श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १[स्कंध ४] प्रजा की उत्त्पत्ति।। प्रथम मन्वन्तर।।

 ॥श्री गणेशाय नमः ।।

॥श्री गणेशाय नमः ।।   अथ सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण * चतुर्थ स्कन्ध प्रारम्भ * अध्याय १  *मंगलाचरण  दोहा-गोबिन्द ज्ञान प्रकाश करि, तम अज्ञान हटाय। शरणागत हूँ आपकी, लीजे प्रभू निभाय ।। कृपा आपकी से सदा, होय सुमंगल काज ।  भव सागर से पार करो मो अनाथ को आज।।  प्रथम अध्याय  दो-मनु कन्याओं से हुआ, जैसे जग विस्तार। सो पहले अध्याय में वरणों चरित अपार ॥  श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! अब मैं तुम्हारे सामने वह कथा वर्णन करता हूँ जो कि मैत्रेय ऋषि ने बिदुरजी से संसार में प्रजा की उत्पत्ति का वर्णन जिस प्रकार किया है।  प्रियव्रत की जनम कथा।।  जब प्रजा का विस्तार कहने के लिये मैत्रेयजी ने बिदुरजी से इस प्रकार कहा-हे बिदुरजी ! हे तात ! हम पहले यह वर्णन कर चुके हैं कि सर्व प्रथम निराकार ईश्वर ने तीनगुणों की ओर चौबीस तत्वों के मिश्रण से विराट स्वरूप धारण किया जो सहस्त्रों वर्ष पर्यन्त जल में पड़ा रहा तब उसमें से विराट स्वरूप अवतार नारायण जी उत्पन्न हुये फिर उसकी नाभि कमल में से वृह्माजो उत्पन्न हुये जिन्होंने ईश्वर का तप करके शक्ति प्राप्त की और अनेक प्रकार से सृष्टि की रचना की तब उसी काल में उन्होंने अपने शरीर के दाये अंग में से,- पुरुष रूप स्वयंभुव मनु को और स्त्री रूप,- शतरूपा को बाएँ अंग में से उत्पन्न किया। इन दोनों को तप करने की आज्ञा दी तब तप करने के पश्चात ब्रह्माजी की आज्ञा से स्वायंभुव मनु और शत रूपा का विवाह हुआ। सृष्टि रचियता वृह्माजी ने मनु को मैथुन द्वारा सृष्टि रचने को जब आज्ञा प्रदान की तो मनु ने अपने पूर्ण योग से अपनी स्त्री शतरूपा में दो पुत्र उत्तानपादु और प्रियव्रत तथा तीन कन्यायें आकूति, देवहूति, प्रसूति को उत्पन्न किया। जिनमें से हम तुम्हें पिछले तृतीय स्कंध में सुना चुके हैं कि श्री स्वायंभुव मनु ने अपनी मझली कन्या देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि के साथ कर दिया, जिससे कर्दम ऋषि ने देवहूति से नौ कन्या और एक पुत्र को जन्म दिया। वह पुत्र भगवान के अवतार कपिलदेव जी कहलाये जिन्होंने अपने सांख्य योग के उपदेश से माता देवहूति को मुक्ति मार्ग बताया, यह सब कथा तुम भली भाँति सुन चुके हो । अब आप स्वायंभुव मनु के विषय में तथा उनकी पत्नियों के विषय में सुनो।  मनु ने अपनी देवहूति कन्या तो कर्दम ऋषि को विवाह दी जिसका वर्णन सुन ही चुके हो। और आकुति कन्या को रुचि नाम ऋषि के साथ विवाह दिया और यह अनुवंधित कर लिया अर्थात यह तय कर लिया कि इस कन्या का जो प्रथम पुत्र होगा उसे मैं ले लूंगा।  भगवान यज्ञ और माता लक्ष्मी की जनम कथा।। तब उस रुचि नाम प्रजापति ने आकूति नाम अपनी भार्या में एक जौह रला (जुड़वाँ) जोड़ा उत्पन्न किया, जिनमें एक पुत्र था और एक पुत्री थी। हे विदुर जी ! उनमें जो पुत्र था वह यज्ञ स्वरूप धारी स्वयं विष्णु भगवान अवतरित हुये थे, और जो कन्या थी वह दक्षिणा नाम वाली विष्णु पत्नी साक्षात लक्ष्मी जी अवतरित हुई थी। अतः पुत्र का नाम साक्षात विष्णु अवतार होने के का रण यज्ञ भगवान हुआ और पुत्री का नाम लक्ष्मी जी का अंश होने के कारण दक्षिणा नाम हुआ।  यज्ञ भगवान और माता लक्ष्मी का वंश वर्णन।।  