सुख सागर कथा।। समुद्र मंथन भाग ५ (देवासुर संग्राम)

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। 

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।

-  ॐ विष्णवे नम:

 - ॐ हूं विष्णवे नम:

- ॐ आं संकर्षणाय नम:

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम:

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम:

- ॐ नारायणाय नम:

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 
ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 
ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥


शुकदेवजी बोले-हे राजन् ! इस तरह यद्यपि दैत्यों ने समान परिश्रम किया था परन्तु भगवान से विमुख होने के कारण उनको अमृत न मिला। इस प्रकार अमृत को सिद्धकर और देवताओं को उसे पान कराके देखते-देखते भगवान गरुण पर चढ़कर चले गये।   असुरगण देवताओं की इस परमवृद्धि को न सह सके और शस्त्र लेकर देवताओं पर लड़ने के लिये चढ़ दौड़े। तब देवता भी अमृत के पीने से निःशङ्क होकर शस्त्र लेकर लड़ने लगे । समुद्र के किनारे पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, जिसका नाम देवासुर संग्राम पड़ गया।   दैत्य और देवता अनेक प्रकार के आयुधों से एक दूसरे को मारने लगे। रथी रथी से, पैदल पैदल से, सवार सवार से, हाथी वाला हाथी वाले से भिड़ गया। कोई जलचर कोई थलचर और कोई नभचरों पर सवार हो-होकर परस्पर घोर युद्ध करने लगे। हे परीक्षित ! इन देव दानवों की सेनायें उन वीरों की पंक्तियों से ऐसी शोभायमान दीखने लगीं जैसे दो समुद्र जल के जीवों से सुशोभित हो।   युद्ध में असुर सेनापति बलि राजा यथेच्छगामी मय के बनाये हुए वैहायस नाम अद्भुत विमान पर चढ़कर आया। विमान के चारों ओर बड़े-बड़े सेनापति थे, इसमें बैठे हुए बलि की ऐसी शोभा थी जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा सुशोभित होता है। तदनन्तर बलि के योधागण सिंह की तरह गरजने लगे इस तरह उनको उत्तेजित देखकर इन्द्र को बड़ा क्रोध आया, तब वह भी ऐरावत दिग्गज पर चढ़कर ऐसा सुशोभित होने लगा जैसे उदयाचल पर सूर्य शोभायमान होता है।   