सुख सागर कथा।। समुद्र मंथन भाग ४।।मोहिनी अवतार।।

श्री शुकदेव जी बोले- हे राजन्! उस सुंदर मोहिनी स्त्री को अपनी ओर आते हुए देखकर सारे देव व दैत्य उसकी सुंदरता को देखकर अपनी सुध बुध खो बैठे और अमृत पीना भूल गए।   तब मोहिनी रूप परमेश्वर ने दैत्यों की तरफ बड़ी प्रेम भरी दृष्टि डाली तो वे सब अपने मन में सोचने लगे कि इस सुंदर रूपवती स्त्री से सुंदर स्त्री तो   तीनों लोकों में भी नहीं हो सकती। अतः हम आपस में लड़ने की जगह इसे अपना पंच नियुक्त कर अमृत का फैसला इस मोहिनी से करवा लेते हैं।   यह सोचकर वह दैत्य उस मोहिनी रूप धारी प्रभु के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना भरे स्वरों में बोले- हे सुंदरी! हम दैत्यों और देवों का अमृत के लिए आपस में झगड़ा हो रहा है, हम आपको अपना पंच नियुक्त कर रहे हैं, आप जिस प्रकार भी फैसला लेगी हमें मजूर होगा। आप अपने हिसाब से यह अमृत बांटकर हमारा झगड़ा खत्म कर दें।   मोहिनी रूपधारी परमेश्वर दैत्यों की यह बात सुनकर चुपचाप आगे चले दिए, तो समस्त दैत्य हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए बोले--   हे सुन्दरी! हम सदैव आपका गुणगान करते रहेंगे, अतएव आप हमारी विनती मान लो हमें निराश मत करो।    दैत्यों की इस प्रकार याचना भरी विनती मोहिनी रूपधारी प्रभु बोले----   --- हे दैत्यों! मुझ पर इतना विश्वास प्रदर्शन कर अपना पंच बनाना उचित नहीं है।  क्योंकि आप अपनी भलाई सोचने की अपने मन में अच्छी तरह विचाकर ही मुझे अपना पंच बनाइए। क्योंकि यदि तुम मुझे अपना पंच बनाओगे तो मैं तो तुम्हें ही नहीं देवताओं को भी अमृत पिलाऊंगी क्योंकि अमृत पाने में तुम दोनों ने बराबर मेहनत की है।  इस कारण इस अमृत पर केवल तुम्हारा ही नहीं देवताओं का भी पूर्ण अधिकार है।    मोहिनी रूपधारी प्रभु के मुख से यह वचन सुनकर समस्त दैत्य एक स्वर में बोले ----   – हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच बनाया है. इसलिए आपको जो भी उचित लगे वह करें, हमें आपकी हर बात मंजूर है।    