उस समय मनु जो महाराज के परम तेजस्वी पुत्र यज्ञ भगवान को अनुबंध अनुसार अपने स्थान पर ले आये, और उस दक्षिणा नामा कन्या को रुचि ऋषि ने अपने यहाँ पर रखा। जब दक्षिणा काम के योग्य हुई अर्थात् विवाह के योग्य हुई तो मनु द्वारा पोषित यज्ञ नाम पुत्र से विवाह कर दिया तब परम प्रसन्न हुई दक्षिणा नाम भार्या में भगवान यज्ञ ने बारह पुत्र उत्पन्न किये जिनके नाम १-तोष, २-प्रदोष, ३-संतोष, ४-भद्र, ५-शान्ति, ६ इडस्पति, ७-इध्म, ८-कपि, ई-विभु, १० हश्व ,११-सुदेव, १२-रोचन हैं । यह सब स्वायंभुव मन्वन्तर तुषित नाम वाले देवता रूप है। मरीच आदि इस मंवन्तर में सप्तऋषि हुये । तथा यज्ञ भगवान देवताओं के स्वामी (इन्द्र) हुये। इस के अतिरिक्त राजा स्वायंभुव मनु के अत्यंत प्रतापी के दो पुत्र प्रियव्रत, तथा उत्तानपाद हुये, वे अत्यंत प्रतापी उनके ही पुत्र, पोत्र, और दौहित्रों के वंश से ही सम्पूर्ण संसार का मन्वन्तर परिपूर्ण हो गया । और स्वायंभुव मनु ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति नाम वाली का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ किया जो कि बृह्मा जी के पुत्र थे। जिस प्रसूति के ही वंश से तोनों लोक परिपूर्ण हुये ।  अर्थात् जो कुछ जगत जीव देख पड़ता है वह सब उसी प्रसूति का ही कुनवा है ।   इतना कह कर मैत्रेय जी बोले-हे विदुर जी ! आगे तृतीय स्कंध में हम वर्णन कर चुके हैं कि कर्दम ऋषि की देवहूति नामा भार्या से जो नौ कन्या उन्पन्न हुई थीं वे सब मर आरादि ऋषियों को विवाह दी थीं, जिनका वर्णन प्रथक-प्रथक रूप से सूक्ष्म प्रकार से किया गया हैं । आगे हम वह सब भी आवश्यकतानुसार विस्तार सहित वर्णन करें । अब सुनिये कि जो कर्दम जी की पुत्री कला का विवाह मरीच ऋषि के साथ किया था सो मरीचि ऋषि ने अपनी उस कला नाम भार्या से कश्यप तथा पूर्णिमान नाम के दो पुत्र उत्पन्न किये। उन दोनों के वंश में ही यह सब जगत परि पूर्ण हो गया।  हे विदुर जी ! उस पूर्णिमान के दो पुत्र हुए जो कि विरज और विश्वग नाम से विख्यात है। तथा एक कन्या हुई जिसका नाम देवकुल्या हुआ। आकाश गंगा, चंद्रमा, दत्तात्रेय तथा दुर्वासा।। यह देवकुल्या हरि के चरण धोने से जन्मांतर में आकाश गंगा के नाम से विख्यात हुई । अत्रि की स्त्री अनुसुइया ने अर्थात् कर्दम ऋषि की पुत्री ने जो कि अत्रि ऋषि को विवाही थी उसने अत्रि के बीर्य से और वृह्मा, विष्णु, महेश, इन तीनों देवताओं के अंश से तीन सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया जो चंद्रमा (सोम) दत्तात्रेय, तथा दुर्वासा नाम से विख्यात हुये। जो कि महा तेजस्वी हुये।   तब विदुर जो पूछने लगे कि हे गुरो ! यह तीनों देवता जो रचना, पालन, और संहार करने वाले हैं सो किस प्रयोजन से अत्रि ऋषि के यहाँ आकर उत्पन्न हुये । सो यह प्रयोजन का कारण मुझे भली प्रकार सुनाइये । इतनी बात विदुर की सुनकर मैत्रेय जी ने कहा-हे विदुर जी ! जब अनुसुइया के साथ अत्रि मुनि का विवाह हो गया तब ब्रह्मा जी ने अत्रि को प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी। तब अत्रि मुनि अपनी स्त्री सहित ऋक्ष नाम क कुल पर्वत पर जाकर तपस्या करने संलग्न हो गये वे तप करते समय अपने ध्यान में यह विचार किया करते थे कि मैं जगत के ईश्वर की शरण आया हूँ सो जैसा वह ईश्वर है ऐसी ही मुझको संतान प्राप्त हो । इस प्रकार तप करते बहुत समय बीत गया। उस बढ़े हुये तप की ज्वाला से तीनों लोक कंपाय मान हुये तब उस दशा को देख कर विष्णु, ब्रह्मा', और महादेव जी यह तीनों देवता अत्रि मुनि के आश्रम पर पहुंचे। अपने आश्रम पर तीनों देवताओं को आया देखकर अत्रि मुनि अति आश्चर्य में हुये और तब पृथ्वी पर गिर कर दंडवत किया और पुष्प तथा अंजलि के जल से उनका विधिवत पूजन किया। हाथ जोड़ कर विनय करते हुये मुनि ने कहा-हे प्रभु! आपने युगों के विभाग किये हुये माया के गुणों से जिन्होंने सृष्टि के उत्पत्ति, पालन, और संहार के निमित्त देह धारण किये हैं सो ऐसे वृम्हा, विष्णु, महेश, तीनों देवताओं को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ, मैंने तो आप में से किसी एक को ही बुलाया था। परन्तु मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आप तीनों ही आ गये हैं सो एक साथ आप तोनों के पधारने का क्या कारण है सो मुझ से कहिये ।