सुख सागर 22 अध्याय [स्कंध८] [भगवान का द्वारपालना स्वीकार ] वामन अवतार  भाग 6

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

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नवीन  सुख  सागर  श्रीमद भागवद  पुराण अध्याय २२ स्कंध ८ [ भगवान का द्वारपालना स्वीकार ] दोहा-बाईसवें अध्याय में बलि भेज्यो पाताल। आप द्वार रक्षक भये दीनानाथ दयाल | ।   श्रीशुकदेवजी बोले-हे राजन् ! भगवान के इस प्रकार धिक्कारने पर बलि विनयभाव से बोला----   "-हे उत्तम श्लोक । मेरे वचनों को मिथ्या न मानिये, आप अपना तीसरा पेंड़ मेरे शिर पर रखकर नाप लीजिये, क्योंकि जब मेरे बाहुबल से अजित पृथ्वी अपके एक ही पेंड़ में हो गई है तो क्या मेरा शरीर आपके एक पेंड़ भी नहीं हो सकता है ? मैं नरक में जाने से नहीं डरता हूँ, वरुणशाप के बन्धन से भी नहीं डरता हूँ, मुझे केवल आपके इस झूठे कहे का बहुत डर हैं।   हम असुरगण आप से बैर करके उस सिद्धि पर पहुँच गए हैं जिसको एकान्तवासी योगो भी कठिनता से पाते हैं। आपने जो मेरा निग्रह किया और मुझको वरुणपाश से बाँधा हैं, इससे मुझको न लज्जा है न दुःख है। मेरे पितामह प्रहलादजी कहते थे कि जब ये देह अन्त में छोड़कर जाता है तो इस देह से क्या प्रयोजन है! और मरने पर धन के हरने वाले भाई रूप चोरों से, तथा इस संसार में बन्धन रूप स्त्री से भी क्या प्रयोजन है ? घर में भी आयु क्षीण हो जाती है फिर इससे भी क्या फल हैं ? इस विचारों को दृढ़ करके मेरे पितामह को अगाध बोध हो गया और आपके पद पङ्कजों में भक्ति प्राप्ति हुई।    मेरी भी दैव ने लक्ष्मी हरकर बल पूर्वक मेरे बैरी ने आपके पास ला डाला है, यह भी अहोभाग्य है क्योंकि आपने मुझको उस सम्पति से हटा दिया है जिससे सम्बन्ध स्थापित होकर प्राणी मृत्यु के समीप पहुँचाने वाले भी अपने जीवन को अनित्य नहीं सम केयु है।"    हे राजन् ! बलि के इस तरह कहने पर प्रहलादजी चन्द्रमा की तरह प्रकाश करने हुए यहाँ आ गए। तब वरुणवाश से बद्ध बलि ने प्रहलाद को पूर्ववत् नमस्कार नहीं किया केवल शिर झुका दिया। नेत्रों में आँसू भरआए और उससे लज्जा से मुख नीचा कर लिया। तब प्रहालजी ने भगवान को देखकर दौड़कर धरती पर गिर प्रणाम किया प्रहलादजी बोले- "हे प्रभो ! आप ही ने तो बलि को इन्द्र के ऊपर गौरव दिया था और आप ही ने ले लिया, यह बड़ा ही अनुग्रह किया क्योंकि यह मदान्ध होकर आपको भूल गया था।"   हे राजन् ! इस तरह प्रहलाद हाथ जोड़े खड़े थे, तब ही उसी समय पति को बँधा हुआ देख बलि की स्त्री भय से विकल हो हाथ जोड़ नीचा मुखकर वामनजी से बोली----   "हे महाराज ! आपने अपनी क्रीड़ा के लिये यह जगत रचाया तो मूर्ख लोग वृथा ही अपने को इस जगत का स्वामी कहते हैं परन्तु इसकी उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले, आपको कोई क्या दे सकता है! जो कुछ उनके पास है वह भी आप ही का दिया हुआ है।"   ब्रह्मा जी बोले- हे देव ! जो कुछ इसने अपने पराक्रम से सञ्जय किया था वह सर्वस्व आपको दे चुका, देते समय इनके मन में कुछ विचार न हुआ। जो कोई शठ बुद्धि को छोड़कर आपके चरणों में जल और दूर्वाकर मात्र भी समर्पण करता हैं वह भी उत्तम गति को पाता हैं, फिर इसने तो बड़ी प्रसन्नता पूर्वक त्रिलोकी और अपना देह भी आपके समर्पण कर दिया, फिर वह क्लेश क्यों रवे? इस कारण इसको अब छोड़ दीजिये।"   भगवान बोले- हे ब्रह्मा ! जिप पर मैं अनुग्रह करता हूँ प्रथम उसका सर्वस्व छीन लेता हूँ क्योंकि वह धनादिक मदसे मदान्ध होकर मुझको व लोकों को कुछ नहीं समझता हैं। जिसको जन्म, कर्म, बल, विद्या, ऐश्वर्य और धनादिक से मद नहीं होता है उस पर मेरा पूरा अनुग्रह होता हैं। ये बलि दैत्यों का अग्रणी और कीर्तिवर्धन है इसने मेरी माया को जीत लिया है, इसलिये ये दुःख पाता हुआ भी बिल्कुल नहीं घबड़ाया है। इसका कोष खाली हो गया है, मुझसे तिरस्कार तथा स्थान से भ्रष्ट हुआ है। गुरु ने फटकार दिया और शाप दे दिया तथापि यह सत्य से नहीं हटा है और मैंने छल से इसको धर्मोपदेश किया, तब भी इसने अपना सत्य वाक्य नहीं छोड़ा। इस लिए यह देवताओं को भी दुर्लभ स्थान को पावेगा और अगाड़ी होने वाले सावर्णि मन्वन्तारों में यही मेरा आश्रय भूत इन्द्र होगा। हे बलि ! अपने जातिवर्गों को लेकर सुतल लोक में जाकर निवास करो । लोकपाल भी तुम को पराभव न कर सकेंगे । मैं सदा तेरी सकुटुम्बरक्षा करता हुआ तेरे दरवाजे पर मूसल लेकर खड़ा रहूँगा | वहां दैत्य दानवों के संग से जो तुम्हारा आसुरी भाव है वह भी मेरे प्रभाव को देखकर शीघ्र नष्ट हो जायगा।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

