सुख सागर कथा। समुद्र मंथन भाग १

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥


नवीन सुख सागर कथा।।

श्रीमद भागवद पुराण छठवाँ अध्याय [ स्कंध ८]
(अमृतोत्पादन के लिये देवासुर का उद्योग) समुद्र मंथन भाग १।।

नवीन सुखसागर श्रीमद भागवद पुराण छठवाँ अध्याय [ स्कंध ८] (अमृतोत्पादन के लिये देवासुर का उद्योग)   श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन् ! जब इस प्रकार देवताओं ने भगवान की स्तुति की, तब भगवान उन्हीं देवताओं के बीच में प्रादुर्भूत हुए। उनके महा प्रकाश से सम्पूर्ण देवताओं की दृष्टि ऐसी मन्द पड़ गई कि उनको आकाश, दिशा, पृथ्वी और अपनी आत्मा भी न दिखलाई दिया।   तब महादेव के साथ ब्रह्माजी उस रूप को देखकर स्तुति करने लगे।   "---आप जन्म स्थिति और संयम से रहित हैं, निर्गुण मोक्षरूप सुख के समुद्र हैं, आप सूक्ष्म है। मोक्ष की इच्छा के अर्थ मनुष्य वैदिक और तांत्रिक उपायों से आप के इस रूप का पूजन करते हैं।  हे जगत सृष्टा ! मैं आपको इस विश्वरूप मूर्ति में इन तीनों लोकों को एकत्र देखता हूँ। यह विश्व पहिले भी आपके स्वतन्त्र रूप में था, मध्य में भी आप में है, और कन्त में भी आप में रहेगा। आप अपनी माया से इस विश्व को रचकर इसके भीतर प्रविष्ट हुए हो। इसलिये बुद्धिमान और पण्डितजन गुणों के संसर्ग में भी आपको मन से गुण रहित ही देखते हैं।   बहुत दिन से आपके दर्शन की हमारी अभिलाषा लगी हुई थी सो आज आपके दर्शन करके हम सबको ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ है, जैसे दादाग्नि से झुलसे हुए हाथियों को गंगा जल की प्राप्ति होती है। हे बहिरातरात्मन् ! जिस कारण से हम सब लोकपाल आपके चरण कमलों में उपस्थित हुए हैं, उस हमारे मनोरथ को आप पूर्ण कीजिये ।"   ब्रम्हादिकों से इस तरह स्तुति किये जाने पर भगवान उनका मनोगत अभिप्राय जानकर बादल की गर्जना के समान अपनी गम्भीर वाणी से बोले-    "---हे ब्रम्हा ! हे शम्भो ! तुम जाओ और जब तक तुम्हारा समय अनुकूल आवे तब तक दैत्यों से मेल कर लो क्योंकि उन पर इस समय काल का अनुग्रह है। बहुत शीघ्र ही अमृत के उत्पन्न करने का प्रयत्न करो जिसके पीने से मृत्युमृस्त जीव अमर हो जाते हैं। क्षीर समुद्र में वोरुत अनेक रूखडी, तृणलता और सब प्रकार की जडी बूटी डालो; मन्दराचल पर्वत की रई और वासु की सर्प की नेती बनाओ । तदन्तर तुम निरालस्य होकर समुद्र को मथो इस काम से दैत्य केवल क्लेश के भागी होंगे और अमृत को तुम ही पीओगे।   देखो प्रथम समुद्र से कालकूट विष उत्पन्न होगा उससे डरना मत, किसी बात का लोभ मत करना क्योंकि लोभ ही से क्रोध की उत्पत्ति है।"   हे राजन ! इस तरह देवताओं को समझा बुझाकर उन्ही के बीच में उनके देखते-देखते स्वच्छन्द गति ईश्वर अन्तर्ध्यान हो गये। इसके अन्तर महादेव और ब्रम्हा परमात्मा को नमस्कार करके अपने लोक को चले गये।   फिर सब देवता बलि के पास गये । तब देवताओं को निहत्ते देखकर बलि के सेनापतियों को क्रोध हुआ। तब सन्धि और विग्रह के काल को जानने वाले कीर्तिमान राजा बलि ने उनको रोक दिया।   देवता लोग बलि के पास गये। तब इन्द्र ने बड़ी मीठी वाणी से बलि को समझा कर कहा   "----देखो भाई ? हम तुम एक बाप के पुत्र हैं लड़ाई होती ही रहती है। अब यदि हम तुम एकत्र हो जावें तो समुद्र को मथकर अमृत निकाल उसे पीकर अजर अमर हो जाय।"   इन्द्र की बात राजा बलि और शम्बर, अरिष्टनेमि त्रिपुर वासी आदि बड़े-बड़े असुरों को बहुत अच्छी लगो, देवता और असुर आपस में बड़ा मेल मिलाप और सलाह करके अमृत के लिये अत्यन्त उद्योग करने लगे । तब देवता और अतुर मन्दराचल को उखाड़कर गरजते हुए क्षीर-सागर की ओर ले चले। बहुत दूर ले जाने के कारण इन्द्र और बलि आदि सब सुरासर ऐसे थक गए कि आगे को ले चलना कठिन हो गया और मार्ग में हो विवश होकर उस पर्वत को भरशक्ति रोका परन्तु वह सधा नहीं और हाथों से छूट पड़ा। तब उसके नीचे बोझ से बहुत से देवता और राक्षसों का चूर्ण हो गया। तब भगवान गरुड़ पर सवार होकर वहां आये । पर्वत के गिरने से पिसे हुए देवता और दानवों को देख कर अपनी दृष्टि से उनको ऐसा कर दिया कि उनके घाव रहा न ब्रण (क्षीणवृत्ति, मृत) रहा। तब फिर सहज ही में भगवान एक हाथ से ही उस पर्वत को गरुड़ पर रख और आप सवार हो समुद्र तट पर पहुँच गये। तब भगवान ने गरुड़जी से कहा कि अब तुम यहाँ से चले जाओ, यहाँ नाग वासुकी आवेगा अमृत पीने के समय तुमको बुला लेंगे ।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_





