्पन्न की परन्तु भगवान ने तो अपने भक्त की रक्षा के जिये सुदर्शन चक्र को पहिले ही नियत कर दिया था। उसने(सुदर्शन चक्र) कृत्या को ऐसा जला दिया जैसा क्रोधी सर्प को अग्नि जला देती है। अपने प्रयोग को निष्फल और चक्र को अपने पीछे आता देख प्राणों की रक्षा के लिए दुर्वासा दिशाओं में भाग चले। लोकपाल, स्वर्ग आदि में जहाँ-जहां वह गये वहां वहां सुदर्शन भी पीछे लगा चला गया। जब किसी ने भी इन्हें शरण न दी तब ब्रह्मा की शरण गये और कहने लगे---   " हे आत्म योने ! मेरी इस अजेय तेज से रक्षा कीजिये।"   ब्रह्मा बोले- ----" हे मुनिवर ! मैं महादेव, दक्ष, भृग, भूतेष सब ही उसकी आज्ञा को सिर पर धारण कर यथा नियम लोकहित कार्य करते रहते हैं, फिर हम उससे बर्हिमुख को कैसे शरण दे सकते हैं ?"   जब ब्रह्मा ने ऐसा सूखा उत्तर दे दिया तब महादेवजी की शरण गये। महादेव कहने लगे---- "हे तात ! मैं, सनत्कुमार, नारद, ब्रह्मा, कपिल, मरिच्यादि बड़े बड़े सिद्ध पारदर्शी सब हो उसकी माया से मोहित हो रहे हैं। यह उसी बिश्वेश्वर का असह्यशस्त्र है सो उसी की शरण जाओ, वही रक्षा करेगा |"   तब दुर्वासा निराश होकर भगवद्धाम में गये जहां स्वयं लक्ष्मी सहित भगवान विराजते थे। उस अजित शस्त्र की ज्वाला से जलते-कांपते हुये उनके चरण कमल पर जा पड़े और कहने लगे----   "हे विश्व भगवान ! मैं अपराधी हूँ, मेरी रक्षा करो। मैंने आपके प्रभाव को न जानकर आपके प्रियों का अपराध किया है इससे मेरा प्रायश्चित कराइये।"   भगवान बोले----- " हे द्विज ! मैं भक्तों के आधीन हूँ। स्वतन्त्र नहीं हूँ, मैं भक्तों का और भक्त मेरे प्यारे हैं इन्हीं महात्माओं ने मेरे हृदय पर अधिकार कर लिया है। मैं अपने भक्त और साधुजनों के बिना अपनी आत्मा और अत्यन्त निकटवर्ती लक्ष्मी को भी नहीं चाहता हूँ । समदर्शी साधु मुझ में मन लगाकर मुझे भक्ति से वश में कर लेते हैं। जैसे कुलवती स्त्री अपने सन्मार्गी पति को अपने वश में कर लेती है।"   हे विप्र मैं उपाय बताता हूँ तुम वही करो, जिसका तुमने अपराध किया है उसी के पास जाओ । क्योंकि जो तेज साधुओं पर चलाया जाता है वह तेज चलाने वाले का अमंगल करता है । तप और विद्या ये दोनों ब्राह्मण के लिये श्रेयस्कर है, परन्तु दुविनीत के लिये ये अमंगल-स्वरूप हैं।    ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


नवीन सुख सागर 

श्रीमद  भागवद  पुराण चौथा अध्याय [स्कंध ९]( नाभाग और अम्बरीष का वृतान्त) नाभाग का पुत्र अम्बरीष जिसका बाह्मणों के शाप से कुछ भी अनिष्ट न हुआ। 

दोहा- भये नभग मनुसे प्रकट भतिनते नाभाग।

यह चतुरथ अध्याय में अम्बरीष कर भाग।। 


श्रीशुकदेवजो कहने लगे---



नभ का बेटा नाभाग विद्या पढ़ने के लिये अपने गुरु के घर चला गया था, उसके भाइयों ने पिता का सब धन आपस में बांट लिया। सोचा कि वह सदा
ब्रह्मचारी हो रहेगा। जब नामाग गुरु के घर से आया, तो उसने अपने भाइयों से अपना भाग माँगा वे कहने लगे कि 

तुम्हारे भाग में पिता आया है, उसे ले लो। 

यह सुन वह पिता के पास गया और कहने लगाकि आप मेरे भाग में आये है। पिता ने कहा उनकी बात मत मानो ऐसा उन्होंने तुझे धोखा देने के निमित्त कहा है, क्योंकि द्रव्य के समान भोग का साधन मैं नहीं हूँ । तथापि उन्होंने भाग रूप से मुझे दिया है तो मैं तुझे जीवन निर्वाह का उपाय बताता हूँ। 


