सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


नवीन सुख सागर कथा श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध ७] मनुष्य और स्त्री धर्म वर्णन दो०-या ग्यारह अध्याय में, वरणी कथा विचार।  नर नारी के धर्म का, कह दियो सब सार॥   सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।। सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों (क्षत्रिय, ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य) का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।    नारदजी द्वारा प्रहलाद भक्त का सुखदाई चरित्र सुनकर धर्मराज युधिष्ठर ने कहा-हे नारदजी ! मैं अब आपके श्री मुख से सनातन धर्म सुनना चाहता हूँ सो उनके वर्णन आश्रम को आचार सहित वर्णन कीजिये।    नारदजी बोले- हे राजन! धर्म का मूल सर्व देवमय भगवान हैं।  जैसे धर्म के विषय में प्रमाण हैं, ऐसे ही वेद-ज्ञाताओं ने वेद की स्मृतियां भी वेद की प्रमाण रूप मानी हैं।   जिससे अंतःकरण शुद्ध हो जावे वह भी धर्म है।  सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, इच्छा, शम, दम, अहिंसा, वृह्मदर्य, दान, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदृष्टि वाले महात्मा जनों की सेवा शनैः शनैः प्रवृत्त कर्मों से निवृत्ति, मनुष्यों के निष्फल जाते हुए कर्मों का विचार, मौन, आत्म-ज्ञान विचार, अपने भोजन में से दूसरे को बाँटकर देना, प्राणियों और आत्माओं में देवताओं की बुद्धि रखना, श्रीकृष्ण भगवान की नवधा भक्ति करना, कीर्तन, स्मरण, सेवा, पूजन, नमस्कार, करना दास-माव से बर्तना मित्र भाव से रहना, आत्म समर्पण करना, इस प्रकार मनुष्य का यह तीस लक्षों वाला यह परम धर्म कहा है।  जिसके करने से भगवान प्रसन्न होते हैं। जो ब्राम्हण तथा क्षत्री तथा वैश्य जन्म तथा कर्म से शुद्ध हैं, उन्हीं को वेद पढ़ना, दान देना, यज्ञ करना, ये तीन कर्म करने का अधिकार है।   जिनमें यज्ञ कराना, वेद पढ़ना, दान देना, यज्ञ कराना, दान लेना ये छः कर्म ब्राम्हणों के हैं।   इनमें पिछले तीन कर्म ब्राम्हणों की जीविका हैं । इनमें से दान लेना छोड़कर क्षत्रिय के पाँच कर्म हैं।  ब्रम्ह बैष्णव को छोड़कर प्रजा से कर लेना राजा की वृत्ति (जीवका) कही है।  खेती तथा वाणिज्य व्यवहार आदि करना वैश्य की आजीविका कही है।   शूद्र द्विज (क्षत्रिय, वैश्य, ब्राम्हण) की सेवा धर्म द्वारा अपनी आजीविका करें।   खेती करना, बिना माँगे मिला अन्न, भिक्षा माँग कर लाना ब्राम्हण की मुख्य जीव का कही है।  हीन वर्ण अपने से उत्तम वर्ण की आजीविका को गृहण न करे । परन्तु महा आपत्ति काल में सब वर्णों को आजीविका कर लेने में कोई अनुचित नहीं है।  ऋतु और अमृत से जीविका करनी चाहिये।  मृत अथवा अमृत से और सत्या नृत से अपनी आजीविका करती चहिए ।   खेत या हाट में स्वामी अपनी इच्छा से जो अन्न छोड़ देवे उस अन्न को ले आना ऋतु कहलाता है।   बिना मांगे जो प्राप्त हो जाय वह अमृत कहलाता है।   भिक्षा माँग कर लाने को मृत कहते हैं।   खेती आदि को अमृत कहते हैं। वाणिज्य व्यवहार को सत्यानत कहते हैं।  और अपने से नीच की सेवा करने को श्यवृत्ति कहते हैं।   ब्राम्हण के यह दस लक्षण हैं १-शाम, २-दाम, ३-तप, ४-शौच, ५-संतोष, ६-शान्ति, ७-आजव, ८-ज्ञान, ९-दया, १० भगवान में तत्पर रहना और सत्य बोलना ।   क्षत्री के शूरता वीरता, धीरता, तेज, दान, मन का जीतना, क्षमा, वृम्हचर्यता, प्रसन्नता और रक्षा, ये नौ लक्षण हैं।   देवता, गुरु और ईश्वर इनमें भक्ति करना, त्रिवर्ग धन, विषय, सुख इनकी वृद्धि करना, आस्तिक्य बुद्धि रखना, नित्य उद्यम करना और निपुणता ये वैश्य के लक्षण हैं।   अपने से उत्तम वर्ण को स्वयं प्रणाम करना, पवित्रता से रहना, निष्कपट भाव से अपने स्वामी की सेवा करना, मंत्र बिना पढ़े नमस्कार मात्र से पंच यज्ञ करना, सत्य बोलना, गौ ब्राम्हण की सेवा करना ये शूद्र के लक्षण हैं।   पति का सेवा करना, पति की आज्ञानुसार उसके अनुकूल रहना, पति के भाई बंधुओं के भी अनुकूल रहना, सर्वदा पति के नियम को धारण करना ये चार धर्म स्त्रियों के कहे हैं।  यदपि सभी वर्णों के धरम बताये गये हैं तथापि  धर्म विषय में जाति निमित्त नहीं है अर्थात कर्म ही निमित्त है जैसे कि ब्राम्हण होकर शूद्र का कर्म करने लगे तो उसको शूद्र से ही उत्पन्न जानना चाहिये।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम ग्यारहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_



नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १






हिरण्यकश्यपु का नरसिंह द्वारा विनाश।। महभक्त प्रह्लाद की कथा भाग 


प्रह्लाद द्वारा भगवान का स्तवन। महाभक्त प्रह्लाद की कथा भाग ५।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों (क्षत्रिय, ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य) का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।




नारदजी द्वारा प्रहलाद भक्त का सुखदाई चरित्र सुनकर धर्मराज युधिष्ठर ने कहा-हे नारदजी ! मैं अब आपके श्री मुख से सनातन धर्म सुनना चाहता हूँ सो उनके वर्णन आश्रम को आचार सहित वर्णन कीजिये। 


नारदजी बोले- हे राजन! धर्म का मूल सर्व देवमय भगवान हैं। 

जैसे धर्म के विषय में प्रमाण हैं, ऐसे ही वेद-ज्ञाताओं ने वेद की स्मृतियां भी वेद की प्रमाण रूप मानी हैं। 

जिससे अंतःकरण शुद्ध हो जावे वह भी धर्म है। 

सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, इच्छा, शम, दम, अहिंसा, वृह्मदर्य, दान, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदृष्टि वाले महात्मा जनों की सेवा शनैः शनैः प्रवृत्त कर्मों से निवृत्ति, मनुष्यों के निष्फल जाते हुए कर्मों का विचार, मौन, आत्म-ज्ञान विचार, अपने भोजन में से दूसरे को बाँटकर देना, प्राणियों और आत्माओं में देवताओं की बुद्धि रखना, श्रीकृष्ण भगवान की नवधा भक्ति करना, कीर्तन, स्मरण, सेवा, पूजन, नमस्कार, करना दास-माव से बर्तना मित्र भाव से रहना, आत्म समर्पण करना, इस प्रकार मनुष्य का यह तीस लक्षों वाला यह परम धर्म कहा है। जिसके करने से भगवान प्रसन्न होते हैं। 

जो ब्राम्हण तथा क्षत्री तथा वैश्य जन्म तथा कर्म से शुद्ध हैं, उन्हीं को वेद पढ़ना, दान देना, यज्ञ करना, ये तीन कर्म करने का अधिकार है। 

जिनमें यज्ञ कराना, वेद पढ़ना, दान देना, यज्ञ कराना, दान लेना ये छः कर्म ब्राम्हणों के हैं। 


