परीक्षित के श्राप की कथा ।।

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का अठारहवां आध्यय [स्कंध १]

(परीक्षित का आखेट में तृषित होकर शमीक ऋषि के आश्रम में जाना, मरा सर्प ऋषि के गले में डालना, श्रंगी ऋषि का शाप देना)भागवत (सुखसागर) की कथाएँ -- कलियुग का आगमन

दो० दिये परीक्षित शाप जिमि मुनि सुत क्रोध बड़ाय ।

सो अठारहवं अध्याय में कथा भाषत प्रेम बढ़ाय।।



सूतजी बोले यद्यपि कलियुग का प्रवेश होगया था परन्तु जब तक राजा परीक्षित का एक छत्र राज्य रहा तब कलि अपना किसी पर प्रभाव न कर सका। 

जिस दिन श्री कृष्ण इस पृथ्वी को त्याग गये उसी दिन से कलियुग ने पृथ्वी पर अपना डेरा जमा दिया।





 राजा परीक्षित भौरे की तरह सार वस्तु का ग्रहण करने वाला था, इसलिए इसने कलियुग से बैर बांधना उचित न समझा क्योंकि इस कलियुग में मनसा पुण्य तो होता है परन्तु पाप नहीं होता है किन्तु पाप करने से ही लगता है और पुण्य कर्म मन में विचारने से हो जाता है।
युग, काल एवं घड़ी, मुहूर्त, आदि की व्याख्या।।मनवन्तर आदि के समय का परमाण वर्णन।।






 एक दिन ऐसा हुआ कि राजा परीक्षित धनुष बाण लेकर जङ्गल में आखेट को गये और मृगों के पीछे दौड़ते - दौड़ते भूख प्यास से बहुत ही व्याकुल हो गए। कहीं कोई तालाब नदी कुआं आदि दृष्टि नहीं पड़ता था। ढूँढ़ते ढूँढते जगत प्रसिद्ध शमीक नाम ऋषि के आश्रम में पहुँचे और वहां शान्तस्वरूप ऋषि को आँख बन्द किए बैठा देखा। उनकी जटाऐं चारों ओर बिखरी हुई थीं, रुरुनामक हिरण की मृगछाला को ओढ़े बैठे हुये थे ओर ऐसे ध्यानावस्थित थे कि उन्हें राजा के आने जाने का कुछ ज्ञान न था।

 इस प्रकार से विराजमान हुए ऋषि से राजा ने जल मांगा क्योंकि प्यास के मारे राजा का तालु और कण्ठ सूखा जाता था। तब राजा को कुछ उत्तर न मिला और मुनि ने बैठने को आसन, जगह, अर्घ कुछ भी न दिया और न मीठे बचनों से सत्कार किया तब तो राजा अपने जी में अपमान समझ कर बड़े ही क्रुध हुए।











हे ऋषियों! राजा भूख प्यास से ऐसा पीड़ित था कि उस को ब्राह्मण पर अत्यंत ही मत्सर और क्रोध आ गया। आश्रम से निकल कर राजा ने एक मरा हुआ सर्प देखा और अपने धनुष की कोटि से उठा कर उस ऋषि के कंध  पर रखकर अपने नगर की राह ली। 

राजा ने यह काम इस परीक्षन लिये किया था कि मुनि ने देख कर झूठी समाधि लगाकर आंख बन्द तो नहीं करली है, कि ये क्षत्रिय हमारा क्या कर सकते, सच्ची सर्वेन्द्रिय निरोध रूप समाधि लगाकर बैठे है या नहीं? 
इन शमीक ऋषि का अति तेजस्वी श्रृंगी नामक पुत्र बालकों साथ खेल रहा था सो खेलने वाले बालक से किसी ने जाकर कर कह दिया कि तेरे बाप के गले में कोई राजा मरा हुआ सर्प डाल गया है। यह सुन वह बालक कहने लगा-कि हाय! हाय ! आश्चर्य हैं। ये राजा कैसे अधर्मी हो गए है, इन नीच दुर्बुध्दि उन्मार्गगामी राजाओं को दण्ड देने वाले श्री कृष्ण भगवान परमधाम को चले गये अब इनको डर किसका है, इसी से ये धर्म के सेतू को तोड़कर चलने लगे हैं, सो आज मेरा बल देखो में इन नीच राजाओं को कैसी शिक्षा देता हूँ। 


