समुद्र मंथन।। भाग २ (कालकूट की उत्पत्ति)

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

नवीन सुख सागर कथा

श्रीमद भागवद पुराण सातवाँ अध्याय स्कंध ८
समुद्र मंथन से कालकूट की उत्पत्ति 


दो०- विष लखि डरपे सवे जल, कीन्ह शम्भु विष पान।
सो सप्तम अध्याय में, वर्णन चरित महान।। 


नवीन सुख सागर कथा श्रीमद भागवद पुराण सातवाँ अध्याय स्कंध ८ समुद्र मंथन से कालकूट की उत्पत्ति   दो०- विष लखि डरपे सवे जल, कीन्ह शम्भु विष पान। सो सप्तम अध्याय में, वर्णन चरित महान।।   श्री शुकदेव जी बोले- तदनन्तर सब देवता लोग वासुकी को अमृत का भाग देने की प्रतिक्षा कर बुला लाये और उसे पर्वत से लपेट कर प्रसन्न हो सावधानी से समुद्र के मंथन को प्रारम्म करने लगे।   हरि ने प्रथम वासुकी का मुख पकड़ा और सब देवता भी उसी ओर हो गये। भगवान का यह कार्य दानवों को अच्छा न लगा और कहने लगे कि हम सर्प की अमङ्गल रूप पुच्छ को ग्रहण न करेंगे। तब भगवान दैत्यों को देखकर हँसते हुए अग्रभाग को छोड़ सब देवताओं सहित पूछ की ओर जा लगे। इस तरह स्थान विभाग करके देवता और दानव अत्यन्त सावधानी से अमृत के लिये समुद्र को मथने लगे परन्तु वह पर्वत बड़ा भारी था। सो वह निराधार होने के कारण मथते समय समुद्र में नीचे को धसकने लगा। यद्यपि उसको देव और दानवों ने बहुत कुछ थामा परन्तु जब किसी प्रकार से न थम सका तब उन सब लोगों के मन उदास हो गये। तदनन्तर सब देवो ने नारायण को याद किया तब उसी समय भगवान ने विध्नेश गणेश जी का किया हुआ उपद्रव जान कर बड़े कछुए का अद्भुत रूप धारण करके जल में घुस पर्वत को अपनी पीठ पर उठा लिया। तब पर्वत को फिर उठा हुआ देखकर देव दानव मथनें के लिये फिर तैयार हुए। उस पर्वत को पीठ पर धारण करते आदि कच्छप रूप भगवान उस पर्वत की रगड़ को ऐसा मानते थे कि देह में चलती खुजली को मानो कोई ख़ुजा रहा है। इसी तरह असुर रूप धारण कर असुरों में प्रविष्ठ हो उनका बल-वीर्य बढ़ाने लगे और देवरूप से देवताओं में प्रवेश हो उनको उत्तेजित करने लगे अबोध रूप से वासुकी नाग में भी प्रविष्ट हो गये और एक रूप से समुद्र के जल में भी आपने प्रवेश किया, और हजार भुजाओं का रूप धारण कर दूसरे पर्वत की तरह ऊपर से भी उन पर्वत को पकड़ कर आप स्थित हुए ।   उस  समय आकाश से ब्रह्मा, महादेव, और इन्द्रादि सब देवता स्तुति कर-करके फूल वर्षाने लगे।   जब सुरासर समुद्र मथने लगे वासुकी के सहस्त्रों नेत्र और श्वांस से निकली हुई ज्वाला के धूए से तेज हीन हुए पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल प्रादि सब असुर दावाग्नि से दग्ध हुए सरल सरेरों के वृक्षों की तरह काले हो गये। देवता भी जब वासुकी के श्वासों की शिखा से प्रभाहीन हुए, तब भगवद्वशवर्ती मेघ बरसने लगे और समुद्र के तरङ्गों का स्पर्श करती हुई मन्द बन्द पवनें चलने लगी । इस तरह देव और दानवों के यूथों के मथने पर भी जब अमृत न निकला भगवान स्वयं मथने लगे। अपनी भुजाओं से वासुकी सर्प को पकड़कर समुद्र को मथते हुए भगवान एसे शोभायमान हुए जैसे कोई दूसरा पर्वत ही मानो समुद्र को मथ रहा है।   तदन्तर समुद्र से मथते-मथते महा हलाहल कालकूट विष उत्पन्न हुआ । असहय विष की झरफों ऊपर नीचे चारों ओर फैलती हुई देखकर प्रजा भयभीत होकर प्रजापतियों को संग लेकर सदाशिव की शरण गई। उस समय महादेव पार्वती सहित कैलाश में बैठे हुऐ मुनियों को अभिप्सित मोक्ष के लिये तपस्या कर रहे थे।    उनको देख प्रजापति लोक प्रणाम करके डोले- हे भूतभावन ! इस त्रिलोकी के जलाने वाले विष के भय से भयभीत होकर आपकी शरण आये हैं। सो इस विष के भय से हमारी शरणागतों की रक्षा कीजिये।   हे राजन्! इस तरह उन सब को दुःखी देखकर महादेव जी ने उस हलाहल विष को हथेली पर रखकर पी लिया। विष के प्रभाव से महादेवजी का कण्ठ नीलवर्ण हो गया और उसी दिन से महादेव जी नीलकण्ठ कह लाने लगे महादेव के इस अद्भुत कर्म को देखकर सती, और भगवान सब प्रशंसा करने लगे। विष के पान करने के समय जो हाथ में से कोई बूंद टपक पड़ी थी उनको बिछु, सर्प आदिकों ने ग्रहण कर लिया जिससे ये सब विषधर हो गये।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