तब अत्रिमनि की वाणी सुन वे तीनों देव हँस कर बोले-हे वृम्हन् ! जिस प्रकार आपने अपने मनोरथ के प्रयोजन को जो संकल्प किया था, उसमें किंचित मात्र भी अन्तर नहीं होना चाहिये, इसी कारण से हम तीनों देव आपके सामने प्रत्यक्ष रूप से आये हैं । क्यों कि जिस सत्य रूप का आपने अपने मन में संकल्प करके ध्यान किया है वे हम तीनों देव हम एक ही हैं। इसी कारण अब हम तीनों देवताओं के अंश से हम ही तीन पुत्र रूप हो आपकी भार्या में उत्पन्न होकर तीन पुत्र जगत में प्रसिद्ध होंगे। हम दोनों आपके पुत्र रूप उत्पन्न हो आप के यश को फैलायेंगे, और इसी से आपका कल्याण होगा। तदन्तर वे तीनों देव श्री अत्रि मुनि को उनके मन के अनुकूल ही वर प्रदान कर तथा मुनि से सत्कार पा कर अपने स्थान को अंतध्यन हो चले गये ।   तदनंतर हे विदुर जी ! ब्रह्मा जी के अंश से अनुसुइया के अत्रि मुनि के वीर्य से चंद्रमा जी उत्पन्न हुये जिनका दूसरा नाम सोम था ।   विष्णु के अंश से योग के जानने वाले दत्तात्रेय जी हुये, तथा,  शिव जी के अंश से महा तपस्वी एवं महा क्रोधी महर्षि दुर्वासा उत्पन्न हुए।   अब हे विदुर जी ! आपके सम्मुख हमने कर्दम की पुत्री अनुसुइया जी की संतति कही है, और आगे अंगिरा ऋषि की संतान का हाल सुनो। अंगिरा ऋषि ने कर्दम की पुत्री अपकी भार्या श्रद्धा में चार कन्यायें उत्पन्न की। जिनके १-सिनीवाली, २-कुहू, ३-राका, ४- अनुमति, नाम हुए। उनके दो पुत्र भी उत्पन्न हुये जिनके द्वारा स्वारोचिष मन्वन्तर काल में प्रसिद्धि प्राप्त हुई, इनके नाम एक तो साक्षात भगवान उतथ्य जी और दूसरे वृम्हज्ञानी देवताओं के गुरु बृहस्पति जो हुआ। कर्दम की विभु नाम वाली कन्या जो कि पुलस्त्य ॠषि की पत्नी थी उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए एक अगस्त आरें दूसरा महा तेजस्वी विश्रवा हुआ। इनमें अगस्त दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए। महा तेजस्वी विश्रवा की जो स्त्री हुई एक इड़विड और दूसरी इला थी। इड़विड़ा से कुवेर भी उत्पन्न हुए जो लोकों के स्वामी लोकपाल है और इला से रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण हुये । हे विदुर जी ! कर्दम जी की गति नामा कन्या जो पुलह ऋषि की भार्या थी उनमें तीन पुत्र उत्पन्न हुये जिनके १-कर्म श्रेष्ठ, २-वरिदान ३-सहिष्णु ये नाम थे। और क्रिया नाम वाली कर्दम की पुत्री जो क्रतु की पत्नी थी उससे ब्रम्ह तेज से प्रकाश मान साठ हजार वालखिल्य नाम के ऋषि पुत्र उत्पन्न हुये। हे विदुर जी ! कर्दम की ऊर्भा नाम कन्या जो वशिष्ठ जी की भार्या हुई थी, उनके सात पुत्र उत्पन्न हुये जो सप्त ऋषि हुये।   सप्त ऋषि के नाम।।  जिनके नाम १-चित्रकेतु, २-सुरोचि, ३-विरज, ४-मित्र, ५-उल्वण, ६ वसुभूद्यान, ७-धमान, थे। इन्हीं वसिष्ठ मुनि की एक दूसरी स्त्री और भी थी जिससे शक्ति आदि अन्य पुत्र उत्पन्न हुये अथवण ऋषि की चिति नामा स्त्री जो कि कर्दम कन्या थी उससे तीन पुत्र हुये जिनके-  १-धृतब्रत २-अश्वशिरा, ३-मध्य, नाम थे। मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! ये सब वृतांत आपसे हमने वर्णन किया। अब हम आपको भृगु ऋषि के वंश का वृतान्त सुनाते हैं । हे महाभाग कर्दम की कन्या ख्याति नामा भृगु की भार्या हुई जिससे धाता, विधाता, नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। इसके अलावा एक कन्या लक्ष्मी को उत्पन्न किया । तब विधाता ने अपनी आयति, नियति नाम की अपनी दो कन्यायें उन दोनों धाता, विधाता, नाम पुत्रों का विवाह । इनमें माता ने आयती नाम भार्ता में मृकण्ड नाम का पुत्र उत्पन्न किया और मृकण्ड का पुत्र श्री मार्कण्डेय जी,हुये और विधाता ने अपनी नियति नाम भार्या से प्राण नाम का पुत्र उत्पन्न किया, उस प्राण सुत वेदशिरा मुनि हुआ। कौन है सूत जी? सूत जी का जन्म।  मैत्रेय जी कहते हैं कि हे विदुर जी ! शुक्राचार्य जी भृगु ऋषि के ही पुत्र हुये जिन का सूत -भगवान उसका नाम हुआ। हे विदुर जी ! इस प्रकाश मुनीश्वरों ने सृष्टि बढ़ाकर संपूर्ण लोकों को परिपूर्ण किया, जो मनुष्य कर्दम ऋषि की इन कन्याओं के बंश को श्रद्धा पूर्वक श्रवण करता है उसके सब पाप शीघ नष्ट हो जाते हैं ।   