दैत्यों की यह बात सुनकर मोहिनी रूप प्रभु बोले---- --- यह अमृत पवित्र है। अतएव आप सब स्नान करने के पश्चात् इसका पान करें।   मोहिनी रूप प्रभु के मुख से यह सब सुनते ही देवता व दैत्य तुरंत स्नान करने चले गए और फिर स्नान करने के पश्चात् सब सुंदर वस्त्र और आभूषण पहनकर पवित्र बनकर कुशा के आसन पर बैठ गए। फिर मोहिनी रूपधारी प्रभु अपने हाथ में उस पवित्र अमृत का कलश लेकर बोले---    ---हे असुरों! मैं सर्वप्रथम यह अमृत देवताओं को पिलाऊंगी फिर के पश्चात् तुमको पिलाऊंगी।    मोहिनी रूप प्रभु की बात सुनकर दैत्य एक ही स्वर में बोले - हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच किया है आप जो भी करेंगी, हमें मंजूर है। हे राजन! इसके बाद मोहिनी रूपधारी प्रभु ने देवताओं को अमृत पिलाना शुरू कर दिया। समस्त देव अमृत पी चुके और केवल सूर्य एवं चंद्रमा बाकी रह गए। तब दैत्य राहु देवता का रूप धारण कर उनके बीच में चुपचाप बैठ गया।   सूर्य को अमृत पिलाकर भगवान् जैसे ही राहु को अमृत पिलाने लगे; तो सूर्य एवं चंद्रमा एकदम चिल्लाकर बोले- हे प्रभु! इस दैत्य राहु को यह अमृत मत पिलाइए।"   हे राजन्! प्रभु ने जैसे ही सूर्य एवं चंद्रमा बात सुनी तो उन्होंने राहु का अमृत पिलाना बंद कर शेष जो अमृत था वह सारा अमृत चंद्रमा को पिला दिया तथा तुरंत ही अपने सुदर्शन चक्र से राहु के सिर को धड़ से अलग कर दिया।   लेकिन अमृत की वजह से उस राक्षस के दो राक्षस हो गए अर्थात् सिर का राहु धड़ का केतु हो गया।   तब प्रभु बोले- तुमने देवों में बैठकर अमृतपान किया है, इसलिए तुम्हारी गिनती आज से राक्षसों में नहीं नवग्रहों में होगी है। उस दिन से राहु और केतु की गणना नवग्रहों में होती है तथा तभी से राहु और केतु सूर्य एवं चंद्रमा से शत्रुता रखते हैं। लेकिन सदैव सुदर्शन चक्र उनकी सहायता करता है।   सूत जी बोले- हे मुनीश्वरो ! प्रभु श्री हरि विष्णु जी ने राक्षसों को अमृत इसलिए नहीं पिलाया क्योंकि जिस तरह सर्पों को दुग्ध पिलाने से उसमें (विष) जहर बढ़ता है। उसी प्रकार दैत्यों को अमृत पिलाने से दुष्टता ही बढ़ेगी।

