नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।

सनातन-संस्कृति में अन्न और दूध की महत्ता पर बहुत बल दिया गया है !



सनातन धर्म के आदर्श पर चल कर बच्चों को हृदयवान मनुष्य बनाओ।


Why idol worship is criticized? Need to know idol worshipping.


तंत्र--एक कदम और आगे। नाभि से जुड़ा हुआ एक आत्ममुग्ध तांत्रिक।

क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।


आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।


नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।


नवीन सुख सागर कथा

श्रीमद भागवद पुराण  दसवां अध्याय [स्कंध ७]

(नृसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना)


दो०-या दसवें अध्याय में, कीनी कृपा महान|
दर्शन दे नृसिंह जी हो गये अन्तर्ध्यान॥


श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६



नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।। नारद जी बोले-हे युधिष्ठर! इस प्रकार श्री नृसिंह भगवान ने प्रहलाद जी को लुभाया, तो भी निष्काम भक्ति होने के कारण प्रहलाद जी ने किसी वरदान की इच्छा न की। प्रहलाद जी बोले हे भगवान! स्वभाव से ही कामनाओं में आसक्त हुए मुझको आप उन्हीं वरदानों का लोभ दिखाकर मत लुभाओ जो पुरुष वरदानों की आसा से आपकी भक्ति करता है वह आपका भक्त नहीं है, वह तो लोभी बनिया है। मैं तो आपका निष्काम भक्त हूँ और आप मेरे निष्काम स्वामी हो, हमारी आप में निष्काम भक्ति रहे यही प्रयोजन है। आपसे यही वर माँगता हूँ कि मेरे मन में कभी ये बात उत्पन्न न हो कि आज हम अपने स्वामी से यह वर माँगें। नृसिंह भगवान बोले, मुझ में निष्काम भक्ति रखने वाले जो तुम सरीखे पूर्ण अनन्य भक्त हैं वे कभी इस लोक तथा परलोक के आशिषों को नहीं चाहते हैं, तो भी तुम मेरी आज्ञा से इस लोक में एक मनु के राज्य तक दैत्यों के राजा बन कर विषय सुखों को भोगो।   तुम निरन्तर मेरी प्यारी कथाओं को सुनते हुए, व मुझमें आत्मसमर्पण करके एक यज्ञेश भगवान का पूजन कर्म करते रहना, और कर्मों को समर्पण करके उनकों के फल को इच्छा नहीं करना। विषय सुख भोग कर प्रारब्ध पुण्य का त्याग करना, और पुण्य का आचरण करके पाप का त्याग करना । फिर काल आने पर अपने शरीर को त्याग कर देवलोक में गाई हुई पवित्र कीर्ति को विस्तार कर कर्म बन्धन से रहित होकर तुम मुझको प्राप्त होगे।   प्रहलाद जी बोले- हे महेश्वर! आपको आज्ञा से में दूसरा वर माँगता हूँ कि आपकी निन्दा करने वाला तथा आपके भक्त (मुझसे) वैर करने बाला मेरा पिता इस दुरन्त पाप छूट कर पवित्र हो जाय। तथापि मेरा पिता नरक में न जाए यदि मेरा पिता नरक में गया तो इसमें मेरी तथा आपको दोनों की निन्दा होगी। श्री भगवान बोले-हे निष्पाप प्रहलाद ! तुम्हारा पिता तो इक्कीस पीढ़ियाँ सहित पवित्र हो गया। तुम जैसे आदर्श महात्मा पुत्र के जन्म लेने से ही उनका कुल पवित्र हो चुका है। इस लोक में जो कोई पुरुष तुम्हारे अनुवर्ती  होवेंगे, वे भी मेरे पूर्ण भक्त होंगे। निश्चिन्त रहो, तुम्हारा पिता उत्तम लोकों को प्राप्त होवेगा।   पिता का प्रेत कर्म करना पुत्र का परम धर्म है। इस कारण तुम्हें पिता का संस्कार करना अवश्य योग्य है। तुम अपने पिता के राज्य सिंहासन पर बैठो ये ब्रम्हवादी पांडितजन जिस प्रकार आज्ञा करें वैसे ही मुझ में मन लगाकर सब कर्म करो। हे राजन ! भगवान के आदेशानुसार प्रहलाद जी अपने पिता की प्रेत क्रिया की, तदनन्तर ब्राम्हणों ने प्रहलाद को राज्य सिंहासन पर बैठा कर राज-तिलक कर दिया। तब नृसिंह भगवान का प्रसन्नता से प्रफुल्लित मुख देख कर ब्रम्हा जी देवताओं सहित स्तुति करने लगे।   