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श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन् ! जब इस प्रकार देवताओं ने भगवान की स्तुति की, तब भगवान उन्हीं देवताओं के बीच में प्रादुर्भूत हुए। उनके महा प्रकाश से सम्पूर्ण देवताओं की दृष्टि ऐसी मन्द पड़ गई कि उनको आकाश, दिशा, पृथ्वी और अपनी आत्मा भी न दिखलाई दिया। 

तब महादेव के साथ ब्रह्माजी उस रूप को देखकर स्तुति करने लगे। 
















"---आप जन्म स्थिति और संयम से रहित हैं, निर्गुण मोक्षरूप सुख के समुद्र हैं, आप सूक्ष्म है।
मोक्ष की इच्छा के अर्थ मनुष्य वैदिक और तांत्रिक उपायों से आप के इस रूप का पूजन करते हैं। 
हे जगत सृष्टा ! मैं आपको इस विश्वरूप मूर्ति में इन तीनों लोकों को एकत्र देखता हूँ। यह विश्व पहिले भी आपके स्वतन्त्र रूप में था, मध्य में भी आप में है, और कन्त में भी आप में रहेगा। आप अपनी माया से इस विश्व को रचकर इसके भीतर प्रविष्ट हुए हो। इसलिये बुद्धिमान और पण्डितजन गुणों के संसर्ग में भी आपको मन से गुण रहित ही देखते हैं।


बहुत दिन से आपके दर्शन की हमारी अभिलाषा लगी हुई थी सो आज आपके दर्शन करके हम सबको ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ है, जैसे दादाग्नि से झुलसे हुए हाथियों को गंगा जल की प्राप्ति होती है।
हे बहिरातरात्मन् ! जिस कारण से हम सब लोकपाल आपके चरण कमलों में उपस्थित हुए हैं, उस हमारे मनोरथ को आप पूर्ण कीजिये ।" 


