सुख सागर कथा।। समुद्र मंथन भाग ३।। लक्ष्मी माता की उत्पत्ति।।मोहिनी अवतार।।


नवीन सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण आठवां अध्याय स्कंध ८ (भगवान का मोहिनी रूप धारण करना)   दो० लक्ष्मी प्रगटी विष्णु तब, वरण प्रेम सों कीन्ह। अमृत हित जस विष्णु ने, रूप में मोहिनी लीन्ह।।   श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन् ! महादेवजी के विष-पान कर लेने पर प्रसन्न हुए देव दानवों के गण बड़े वेग से फिर समुद्र को मथने लगे।   तब उस समुद्र में से सुरभी नामक गौ उत्पन्न हुई। उस गौ को ऋषियों ने ले लिया जिससे यज्ञों की और अग्निहोत्र की सफलता होती है।   उससे पीछे श्वेतवर्ण का उच्चैःश्रवा नाम घोड़ा निकला इसके लिये राजा बलि ने इच्छा की।   फिर ऐरावत हाथी निकला जिसके चार दाँत थे।   अनन्तर कौस्तुभ नाम की पद्मराग मणि निकली, इसे भगवान ने ग्रहण कर लिया और उसने अपने वक्षस्थल को भूषित कर लिया।   फिर देवलोक को अलंकृत करने वाला कल्प वृक्ष और अप्सरायें उत्पन्न हुई।   तदन्तर साक्षात लक्ष्मी उत्पन्न हुई ये भगवान में अत्यन्त तत्पर थीं, इनके रूप, उदारता, नववय, वर्ण और कान्ति से देवता अपनी सुध बुत्र भूल गये।   इन्द्र लक्ष्मी के लिये एक अत्यन्त अद्भत चौकी ले आया और गङ्गादि नदियां मूर्तिमान हो-होकर सुवर्ण के कलशों में पवित्र जल भर लाई। अभिषेक में काम आने वाली सम्पूर्ण औषधियों को पृथ्वी लाई, गौ ने पंचगव्य और वसन्तराज ने चैत वैशाख में होने वाले पुष्प भेंट में लाकर रख दिये।   इन सब सामग्रियों के इकट्ठा हो जाने पर ऋषियों ने वेद की विधि से अभिषेक कराया। गन्धर्वगण मांगलिक गान करने लगे, और सब मेघगण आकर मृदङ्ग, सुरज, वीणा आदि बाजों को करने लगा। जब अभिषेक हो चुका तब समुद्र ने रेशमी पीत वस्त्र दिये और वरुण ने ऐसी वैजन्ती माला दी, कि जिसके चारों ओर मत्त भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे।   विश्वकर्मा ने अनेक प्रकार के चित्र विचित्र आभूषण दिये। सरस्वती ने हार। ब्रह्मा ने कमल। और नागों ने कुण्डल दिये। इस तरह स्वस्तिवाचन होने के पीछे भौरों से शब्दायमान कमल की माला को हाथ में लेकर सुन्दर कपोलों पर कुण्डल और लज्जा सहित मन्द हसन युक्त, सुख की अपूर्व शोभा धारण करती हुई लक्ष्मीजी चली। वे इधर उधर आंख फेर फेरकर चारों ओर अपने अनुरूप सद्गुणों से युक्त पति को ढूंढ़ती, परन्तु गन्धर्व, असुर, यक्ष, सिद्ध चारण, देवता आदि किसी में कोई भी उनकी इच्छा के अनुकूल न निकला, तब लक्ष्मी ने कहा कि तुम सब सुर, असुर बराबर बैठ जाओ जिसको मेरी आत्मा कहेगी उसकी मैं अपना पति चुनुंगी, यह कहकर जयमाला हाथ में लेकर एक एक को देखती चलीं तब जो कोई तपस्वी है उनमें है उनमें क्रोध देखा और जो कोई ज्ञानी हैं उनमें संग त्याग नहीं देखा, कोई महान है उनमें काम त्याग नहीं देखा और जो इन्द्रादिक ईश्वर हैं पराश्रय देखे । जो धर्माचरणी हैं उनमें प्राणियों पर अनुकम्पा नहीं देखी, किसी-किसी में त्याग है परन्तु वह त्याग मुक्ति का कारण