नरसिंह जी कहने लगे- हे ब्रम्हा जी! तुम असुरों को ऐसा वरदान मत दिया करो। हे राजन! श्री नरसिंह भगवान यह कह कर वहीं अन्तर्ध्यान हो गये, तब प्रहलाद जी ने ब्रम्हाजी और सब प्रजापति आदि देवताओं का यथा विधि पूजन किया।   तदनंतर भृगु आदि मुनियों सहित ब्रम्हा जी ने प्रहलाद को राजा बनाया ।   नारद जी बोले-- --हे युधिष्ठर ! तुम बड़े भाग्य वाले हो- क्योंकि तुम्हारे घर में परमब्रम्ह भगवान मनुष्य का रूप धारण कर गुप्त रीति से विराजमान हो रहे हैं, इसी कारण मुनिजन तुम्हारे घर प्रतिदिन आते हैं।   ये वे ही श्रीकृष्ण परब्रह्म स्वरूप है, जिसे महात्माजन ढूँढ़ते हैं। पहिले मायावी मय दानव ने शिवजी के यश को नष्ट कर दिया था, तब श्रीकृष्ण भगवान ने ही सहायता करके महादेवजी के यश का विस्तार किया था।   मय दानव की कहानी   युधिष्ठिर पूछने लगे हे-मुनीश्वर ! जगदीश्वर महादेवजी की कीर्ति को मय दैत्य ने किस कर्म में कैसे नष्ट किया ? और फिर जैसे श्रीकृष्ण भगवान ने शिव कीर्ति को बढ़ाया सो वृतान्त आप कीजिये ।   नारजी कहते हैं पहिले बढ़े हुये देवताओं ने युद्ध में सब असुर जीत लिये, तब वे असुर मायाधारियों के परम गुरु मय दैत्य की शरण में गये, मय दानव ने सोने, चाँदी और लोह के तीन पुर ऐसे विचित्र और पुष्ट रचे कि जिनके जाने आने का रास्ता कोई नहीं जान सकता था, उन्हीं तीनों पुरों में असुर लोग रहते थे।   हे राजन! पहले के वैर-भाव को स्मरण करके उन पुरों में निवास करते हुये वे असुर सब लोकों को नष्ट करने लगे क्योंकि वे एक क्षण में ही अचानक आ जाते थे और एक क्षण में ही नहीं दीखते थे कि न जाने कहाँ चले जाते थे। तब लोकपालों के सहित देवता लोग महादेवजी की शरण में जाकर कहने लगे- हे विभु ! मयश् चित त्रिपुर निवासी दानवों से हमारी रक्षा करो। तब शिव जी ने देवताओं पर कृपाकर, धनुष पर बाण चढ़ाय तीनों पुरों पर वॉण छोड़ा श्री शिवजी धूर्जटी के मन्त्रमय अग्नि समान महा तीक्षण वाँण चलाने लगे, जैसे महा प्रलय के समय सूर्य मण्डल से कालरूप महा विकराल किरण जाल निकलते हैं, वैसे ही उन कणों के समूहों से आच्छादित हुए वे तीनों पुर दिखने से बन्द हो गये।   उनमें रहने वाले सब असुर प्राणहीन होकर गिर पड़े, तब उन असुरों को मय दानव ने उठाकर माया से बनाये हुये अमृत कूप में गिरा दिया। अमृत रस का स्पर्श होते हो दानव गण जी-जी कर पर्ववत् उठ कर फिर लड़ने लगे। यह देख कर महादेव जी का मनोरथ भंग हो गया, और शिव जी का मन बहुत उदास हो गया, तब श्री कृष्ण भगवान ने सोच कर ब्रम्हा जो को तो बछड़ा बनाया और आप गौ बन गये, फिर मध्यान्ह समय में उस त्रिपुर पुर में भीतर प्रवेश करके अमृत रस से भरे सब कृप रस को पीने लगे । तब महायोगी मय दानव रस कूप के रक्षकों से बोला कि वृथा शोक क्यों करते हो, दैव गति का स्मरण करो दैवगति से कोई भी अपने को नहीं बचा सकता है, देव निर्मित को अन्यथा करने को समर्थ नहीं हो सकता है। तदनंतर भगवान श्री कृष्ण भगवान ने धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऋद्धि, तप, विद्या क्रिया आदि अपनी शक्तियों द्वारा शिव जी के हेतु रथ, घोड़ा, सारथी धनुष, कवच, वाण आदि सब युद्ध सामग्री तैयार को, फिर शिव जी कटिबद्ध हुये, और धनुष बाण हाथ में लेकर रथ पर जा बैठे तब महादेव जी ने अपने बाण को छोड़ा। हे राजन! उस एक ही बाण से महादेव जी ने तीनों पुर दग्ध कर दिये, स्वर्ग में नगारे बजने लगे। सैकड़ों विमानों की भीड़ हो गई, और देवता ऋषि पितर सिद्धेश्वर ये सब जय-जय शब्द बोलते हुये फूलों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार तीनों पुरों को दग्धकर महादेवजी वृह्मादिक देवताओं के स्तुति करते-करते अपने धाम को सिधारे ।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम दसवाँ अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_