अङ्गिरा के बुद्धिमान गोत्रज्ञ द्वादशाह यज्ञ करते हैं, ये छठे दिन के कर्तव्य कर्म को भूल जाते हैं। इससे तुम वहाँ जाकर उनको विश्वे देवताओं के दो सूत पढ़ा दो। जब वे स्वर्ग को जायेंगे यज्ञ का शेष धन तुमको दे जायेंगे। 

यह सुन उसने वहाँ जाकर वैसा ही किया और वे यज्ञ के शेष धन को उसे देकर स्वर्ग को चले गये। जब वह धन को इकटठा कर रहा था तब कृष्णवर्ण का एक मनुष्य उत्तर दिशा से आकर यह कहने लगा कि यह यज्ञ का धन मेरा है--- 

नाभाग बोला कि मेरा है, मुझको ऋषियों ने दिया है।


वह मनुष्य बोला हमारे तेरे इस झगड़े का निबटारा तेरा पिता ही करेगा, चल उसके पास चलें।


तब नाभाग ने पिता से पूछा । तब उसके पिता ने कहा कि यह भूमि में शेष रहा हुआ धन सब रुद्र का है ऐसा दक्ष के यज्ञ में ऋषियों ने निर्णय कर दिया है इससे यह सब धन इन्ही का हो। 


तब नामाग नमस्कार करने लगा, हे प्रभु ! यह सब द्रव्य आप ही का है यही मेरे पिता ने कहा है, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। यह सुन वह बोला तेरे पिता से धर्म की बात कही और तू सच बोलता है इसलिये मेरे अनुग्रह से तुझको ब्रह्मा का साक्षातकार हो। यह यज्ञ का शेष द्रव्य भी तुझको देता हूँ तू इसे ले यह कह कर रुद्र भगवान अन्त र्ध्यान हो गये


उसी नाभाग का पुत्र अम्बरीष हुआ जिसका बाह्मणों के शाप से कुछ भी अनिष्ट न हुआ। 



परीक्षित ने पूछा हे मुनिवर ! मैं उस राजर्षि का चरित्र सुनना चाहता हूँ कि ब्रह्म दण्ड भी जिसका कुछ न कर सकता था। श्री शुकदेव जी बोले- हे महा भाग ! अम्बरीष को सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी, अक्षय लक्ष्मी और अतुल वैभव मिल गया था। इन सब वस्तुओं को पाकर भी वह उनको तुच्छ और स्वप्नवत समझने लगा। भगवान और उनके भक्त साधुजनों में अम्बरीष की ऐसी दृढ़ प्रीति थी कि वह इस जगत को मिट्टी के ढेले के समान जानता था। 

इससे अपना मन श्री कृष्ण के चरणारविन्दों में, वाणी- भगवद्गुण वर्णन में, हाथ- हरि मन्दिर की स्वच्छता में, कान- भगवान को कथा सुनने में, नेत्र- भगवान के दर्शनों और भगवद्भक्तों के अंगों में अपने अंग लगा दिये। भगवान के चरणों पर रक्खी हुई तुलसी के सूघने में नाक और भगवान का अर्पण किया हुआ प्रसाद पाने में जिह्वा लगा दी। तीर्थ यात्रा में चरण और हृषी केष के में नमस्कार करने को सिर लगा दिया। उसकी सेवा दास्यभाव की थी, किन्तु विषयों की भावना से वह सेवा नहीं करता था। इसकी अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने इसकी रक्षा के लिये अपना सुदर्शनचक्र नियत कर दिया | अपने समान शीलवाली रानी के संग कृष्ण भगवान की आराधना के लिए इसने एक वर्ष के एकादशी के व्रतों का संकल्प लिया। फिर मथुरा में जाकर कार्तिक महीने में ब्रत के अन्त में तीन दिन उपवास कर यमुनाजी में स्नान कर मधुवन को चला गया। और वहाँ भगवान का पूजन करने लगा तथा सब सामग्रियों को इकटठा कर महाअभिषेक विधि से भगवान को स्नान कराय गन्ध, फूल, माला आदि चढ़ाय, स्वच्छ वस्त्र पहराय हृदय से भगवान के पूजन में तत्पर हुआ। 

तत्पश्चात् साठ करोड़ गौ साधु, ब्राह्मणों को दीं। सन्तुष्ट हुए ब्राह्मणों
की आज्ञा से राजा पारण करने को ही था कि इतने में दुर्वासा ऋषि अतिथि बनकर आ गये। 

राजा वे उठकर अध्यपाद्य अर्पण कर बैठने को आसन दिया और चरणों में गिरकर भोगन करने के लिए प्रार्थना की। 











राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ऋषि मध्यान्ह सन्ध्या करने के लिये गये और कालिन्दी के पवित्र जल में स्नान कर भगवान का ध्यान करने लगे। व्रत खोलने के लिए द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रही थी। इससे राजा बड़े धर्म संकट में पड़ गया और ब्राह्मणों के साथ विचार करने लगा। 