नहीं देखा, कोई-कोई पराक्रमी तो हैं परन्तु उनसे काल का वेग नहीं रुक सकता है, कोई-कोई गुण विशिष्ठ और सङ्ग रहित तो हैं परन्तु वे सदा समाधिनिष्ठ रहते हैं, कोई कोई दीर्घजीवी हैं परन्तु उनका स्वभाव अच्छा नहीं देखा, कोई-कोई सुस्वभाव हैं परन्तु आयु का ठिकाना नहीं देखा, कोई-कोई में शील और दीर्घायु दोनों हैं परन्तु वे मङ्गल रूप नहीं देखे, और जो सब प्रकार से मङ्गलरूप हैं वे मेरी इच्छा ही नहीं करते हैं। इस तरह सोच विचार कर आचार सहित, सद्गुणों से युक्त और माया के गुणों के सम्बन्ध मात्र से रहित श्रीहरि भगवान को लक्ष्मी ने अपना पति बनाया।   मत्त-भ्रमरों के गुंजार से कूजित नवीन पद्ममाला को उनके कण्ठ में डालकर लज्जा और हास्थ से युक्त अपने प्रफुल्लित नेत्रों से अपने रहने के स्थान वक्षःस्थल को देखती हुई लक्ष्मी भगवान के निकट हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई।   तब भगवान ने उस त्रिलोक-जननी को रहने के लिये अपने वक्षःस्थल में निवास दिया।   उस समय ब्रह्मा, रुद्र और अंगरादि विश्व के सृजने वाले सब ऋषिगण सत्य मन्त्रों से भगवान की स्तुति करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे।   तदनन्तर जब फिर देव दैत्यों ने समुद्र को मथा। तब कन्यारूप वारुणी देवी उत्पन्न हुई उसे भगवान की अनुमति से देवताओं ग्रहण न किया, तब दैत्यों ने उसको ग्रहण किया।   तदनन्तर जब देव दानव फिर समुद्र को मथने लगे तब एक परम अद्भुन पुरुष समुद्र से उत्पन्न हुआ इसका नाम धन्वन्तरि था, यह आयुर्वेद का प्रवर्तक और यज्ञ के भाग को भोगने वाले थे। इसको और अमृत से भरे हुए कलश को देखकर असुरगण देवों के हाथ से अमृत के कलश को छीनकर ले गये और कहने लगे कि भाई तुम कामधेनु, कल्प-वृक्ष, ऐरावत, उच्चैःश्रवा, आदि अनेक चीजें ले चुके हो इसको हम पीवेंगे। इस प्रकार कहकर जब वे असुर अमृत कलश को ले गये।   तब देवता अति दुःखित होकर भगवान की शरण गये। उस समय भगवान उनकी दीनदशा को देखकर बोले-    ----हे देवो! तनिक भी तुम दुःखी मत होवो मैं अपनी माया से अभी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करूँगा।   तब उसी अमृत में चित्त वाले दैत्यों में भगवान ने उसी समय आपस में ही महा कलह उत्पन्न करा दिया, सब आपस में कहने लगे कि पहिले में पीऊंगा तू नहीं, दूसरा बोला पहिले मैं पीऊंगा तू नहीं। तब कई बलहीन दैत्य कहने लगे कि देवताओं ने भी तो अमृत निकालने में समान परिश्रम किया है इससे इस सत्रयाग में उनका भाग है उनको भी मिलना चाहिये, यही, सनातन धर्म है। इस तरह ईर्ष्या करके दुर्बल दैत्य कलश वाले प्रवल दैत्यों को बार-बार रोकने लगे। इसी अवसर पर भगवान ने अनिर्वचनीय परम अद्भुत स्त्री का भेष धारण किया। वह स्त्री कामदेव की स्त्री रति के समान अपना सौन्दर्य बनाकर हाव भाव कटाक्षों से दानवों के चित्त में कामोद्दीपन करने लगी।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अष्टम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