हे विदुर जी अब हम स्वायम्भुव मनु की प्रीति नाम कन्या का वंश वर्णन करते हैं इस कन्या का विवाह स्वायम्भुव मनु ने प्रजापति दक्ष को किया जिसमें ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष ने निर्मल नेत्र वाली सोलह कन्यायें उत्पन्न की जिनमें से प्रजापति दक्ष ने तेरह कन्यायें तो धर्म को विवाह दीं, और एक कन्या अग्नि को विवाह दी, तथा एक कन्या पितरों को विवाह दी तथा एक कन्या सृष्टि संहारक श्री महा देव जी को विवाह दी। इन कन्याओं, में, जो कि धर्म की भार्या हुई इस प्रकार है। १- श्रद्धा २- मैत्री, ३- दया, ४- शान्ति, ५ तुष्टि, ६- पुष्टि, ७- क्रिया, ८- उन्नति, ९-बुद्धि. १०. मेधा, ११ तितिक्षा १२- मूर्ति. १३-धर्ीं ये सब धर्म की स्त्री हुई। हे विदुर जी! अब हम प्रजापति दक्ष की इन तेरह कन्याओं का वंशक्रमानुसार सुनाते हैं। धर्म की पत्नी श्रद्धा के शुभ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। मैत्री नाम भार्या के प्रसाद नाम का पुत्र हुआ, और दया के अभय नाम पुत्र हुआ, तथा  शान्ति नाम भार्या से सुख नाम पुल उत्पन्न हुआ, और  तुष्टि नाम भार्या का मुद नाम सुत हुआ, तथा पुष्टि का गर्भ नाम पुत्र हुआ, और  क्रिया भार्या से योग नाम वाले सुत की उत्पत्ति हुई, और  उन्नति नाम भार्या से सर्प नाम सुत प्रकट हुआ, तथा  बुद्धि का सुत अर्थ हुआ और  मेधा नाम पत्नी से स्मृति नाम पुत्र हुआ, तथा  तितिक्षा नाम भार्या से क्षेम नाम का पुत्र प्रकट हुआ, और  मूर्ति नाम भार्या से नर नारायणा नाम वाले देव ऋषि उत्पन्न हये।  तथा धर्ी के प्रथम नाम का सुत उत्पन्न हुआ।  मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! इस प्रकार दक्ष की इन तेरह कन्याओं में धर्म द्वारा इन सब की उत्पत्ति हुई। अब हम दक्ष की शेष तीन कन्याओं के विषय में कहते हैं सो आप कृपा कर ध्यान से सुनिये । प्रथम हम थोड़ा सा वर्णन इनका भी करते हैं जो धर्म द्वारा मूर्ति नाम कन्या से नर नारायण प्रगट है यह भगवान आदि पुरुष के अवतार प्रगट हुये थे सो इनके जन्म समय देवताओं ने पुष्प वर्षा की और तीनों लोक आनंदित हुए। संपूर्ण देवता एवं ऋषि मुनियों ने इनकी स्तुति की और हर्ष प्रकट किया कि भगवान आदि पुरुष नर नारायण के रूप में प्रकट हुए हैं। जब भाँति-भाँति से देवताओं आदि ने इनको स्तुति करी तब भगवान नर नारायण देवताओं द्वारा अपनी पूजा किया जाना स्वीकार करके गंधमादन पर्वत पर निवास किया। इन्हीं में से नर के अंश से पृथ्वी का भार उतारने के लिये कुरु कुल में अर्जुन नाम से और यदुकुल में श्री कृष्ण नाम से जन्म लिया।   अब दक्ष की चौदहवीं पुत्री स्वाहा का वृतांत सुनिये । प्रजापति दक्ष ने अपनी इस स्वाहा नामा पुत्री का विवाह अग्नि के साथ कर दिया। जिस में से पावक, पवमान, और शुचि नाम के यह तीन अग्नि पुत्र उत्पन्न हुये इन तीनों अग्नि पुत्रों के १५-१५ पुत्र उत्पन्न हुये इस प्रकार इन तीनों के४५ पुत्र हुये । कुल मिलाकर ये सब पिता पुत्र ४९ हुये । वेद विहित यज्ञ में वेद पाठी लोग जिनका नाम लेकर अग्नि देवता को आहुति देते हैं । ये सब अग्नि यह हैं, जिनके नाम से यज्ञ में आग्नेय इष्ट निरूपण कीनी जाती है। अग्नि स्वाति,वर्हिशद,सोमय,आज्यष पितृ गण हैं। इनमें कोई स्वग्नि है कोई अनाग्नि हैं, इन सबकी भार्या ये केवल एक दक्ष कन्या स्वधा होती है। इन पितरों के स्वधा भार्या से यमुना और धारा नाम वाली दो कन्याएं उत्पन्न हुई । वह दोनों वृह्म वादिनी और ज्ञान विज्ञान में परायण हुई । अर्थात् इन दोनों पितृ कन्याओं ने विवाह ही नहीं किया, अवधूतानी हुई और जो दक्ष की कन्या सती हुई वह महादेव जी की भार्या हुई वह शिव की सेवा करते हुये भी पुत्र को प्राप्त न हुई। क्योंकि शिव जी के अपराधी अपने पिता दक्ष प्रजापति के घर में जाकर सती ने क्रोध से जब तक पुत्र होने की अवस्था होने से पूर्व ही अपना शरीर त्याग दिया था।