दैत्य दानव एक-एक को पहचान और ललकार कर समर-भूमि में प्रविष्ट हुए और घोर द्वन्द-युद्ध करने लगे। राजा बलि का इन्द्र के संग, तारक का स्मारिकार्तिक के सङ्ग, हेति का वरुण के सङ्ग, प्रहेति का भित्र के सङ्ग, कालनाभ का यम के सङ्ग, मय का विश्वकर्मा के सङ्ग, शम्बर का त्वष्टा के सङ्ग और विरोचन का सूर्य के संग।   अपराजित के संग नमुचि का, वृषपर्वा के संग अश्विनीकुमार का, राजा बलि के बाणदिक सौ पुत्रों के संग एक सूर्यदेव का, राहु के साथ चन्द्रमा का, पुलोम के साथ अग्नि का, शुम्भ निशुम्भ के साथ भद्रकाली देवी का, युद्ध होने लगा।   इस तरह दैत्य और दानव दो दो मिलकर आपस में एक दूसरे को जीतने की इच्छा से पैने-पैने बाण खड्ड़ग और तोमरों से एक दूसरे को मारने लगे।   बलि ने दस बाण इन्द्र के और तीन ऐरावत के चार चारों हाथी के पादरक्षकों के और एक महावत के मारे। इन्द्र ने उन बाणों को आता देख अपने पैने बाणों से उन्हें बीच ही में काट गिराया । बलि ने इन्द्र के इस अद्भुत चमत्कार को देख उल्का की भाँति चमकती हुई एक शक्ति उठाई इन्द्र ने उसके हाथ ही में काट गिराई। फिर शूक, प्रास तोमर, ऋष्टि आदि जो-जो अस्त्र बलि ने उठाये वे सब इन्द्र ने मार्ग में ही काट गिराये।   तब दैत्य लोग देवताओं की सेना पर पर्वत वर्षाने लगे। उन पर्वतों से दावाग्नि से जले हुए वृक्ष गिरने लगे और बड़े-बड़े शिखरों सहित बड़ी-बड़ी शिला देवताओं की सेना को चूर-चूर करने लगी। तदनन्तर समुद्र अपनी मर्यादा को छोड़कर उछला प्रचण्ड पवन के वेग से उठी लहरों सहित गम्भीर भँवरों से सब भूमि को डुबाता हुआ दिखाई पड़ा।   इस प्रकार दैत्यों ने जब ऐसी माया रची तब सब देव-सेना गण दुःखी हो गये। जब इन्द्रादिक भी इस मया का प्रतीकार करना नहीं जान सके तब उन्होंने नारायण का ध्यान किया, ध्यान करते ही भगवान प्रगट हो गये। भगवान के आने पर असुरों की कपट माया ऐसे दूर हो गई जैसे जागने पर स्वप्न की बातें दूर हो जाती हैं।   संग्राम में गरुड़-वाहन भगवान को देखकर सिंह पर चढ़े हुए कालनेमि ने एक त्रिशूल मारा, भगवान ने उस त्रिशूल को गरुड के मस्तक पर पड़ता देख सहज ही में पकड़कर उसी से सिंह और कालनेमि दोनों को मार डाला। तदनन्तर माली सुमाली नाम दैत्य लड़ने के लिये आये।   तब भगवान ने अपने चक्र से उन दोनों के सिर काट लिये इतने में माल्यवान एक बड़ी तीक्ष्ण गदा लेकर गरुड़ के मारने को दौड़ा तब भगवान ने चक्र से उसका भी शिर काट दिया ।