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नवीन सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण आठवां अध्याय स्कंध ८ (भगवान का मोहिनी रूप धारण करना)   दो० लक्ष्मी प्रगटी विष्णु तब, वरण प्रेम सों कीन्ह। अमृत हित जस विष्णु ने, रूप में मोहिनी लीन्ह।।   श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन् ! महादेवजी के विष-पान कर लेने पर प्रसन्न हुए देव दानवों के गण बड़े वेग से फिर समुद्र को मथने लगे।   तब उस समुद्र में से सुरभी नामक गौ उत्पन्न हुई। उस गौ को ऋषियों ने ले लिया जिससे यज्ञों की और अग्निहोत्र की सफलता होती है।   उससे पीछे श्वेतवर्ण का उच्चैःश्रवा नाम घोड़ा निकला इसके लिये राजा बलि ने इच्छा की।   फिर ऐरावत हाथी निकला जिसके चार दाँत थे।   अनन्तर कौस्तुभ नाम की पद्मराग मणि निकली, इसे भगवान ने ग्रहण कर लिया और उसने अपने वक्षस्थल को भूषित कर लिया।   फिर देवलोक को अलंकृत करने वाला कल्प वृक्ष और अप्सरायें उत्पन्न हुई।   तदन्तर साक्षात लक्ष्मी उत्पन्न हुई ये भगवान में अत्यन्त तत्पर थीं, इनके रूप, उदारता, नववय, वर्ण और कान्ति से देवता अपनी सुध बुत्र भूल गये।   इन्द्र लक्ष्मी के लिये एक अत्यन्त अद्भत चौकी ले आया और गङ्गादि नदियां मूर्तिमान हो-होकर सुवर्ण के कलशों में पवित्र जल भर लाई। अभिषेक में काम आने वाली सम्पूर्ण औषधियों को पृथ्वी लाई, गौ ने पंचगव्य और वसन्तराज ने चैत वैशाख में होने वाले पुष्प भेंट में लाकर रख दिये।   इन सब सामग्रियों के इकट्ठा हो जाने पर ऋषियों ने वेद की विधि से अभिषेक कराया। गन्धर्वगण मांगलिक गान करने लगे, और सब मेघगण आकर मृदङ्ग, सुरज, वीणा आदि बाजों को करने लगा। जब अभिषेक हो चुका तब समुद्र ने रेशमी पीत वस्त्र दिये और वरुण ने ऐसी वैजन्ती माला दी, कि जिसके चारों ओर मत्त भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे।   विश्वकर्मा ने अनेक प्रकार के चित्र विचित्र आभूषण दिये। सरस्वती ने हार। ब्रह्मा ने कमल। और नागों ने कुण्डल दिये। इस तरह स्वस्तिवाचन होने के पीछे भौरों से शब्दायमान कमल की माला को हाथ में लेकर सुन्दर कपोलों पर कुण्डल और लज्जा सहित मन्द हसन युक्त, सुख की अपूर्व शोभा धारण करती हुई लक्ष्मीजी चली। वे इधर उधर आंख फेर फेरकर चारों ओर अपने अनुरूप सद्गुणों से युक्त पति को ढूंढ़ती, परन्तु गन्धर्व, असुर, यक्ष, सिद्ध चारण, देवता आदि किसी में कोई भी उनकी इच्छा के अनुकूल न निकला, तब लक्ष्मी ने कहा कि तुम सब सुर, असुर बराबर बैठ जाओ जिसको मेरी आत्मा कहेगी उसकी मैं अपना पति चुनुंगी, यह कहकर जयमाला हाथ में लेकर एक एक को देखती चलीं तब जो कोई तपस्वी है उनमें है उनमें क्रोध देखा और जो कोई ज्ञानी हैं उनमें संग त्याग नहीं देखा, कोई महान है उनमें काम त्याग नहीं देखा और जो इन्द्रादिक ईश्वर हैं पराश्रय देखे । जो धर्माचरणी हैं उनमें प्राणियों पर अनुकम्पा नहीं देखी, किसी-किसी में त्याग है परन्तु वह त्याग मुक्ति का कारण नहीं देखा, कोई-कोई पराक्रमी तो हैं परन्तु उनसे