श्री शुकदेव जी बोले- हे राजन्! उस सुंदर मोहिनी स्त्री को अपनी ओर आते हुए देखकर सारे देव व दैत्य उसकी सुंदरता को देखकर अपनी सुध बुध खो बैठे और अमृत पीना भूल गए।   तब मोहिनी रूप परमेश्वर ने दैत्यों की तरफ बड़ी प्रेम भरी दृष्टि डाली तो वे सब अपने मन में सोचने लगे कि इस सुंदर रूपवती स्त्री से सुंदर स्त्री तो   तीनों लोकों में भी नहीं हो सकती। अतः हम आपस में लड़ने की जगह इसे अपना पंच नियुक्त कर अमृत का फैसला इस मोहिनी से करवा लेते हैं।   यह सोचकर वह दैत्य उस मोहिनी रूप धारी प्रभु के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना भरे स्वरों में बोले- हे सुंदरी! हम दैत्यों और देवों का अमृत के लिए आपस में झगड़ा हो रहा है, हम आपको अपना पंच नियुक्त कर रहे हैं, आप जिस प्रकार भी फैसला लेगी हमें मजूर होगा। आप अपने हिसाब से यह अमृत बांटकर हमारा झगड़ा खत्म कर दें।   मोहिनी रूपधारी परमेश्वर दैत्यों की यह बात सुनकर चुपचाप आगे चले दिए, तो समस्त दैत्य हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए बोले--   हे सुन्दरी! हम सदैव आपका गुणगान करते रहेंगे, अतएव आप हमारी विनती मान लो हमें निराश मत करो।    दैत्यों की इस प्रकार याचना भरी विनती मोहिनी रूपधारी प्रभु बोले----   --- हे दैत्यों! मुझ पर इतना विश्वास प्रदर्शन कर अपना पंच बनाना उचित नहीं है।  क्योंकि आप अपनी भलाई सोचने की अपने मन में अच्छी तरह विचाकर ही मुझे अपना पंच बनाइए। क्योंकि यदि तुम मुझे अपना पंच बनाओगे तो मैं तो तुम्हें ही नहीं देवताओं को भी अमृत पिलाऊंगी क्योंकि अमृत पाने में तुम दोनों ने बराबर मेहनत की है।  इस कारण इस अमृत पर केवल तुम्हारा ही नहीं देवताओं का भी पूर्ण अधिकार है।    मोहिनी रूपधारी प्रभु के मुख से यह वचन सुनकर समस्त दैत्य एक स्वर में बोले ----   – हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच बनाया है. इसलिए आपको जो भी उचित लगे वह करें, हमें आपकी हर बात मंजूर है।    दैत्यों की यह बात सुनकर मोहिनी रूप प्रभु बोले---- --- यह अमृत पवित्र है। अतएव आप सब स्नान करने के पश्चात् इसका पान करें।   मोहिनी रूप प्रभु के मुख से यह सब सुनते ही देवता व दैत्य तुरंत स्नान करने चले गए और फिर स्नान करने के पश्चात् सब सुंदर वस्त्र और आभूषण पहनकर पवित्र बनकर कुशा के आसन पर बैठ गए। फिर मोहिनी रूपधारी प्रभु अपने हाथ में उस पवित्र अमृत का कलश लेकर बोले---    ---हे असुरों! मैं सर्वप्रथम यह अमृत देवताओं को पिलाऊंगी फिर के पश्चात् तुमको पिलाऊंगी।    मोहिनी रूप प्रभु की बात सुनकर दैत्य एक ही स्वर में बोले - हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच किया है आप जो भी करेंगी, हमें मंजूर है। हे राजन! इसके बाद मोहिनी रूपधारी प्रभु ने देवताओं को अमृत पिलाना शुरू कर दिया। समस्त देव अमृत पी चुके और केवल सूर्य एवं चंद्रमा बाकी रह गए। तब दैत्य राहु देवता का रूप धारण कर उनके बीच में चुपचाप बैठ गया।   सूर्य को अमृत पिलाकर भगवान् जैसे ही राहु को अमृत पिलाने लगे; तो सूर्य एवं चंद्रमा एकदम चिल्लाकर बोले- हे प्रभु! इस दैत्य राहु को यह अमृत मत पिलाइए।"   हे राजन्! प्रभु ने जैसे ही सूर्य एवं चंद्रमा बात सुनी तो उन्होंने राहु का अमृत पिलाना बंद कर शेष जो अमृत था वह सारा अमृत चंद्रमा को पिला दिया तथा तुरंत ही अपने सुदर्शन चक्र से राहु के सिर को धड़ से अलग कर दिया।   लेकिन अमृत की वजह से उस राक्षस के दो राक्षस हो गए अर्थात् सिर का राहु धड़ का केतु हो गया।   तब प्रभु बोले- तुमने देवों में बैठकर अमृतपान किया है, इसलिए तुम्हारी गिनती आज से राक्षसों में नहीं नवग्रहों में होगी है। उस दिन से राहु और केतु की गणना नवग्रहों में होती है तथा तभी से राहु और केतु सूर्य एवं चंद्रमा से शत्रुता रखते हैं। लेकिन सदैव सुदर्शन चक्र उनकी सहायता करता है।   सूत जी बोले- हे मुनीश्वरो ! प्रभु श्री हरि विष्णु जी ने राक्षसों को अमृत इसलिए नहीं पिलाया क्योंकि जिस तरह सर्पों को दुग्ध पिलाने से उसमें (विष) जहर बढ़ता है। उसी प्रकार दैत्यों को अमृत पिलाने से दुष्टता ही बढ़ेगी।