नारद जी बोले-हे युधिष्ठर! इस प्रकार श्री नृसिंह भगवान ने प्रहलाद जी को लुभाया, तो भी निष्काम भक्ति होने के कारण प्रहलाद जी ने किसी वरदान की इच्छा न की।
प्रहलाद जी बोले हे भगवान! स्वभाव से ही कामनाओं में आसक्त हुए मुझको आप उन्हीं वरदानों का लोभ दिखाकर मत लुभाओ जो पुरुष वरदानों की आसा से आपकी भक्ति करता है वह आपका भक्त नहीं है, वह तो लोभी बनिया है। मैं तो आपका निष्काम भक्त हूँ और आप मेरे निष्काम स्वामी हो, हमारी आप में निष्काम भक्ति रहे यही प्रयोजन है। आपसे यही वर माँगता हूँ कि मेरे मन में कभी ये बात उत्पन्न न हो कि आज हम अपने स्वामी से यह वर माँगें। नृसिंह भगवान बोले, मुझ में निष्काम भक्ति रखने वाले जो तुम सरीखे पूर्ण अनन्य भक्त हैं वे कभी इस लोक तथा परलोक के आशिषों को नहीं चाहते हैं, तो भी तुम मेरी आज्ञा से इस लोक में एक मनु के राज्य तक दैत्यों के राजा बन कर विषय सुखों को भोगो। 

तुम निरन्तर मेरी प्यारी कथाओं को सुनते हुए, व मुझमें आत्मसमर्पण करके एक यज्ञेश भगवान का पूजन कर्म करते रहना, और कर्मों को समर्पण करके उनकों के फल को इच्छा नहीं करना। विषय सुख भोग कर प्रारब्ध पुण्य का त्याग करना, और पुण्य का आचरण करके पाप का त्याग करना । फिर काल आने पर अपने शरीर को त्याग कर देवलोक में गाई हुई पवित्र कीर्ति को विस्तार कर कर्म बन्धन से रहित होकर तुम मुझको प्राप्त होगे। 

प्रहलाद जी बोले- हे महेश्वर! आपकी आज्ञा से में दूसरा वर माँगता हूँ कि आपकी निन्दा करने वाला तथा आपके भक्त (मुझसे) वैर करने बाला मेरा पिता इस दुरन्त पाप छूट कर पवित्र हो जाय। तथापि मेरा पिता नरक में न जाए यदि मेरा पिता नरक में गया तो इसमें मेरी तथा आपको दोनों की निन्दा होगी।

श्री भगवान बोले-हे निष्पाप प्रहलाद ! तुम्हारा पिता तो इक्कीस पीढ़ियाँ सहित पवित्र हो गया। तुम जैसे आदर्श महात्मा पुत्र के जन्म लेने से ही उनका कुल पवित्र हो चुका है। इस लोक में जो कोई पुरुष तुम्हारे अनुवर्ती  होवेंगे, वे भी मेरे पूर्ण भक्त होंगे। निश्चिन्त रहो, तुम्हारा पिता उत्तम लोकों को प्राप्त होवेगा। 

पिता का प्रेत कर्म करना पुत्र का परम धर्म है। इस कारण तुम्हें पिता का संस्कार करना अवश्य योग्य है। तुम अपने पिता के राज्य सिंहासन पर बैठो ये ब्रम्हवादी पांडितजन जिस प्रकार आज्ञा करें वैसे ही मुझ में मन लगाकर सब कर्म करो।
हे राजन ! भगवान के आदेशानुसार प्रहलाद जी अपने पिता की प्रेत क्रिया की, तदनन्तर ब्राम्हणों ने प्रहलाद को राज्य सिंहासन पर बैठा कर राज-तिलक कर दिया। तब नृसिंह भगवान का प्रसन्नता से प्रफुल्लित मुख देख कर ब्रम्हा जी देवताओं सहित स्तुति करने लगे। 