काल का वेग नहीं रुक सकता है, कोई-कोई गुण विशिष्ठ और सङ्ग रहित तो हैं परन्तु वे सदा समाधिनिष्ठ रहते हैं, कोई कोई दीर्घजीवी हैं परन्तु उनका स्वभाव अच्छा नहीं देखा, कोई-कोई सुस्वभाव हैं परन्तु आयु का ठिकाना नहीं देखा, कोई-कोई में शील और दीर्घायु दोनों हैं परन्तु वे मङ्गल रूप नहीं देखे, और जो सब प्रकार से मङ्गलरूप हैं वे मेरी इच्छा ही नहीं करते हैं। इस तरह सोच विचार कर आचार सहित, सद्गुणों से युक्त और माया के गुणों के सम्बन्ध मात्र से रहित श्रीहरि भगवान को लक्ष्मी ने अपना पति बनाया।   मत्त-भ्रमरों के गुंजार से कूजित नवीन पद्ममाला को उनके कण्ठ में डालकर लज्जा और हास्थ से युक्त अपने प्रफुल्लित नेत्रों से अपने रहने के स्थान वक्षःस्थल को देखती हुई लक्ष्मी भगवान के निकट हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई।   तब भगवान ने उस त्रिलोक-जननी को रहने के लिये अपने वक्षःस्थल में निवास दिया।   उस समय ब्रह्मा, रुद्र और अंगरादि विश्व के सृजने वाले सब ऋषिगण सत्य मन्त्रों से भगवान की स्तुति करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे।   तदनन्तर जब फिर देव दैत्यों ने समुद्र को मथा। तब कन्यारूप वारुणी देवी उत्पन्न हुई उसे भगवान की अनुमति से देवताओं ग्रहण न किया, तब दैत्यों ने उसको ग्रहण किया।   तदनन्तर जब देव दानव फिर समुद्र को मथने लगे तब एक परम अद्भुन पुरुष समुद्र से उत्पन्न हुआ इसका नाम धन्वन्तरि था, यह आयुर्वेद का प्रवर्तक और यज्ञ के भाग को भोगने वाले थे। इसको और अमृत से भरे हुए कलश को देखकर असुरगण देवों के हाथ से अमृत के कलश को छीनकर ले गये और कहने लगे कि भाई तुम कामधेनु, कल्प-वृक्ष, ऐरावत, उच्चैःश्रवा, आदि अनेक चीजें ले चुके हो इसको हम पीवेंगे। इस प्रकार कहकर जब वे असुर अमृत कलश को ले गये।   तब देवता अति दुःखित होकर भगवान की शरण गये। उस समय भगवान उनकी दीनदशा को देखकर बोले-    ----हे देवो! तनिक भी तुम दुःखी मत होवो मैं अपनी माया से अभी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करूँगा।   तब उसी अमृत में चित्त वाले दैत्यों में भगवान ने उसी समय आपस में ही महा कलह उत्पन्न करा दिया, सब आपस में कहने लगे कि पहिले में पीऊंगा तू नहीं, दूसरा बोला पहिले मैं पीऊंगा तू नहीं। तब कई बलहीन दैत्य कहने लगे कि देवताओं ने भी तो अमृत निकालने में समान परिश्रम किया है इससे इस सत्रयाग में उनका भाग है उनको भी मिलना चाहिये, यही, सनातन धर्म है। इस तरह ईर्ष्या करके दुर्बल दैत्य कलश वाले प्रवल दैत्यों को बार-बार रोकने लगे। इसी अवसर पर भगवान ने अनिर्वचनीय परम अद्भुत स्त्री का भेष धारण किया। वह स्त्री कामदेव की स्त्री रति के समान अपना सौन्दर्य बनाकर हाव भाव कटाक्षों से दानवों के चित्त में कामोद्दीपन करने लगी।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अष्टम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_
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नवीन सुख सागर