नवीन सुख सागर कथा 

श्रीमद् भागवद पुराण * दसवां अध्याय * स्कंध ८( देवासुर संग्राम)

दोहा ॰ दैत्य सुरन सौ जब भयो भीषण युद्ध अपार।
सो दसवें में है कथा जस प्रकटे करतार || 


शुकदेवजी बोले-हे राजन् ! इस तरह यद्यपि दैत्यों ने समान परिश्रम किया था परन्तु भगवान से विमुख होने के कारण उनको अमृत न मिला। इस प्रकार अमृत को सिद्धकर और देवताओं को उसे पान कराके देखते-देखते भगवान गरुण पर चढ़कर चले गये।   असुरगण देवताओं की इस परमवृद्धि को न सह सके और शस्त्र लेकर देवताओं पर लड़ने के लिये चढ़ दौड़े। तब देवता भी अमृत के पीने से निःशङ्क होकर शस्त्र लेकर लड़ने लगे । समुद्र के किनारे पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, जिसका नाम देवासुर संग्राम पड़ गया।   दैत्य और देवता अनेक प्रकार के आयुधों से एक दूसरे को मारने लगे। रथी रथी से, पैदल पैदल से, सवार सवार से, हाथी वाला हाथी वाले से भिड़ गया। कोई जलचर कोई थलचर और कोई नभचरों पर सवार हो-होकर परस्पर घोर युद्ध करने लगे। हे परीक्षित ! इन देव दानवों की सेनायें उन वीरों की पंक्तियों से ऐसी शोभायमान दीखने लगीं जैसे दो समुद्र जल के जीवों से सुशोभित हो।   युद्ध में असुर सेनापति बलि राजा यथेच्छगामी मय के बनाये हुए वैहायस नाम अद्भुत विमान पर चढ़कर आया। विमान के चारों ओर बड़े-बड़े सेनापति थे, इसमें बैठे हुए बलि की ऐसी शोभा थी जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा सुशोभित होता है। तदनन्तर बलि के योधागण सिंह की तरह गरजने लगे इस तरह उनको उत्तेजित देखकर इन्द्र को बड़ा क्रोध आया, तब वह भी ऐरावत दिग्गज पर चढ़कर ऐसा सुशोभित होने लगा जैसे उदयाचल पर सूर्य शोभायमान होता है।   दैत्य दानव एक-एक को पहचान और ललकार कर समर-भूमि में प्रविष्ट हुए और घोर द्वन्द-युद्ध करने लगे। राजा बलि का इन्द्र के संग, तारक का स्मारिकार्तिक के सङ्ग, हेति का वरुण के सङ्ग, प्रहेति का भित्र के सङ्ग, कालनाभ का यम के सङ्ग, मय का विश्वकर्मा के सङ्ग, शम्बर का त्वष्टा के सङ्ग और विरोचन का सूर्य के संग।   अपराजित के संग नमुचि का, वृषपर्वा के संग अश्विनीकुमार का, राजा बलि के बाणदिक सौ पुत्रों के संग एक सूर्यदेव का, राहु के साथ चन्द्रमा का, पुलोम के साथ अग्नि का, शुम्भ निशुम्भ के साथ भद्रकाली देवी का, युद्ध होने लगा।   इस तरह दैत्य और दानव दो दो मिलकर आपस में एक दूसरे को जीतने की इच्छा से पैने-पैने बाण खड्ड़ग और तोमरों से एक दूसरे को मारने लगे।   बलि ने दस बाण इन्द्र के और तीन ऐरावत के चार चारों हाथी के पादरक्षकों के और एक महावत के मारे। इन्द्र ने उन बाणों को आता देख अपने पैने बाणों से उन्हें बीच ही में काट गिराया । बलि ने इन्द्र के इस अद्भुत चमत्कार को देख उल्का की भाँति चमकती हुई एक शक्ति उठाई इन्द्र ने उसके हाथ ही में काट गिराई। फिर शूक, प्रास तोमर, ऋष्टि आदि जो-जो अस्त्र बलि ने उठाये वे सब इन्द्र ने मार्ग में ही काट गिराये।   तब दैत्य लोग देवताओं की सेना पर पर्वत वर्षाने लगे। उन पर्वतों से दावाग्नि से जले हुए वृक्ष गिरने लगे और बड़े-बड़े शिखरों सहित बड़ी-बड़ी शिला देवताओं की सेना को चूर-चूर करने लगी। तदनन्तर समुद्र अपनी मर्यादा को छोड़कर उछला प्रचण्ड पवन के वेग से उठी लहरों सहित गम्भीर भँवरों से सब भूमि को डुबाता हुआ दिखाई पड़ा।   इस प्रकार दैत्यों ने जब ऐसी माया रची तब सब देव-सेना गण दुःखी हो गये। जब इन्द्रादिक भी इस मया का प्रतीकार करना नहीं जान सके तब उन्होंने नारायण का ध्यान किया, ध्यान करते ही भगवान प्रगट हो गये। भगवान के आने पर असुरों की कपट माया ऐसे दूर हो गई जैसे जागने पर स्वप्न की बातें दूर हो जाती हैं।   संग्राम में गरुड़-वाहन भगवान को देखकर सिंह पर चढ़े हुए कालनेमि ने एक त्रिशूल मारा, भगवान ने उस त्रिशूल को गरुड के मस्तक पर पड़ता देख सहज ही में पकड़कर उसी से सिंह और कालनेमि दोनों को मार डाला। तदनन्तर माली सुमाली नाम दैत्य लड़ने के लिये आये।   तब भगवान ने अपने चक्र से उन दोनों के सिर काट लिये इतने में माल्यवान एक बड़ी तीक्ष्ण गदा लेकर गरुड़ के मारने को दौड़ा तब भगवान ने चक्र से उसका भी शिर काट दिया ।