अथ सुख सागर


श्रीमद भागवद पुराण * चतुर्थ स्कन्ध प्रारम्भ * अध्याय १


*मंगलाचरण


दोहा-गोबिन्द ज्ञान प्रकाश करि, तम अज्ञान हटाय।

शरणागत हूँ आपकी, लीजे प्रभू निभाय ।।

कृपा आपकी से सदा, होय सुमंगल काज ।

भव सागर से पार करो मो अनाथ को आज।।


प्रथम अध्याय


दो-मनु कन्याओं से हुआ, जैसे जग विस्तार।

सो पहले अध्याय में वरणों चरित अपार ॥


श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! अब मैं तुम्हारे सामने वह कथा वर्णन करता हूँ जो कि मैत्रेय ऋषि ने बिदुरजी से संसार में प्रजा की उत्पत्ति का वर्णन जिस प्रकार किया है।

प्रियव्रत की जनम कथा।।


जब प्रजा का विस्तार कहने के लिये मैत्रेयजी ने बिदुरजी से इस प्रकार कहा-हे बिदुरजी ! हे तात ! हम पहले यह वर्णन कर चुके हैं कि सर्व प्रथम निराकार ईश्वर ने तीनगुणों की ओर चौबीस तत्वों के मिश्रण से विराट स्वरूप धारण किया जो सहस्त्रों वर्ष पर्यन्त जल में पड़ा रहा तब उसमें से विराट स्वरूप अवतार नारायण जी उत्पन्न हुये फिर उसकी नाभि कमल में से वृह्माजो उत्पन्न हुये जिन्होंने ईश्वर का तप करके शक्ति प्राप्त की और अनेक प्रकार से सृष्टि की रचना की तब उसी काल में उन्होंने अपने शरीर के दाये अंग में से,- पुरुष रूप स्वयंभुव मनु को और स्त्री रूप,- शतरूपा को बाएँ अंग में से उत्पन्न किया। इन दोनों को तप करने की आज्ञा दी तब तप करने के पश्चात ब्रह्माजी की आज्ञा से स्वायंभुव मनु और शत रूपा का विवाह हुआ। सृष्टि रचियता वृह्माजी ने मनु को मैथुन द्वारा सृष्टि रचने को जब आज्ञा प्रदान की तो मनु ने अपने पूर्ण योग से अपनी स्त्री शतरूपा में दो पुत्र उत्तानपादु और प्रियव्रत तथा तीन कन्यायें आकूति, देवहूति, प्रसूति को उत्पन्न किया। जिनमें से हम तुम्हें पिछले तृतीय स्कंध में सुना चुके हैं कि श्री स्वायंभुव मनु ने अपनी मझली कन्या देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि के साथ कर दिया, जिससे कर्दम ऋषि ने देवहूति से नौ कन्या और एक पुत्र को जन्म दिया। वह पुत्र भगवान के अवतार कपिलदेव जी कहलाये जिन्होंने अपने सांख्य योग के उपदेश से माता देवहूति को मुक्ति मार्ग बताया, यह सब कथा तुम भली भाँति सुन चुके हो । अब आप स्वायंभुव मनु के विषय में तथा उनकी पत्नियों के विषय में सुनो।


मनु ने अपनी देवहूति कन्या तो कर्दम ऋषि को विवाह दी जिसका वर्णन सुन ही चुके हो। और आकुति कन्या को रुचि नाम ऋषि के साथ विवाह दिया और यह अनुवंधित कर लिया अर्थात यह तय कर लिया कि इस कन्या का जो प्रथम पुत्र होगा उसे मैं ले लूंगा।

भगवान यज्ञ और माता लक्ष्मी की जनम कथा।।

तब उस रुचि नाम प्रजापति ने आकूति नाम अपनी भार्या में एक जौह रला (जुड़वाँ) जोड़ा उत्पन्न किया, जिनमें एक पुत्र था और एक पुत्री थी। हे विदुर जी ! उनमें जो पुत्र था वह यज्ञ स्वरूप धारी स्वयं विष्णु भगवान अवतरित हुये थे, और जो कन्या थी वह दक्षिणा नाम वाली विष्णु पत्नी साक्षात लक्ष्मी जी अवतरित हुई थी। अतः पुत्र का नाम साक्षात विष्णु अवतार होने के का रण यज्ञ भगवान हुआ और पुत्री का नाम लक्ष्मी जी का अंश होने के कारण दक्षिणा नाम हुआ।

यज्ञ भगवान और माता लक्ष्मी का वंश वर्णन।।


उस समय मनु जो महाराज के परम तेजस्वी पुत्र यज्ञ भगवान को अनुबंध अनुसार अपने स्थान पर ले आये, और उस दक्षिणा नामा कन्या को रुचि ऋषि ने अपने यहाँ पर रखा। जब दक्षिणा काम के योग्य हुई अर्थात् विवाह के योग्य हुई तो मनु द्वारा पोषित यज्ञ नाम पुत्र से विवाह कर दिया तब परम प्रसन्न हुई दक्षिणा नाम भार्या में भगवान यज्ञ ने बारह पुत्र उत्पन्न किये जिनके नाम १-तोष, २-प्रदोष, ३-संतोष, ४-भद्र, ५-शान्ति, ६ इडस्पति, ७-इध्म, ८-कपि, ई-विभु, १० हश्व ,११-सुदेव, १२-रोचन हैं । यह सब स्वायंभुव मन्वन्तर तुषित नाम वाले देवता रूप है। मरीच आदि इस मंवन्तर में सप्तऋषि हुये । तथा यज्ञ भगवान देवताओं के स्वामी (इन्द्र) हुये। इस के अतिरिक्त राजा स्वायंभुव मनु के अत्यंत प्रतापी के दो पुत्र प्रियव्रत, तथा उत्तानपाद हुये, वे अत्यंत प्रतापी उनके ही पुत्र, पोत्र, और दौहित्रों के वंश से ही सम्पूर्ण संसार का मन्वन्तर परिपूर्ण हो गया । और स्वायंभुव मनु ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति नाम वाली का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ किया जो कि बृह्मा जी के पुत्र थे। जिस प्रसूति के ही वंश से तोनों लोक परिपूर्ण हुये ।