श्री शुकदेव जी बोले- हे राजन्! उस सुंदर मोहिनी स्त्री को अपनी ओर आते हुए देखकर सारे देव व दैत्य उसकी सुंदरता को देखकर अपनी सुध बुध खो बैठे और अमृत पीना भूल गए।   तब मोहिनी रूप परमेश्वर ने दैत्यों की तरफ बड़ी प्रेम भरी दृष्टि डाली तो वे सब अपने मन में सोचने लगे कि इस सुंदर रूपवती स्त्री से सुंदर स्त्री तो   तीनों लोकों में भी नहीं हो सकती। अतः हम आपस में लड़ने की जगह इसे अपना पंच नियुक्त कर अमृत का फैसला इस मोहिनी से करवा लेते हैं।   यह सोचकर वह दैत्य उस मोहिनी रूप धारी प्रभु के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना भरे स्वरों में बोले- हे सुंदरी! हम दैत्यों और देवों का अमृत के लिए आपस में झगड़ा हो रहा है, हम आपको अपना पंच नियुक्त कर रहे हैं, आप जिस प्रकार भी फैसला लेगी हमें मजूर होगा। आप अपने हिसाब से यह अमृत बांटकर हमारा झगड़ा खत्म कर दें।   मोहिनी रूपधारी परमेश्वर दैत्यों की यह बात सुनकर चुपचाप आगे चले दिए, तो समस्त दैत्य हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए बोले--   हे सुन्दरी! हम सदैव आपका गुणगान करते रहेंगे, अतएव आप हमारी विनती मान लो हमें निराश मत करो।    दैत्यों की इस प्रकार याचना भरी विनती मोहिनी रूपधारी प्रभु बोले----   --- हे दैत्यों! मुझ पर इतना विश्वास प्रदर्शन कर अपना पंच बनाना उचित नहीं है।  क्योंकि आप अपनी भलाई सोचने की अपने मन में अच्छी तरह विचाकर ही मुझे अपना पंच बनाइए। क्योंकि यदि तुम मुझे अपना पंच बनाओगे तो मैं तो तुम्हें ही नहीं देवताओं को भी अमृत पिलाऊंगी क्योंकि अमृत पाने में तुम दोनों ने बराबर मेहनत की है।  इस कारण इस अमृत पर केवल तुम्हारा ही नहीं देवताओं का भी पूर्ण अधिकार है।    मोहिनी रूपधारी प्रभु के मुख से यह वचन सुनकर समस्त दैत्य एक स्वर में बोले ----   – हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच बनाया है. इसलिए आपको जो भी उचित लगे वह करें, हमें आपकी हर बात मंजूर है।    दैत्यों की यह बात सुनकर मोहिनी रूप प्रभु बोले---- --- यह अमृत पवित्र है। अतएव आप सब स्नान करने के पश्चात् इसका पान करें।   मोहिनी रूप प्रभु के मुख से यह सब सुनते ही देवता व दैत्य तुरंत स्नान करने चले गए और फिर स्नान करने के पश्चात् सब सुंदर वस्त्र और आभूषण पहनकर पवित्र बनकर कुशा के आसन पर बैठ गए। फिर मोहिनी रूपधारी प्रभु अपने हाथ में उस पवित्र अमृत का कलश लेकर बोले---    ---हे असुरों! मैं सर्वप्रथम यह अमृत देवताओं को पिलाऊंगी फिर के पश्चात् तुमको पिलाऊंगी।    मोहिनी रूप प्रभु की बात सुनकर दैत्य एक ही स्वर में बोले - हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच किया है आप जो भी करेंगी, हमें मंजूर है। हे राजन! इसके बाद मोहिनी रूपधारी प्रभु ने देवताओं को अमृत पिलाना शुरू कर दिया। समस्त देव अमृत पी चुके और केवल सूर्य एवं चंद्रमा बाकी रह गए। तब दैत्य राहु देवता का रूप धारण कर उनके बीच में चुपचाप बैठ गया।   सूर्य को अमृत पिलाकर भगवान् जैसे ही राहु को अमृत पिलाने लगे; तो सूर्य एवं चंद्रमा एकदम चिल्लाकर बोले- हे प्रभु! इस दैत्य राहु को यह अमृत मत पिलाइए।"   हे राजन्! प्रभु ने जैसे ही सूर्य एवं चंद्रमा बात सुनी तो उन्होंने राहु का अमृत पिलाना बंद कर शेष जो अमृत था वह सारा अमृत चंद्रमा को पिला दिया तथा तुरंत ही अपने सुदर्शन चक्र से राहु के सिर को धड़ से अलग कर दिया।   लेकिन अमृत की वजह से उस राक्षस के दो राक्षस हो गए अर्थात् सिर का राहु धड़ का केतु हो गया।   तब प्रभु बोले- तुमने देवों में बैठकर अमृतपान किया है, इसलिए तुम्हारी गिनती आज से राक्षसों में नहीं नवग्रहों में होगी है। उस दिन से राहु और केतु की गणना नवग्रहों में होती है तथा तभी से राहु और केतु सूर्य एवं चंद्रमा से शत्रुता रखते हैं। लेकिन सदैव सुदर्शन चक्र उनकी सहायता करता है।   सूत जी बोले- हे मुनीश्वरो ! प्रभु श्री हरि विष्णु जी ने राक्षसों को अमृत इसलिए नहीं पिलाया क्योंकि जिस तरह सर्पों को दुग्ध पिलाने से उसमें (विष) जहर बढ़ता है। उसी प्रकार दैत्यों को अमृत पिलाने से दुष्टता ही बढ़ेगी।