शुकदेवजी बोले-हे राजन् ! इस तरह यद्यपि दैत्यों ने समान परिश्रम किया था परन्तु भगवान से विमुख होने के कारण उनको अमृत न मिला। इस प्रकार अमृत को सिद्धकर और देवताओं को उसे पान कराके देखते-देखते भगवान गरुण पर चढ़कर चले गये।   असुरगण देवताओं की इस परमवृद्धि को न सह सके और शस्त्र लेकर देवताओं पर लड़ने के लिये चढ़ दौड़े। तब देवता भी अमृत के पीने से निःशङ्क होकर शस्त्र लेकर लड़ने लगे । समुद्र के किनारे पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, जिसका नाम देवासुर संग्राम पड़ गया।   दैत्य और देवता अनेक प्रकार के आयुधों से एक दूसरे को मारने लगे। रथी रथी से, पैदल पैदल से, सवार सवार से, हाथी वाला हाथी वाले से भिड़ गया। कोई जलचर कोई थलचर और कोई नभचरों पर सवार हो-होकर परस्पर घोर युद्ध करने लगे। हे परीक्षित ! इन देव दानवों की सेनायें उन वीरों की पंक्तियों से ऐसी शोभायमान दीखने लगीं जैसे दो समुद्र जल के जीवों से सुशोभित हो।   युद्ध में असुर सेनापति बलि राजा यथेच्छगामी मय के बनाये हुए वैहायस नाम अद्भुत विमान पर चढ़कर आया। विमान के चारों ओर बड़े-बड़े सेनापति थे, इसमें बैठे हुए बलि की ऐसी शोभा थी जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा सुशोभित होता है। तदनन्तर बलि के योधागण सिंह की तरह गरजने लगे इस तरह उनको उत्तेजित देखकर इन्द्र को बड़ा क्रोध आया, तब वह भी ऐरावत दिग्गज पर चढ़कर ऐसा सुशोभित होने लगा जैसे उदयाचल पर सूर्य शोभायमान होता है।   दैत्य दानव एक-एक को पहचान और ललकार कर समर-भूमि में प्रविष्ट हुए और घोर द्वन्द-युद्ध करने लगे। राजा बलि का इन्द्र के संग, तारक का स्मारिकार्तिक के सङ्ग, हेति का वरुण के सङ्ग, प्रहेति का भित्र के सङ्ग, कालनाभ का यम के सङ्ग, मय का विश्वकर्मा के सङ्ग, शम्बर का त्वष्टा के सङ्ग और विरोचन का सूर्य के संग।   अपराजित के संग नमुचि का, वृषपर्वा के संग अश्विनीकुमार का, राजा बलि के बाणदिक सौ पुत्रों के संग एक सूर्यदेव का, राहु के साथ चन्द्रमा का, पुलोम के साथ अग्नि का, शुम्भ निशुम्भ के साथ भद्रकाली देवी का, युद्ध होने लगा।   इस तरह दैत्य और दानव दो दो मिलकर आपस में एक दूसरे को जीतने की इच्छा से पैने-पैने बाण खड्ड़ग और तोमरों से एक दूसरे को मारने लगे।   बलि ने दस बाण इन्द्र के और तीन ऐरावत के चार चारों हाथी के पादरक्षकों के और एक महावत के मारे। इन्द्र ने उन बाणों को आता देख अपने पैने बाणों से उन्हें बीच ही में काट गिराया । बलि ने इन्द्र के इस अद्भुत चमत्कार को देख उल्का की भाँति चमकती हुई एक शक्ति उठाई इन्द्र ने उसके हाथ ही में काट गिराई। फिर शूक, प्रास तोमर, ऋष्टि आदि जो-जो अस्त्र बलि ने उठाये वे सब इन्द्र ने मार्ग में ही काट गिराये।   तब दैत्य लोग देवताओं की सेना पर पर्वत वर्षाने लगे। उन पर्वतों से दावाग्नि से जले हुए वृक्ष गिरने लगे और बड़े-बड़े शिखरों सहित बड़ी-बड़ी शिला देवताओं की सेना को चूर-चूर करने लगी। तदनन्तर समुद्र अपनी मर्यादा को छोड़कर उछला प्रचण्ड पवन के वेग से उठी लहरों सहित गम्भीर भँवरों से सब भूमि को डुबाता हुआ दिखाई पड़ा।   इस प्रकार दैत्यों ने जब ऐसी माया रची तब सब देव-सेना गण दुःखी हो गये। जब इन्द्रादिक भी इस मया का प्रतीकार करना नहीं जान सके तब उन्होंने नारायण का ध्यान किया, ध्यान करते ही भगवान प्रगट हो गये। भगवान के आने पर असुरों की कपट माया ऐसे दूर हो गई जैसे जागने पर स्वप्न की बातें दूर हो जाती हैं।   संग्राम में गरुड़-वाहन भगवान को देखकर सिंह पर चढ़े हुए कालनेमि ने एक त्रिशूल मारा, भगवान ने उस त्रिशूल को गरुड के मस्तक पर पड़ता देख सहज ही में पकड़कर उसी से सिंह और कालनेमि दोनों को मार डाला। तदनन्तर माली सुमाली नाम दैत्य लड़ने के लिये आये।   तब भगवान ने अपने चक्र से उन दोनों के सिर काट लिये इतने में माल्यवान एक बड़ी तीक्ष्ण गदा लेकर गरुड़ के मारने को दौड़ा तब भगवान ने चक्र से उसका भी शिर काट दिया ।