इनमें पिछले तीन कर्म ब्राम्हणों की जीविका हैं । इनमें से दान लेना छोड़कर क्षत्रिय के पाँच कर्म हैं।

 ब्रम्ह बैष्णव को छोड़कर प्रजा से कर लेना राजा की वृत्ति (जीवका) कही है। 
खेती तथा वाणिज्य व्यवहार आदि करना वैश्य की आजीविका कही है।

 शूद्र द्विज (क्षत्रिय, वैश्य, ब्राम्हण) की सेवा धर्म द्वारा अपनी आजीविका करें।

 खेती करना, बिना माँगे मिला अन्न, भिक्षा माँग कर लाना ब्राम्हण की मुख्य जीव का कही है।

 हीन वर्ण अपने से उत्तम वर्ण की आजीविका को गृहण न करे । परन्तु महा आपत्ति काल में सब वर्णों को आजीविका कर लेने में कोई अनुचित नहीं है।

 ऋतु¹ और अमृत² से जीविका करनी चाहिये।
 मृत³ अथवा अमृत से और सत्या नृत से अपनी आजीविका करती चहिए । 

¹(खेत या हाट में स्वामी अपनी इच्छा से जो अन्न छोड़ देवे उस अन्न को ले आना ऋतु¹ कहलाता है।)

²(बिना मांगे जो प्राप्त हो जाय वह अमृत कहलाता है।खेती आदि को अमृत कहते हैं।)

 ³(भिक्षा माँग कर लाने को मृत कहते हैं।)


वाणिज्य व्यवहार को सत्यानत कहते हैं।

 और अपने से नीच की सेवा करने को श्यवृत्ति कहते हैं। 

लक्षण


●ॐ।  ब्राम्हण के यह दस लक्षण हैं १-शाम, २-दाम, ३-तप, ४-शौच, ५-संतोष, ६-शान्ति, ७-आजव, ८-ज्ञान, ९-दया, १० भगवान में तत्पर रहना और सत्य बोलना ।

 ●ॐ। क्षत्री के शूरता वीरता, धीरता, तेज, दान, मन का जीतना, क्षमा, वृम्हचर्यता, प्रसन्नता और रक्षा, ये नौ लक्षण हैं।

 ●ॐ। देवता, गुरु और ईश्वर इनमें भक्ति करना, त्रिवर्ग धन, विषय, सुख इनकी वृद्धि करना, आस्तिक्य बुद्धि रखना, नित्य उद्यम करना और निपुणता ये वैश्य के लक्षण हैं। 

●ॐ। अपने से उत्तम वर्ण को स्वयं प्रणाम करना, पवित्रता से रहना, निष्कपट भाव से अपने स्वामी की सेवा करना, मंत्र बिना पढ़े नमस्कार मात्र से पंच यज्ञ करना, सत्य बोलना, गौ ब्राम्हण की सेवा करना ये शूद्र के लक्षण हैं। 

●ॐ। पति की सेवा करना, पति की आज्ञानुसार उसके अनुकूल रहना, पति के भाई बंधुओं के भी अनुकूल रहना, सर्वदा पति के नियम को धारण करना ये चार धर्म स्त्रियों के कहे हैं।

सनातन धर्म के आदर्श पर चल कर बच्चों को हृदयवान मनुष्य बनाओ।


यज्ञशाला में जाने के सात वैज्ञानिक लाभ।। 



Why idol worship is criticized? Need to know idol worshipping.


तंत्र--एक कदम और आगे। नाभि से जुड़ा हुआ एक आत्ममुग्ध तांत्रिक।

क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।


आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।


तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।

मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।


यदपि सभी वर्णों के धरम बताये गये हैं तथापि  धर्म विषय में जाति निमित्त नहीं है अर्थात कर्म ही निमित्त है जैसे कि ब्राम्हण होकर शूद्र का कर्म करने लगे तो उसको शूद्र से ही उत्पन्न जानना चाहिये।


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम ग्यारहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।

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