गज और ग्राह की कथा - भाग २ (सुख सागर कथा)गजेन्द्र मोक्ष।।
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
नवीन सुख सागर कथा
श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध८]
(गजेन्द्र मोक्ष)
गज और ग्राह की कथा।। भाग १ (सुख सागर कथा)
गज और ग्राह की कथा - भाग ३ (सुख सागर कथा)गजेन्द्र का स्वर्ग जाना।।
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श्री शुकदेव जी बोले-हे राजन् ! इस तरह गजेन्द्र विचार करके पूर्व जन्म में सीखे हुए परम जप को करने लगा।मैं उस भगवान को नमस्कार करता हूँ जिससे यह विश्व अचेतन भी चंतन्य रूप है। जब काल पाकर सम्पूर्ण लोक, लोकपाल और सबके हेतु महत्त्वादि नष्ट हो जाते है और केवल घोरतम अन्धकार ही रह जाता है, उस समय जो उस अन्धकार से परे विराजमान रहता है उस प्रभु को मैं प्रणाम करता हूँ।जैसे अनेक रूप बनाकर खेल खेलने वाले नट को और उसकी चेष्टाओं को कोई नहीं जान सकता है। उसी तरह परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान किसी को नही हो सकता। ऐसा दुरत्यय चरित्र वाला परमेश्वर मेरी रक्षा करे।हे भगवान ! आप गुणरूप अरुणि से ढके हुए ज्ञानाग्निरूप हो आपका मन सृष्टिकाल में उन गुणों के क्षोभ से विस्फूर्जित होता है। आप निष्कर्म भाव से विधि निषेध को दूर करने वाले स्वयं प्रकाश रूप हो इससे आपको नमस्कार है। आप मुझ सरीखे शरणागत पशुओं का बन्धन छुड़ाने वाले स्वयं मुक्त रूप हैं। आप करुणा के अखिल भंडार और आलस्य रहित हैं। आप अपने अंशों से सम्पूर्ण देहधारियों के मन में प्रतीत होते हो, आप सर्वान्तर्यामी सर्व द्रष्टा और बड़े हैं। हे नाथ ! अब मुझको बन्धन से छुड़ाइये। मुझको जीने की इच्छा नहीं है क्योंकि भीतर और बाहर अज्ञान से भरी हुई इस हाथी की योनि से मुझे क्या प्रयोजन है ? मैं आत्मा के अवकाश से ढकने वाले अज्ञान से मुक्ति चाहता हूँ जिसका काल के प्रभाव से कभी भी नाश ही नहीं है ।
ऐसा मुमुक्षु में विश्व के सजने वाले विश्व-रूप विश्व से भिन्न, विश्व के जानने वाले, विश्वात्मा, अजन्मा, परमपद रूप उस ब्रह्म को नमस्कार करता हूँ ।
हे राजन् ! इस प्रकार उस गजेन्द्र ने किसी विशेष मूर्ति के नाम भेद के बिना ही स्तुति की तब भिन्न-भिन्न रूपाभिमानी ब्रह्मादिक देवता खड़े-खड़े तमाशा देखते रहे। कोई रक्षा के लिए न आए!
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