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ब्रम्हादिकों से इस तरह स्तुति किये जाने पर भगवान उनका मनोगत अभिप्राय जानकर बादल की गर्जना के समान अपनी गम्भीर वाणी से बोले- 



"---हे ब्रम्हा ! हे शम्भो ! तुम जाओ और जब तक तुम्हारा समय अनुकूल आवे तब तक दैत्यों से मेल कर लो क्योंकि उन पर इस समय काल का अनुग्रह है। बहुत शीघ्र ही अमृत के उत्पन्न करने का प्रयत्न करो जिसके पीने से मृत्युमृस्त जीव अमर हो जाते हैं। क्षीर समुद्र में वोरुत अनेक
रूखडी, तृणलता और सब प्रकार की जडी बूटी डालो; मन्दराचल पर्वत की रई और वासु की सर्प की नेती बनाओ । तदन्तर तुम निरालस्य होकर समुद्र को मथो इस काम से दैत्य केवल क्लेश के भागी होंगे और अमृत को तुम ही पीओगे। 

देखो प्रथम समुद्र से कालकूट विष उत्पन्न होगा उससे डरना मत, किसी बात का लोभ मत करना क्योंकि लोभ ही से क्रोध की उत्पत्ति
है।" 

हे राजन ! इस तरह देवताओं को समझा बुझाकर उन्ही के बीच में उनके देखते-देखते स्वच्छन्द गति ईश्वर अन्तर्ध्यान हो गये। इसके अन्तर महादेव और ब्रम्हा परमात्मा को नमस्कार करके अपने लोक को चले गये। 


फिर सब देवता बलि के पास गये । तब देवताओं को निहत्ते देखकर बलि के सेनापतियों को क्रोध हुआ। तब सन्धि और विग्रह के काल को जानने वाले कीर्तिमान राजा बलि ने उनको रोक दिया। 

देवता लोग बलि के पास गये। तब इन्द्र ने बड़ी मीठी वाणी से बलि को समझा कर कहा 

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"----देखो भाई! हम तुम एक बाप के पुत्र हैं लड़ाई होती ही रहती है।
अब यदि हम तुम एकत्र हो जावें तो समुद्र को मथकर अमृत निकाल उसे पीकर अजर अमर हो जाय।" 

इन्द्र की बात राजा बलि और शम्बर, अरिष्टनेमि त्रिपुर वासी आदि बड़े-बड़े असुरों को बहुत अच्छी लगो, देवता और असुर आपस में बड़ा मेल मिलाप और सलाह करके अमृत के लिये अत्यन्त उद्योग करने लगे ।
तब देवता और अतुर मन्दराचल को उखाड़कर गरजते हुए क्षीर-सागर की ओर ले चले। बहुत दूर ले जाने के कारण इन्द्र और बलि आदि सब सुरासर ऐसे थक गए कि आगे को ले चलना कठिन हो गया और मार्ग में हो विवश होकर उस पर्वत को भरशक्ति रोका परन्तु वह सधा नहीं और हाथों से छूट पड़ा।
तब उसके नीचे बोझ से बहुत से देवता और राक्षसों का चूर्ण हो गया। तब भगवान गरुड़ पर सवार होकर वहां आये । पर्वत के गिरने से पिसे हुए देवता और दानवों को देख कर अपनी दृष्टि से उनको ऐसा कर दिया कि उनके घाव रहा न ब्रण (क्षीणवृत्ति, मृत) रहा। तब फिर सहज ही में भगवान एक हाथ से ही उस पर्वत को गरुड़ पर रख और आप सवार हो समुद्र तट पर पहुँच गये। तब भगवान ने गरुड़जी से कहा कि अब तुम यहाँ से चले जाओ, यहाँ नाग वासुकी आवेगा अमृत पीने के समय तुमको बुला लेंगे । 

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श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। 

Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com. Suggestions are welcome!

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