समुद्र मंथन के 14 रत्न, समुद्र मंथन की कथा, समुद्र मंथन कहां हुआ था, समुद्र मंथन का अर्थ, समुद्र मंथन क्यों हुआ, समुद्र मंथन की कथा, समुद्र मंथन, समुद्र मंथन कब हुआ था, समुद्र मंथन से निकला हाथी


नवीन सुख सागर कथा

श्रीमद भागवद पुराण नवां अध्याय स्कंध ८
भगवान का मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों से अमृत कलश लेना।।



श्री शुकदेव जी बोले- हे राजन्! उस सुंदर मोहिनी स्त्री को अपनी ओर आते हुए देखकर सारे देव व दैत्य उसकी सुंदरता को देखकर अपनी सुध बुध खो बैठे और अमृत पीना भूल गए। 

तब मोहिनी रूप परमेश्वर ने दैत्यों की तरफ बड़ी प्रेम भरी दृष्टि डाली तो वे सब अपने मन में सोचने लगे कि इस सुंदर रूपवती स्त्री से सुंदर स्त्री तो   तीनों लोकों में भी नहीं हो सकती। अतः हम आपस में लड़ने की जगह इसे अपना पंच नियुक्त कर अमृत का फैसला इस मोहिनी से करवा लेते हैं। 

नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १






हिरण्यकश्यपु का नरसिंह द्वारा विनाश।। महभक्त प्रह्लाद की कथा भाग 


प्रह्लाद द्वारा भगवान का स्तवन। महाभक्त प्रह्लाद की कथा भाग ५।।

यह सोचकर वह दैत्य उस मोहिनी रूप धारी प्रभु के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना भरे स्वरों में बोले- हे सुंदरी! हम दैत्यों और देवों का अमृत के लिए आपस में झगड़ा हो रहा है, हम आपको अपना पंच नियुक्त कर रहे हैं, आप जिस प्रकार भी फैसला लेगी हमें मजूर होगा। आप अपने हिसाब से यह अमृत बांटकर हमारा झगड़ा खत्म कर दें। 

मोहिनी रूपधारी परमेश्वर दैत्यों की यह बात सुनकर चुपचाप आगे चले दिए, तो समस्त दैत्य हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए बोले-- 

हे सुन्दरी! हम सदैव आपका गुणगान करते रहेंगे, अतएव आप हमारी विनती मान लो हमें निराश मत करो। 