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श्री शुकदेव जी बोले- तदनन्तर सब देवता लोग वासुकी को अमृत का भाग देने की प्रतिक्षा कर बुला लाये और उसे पर्वत से लपेट कर प्रसन्न हो सावधानी से समुद्र के मंथन को प्रारम्भ करने लगे।


हरि ने प्रथम वासुकी का मुख पकड़ा और सब देवता भी उसी ओर हो गये। भगवान का यह कार्य दानवों को अच्छा न लगा और कहने लगे कि हम सर्प की अमङ्गल रूप पुच्छ को ग्रहण न करेंगे। तब भगवान दैत्यों को देखकर हँसते हुए अग्रभाग को छोड़ सब देवताओं सहित पूछ की ओर जा लगे। इस तरह स्थान विभाग करके देवता और दानव अत्यन्त सावधानी से अमृत के लिये समुद्र को मथने लगे परन्तु वह पर्वत बड़ा भारी था। सो वह निराधार होने के कारण मथते समय समुद्र में नीचे को धसकने लगा। यद्यपि उसको देव और दानवों ने बहुत कुछ थामा परन्तु जब किसी प्रकार से न थम सका तब उन सब लोगों के मन उदास हो गये। तदनन्तर सब देवो ने नारायण को याद किया तब उसी समय भगवान ने विध्नेश गणेश जी का किया हुआ उपद्रव जान कर बड़े कछुए का अद्भुत रूप धारण करके जल में घुस पर्वत को अपनी पीठ पर उठा लिया। तब पर्वत को फिर उठा हुआ देखकर देव दानव मथनें के लिये फिर तैयार हुए। उस पर्वत को पीठ पर धारण करते आदि कच्छप रूप भगवान उस पर्वत की रगड़ को ऐसा मानते थे कि देह में चलती खुजली को मानो कोई ख़ुजा रहा है।








नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १

इसी तरह असुर रूप धारण कर असुरों में प्रविष्ठ हो उनका बल-वीर्य बढ़ाने लगे और देवरूप से देवताओं में प्रवेश हो उनको उत्तेजित करने लगे अबोध रूप से वासुकी नाग में भी प्रविष्ट हो गये और एक रूप से समुद्र के जल में भी आपने प्रवेश किया, और हजार भुजाओं का रूप धारण कर दूसरे पर्वत की तरह ऊपर से भी उन पर्वत को पकड़ कर आप स्थित हुए ।


उस  समय आकाश से ब्रह्मा, महादेव, और इन्द्रादि सब देवता स्तुति कर-करके फूल वर्षाने लगे। 

जब सुरासर समुद्र मथने लगे वासुकी के सहस्त्रों नेत्र और श्वांस से निकली हुई ज्वाला के धूए से तेज हीन हुए पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल प्रादि सब असुर दावाग्नि से दग्ध हुए सरल सरेरों के वृक्षों की तरह काले हो गये। देवता भी जब वासुकी के श्वासों की शिखा से प्रभाहीन हुए, तब भगवद्वशवर्ती मेघ बरसने लगे और समुद्र के तरङ्गों का स्पर्श करती हुई मन्द बन्द पवनें चलने लगी । इस तरह देव और दानवों के यूथों के मथने पर भी जब अमृत न निकला भगवान स्वयं मथने लगे। अपनी भुजाओं से वासुकी सर्प को पकड़कर समुद्र को मथते हुए भगवान एसे शोभायमान हुए जैसे कोई दूसरा पर्वत ही मानो समुद्र को मथ रहा है। 

तदन्तर समुद्र से मथते-मथते महा हलाहल कालकूट विष उत्पन्न हुआ । असहय विष की झरफों ऊपर नीचे चारों ओर फैलती हुई देखकर प्रजा भयभीत होकर प्रजापतियों को संग लेकर सदाशिव की शरण गई। उस समय महादेव पार्वती सहित कैलाश में बैठे हुऐ मुनियों को अभिप्सित मोक्ष के लिये तपस्या कर रहे थे। 

उनको देख प्रजापति लोक प्रणाम करके डोले- हे भूतभावन ! इस त्रिलोकी के जलाने वाले विष के भय से भयभीत होकर आपकी शरण आये हैं। सो इस विष के भय से हमारी शरणागतों की रक्षा कीजिये। 

हे राजन्! इस तरह उन सब को दुःखी देखकर महादेव जी ने उस हलाहल विष को हथेली पर रखकर पी लिया। विष के प्रभाव से महादेवजी का कण्ठ नीलवर्ण हो गया और उसी दिन से महादेव जी नीलकण्ठ कह लाने लगे महादेव के इस अद्भुत कर्म को देखकर सती, और भगवान सब प्रशंसा करने लगे। विष के पान करने के समय जो हाथ में से कोई बूंद टपक पड़ी थी उनको बिछु, सर्प आदिकों ने ग्रहण कर लिया जिससे ये सब विषधर हो गये। क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।


आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।


तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।

मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!
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