इस तरह कहकर क्रोध से लाल आँखें करके कौशिकी नदी का जल हाथ में ले ये शाप दिया कि जिसने धर्म की मर्यादा तोड़कर मेरे पिता के गले में मरा हुआ सर्प डाला है उस मेरे पिता के बैरी कुलंगार को मेरा भेजा हुआ तक्षक आज के सातवें दिन काट खायेगा।

एक महत्वपूर्ण उपकरण थी नारायणी सेना।


पितृपक्ष


हिन्दु एकता में सोशल नेटवर्क भी सहायक।


गर्भ से पिता को टोकने वाले अष्टावक्र ।।अष्टावक्र, महान विद्वान।।


महाकाल के नाम पर कई होटल, उनके संचालक मुस्लिम


क्या थे श्री कृष्ण के उत्तर! जब भीष्मपितामह ने राम और कृष्ण के अवतारों की तुलना की?A must read phrase from MAHABHARATA.


श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य।।


 इस तरह शाप देकर वह ऋषि का बालक अपने आश्रम में आया और पिता के गले में मरा हुआ सर्प देखकर उच्च स्वर से दाढ़ मारकर कंठ फाड़ कर रोने लगा। अपने पुत्र के शोक संतप्त रुदन को सुन शमीक ऋषि ने धीरे-धीरे नेत्र खोले और अपने कन्धों पर मरा हुआ सर्प देखकर उसे निकाल कर फेंक दिया और पुत्र से पूछने लगे-हे पुत्र तू क्यों रोता है ? किसने तेरा तिरस्कार किया है यह सुनकर ह़ी ऋषि ने अपने पिता को सब वृत्तान्त जो कि शाप दिया था वो सब कह सुनाया। 
राजा को अयोग्य शाप दिया हुआ सुनकर ऋषि ने अपने पुत्र की बड़ाई न की और कहने लगे, हे अज्ञ !तेने बड़ा गजब किया है। हाय ऐसे थोड़े अपराध पर ऐसा भारी दण्ड तूने दे दिया, हाय ! हाय ! यह काम तो बहुत ही अयोग्य किया है। अरे जड-बुद्धि कच्ची बुद्धि के बालक ! राजा मनुष्यों की गिनती में नहीं हैं, उसकी तुलना किसी देहधारी से नहीं की जा सकती। क्योंकि इसके दुस्सह प्रताप से प्रजा निर्भय होकर सुख भोगती है। राजा साक्षात् विष्णु का स्वरूप होता है। यदि राजा प्रजा की रक्षा न करे तो वह प्रजा तस्करों के बढ़ जाने से नष्ट हो जाती है जैसे गड़रिये के बिना भेड़ों का समूह नष्ट हो जाता है। राजा के नष्ट होने से प्रजा का धन लुटेरे लूट ले जाते हैं, आपस में प्रजा लड़ती है, मनुष्यों का वेदोक्त धर्म और वर्णाश्रम नष्ट हो जाता है, धन के लोभी तथा विषयासक्त मनुष्य धर्म मर्यादा को छोड़कर कुत्ते और बन्दर की तरह वर्णसंकर हो जाते हैं। यह राजा परीक्षित तो साक्षात राजर्षि अश्वमेध यज्ञ करने वाला, चक्रवर्ती धर्म का प्रतिपालक सो भूख प्यास के श्रम से युक्त हुआ हमारे आश्रम में आया,ये राजा क्या शाप देने के लायक था! वह तो सत्कार के योग्य था। 

शमीक ऋषि ने उस तरह ये सब बातें अपने पुत्र से जल्दी-जल्दी कही, और भगवान से प्रार्थना की-हे भगवान ! इस अनसमझ बालक ने जो आपके सेवक का अपराध किया है वह तू अच्छी तरह जानता है सो इस अपराध को क्षमा कर इस तरह वह ऋषि अपने पुत्र के किये हुए अपराध पर महादुखी हुए, परन्तु उस अपराध पर ध्यान भी न किया को राजा परीक्षित ने किया था।





।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अठारहवां अध्याय समाप्तम🥀।।

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