अर्थात् जो कुछ जगत जीव देख पड़ता है वह सब उसी प्रसूति का ही कुनवा है ।


इतना कह कर मैत्रेय जी बोले-हे विदुर जी ! आगे तृतीय स्कंध में हम वर्णन कर चुके हैं कि कर्दम ऋषि की देवहूति नामा भार्या से जो नौ कन्या उन्पन्न हुई थीं वे सब मर आरादि ऋषियों को विवाह दी थीं, जिनका वर्णन प्रथक-प्रथक रूप से सूक्ष्म प्रकार से किया गया हैं । आगे हम वह सब भी आवश्यकतानुसार विस्तार सहित वर्णन करें । अब सुनिये कि जो कर्दम जी की पुत्री कला का विवाह मरीच ऋषि के साथ किया था सो मरीचि ऋषि ने अपनी उस कला नाम भार्या से कश्यप तथा पूर्णिमान नाम के दो पुत्र उत्पन्न किये। उन दोनों के वंश में ही यह सब जगत परि पूर्ण हो गया।

हे विदुर जी ! उस पूर्णिमान के दो पुत्र हुए जो कि विरज और विश्वग नाम से विख्यात है। तथा एक कन्या हुई जिसका नाम देवकुल्या हुआ।
आकाश गंगा, चंद्रमा, दत्तात्रेय तथा दुर्वासा।।
यह देवकुल्या हरि के चरण धोने से जन्मांतर में आकाश गंगा के नाम से विख्यात हुई । अत्रि की स्त्री अनुसुइया ने अर्थात् कर्दम ऋषि की पुत्री ने जो कि अत्रि ऋषि को विवाही थी उसने अत्रि के बीर्य से और वृह्मा, विष्णु, महेश, इन तीनों देवताओं के अंश से तीन सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया जो चंद्रमा (सोम) दत्तात्रेय, तथा दुर्वासा नाम से विख्यात हुये। जो कि महा तेजस्वी हुये।

तब विदुर जो पूछने लगे कि हे गुरो ! यह तीनों देवता जो रचना, पालन, और संहार करने वाले हैं सो किस प्रयोजन से अत्रि ऋषि के यहाँ आकर उत्पन्न हुये । सो यह प्रयोजन का कारण मुझे भली प्रकार सुनाइये । इतनी बात विदुर की सुनकर मैत्रेय जी ने कहा-हे विदुर जी ! जब अनुसुइया के साथ अत्रि मुनि का विवाह हो गया तब ब्रह्मा जी ने अत्रि को प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी। तब अत्रि मुनि अपनी स्त्री सहित ऋक्ष नाम क कुल पर्वत पर जाकर तपस्या करने संलग्न हो गये वे तप करते समय अपने ध्यान में यह विचार किया करते थे कि मैं जगत के ईश्वर की शरण आया हूँ सो जैसा वह ईश्वर है ऐसी ही मुझको संतान प्राप्त हो । इस प्रकार तप करते बहुत समय बीत गया। उस बढ़े हुये तप की ज्वाला से तीनों लोक कंपाय मान हुये तब उस दशा को देख कर विष्णु, ब्रह्मा', और महादेव जी यह तीनों देवता अत्रि मुनि के आश्रम पर पहुंचे। अपने आश्रम पर तीनों देवताओं को आया देखकर अत्रि मुनि अति आश्चर्य में हुये और तब पृथ्वी पर गिर कर दंडवत किया और पुष्प तथा अंजलि के जल से उनका विधिवत पूजन किया। हाथ जोड़ कर विनय करते हुये मुनि ने कहा-हे प्रभु! आपने युगों के विभाग किये हुये माया के गुणों से जिन्होंने सृष्टि के उत्पत्ति, पालन, और संहार के निमित्त देह धारण किये हैं सो ऐसे वृम्हा, विष्णु, महेश, तीनों देवताओं को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ, मैंने तो आप में से किसी एक को ही बुलाया था। परन्तु मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आप तीनों ही आ गये हैं सो एक साथ आप तोनों के पधारने का क्या कारण है सो मुझ से कहिये ।तब अत्रिमनि की वाणी सुन वे तीनों देव हँस कर बोले-हे वृम्हन् ! जिस प्रकार आपने अपने मनोरथ के प्रयोजन को जो संकल्प किया था, उसमें किंचित मात्र भी अन्तर नहीं होना चाहिये, इसी कारण से हम तीनों देव आपके सामने प्रत्यक्ष रूप से आये हैं । क्यों कि जिस सत्य रूप का आपने अपने मन में संकल्प करके ध्यान किया है वे हम तीनों देव हम एक ही हैं। इसी कारण अब हम तीनों देवताओं के अंश से हम ही तीन पुत्र रूप हो आपकी भार्या में उत्पन्न होकर तीन पुत्र जगत में प्रसिद्ध होंगे। हम दोनों आपके पुत्र रूप उत्पन्न हो आप के यश को फैलायेंगे, और इसी से आपका कल्याण होगा। तदन्तर वे तीनों देव श्री अत्रि मुनि को उनके मन के अनुकूल ही वर प्रदान कर तथा मुनि से सत्कार पा कर अपने स्थान को अंतध्यन हो चले गये ।

