गज और ग्राह की कथा।। भाग १ (सुख सागर कथा)
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
नवीन सुख सागर
श्रीमद भागवद पुराण दूसरा अध्याय [स्कंध८]
गजेन्द्र का उपाख्यान
दोहा- अध्याय में कही कथा गजेन्द्र उचार।
तामें प्रथम द्वितीय में जल क्रीड़ा को सार ।।
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नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।
सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।
श्री शुकदेव जी बोले-हे राजन! त्रिकूट नाम एक बड़ा पर्वत है जिसके चारों ओर क्षीरोदधि है। यह पर्वत दस हजार योजन ऊँचा और इतना ही लम्बा चौड़ा है।
इसमें रूपे, लोहे, और सोने के तीन शिखर हैं इनसे समुद्र, शिखा और आकाश प्रकाशित होते हैं। उनकी गुफा में किन्नर अप्सरा आदि क्रीड़ा किया करते हैं। इसमें अनेक प्रकार के वृक्ष और देवताओं के बगीचे उत्तम स्वर वाले पक्षियों की चहचहाट से व्याप्त हैं। उसी गुफा में महात्मा वरुणदेव का ऋतुमान नामक बगीचा है उसमें देवाङ्गना क्रीड़ा किया करती हैं। इसके चारों ओर बारहमासी फल फूल वाले वृक्ष अद्भुत शोभा देते हैं, उस बाग के सरोवर में सुवर्ण के से रंग के पीत कमल फूल रहे हैं उन पर मदमाते भौंरे गुंजार कर रहे हैं। और वहाँ हंस, चकवा, सारस, कोयल और पपीड़ों के झुण्ड के झुण्ड गूँज रहे हैं। मछली और कछुओं के फिरने से कमलों की केसर झड़-झड़कर जल पर पड़ रही है इस कारण सरोवर का जल केसरिया हो रहा है।
ऐसा वह सरोवर अकथनीय रमणीय शोभा वाला परम सुखप्रद है।
एक दिन उसी पर्वत के एक बन का रहने वाला यूथपति हाथी बहुतसी हथिनियों को सङ्ग लिये कांटेदार बांस और वेंतों की झाड़ी तोड़ता हुआ, तथा धूप का सताया हुआ, तृषा से सन्तप्त, दूर से ही कमल पराग से युक्त सरोवर की पवन सूंघता हुआ, और मद से अपने नेत्रों को इधर-उधर घुमाता हुआ उस सरोवर के तौरपर बहुत ही शीघ्र आ गया ।
अमृत समान मिष्ट निर्मल जल वाले उस सरोवर में स्नान कर के पीत कमल के गन्ध से युक्त जल को अपनी सूंड़ में भर-भरकर छिड़कने लगा, इस प्रकार श्रम को दूर कर जल का यथेच्छ पान करने लगा, और दयालु गृहस्थी की तरह अपनी सूड में जल भर भर कर हथनियों और बच्चों को कभी न्हवाता और कभी जलपान करता था। वह भगवन्माया से ऐसा मदविव्हल और मदोन्मत्त हो रहा था कि उसने कुछ भी आगामी कष्ट को न जाना।
हे राजन् ! उसी तालाव में एक बड़ा बलवान ग्राह रहता था, उसने अचानक हाथी का पैर पकड़ लिया। गजपति को ग्रह द्वारा दुःखी देख कर हथिनियाँ भी चिंघाड़ मारने लगीं, उसके अन्य साथी हाथी भी अपनी सूड़ से पकड़-पकड़ कर उसे खींचने लगे परन्तु उसे मगर से न छुड़ा रुके।
हे राजन् ! इस तरह गजेन्द्र और ग्राह को लड़ते-लड़ते एक सहस्र वर्ष व्यतीत हो गये कभी हाथी ग्राह को खींच लाता था कभी ग्राह हाथी को खींच ले जाता था। ऐसा देख कर देवगण भी आश्चर्य करने लगे तदनन्तर बहुत दिन तक जल में खींचा खींची से हाथी की शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ नष्ट हो गई और इसके विपरीत जल में रहने वाले ग्राह की शक्तियाँ बढ़ गई । जब गजेन्द्र ऐसे प्राण संकट में फँस गया, तब बहुत काल तक सोचते-सोचते उसको यह बुद्धि सूझी, कि मेरे साथी ये बड़े-बड़े हाथी मुझ दुःखी को नहीं छुड़ा सके तो ये दीन हथनियाँ फिर क्या कर सकेंगी ? सो अब तो मैं अशरण शरण परमेश्वर की शरण जाऊँगा ।
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।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।
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