श्रीमद भागवद पुराण आठवां अध्याय स्कंध ८।।सुख सागर कथा।। समुद्र मंथन भाग ३।। मोहिनी अवतार।।
(भगवान का मोहिनी रूप धारण करना) 

दो० लक्ष्मी प्रगटी विष्णु तब, वरण प्रेम सों कीन्ह।
अमृत हित जस विष्णु ने, रूप में मोहिनी लीन्ह।। 

नवीन सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण आठवां अध्याय स्कंध ८ (भगवान का मोहिनी रूप धारण करना)   दो० लक्ष्मी प्रगटी विष्णु तब, वरण प्रेम सों कीन्ह। अमृत हित जस विष्णु ने, रूप में मोहिनी लीन्ह।।   श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन् ! महादेवजी के विष-पान कर लेने पर प्रसन्न हुए देव दानवों के गण बड़े वेग से फिर समुद्र को मथने लगे।   तब उस समुद्र में से सुरभी नामक गौ उत्पन्न हुई। उस गौ को ऋषियों ने ले लिया जिससे यज्ञों की और अग्निहोत्र की सफलता होती है।   उससे पीछे श्वेतवर्ण का उच्चैःश्रवा नाम घोड़ा निकला इसके लिये राजा बलि ने इच्छा की।   फिर ऐरावत हाथी निकला जिसके चार दाँत थे।   अनन्तर कौस्तुभ नाम की पद्मराग मणि निकली, इसे भगवान ने ग्रहण कर लिया और उसने अपने वक्षस्थल को भूषित कर लिया।   फिर देवलोक को अलंकृत करने वाला कल्प वृक्ष और अप्सरायें उत्पन्न हुई।   तदन्तर साक्षात लक्ष्मी उत्पन्न हुई ये भगवान में अत्यन्त तत्पर थीं, इनके रूप, उदारता, नववय, वर्ण और कान्ति से देवता अपनी सुध बुत्र भूल गये।   इन्द्र लक्ष्मी के लिये एक अत्यन्त अद्भत चौकी ले आया और गङ्गादि नदियां मूर्तिमान हो-होकर सुवर्ण के कलशों में पवित्र जल भर लाई। अभिषेक में काम आने वाली सम्पूर्ण औषधियों को पृथ्वी लाई, गौ ने पंचगव्य और वसन्तराज ने चैत वैशाख में होने वाले पुष्प भेंट में लाकर रख दिये।   इन सब सामग्रियों के इकट्ठा हो जाने पर ऋषियों ने वेद की विधि से अभिषेक कराया। गन्धर्वगण मांगलिक गान करने लगे, और सब मेघगण आकर मृदङ्ग, सुरज, वीणा आदि बाजों को करने लगा। जब अभिषेक हो चुका तब समुद्र ने रेशमी पीत वस्त्र दिये और वरुण ने ऐसी वैजन्ती माला दी, कि जिसके चारों ओर मत्त भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे।   विश्वकर्मा ने अनेक प्रकार के चित्र विचित्र आभूषण दिये। सरस्वती ने हार। ब्रह्मा ने कमल। और नागों ने कुण्डल दिये। इस तरह स्वस्तिवाचन होने के पीछे भौरों से शब्दायमान कमल की माला को हाथ में लेकर सुन्दर कपोलों पर कुण्डल और लज्जा सहित मन्द हसन युक्त, सुख की अपूर्व शोभा धारण करती हुई लक्ष्मीजी चली। वे इधर उधर आंख फेर फेरकर चारों ओर अपने अनुरूप सद्गुणों से युक्त पति को ढूंढ़ती, परन्तु गन्धर्व, असुर, यक्ष, सिद्ध चारण, देवता आदि किसी में कोई भी उनकी इच्छा के अनुकूल न निकला, तब लक्ष्मी ने कहा कि तुम सब सुर, असुर बराबर बैठ जाओ जिसको मेरी आत्मा कहेगी उसकी मैं अपना पति चुनुंगी, यह कहकर जयमाला हाथ में लेकर एक एक को देखती चलीं तब जो कोई तपस्वी है उनमें है उनमें क्रोध देखा और जो कोई ज्ञानी हैं उनमें संग त्याग नहीं देखा, कोई महान है उनमें काम त्याग नहीं देखा और जो इन्द्रादिक ईश्वर हैं पराश्रय देखे । जो धर्माचरणी हैं उनमें