तदनंतर हे विदुर जी ! ब्रह्मा जी के अंश से अनुसुइया के अत्रि मुनि के वीर्य से चंद्रमा जी उत्पन्न हुये जिनका दूसरा नाम सोम था ।


विष्णु के अंश से योग के जानने वाले दत्तात्रेय जी हुये, तथा,


शिव जी के अंश से महा तपस्वी एवं महा क्रोधी महर्षि दुर्वासा उत्पन्न हुए।


अब हे विदुर जी ! आपके सम्मुख हमने कर्दम की पुत्री अनुसुइया जी की संतति कही है, और आगे अंगिरा ऋषि की संतान का हाल सुनो। अंगिरा ऋषि ने कर्दम की पुत्री अपकी भार्या श्रद्धा में चार कन्यायें उत्पन्न की। जिनके १-सिनीवाली, २-कुहू, ३-राका, ४- अनुमति, नाम हुए। उनके दो पुत्र भी उत्पन्न हुये जिनके द्वारा स्वारोचिष मन्वन्तर काल में प्रसिद्धि प्राप्त हुई, इनके नाम एक तो साक्षात भगवान उतथ्य जी और दूसरे वृम्हज्ञानी देवताओं के गुरु बृहस्पति जो हुआ। कर्दम की विभु नाम वाली कन्या जो कि पुलस्त्य ॠषि की पत्नी थी उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए एक अगस्त आरें दूसरा महा तेजस्वी विश्रवा हुआ। इनमें अगस्त दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए। महा तेजस्वी विश्रवा की जो स्त्री हुई एक इड़विड और दूसरी इला थी। इड़विड़ा से कुवेर भी उत्पन्न हुए जो लोकों के स्वामी लोकपाल है और इला से रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण हुये । हे विदुर जी ! कर्दम जी की गति नामा कन्या जो पुलह ऋषि की भार्या थी उनमें तीन पुत्र उत्पन्न हुये जिनके १-कर्म श्रेष्ठ, २-वरिदान ३-सहिष्णु ये नाम थे। और क्रिया नाम वाली कर्दम की पुत्री जो क्रतु की पत्नी थी उससे ब्रम्ह तेज से प्रकाश मान साठ हजार वालखिल्य नाम के ऋषि पुत्र उत्पन्न हुये। हे विदुर जी ! कर्दम की ऊर्भा नाम कन्या जो वशिष्ठ जी की भार्या हुई थी, उनके सात पुत्र उत्पन्न हुये जो सप्त ऋषि हुये।

सप्त ऋषि के नाम।।


जिनके नाम १-चित्रकेतु, २-सुरोचि, ३-विरज, ४-मित्र, ५-उल्वण, ६ वसुभूद्यान, ७-धमान, थे। इन्हीं वसिष्ठ मुनि की एक दूसरी स्त्री और भी थी जिससे शक्ति आदि अन्य पुत्र उत्पन्न हुये अथवण ऋषि की चिति नामा स्त्री जो कि कर्दम कन्या थी उससे तीन पुत्र हुये जिनके-

१-धृतब्रत २-अश्वशिरा, ३-मध्य, नाम थे। मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! ये सब वृतांत आपसे हमने वर्णन किया।
अब हम आपको भृगु ऋषि के वंश का वृतान्त सुनाते हैं । हे महाभाग कर्दम की कन्या ख्याति नामा भृगु की भार्या हुई जिससे धाता, विधाता, नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। इसके अलावा एक कन्या लक्ष्मी को उत्पन्न किया । तब विधाता ने अपनी आयति, नियति नाम की अपनी दो कन्यायें उन दोनों धाता, विधाता, नाम पुत्रों का विवाह । इनमें माता ने आयती नाम भार्ता में मृकण्ड नाम का पुत्र उत्पन्न किया और मृकण्ड का पुत्र श्री मार्कण्डेय जी,हुये और विधाता ने अपनी नियति नाम भार्या से प्राण नाम का पुत्र उत्पन्न किया, उस प्राण सुत वेदशिरा मुनि हुआ।

कौन है सूत जी? सूत जी का जन्म।

मैत्रेय जी कहते हैं कि हे विदुर जी ! शुक्राचार्य जी भृगु ऋषि के ही पुत्र हुये जिन का सूत -भगवान उसका नाम हुआ। हे विदुर जी ! इस प्रकाश मुनीश्वरों ने सृष्टि बढ़ाकर संपूर्ण लोकों को परिपूर्ण किया, जो मनुष्य कर्दम ऋषि की इन कन्याओं के बंश को श्रद्धा पूर्वक श्रवण करता है उसके सब पाप शीघ नष्ट हो जाते हैं ।