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गर्भ से पिता को टोकने वाले अष्टावक्र ।।अष्टावक्र, महान विद्वान।।


महाकाल के नाम पर कई होटल, उनके संचालक मुस्लिम


क्या थे श्री कृष्ण के उत्तर! जब भीष्मपितामह ने राम और कृष्ण के अवतारों की तुलना की?A must read phrase from MAHABHARATA.


श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य।।


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शुकदेवजी बोले-हे राजन्! इस तरह यद्यपि दैत्यों ने समान परिश्रम किया था परन्तु भगवान से विमुख होने के कारण उनको अमृत न मिला। 

इस प्रकार अमृत को सिद्धकर और देवताओं को उसे पान कराके देखते-देखते भगवान गरुण पर चढ़कर चले गये। 

असुरगण देवताओं की इस परमवृद्धि को न सह सके और शस्त्र लेकर देवताओं पर लड़ने के लिये चढ़ दौड़े।

तब देवता भी अमृत के पीने से निःशङ्क होकर शस्त्र लेकर लड़ने लगे । समुद्र के किनारे पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, जिसका नाम देवासुर संग्राम पड़ गया। 

दैत्य और देवता अनेक प्रकार के आयुधों से एक दूसरे को मारने लगे। रथी रथी से, पैदल पैदल से, सवार सवार से, हाथी वाला हाथी वाले से भिड़ गया। कोई जलचर कोई थलचर और कोई नभचरों पर सवार हो-होकर परस्पर घोर युद्ध करने लगे। हे परीक्षित ! इन देव दानवों की सेनायें उन वीरों की पंक्तियों से ऐसी शोभायमान दीखने लगीं जैसे दो समुद्र जल के जीवों से सुशोभित हो। 

युद्ध में असुर सेनापति बलि राजा यथेच्छगामी मय के बनाये हुए वैहायस नाम अद्भुत विमान पर चढ़कर आया। विमान के चारों ओर बड़े-बड़े सेनापति थे, इसमें बैठे हुए बलि की ऐसी शोभा थी जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा सुशोभित होता है। 