प्राणियों पर अनुकम्पा नहीं देखी, किसी-किसी में त्याग है परन्तु वह त्याग मुक्ति का कारण नहीं देखा, कोई-कोई पराक्रमी तो हैं परन्तु उनसे काल का वेग नहीं रुक सकता है, कोई-कोई गुण विशिष्ठ और सङ्ग रहित तो हैं परन्तु वे सदा समाधिनिष्ठ रहते हैं, कोई कोई दीर्घजीवी हैं परन्तु उनका स्वभाव अच्छा नहीं देखा, कोई-कोई सुस्वभाव हैं परन्तु आयु का ठिकाना नहीं देखा, कोई-कोई में शील और दीर्घायु दोनों हैं परन्तु वे मङ्गल रूप नहीं देखे, और जो सब प्रकार से मङ्गलरूप हैं वे मेरी इच्छा ही नहीं करते हैं। इस तरह सोच विचार कर आचार सहित, सद्गुणों से युक्त और माया के गुणों के सम्बन्ध मात्र से रहित श्रीहरि भगवान को लक्ष्मी ने अपना पति बनाया।   मत्त-भ्रमरों के गुंजार से कूजित नवीन पद्ममाला को उनके कण्ठ में डालकर लज्जा और हास्थ से युक्त अपने प्रफुल्लित नेत्रों से अपने रहने के स्थान वक्षःस्थल को देखती हुई लक्ष्मी भगवान के निकट हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई।   तब भगवान ने उस त्रिलोक-जननी को रहने के लिये अपने वक्षःस्थल में निवास दिया।   उस समय ब्रह्मा, रुद्र और अंगरादि विश्व के सृजने वाले सब ऋषिगण सत्य मन्त्रों से भगवान की स्तुति करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे।   तदनन्तर जब फिर देव दैत्यों ने समुद्र को मथा। तब कन्यारूप वारुणी देवी उत्पन्न हुई उसे भगवान की अनुमति से देवताओं ग्रहण न किया, तब दैत्यों ने उसको ग्रहण किया।   तदनन्तर जब देव दानव फिर समुद्र को मथने लगे तब एक परम अद्भुन पुरुष समुद्र से उत्पन्न हुआ इसका नाम धन्वन्तरि था, यह आयुर्वेद का प्रवर्तक और यज्ञ के भाग को भोगने वाले थे। इसको और अमृत से भरे हुए कलश को देखकर असुरगण देवों के हाथ से अमृत के कलश को छीनकर ले गये और कहने लगे कि भाई तुम कामधेनु, कल्प-वृक्ष, ऐरावत, उच्चैःश्रवा, आदि अनेक चीजें ले चुके हो इसको हम पीवेंगे। इस प्रकार कहकर जब वे असुर अमृत कलश को ले गये।   तब देवता अति दुःखित होकर भगवान की शरण गये। उस समय भगवान उनकी दीनदशा को देखकर बोले-    ----हे देवो! तनिक भी तुम दुःखी मत होवो मैं अपनी माया से अभी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करूँगा।   तब उसी अमृत में चित्त वाले दैत्यों में भगवान ने उसी समय आपस में ही महा कलह उत्पन्न करा दिया, सब आपस में कहने लगे कि पहिले में पीऊंगा तू नहीं, दूसरा बोला पहिले मैं पीऊंगा तू नहीं। तब कई बलहीन दैत्य कहने लगे कि देवताओं ने भी तो अमृत निकालने में समान परिश्रम किया है इससे इस सत्रयाग में उनका भाग है उनको भी मिलना चाहिये, यही, सनातन धर्म है। इस तरह ईर्ष्या करके दुर्बल दैत्य कलश वाले प्रवल दैत्यों को बार-बार रोकने लगे। इसी अवसर पर भगवान ने अनिर्वचनीय परम अद्भुत स्त्री का भेष धारण किया। वह स्त्री कामदेव की स्त्री रति के समान अपना सौन्दर्य बनाकर हाव भाव कटाक्षों से दानवों के चित्त में कामोद्दीपन करने लगी।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अष्टम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