नवीन  सुख  सागर 

श्रीमद भागवद  पुराण अध्याय २२ स्कंध ८ [भगवान का द्वारपालना स्वीकार]

दोहा-बाईसवें अध्याय में बलि भेज्यो पाताल।

आप द्वार रक्षक भये दीनानाथ दयाल | ।

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श्रीशुकदेवजी बोले-हे राजन् ! भगवान के इस प्रकार धिक्कारने पर बलि विनयभाव से बोला---- 

"-हे उत्तम श्लोक । मेरे वचनों को मिथ्या न मानिये, आप अपना तीसरा पेंड़ मेरे शिर पर रखकर नाप लीजिये, क्योंकि जब मेरे बाहुबल से अजित पृथ्वी अपके एक ही पेंड़ में हो गई है तो क्या मेरा शरीर आपके एक पेंड़ भी नहीं हो सकता है ? मैं नरक में जाने से नहीं डरता हूँ, वरुणशाप के बन्धन से भी नहीं डरता हूँ, मुझे केवल आपके इस झूठे कहे का बहुत डर हैं। 

हम असुरगण आप से बैर करके उस सिद्धि पर पहुँच गए हैं जिसको एकान्तवासी योगो भी कठिनता से पाते हैं। आपने जो मेरा निग्रह किया और मुझको वरुणपाश से बाँधा हैं, इससे मुझको न लज्जा है न दुःख है। मेरे पितामह प्रहलादजी कहते थे कि जब ये देह अन्त में छोड़कर जाता है तो इस देह से क्या प्रयोजन है! और मरने पर धन के हरने वाले भाई रूप चोरों से, तथा इस संसार में बन्धन रूप स्त्री से भी क्या प्रयोजन है ? घर में भी आयु क्षीण हो जाती है फिर इससे भी क्या फल हैं ? इस विचारों को दृढ़ करके मेरे पितामह को अगाध बोध हो गया और आपके पद पङ्कजों में भक्ति प्राप्ति हुई। 