तदनन्तर बलि के योधागण सिंह की तरह गरजने लगे इस तरह उनको उत्तेजित देखकर इन्द्र को बड़ा क्रोध आया, तब वह भी ऐरावत दिग्गज पर चढ़कर ऐसा सुशोभित होने लगा जैसे उदयाचल पर सूर्य शोभायमान होता है। 

दैत्य दानव एक-एक को पहचान और ललकार कर समर-भूमि में प्रविष्ट हुए और घोर द्वन्द-युद्ध करने लगे।
राजा बलि का इन्द्र के संग, तारक का स्मारिकार्तिक के सङ्ग, हेति का वरुण के सङ्ग, प्रहेति का भित्र के सङ्ग, कालनाभ का यम के सङ्ग, मय का विश्वकर्मा के सङ्ग, शम्बर का त्वष्टा के सङ्ग और विरोचन का सूर्य के संग। 

अपराजित के संग नमुचि का, वृषपर्वा के संग अश्विनीकुमार का, राजा बलि के बाणदिक सौ पुत्रों के संग एक सूर्यदेव का, राहु के साथ चन्द्रमा का, पुलोम के साथ अग्नि का, शुम्भ निशुम्भ के साथ भद्रकाली देवी का, युद्ध होने लगा। 

इस तरह दैत्य और दानव दो दो मिलकर आपस में एक दूसरे को जीतने की इच्छा से पैने-पैने बाण खड्ड़ग और तोमरों से एक दूसरे को मारने लगे। 

बलि ने दस बाण इन्द्र के और तीन ऐरावत के चार चारों हाथी के पादरक्षकों के और एक महावत के मारे। इन्द्र ने उन बाणों को आता देख अपने पैने बाणों से उन्हें बीच ही में काट गिराया । बलि ने इन्द्र के इस अद्भुत चमत्कार को देख उल्का की भाँति चमकती हुई एक शक्ति उठाई इन्द्र ने उसके हाथ ही में काट गिराई। फिर शूक, प्रास तोमर, ऋष्टि आदि जो-जो अस्त्र बलि ने उठाये वे सब इन्द्र ने मार्ग में ही काट गिराये। 
तब दैत्य लोग देवताओं की सेना पर पर्वत वर्षाने लगे। उन पर्वतों से दावाग्नि से जले हुए वृक्ष गिरने लगे और बड़े-बड़े शिखरों सहित बड़ी-बड़ी शिला देवताओं की सेना को चूर-चूर करने लगी। तदनन्तर समुद्र अपनी मर्यादा को छोड़कर उछला प्रचण्ड पवन के वेग से उठी लहरों सहित गम्भीर भँवरों से सब भूमि को डुबाता हुआ दिखाई पड़ा। 

इस प्रकार दैत्यों ने जब ऐसी माया रची तब सब देव-सेना गण दुःखी हो गये। जब इन्द्रादिक भी इस मया का प्रतीकार करना नहीं जान सके तब उन्होंने नारायण का ध्यान किया, ध्यान करते ही भगवान प्रगट हो गये। भगवान के आने पर असुरों की कपट माया ऐसे दूर हो गई जैसे जागने पर स्वप्न की बातें दूर हो जाती हैं। 

संग्राम में गरुड़-वाहन भगवान को देखकर सिंह पर चढ़े हुए कालनेमि ने एक त्रिशूल मारा, भगवान ने उस त्रिशूल को गरुड के मस्तक पर पड़ता देख सहज ही में पकड़कर उसी से सिंह और कालनेमि दोनों को मार डाला। तदनन्तर माली सुमाली नाम दैत्य लड़ने के लिये आये। 

तब भगवान ने अपने चक्र से उन दोनों के सिर काट लिये इतने में माल्यवान एक बड़ी तीक्ष्ण गदा लेकर गरुड़ के मारने को दौड़ा तब भगवान ने चक्र से उसका भी शिर काट दिया ।


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।

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_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


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श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। 

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