समुद्र मंथन के 14 रत्न, समुद्र मंथन की कथा, समुद्र मंथन कहां हुआ था, समुद्र मंथन का अर्थ, समुद्र मंथन क्यों हुआ, समुद्र मंथन की कथा, समुद्र मंथन, समुद्र मंथन कब हुआ था, समुद्र मंथन से निकला हाथी














श्री शुकदेवजी बोले- हे राजन् ! महादेवजी के विष-पान कर लेने पर प्रसन्न हुए देव दानवों के गण बड़े वेग से फिर समुद्र को मथने लगे। 

ॐ॥ तब उस समुद्र में से सुरभी नामक गौ उत्पन्न हुई। उस गौ को ऋषियों ने ले लिया जिससे यज्ञों की और अग्निहोत्र की सफलता होती है। 

ॐ॥ उससे पीछे श्वेतवर्ण का उच्चैःश्रवा नाम घोड़ा निकला इसके लिये राजा बलि ने इच्छा की। 

ॐ॥ फिर ऐरावत हाथी निकला जिसके चार दाँत थे। 

ॐ॥ अनन्तर कौस्तुभ नाम की पद्मराग मणि निकली, इसे भगवान ने ग्रहण कर लिया और उसने अपने वक्षस्थल को भूषित कर लिया। 

ॐ॥ फिर देवलोक को अलंकृत करने वाला कल्प वृक्ष और अप्सरायें उत्पन्न हुई। 







नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १

ॐ॥  तदन्तर साक्षात लक्ष्मी उत्पन्न हुई ये भगवान में अत्यन्त तत्पर थीं, इनके रूप, उदारता, नववय, वर्ण और कान्ति से देवता अपनी सुध बुत्र भूल गये। 


इन्द्र लक्ष्मी के लिये एक अत्यन्त अद्भत चौकी ले आया और गङ्गादि नदियां मूर्तिमान हो-होकर सुवर्ण के कलशों में पवित्र जल भर लाई। अभिषेक में काम आने वाली सम्पूर्ण औषधियों को पृथ्वी लाई, गौ ने पंचगव्य और वसन्तराज ने चैत वैशाख में होने वाले पुष्प भेंट में लाकर रख दिये। 

इन सब सामग्रियों के इकट्ठा हो जाने पर ऋषियों ने वेद की विधि से अभिषेक कराया।
गन्धर्वगण मांगलिक गान करने लगे, और सब मेघगण आकर मृदङ्ग, सुरज, वीणा आदि बाजों को करने लगा। जब अभिषेक हो चुका तब समुद्र ने रेशमी पीत वस्त्र दिये और वरुण ने ऐसी वैजन्ती माला दी, कि जिसके चारों ओर मत्त भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे। 
विश्वकर्मा ने अनेक प्रकार के चित्र विचित्र आभूषण दिये। सरस्वती ने हार। ब्रह्मा ने कमल। और नागों ने कुण्डल दिये। 

इस तरह स्वस्तिवाचन होने के पीछे भौरों से शब्दायमान कमल की माला को हाथ में लेकर सुन्दर कपोलों पर कुण्डल और लज्जा सहित मन्द हसन युक्त, सुख की अपूर्व शोभा धारण करती हुई लक्ष्मीजी चली। वे इधर उधर आंख फेर फेरकर चारों ओर अपने अनुरूप सद्गुणों से युक्त पति को ढूंढ़ती, परन्तु गन्धर्व, असुर, यक्ष, सिद्ध चारण, देवता आदि किसी में कोई भी उनकी इच्छा के अनुकूल न निकला, तब लक्ष्मी ने कहा कि तुम सब सुर, असुर बराबर बैठ जाओ जिसको मेरी आत्मा कहेगी उसकी मैं अपना पति चुनुंगी।


 
यह कहकर जयमाला हाथ में लेकर एक एक को देखती चलीं तब जो कोई तपस्वी है उनमें है उनमें क्रोध देखा और जो कोई ज्ञानी हैं उनमें संग त्याग नहीं देखा, कोई महान है उनमें काम त्याग नहीं देखा और जो इन्द्रादिक ईश्वर हैं पराश्रय देखे । जो धर्माचरणी हैं उनमें प्राणियों पर अनुकम्पा नहीं देखी, किसी-किसी में त्याग है परन्तु वह त्याग मुक्ति का कारण नहीं देखा, कोई-कोई पराक्रमी तो हैं परन्तु उनसे काल का वेग नहीं रुक सकता है, कोई-कोई गुण विशिष्ठ और सङ्ग रहित तो हैं परन्तु वे सदा समाधिनिष्ठ रहते हैं, कोई कोई दीर्घजीवी हैं परन्तु उनका स्वभाव अच्छा नहीं देखा, कोई-कोई सुस्वभाव हैं परन्तु आयु का ठिकाना नहीं देखा, कोई-कोई में शील और दीर्घायु दोनों हैं परन्तु वे मङ्गल रूप नहीं देखे, और जो सब प्रकार से मङ्गलरूप हैं वे मेरी इच्छा ही नहीं करते हैं। इस तरह सोच विचार कर आचार सहित, सद्गुणों से युक्त और माया के गुणों के सम्बन्ध मात्र से रहित श्रीहरि भगवान को लक्ष्मी ने अपना पति बनाया। 
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मत्त-भ्रमरों के गुंजार से कूजित नवीन पद्ममाला को उनके कण्ठ में डालकर लज्जा और हास्थ से युक्त अपने प्रफुल्लित नेत्रों से अपने रहने के स्थान वक्षःस्थल को देखती हुई लक्ष्मी भगवान के निकट हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई। 