दैत्यों की इस प्रकार याचना भरी विनती मोहिनी रूपधारी प्रभु बोले---- 
--- हे दैत्यों! मुझ पर इतना विश्वास प्रदर्शन कर अपना पंच बनाना उचित नहीं है।  क्योंकि आप अपनी भलाई सोचने की अपने मन में अच्छी तरह विचाकर ही मुझे अपना पंच बनाइए। क्योंकि यदि तुम मुझे अपना पंच बनाओगे तो मैं तो तुम्हें ही नहीं देवताओं को भी अमृत पिलाऊंगी क्योंकि अमृत पाने में तुम दोनों ने बराबर मेहनत की है।  इस कारण इस अमृत पर केवल तुम्हारा ही नहीं देवताओं का भी पूर्ण अधिकार है। 


मोहिनी रूपधारी प्रभु के मुख से यह वचन सुनकर समस्त दैत्य एक स्वर में बोले ---- 

– हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच बनाया है. इसलिए आपको जो भी उचित लगे वह करें, हमें आपकी हर बात मंजूर है। 


दैत्यों की यह बात सुनकर मोहिनी रूप प्रभु बोले----

 

--- यह अमृत पवित्र है। अतएव आप सब स्नान करने के पश्चात् इसका पान करें।


मोहिनी रूप प्रभु के मुख से यह सब सुनते ही देवता व दैत्य तुरंत स्नान करने चले गए और फिर स्नान करने के पश्चात् सब सुंदर वस्त्र और आभूषण पहनकर पवित्र बनकर कुशा के आसन पर बैठ गए। फिर मोहिनी रूपधारी प्रभु अपने हाथ में उस पवित्र अमृत का कलश लेकर बोले---



---हे असुरों! मैं सर्वप्रथम यह अमृत देवताओं को पिलाऊंगी फिर के पश्चात् तुमको पिलाऊंगी। 


मोहिनी रूप प्रभु की बात सुनकर दैत्य एक ही स्वर में बोले - हे सुंदरी! हमने आपको अपना पंच किया है आप जो भी करेंगी, हमें मंजूर है। हे राजन! इसके बाद मोहिनी रूपधारी प्रभु ने देवताओं को अमृत पिलाना शुरू कर दिया। समस्त देव अमृत पी चुके और केवल सूर्य एवं चंद्रमा बाकी रह गए। तब दैत्य राहु देवता का रूप धारण कर उनके बीच में चुपचाप बैठ गया। 

सूर्य को अमृत पिलाकर भगवान् जैसे ही राहु को अमृत पिलाने लगे; तो सूर्य एवं चंद्रमा एकदम चिल्लाकर बोले- हे प्रभु! इस दैत्य राहु को यह अमृत मत पिलाइए।"




 


हे राजन्! प्रभु ने जैसे ही सूर्य एवं चंद्रमा बात सुनी तो उन्होंने राहु का अमृत पिलाना बंद कर शेष जो अमृत था वह सारा अमृत चंद्रमा को पिला दिया तथा तुरंत ही अपने सुदर्शन चक्र से राहु के सिर को धड़ से अलग कर दिया। 

लेकिन अमृत की वजह से उस राक्षस के दो राक्षस हो गए अर्थात् सिर का राहु धड़ का केतु हो गया। 

तब प्रभु बोले- तुमने देवों में बैठकर अमृतपान किया है, इसलिए तुम्हारी गिनती आज से राक्षसों में नहीं नवग्रहों में होगी है। उस दिन से राहु और केतु की गणना नवग्रहों में होती है तथा तभी से राहु और केतु सूर्य एवं चंद्रमा से शत्रुता रखते हैं। लेकिन सदैव सुदर्शन चक्र उनकी सहायता करता है। 

सूत जी बोले- हे मुनीश्वरो ! प्रभु श्री हरि विष्णु जी ने राक्षसों को अमृत इसलिए नहीं पिलाया क्योंकि जिस तरह सर्पों को दुग्ध पिलाने से उसमें (विष) जहर बढ़ता है। उसी प्रकार दैत्यों को अमृत पिलाने से दुष्टता ही बढ़ेगी।


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


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श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!
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