मेरी भी दैव ने लक्ष्मी हरकर बल पूर्वक मेरे बैरी ने आपके पास ला डाला है, यह भी अहोभाग्य है क्योंकि आपने मुझको उस सम्पति से हटा दिया है जिससे सम्बन्ध स्थापित होकर प्राणी मृत्यु के समीप पहुँचाने वाले भी अपने जीवन को अनित्य नहीं सम केयु है।"









हे राजन् ! बलि के इस तरह कहने पर प्रहलादजी चन्द्रमा की तरह प्रकाश करने हुए यहाँ आ गए। तब वरुणवाश से बद्ध बलि ने प्रहलाद को पूर्ववत् नमस्कार नहीं किया केवल शिर झुका दिया। नेत्रों में आँसू भर आए और उससे लज्जा से मुख नीचा कर लिया। तब प्रहालजी ने भगवान को देखकर दौड़कर धरती पर गिर प्रणाम किया प्रहलादजी बोले- "हे प्रभो ! आप ही ने तो बलि को इन्द्र के ऊपर गौरव दिया था और आप ही ने ले लिया, यह बड़ा ही अनुग्रह किया क्योंकि यह मदान्ध होकर आपको भूल गया था।"


हे राजन् ! इस तरह प्रहलाद हाथ जोड़े खड़े थे, तब ही उसी समय पति को बँधा हुआ देख बलि की स्त्री भय से विकल हो हाथ जोड़ नीचा मुखकर वामनजी से बोली---- 

"हे महाराज ! आपने अपनी क्रीड़ा के लिये यह जगत रचाया तो मूर्ख लोग वृथा ही अपने को इस जगत का स्वामी कहते हैं परन्तु इसकी उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले, आपको कोई क्या दे सकता है! जो कुछ उनके पास है वह भी आप ही का दिया हुआ है।" 








ब्रह्मा जी बोले- हे देव ! जो कुछ इसने अपने पराक्रम से सञ्जय किया था वह सर्वस्व आपको दे चुका, देते समय इनके मन में कुछ विचार न हुआ। जो कोई शठ बुद्धि को छोड़कर आपके चरणों में जल और दूर्वाकर मात्र भी समर्पण करता हैं वह भी उत्तम गति को पाता हैं, फिर इसने तो बड़ी प्रसन्नता पूर्वक त्रिलोकी और अपना देह भी आपके समर्पण कर दिया, फिर वह क्लेश क्यों रवे? इस कारण इसको अब छोड़ दीजिये।" 

भगवान बोले- हे ब्रह्मा ! जिप पर मैं अनुग्रह करता हूँ प्रथम उसका सर्वस्व छीन लेता हूँ क्योंकि वह धनादिक मदसे मदान्ध होकर मुझको व लोकों को कुछ नहीं समझता हैं। जिसको जन्म, कर्म, बल, विद्या, ऐश्वर्य और धनादिक से मद नहीं होता है उस पर मेरा पूरा अनुग्रह होता हैं। ये बलि दैत्यों का अग्रणी और कीर्तिवर्धन है इसने मेरी माया को जीत लिया है, इसलिये ये दुःख पाता हुआ भी बिल्कुल नहीं घबड़ाया है। इसका कोष खाली हो गया है, मुझसे तिरस्कार तथा स्थान से भ्रष्ट हुआ है। गुरु ने फटकार दिया और शाप दे दिया तथापि यह सत्य से नहीं हटा है और मैंने छल से इसको धर्मोपदेश किया, तब भी इसने अपना सत्य वाक्य नहीं छोड़ा। इस लिए यह देवताओं को भी दुर्लभ स्थान को पावेगा और अगाड़ी होने वाले सावर्णि मन्वन्तारों में यही मेरा आश्रय भूत इन्द्र होगा। हे बलि ! अपने जातिवर्गों को लेकर सुतल लोक में जाकर निवास करो । लोकपाल भी तुम को पराभव न कर सकेंगे । मैं सदा तेरी सकुटुम्बरक्षा करता हुआ तेरे दरवाजे पर मूसल लेकर खड़ा रहूँगा | वहां दैत्य दानवों के संग से जो तुम्हारा आसुरी भाव है वह भी मेरे प्रभाव को देखकर शीघ्र नष्ट हो जायगा।

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।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। 

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