तब भगवान ने उस त्रिलोक-जननी को रहने के लिये अपने वक्षःस्थल में निवास दिया। 

उस समय ब्रह्मा, रुद्र और अंगरादि विश्व के सृजने वाले सब ऋषिगण सत्य मन्त्रों से भगवान की स्तुति करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे। 

ॐ॥ तदनन्तर जब फिर देव दैत्यों ने समुद्र को मथा। तब कन्यारूप वारुणी देवी उत्पन्न हुई उसे भगवान की अनुमति से देवताओं ग्रहण न किया, तब दैत्यों ने उसको ग्रहण किया। 

ॐ॥ तदनन्तर जब देव दानव फिर समुद्र को मथने लगे तब एक परम अद्भुन पुरुष समुद्र से उत्पन्न हुआ इसका नाम धन्वन्तरि था। यह आयुर्वेद का प्रवर्तक और यज्ञ के भाग को भोगने वाले थे। इसको और अमृत से भरे हुए कलश को देखकर असुरगण देवों के हाथ से अमृत के कलश को छीनकर ले गये और कहने लगे कि भाई तुम कामधेनु, कल्प-वृक्ष, ऐरावत, उच्चैःश्रवा, आदि अनेक चीजें ले चुके हो इसको हम पीवेंगे। इस प्रकार कहकर जब वे असुर अमृत कलश को ले गये। 

तब देवता अति दुःखित होकर भगवान की शरण गये। उस समय भगवान उनकी दीनदशा को देखकर बोले-


----हे देवो! तनिक भी तुम दुःखी मत होवो मैं अपनी माया से अभी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करूँगा। 

तब उसी अमृत में चित्त वाले दैत्यों में भगवान ने उसी समय आपस में ही महा कलह उत्पन्न करा दिया, सब आपस में कहने लगे कि पहिले में पीऊंगा तू नहीं, दूसरा बोला पहिले मैं पीऊंगा तू नहीं। तब कई बलहीन दैत्य कहने लगे कि देवताओं ने भी तो अमृत निकालने में समान परिश्रम किया है इससे इस सत्रयाग में उनका भाग है उनको भी मिलना चाहिये, यही, सनातन धर्म है। इस तरह ईर्ष्या करके दुर्बल दैत्य कलश वाले प्रवल दैत्यों को बार-बार रोकने लगे। इसी अवसर पर भगवान ने अनिर्वचनीय परम अद्भुत स्त्री का भेष धारण किया। वह स्त्री कामदेव की स्त्री रति के समान अपना सौन्दर्य बनाकर हाव भाव कटाक्षों से दानवों के चित्त में कामोद्दीपन करने लगी। 

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम  अध्याय समाप्तम🥀।। 

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_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

गर्भ से पिता को टोकने वाले अष्टावक्र ।।अष्टावक्र, महान विद्वान।।


क्या थे श्री कृष्ण के उत्तर! जब भीष्मपितामह ने राम और कृष्ण के अवतारों की तुलना की?A must read phrase from MAHABHARATA.


श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य।।


Most of the hindus are confused about which God to be worshipped. Find answer to your doubts.



हम किसी भी व्यक्ति का नाम विभीषण क्यों नहीं रखते ?


How do I balance between life and bhakti? 


 मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?


यज्ञशाला में जाने के सात वैज्ञानिक लाभ।। 


सनातन व सिखी में कोई भेद नहीं।


सनातन-संस्कृति में अन्न और दूध की महत्ता पर बहुत बल दिया गया है !


▲───────◇◆◇───────▲ श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com. Suggestions are welcome!
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