हे विदुर जी अब हम स्वायम्भुव मनु की प्रीति नाम कन्या का वंश वर्णन करते हैं इस कन्या का विवाह स्वायम्भुव मनु ने प्रजापति दक्ष को किया जिसमें ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष ने निर्मल नेत्र वाली सोलह कन्यायें उत्पन्न की जिनमें से प्रजापति दक्ष ने तेरह कन्यायें तो धर्म को विवाह दीं, और एक कन्या अग्नि को विवाह दी, तथा एक कन्या पितरों को विवाह दी तथा एक कन्या सृष्टि संहारक श्री महा देव जी को विवाह दी। इन कन्याओं, में, जो कि धर्म की भार्या हुई इस प्रकार है। १- श्रद्धा २- मैत्री, ३- दया, ४- शान्ति, ५ तुष्टि, ६- पुष्टि, ७- क्रिया, ८- उन्नति, ९-बुद्धि. १०. मेधा, ११ तितिक्षा १२- मूर्ति. १३-धर्ीं ये सब धर्म की स्त्री हुई।
हे विदुर जी! अब हम प्रजापति दक्ष की इन तेरह कन्याओं का वंशक्रमानुसार सुनाते हैं।

धर्म की पत्नी श्रद्धा के शुभ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।
मैत्री नाम भार्या के प्रसाद नाम का पुत्र हुआ, और
दया के अभय नाम पुत्र हुआ, तथा
शान्ति नाम भार्या से सुख नाम पुल उत्पन्न हुआ, और
तुष्टि नाम भार्या का मुद नाम सुत हुआ, तथा
पुष्टि का गर्भ नाम पुत्र हुआ, और
क्रिया भार्या से योग नाम वाले सुत की उत्पत्ति हुई, और
उन्नति नाम भार्या से सर्प नाम सुत प्रकट हुआ, तथा
बुद्धि का सुत अर्थ हुआ और
मेधा नाम पत्नी से स्मृति नाम पुत्र हुआ, तथा
तितिक्षा नाम भार्या से क्षेम नाम का पुत्र प्रकट हुआ, और
मूर्ति नाम भार्या से नर नारायणा नाम वाले देव ऋषि उत्पन्न हये।
तथा धर्ी के प्रथम नाम का सुत उत्पन्न हुआ।
मैत्रेय जी बोले हे विदुर जी ! इस प्रकार दक्ष की इन तेरह कन्याओं में धर्म द्वारा इन सब की उत्पत्ति हुई।

अब हम दक्ष की शेष तीन कन्याओं के विषय में कहते हैं सो आप कृपा कर ध्यान से सुनिये । प्रथम हम थोड़ा सा वर्णन इनका भी करते हैं जो धर्म द्वारा मूर्ति नाम कन्या से नर नारायण प्रगट है यह भगवान आदि पुरुष के अवतार प्रगट हुये थे सो इनके जन्म समय देवताओं ने पुष्प वर्षा की और तीनों लोक आनंदित हुए। संपूर्ण देवता एवं ऋषि मुनियों ने इनकी स्तुति की और हर्ष प्रकट किया कि भगवान आदि पुरुष नर नारायण के रूप में प्रकट हुए हैं। जब भाँति-भाँति से देवताओं आदि ने इनको स्तुति करी तब भगवान नर नारायण देवताओं द्वारा अपनी पूजा किया जाना स्वीकार करके गंधमादन पर्वत पर निवास किया। इन्हीं में से नर के अंश से पृथ्वी का भार उतारने के लिये कुरु कुल में अर्जुन नाम से और यदुकुल में श्री कृष्ण नाम से जन्म लिया।

अब दक्ष की चौदहवीं पुत्री स्वाहा का वृतांत सुनिये । प्रजापति दक्ष ने अपनी इस स्वाहा नामा पुत्री का विवाह अग्नि के साथ कर दिया। जिस में से पावक, पवमान, और शुचि नाम के यह तीन अग्नि पुत्र उत्पन्न हुये इन तीनों अग्नि पुत्रों के १५-१५ पुत्र उत्पन्न हुये इस प्रकार इन तीनों के४५ पुत्र हुये । कुल मिलाकर ये सब पिता पुत्र ४९ हुये । वेद विहित यज्ञ में वेद पाठी लोग जिनका नाम लेकर अग्नि देवता को आहुति देते हैं । ये सब अग्नि यह हैं, जिनके नाम से यज्ञ में आग्नेय इष्ट निरूपण कीनी जाती है। अग्नि स्वाति,वर्हिशद,सोमय,आज्यष पितृ गण हैं। इनमें कोई स्वग्नि है कोई अनाग्नि हैं, इन सबकी भार्या ये केवल एक दक्ष कन्या स्वधा होती है। इन पितरों के स्वधा भार्या से यमुना और धारा नाम वाली दो कन्याएं उत्पन्न हुई । वह दोनों वृह्म वादिनी और ज्ञान विज्ञान में परायण हुई । अर्थात् इन दोनों पितृ कन्याओं ने विवाह ही नहीं किया, अवधूतानी हुई और जो दक्ष की कन्या सती हुई वह महादेव जी की भार्या हुई वह शिव की सेवा करते हुये भी पुत्र को प्राप्त न हुई। क्योंकि शिव जी के अपराधी अपने पिता दक्ष प्रजापति के घर में जाकर सती ने क्रोध से जब तक पुत्र होने की अवस्था होने से पूर्व ही अपना शरीर त्याग दिया था।

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]

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• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]

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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]

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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
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