  हे ब्राह्मणो ! ब्राह्मण अतिक्रमण में दोष है अथवा द्वादशी में व्रत न खोलने में दोष है ? इन दोनों में से मुझको वह काम बतलाइये, जिससे अधर्म मुझको स्पर्श न कर सके। 

मेरी समझ में जल से पारण करना आता है क्योंकि जलभक्षण भोजन करने में गिना भी है और नहीं भी गिना है। इसी तरह राजर्षि जल से पारण कर दुर्वासा के आने की प्रतीक्षा करने लगा। इतने ही में दुर्वासा भी नित्यकर्म से निश्चिन्त हो वहाँ आये, राजा ने उठकर आदर किया, परन्तु बुद्धि से राजा की चेष्टा देख कर पहचान लिया कि इसने कुछ पारण किया है । उसी समय क्रोध से भृकुटी चढ़ा दुर्वासा ने कहा---- 

" देखो, इस लक्ष्मी के वैभव से उन्मत्त विष्णु के अभक्त राजा ने मुझ अतिथि का निमन्त्रण करके बिना मुझको भोजन कराये स्वयं भोजन कर लिया इसका फल इसे इसी समय चखाऊंगा। " 

यह कह अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर क्रोध के मारे उससे कालाग्नि के समान एक कृत्या उत्पन्न की परन्तु भगवान ने तो अपने भक्त की रक्षा के जिये सुदर्शन चक्र को पहिले ही नियत कर दिया था। उसने(सुदर्शन चक्र) कृत्या को ऐसा जला दिया जैसा क्रोधी सर्प को अग्नि जला देती है। अपने प्रयोग को निष्फल और चक्र को अपने पीछे आता देख प्राणों की रक्षा के लिए दुर्वासा दिशाओं में भाग चले। लोकपाल, स्वर्ग आदि में जहाँ-जहां वह गये वहां वहां सुदर्शन भी पीछे लगा चला गया। जब किसी ने भी इन्हें शरण न दी तब ब्रह्मा की शरण गये और कहने लगे--- 

" हे आत्म योने ! मेरी इस अजेय तेज से रक्षा कीजिये।" 

ब्रह्मा बोले- ----" हे मुनिवर ! मैं महादेव, दक्ष, भृग, भूतेष सब ही उसकी आज्ञा को सिर पर धारण कर यथा नियम लोकहित कार्य करते रहते हैं, फिर हम उससे बर्हिमुख को कैसे शरण दे सकते हैं ?" 

जब ब्रह्मा ने ऐसा सूखा उत्तर दे दिया तब महादेवजी की शरण गये। महादेव कहने लगे----
"हे तात ! मैं, सनत्कुमार, नारद, ब्रह्मा, कपिल, मरिच्यादि बड़े बड़े सिद्ध पारदर्शी सब हो उसकी माया से मोहित हो रहे हैं। यह उसी बिश्वेश्वर का असह्यशस्त्र है सो उसी की शरण जाओ, वही रक्षा करेगा |" 

तब दुर्वासा निराश होकर भगवद्धाम में गये जहां स्वयं लक्ष्मी सहित भगवान विराजते थे। उस अजित शस्त्र की ज्वाला से जलते-कांपते हुये उनके चरण कमल पर जा पड़े और कहने लगे---- 

"हे विश्व भगवान ! मैं अपराधी हूँ, मेरी रक्षा करो। मैंने आपके प्रभाव को न जानकर आपके प्रियों का अपराध किया है इससे मेरा प्रायश्चित कराइये।" 

भगवान बोले-----
" हे द्विज ! मैं भक्तों के आधीन हूँ। स्वतन्त्र नहीं हूँ, मैं भक्तों का और भक्त मेरे प्यारे हैं इन्हीं महात्माओं ने मेरे हृदय पर अधिकार कर लिया है। मैं अपने भक्त और साधुजनों के बिना अपनी आत्मा और अत्यन्त निकटवर्ती लक्ष्मी को भी नहीं चाहता हूँ । समदर्शी साधु मुझ में मन लगाकर मुझे भक्ति से वश में कर लेते हैं। जैसे कुलवती स्त्री अपने सन्मार्गी पति को अपने वश में कर लेती है।" 

हे विप्र मैं उपाय बताता हूँ तुम वही करो, जिसका तुमने अपराध किया है उसी के पास जाओ । क्योंकि जो तेज साधुओं पर चलाया जाता है वह तेज चलाने वाले का अमंगल करता है । तप और विद्या ये दोनों ब्राह्मण के लिये श्रेयस्कर है, परन्तु दुविनीत के लिये ये अमंगल-स्वरूप हैं।



।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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The events, the calculations, the facts aren't depicted by any living sources. These are completely same as depicted in our granths. So you can easily formulate or access the power of SANATANA. Jai shree Krishna.🙏ॐ


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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।

 Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!

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