नरसिंह जी कहने लगे- हे ब्रम्हा जी! तुम असुरों को ऐसा वरदान मत दिया करो। हे राजन! श्री नरसिंह भगवान यह कह कर वहीं अन्तर्ध्यान हो गये, तब प्रहलाद जी ने ब्रम्हाजी और सब प्रजापति आदि देवताओं का यथा विधि पूजन किया।


तदनंतर भृगु आदि मुनियों सहित ब्रम्हा जी ने प्रहलाद को राजा बनाया । 

नारद जी बोले--
--हे युधिष्ठर ! तुम बड़े भाग्य वाले हो- क्योंकि तुम्हारे घर में परमब्रम्ह भगवान मनुष्य का रूप धारण कर गुप्त रीति से विराजमान हो रहे हैं, इसी कारण मुनिजन तुम्हारे घर प्रतिदिन आते हैं। 

महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १




हिरण्यकश्यपु का नरसिंह द्वारा विनाश।। महभक्त प्रह्लाद की कथा भाग 


प्रह्लाद द्वारा भगवान का स्तवन। महाभक्त प्रह्लाद की कथा भाग ५।।


ये वे ही श्रीकृष्ण परब्रह्म स्वरूप है, जिसे महात्माजन ढूँढ़ते हैं। पहिले मायावी मय दानव ने शिवजी के यश को नष्ट कर दिया था, तब श्रीकृष्ण भगवान ने ही सहायता करके महादेवजी के यश का विस्तार किया था। 


मय दानव की कहानी 


युधिष्ठिर पूछने लगे हे-मुनीश्वर ! जगदीश्वर महादेवजी की कीर्ति को मय दैत्य ने किस कर्म में कैसे नष्ट किया ? और फिर जैसे श्रीकृष्ण भगवान ने शिव कीर्ति को बढ़ाया सो वृतान्त आप कीजिये । 

नारजी कहते हैं पहिले बढ़े हुये देवताओं ने युद्ध में सब असुर जीत लिये, तब वे असुर मायाधारियों के परम गुरु मय दैत्य की शरण में गये, मय दानव ने सोने, चाँदी और लोह के तीन पुर ऐसे विचित्र और पुष्ट रचे कि जिनके जाने आने का रास्ता कोई नहीं जान सकता था, उन्हीं तीनों पुरों में असुर लोग रहते थे। 

हे राजन! पहले के वैर-भाव को स्मरण करके उन पुरों में निवास करते हुये वे असुर सब लोकों को नष्ट करने लगे क्योंकि वे एक क्षण में ही अचानक आ जाते थे और एक क्षण में ही नहीं दीखते थे कि न जाने कहाँ चले जाते थे। तब लोकपालों के सहित देवता लोग महादेवजी की शरण में जाकर कहने लगे- हे विभु ! मयश् चित त्रिपुर निवासी दानवों से हमारी रक्षा करो। तब शिव जी ने देवताओं पर कृपाकर, धनुष पर बाण चढ़ाय तीनों पुरों पर वॉण छोड़ा श्री शिवजी धूर्जटी के मन्त्रमय अग्नि समान महा तीक्षण वाँण चलाने लगे, जैसे महा प्रलय के समय सूर्य मण्डल से कालरूप महा विकराल किरण जाल निकलते हैं, वैसे ही उन कणों के समूहों से आच्छादित हुए वे तीनों पुर दिखने से बन्द हो गये। 

उनमें रहने वाले सब असुर प्राणहीन होकर गिर पड़े, तब उन असुरों को मय दानव ने उठाकर माया से बनाये हुये अमृत कूप में गिरा दिया। अमृत रस का स्पर्श होते हो दानव गण जी-जी कर पर्ववत् उठ कर फिर लड़ने लगे। यह देख कर महादेव जी का मनोरथ भंग हो गया, और शिव जी का मन बहुत उदास हो गया, तब श्री कृष्ण भगवान ने सोच कर ब्रम्हा जो को तो बछड़ा बनाया और आप गौ बन गये, फिर मध्यान्ह समय में उस त्रिपुर पुर में भीतर प्रवेश करके अमृत रस से भरे सब कृप रस को पीने लगे । तब महायोगी मय दानव रस कूप के रक्षकों से बोला कि वृथा शोक क्यों करते हो, दैव गति का स्मरण करो दैवगति से कोई भी अपने को नहीं बचा सकता है, देव निर्मित को अन्यथा करने को समर्थ नहीं हो सकता है। तदनंतर भगवान श्री कृष्ण भगवान ने धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऋद्धि, तप, विद्या क्रिया आदि अपनी शक्तियों द्वारा शिव जी के हेतु रथ, घोड़ा, सारथी धनुष, कवच, वाण आदि सब युद्ध सामग्री तैयार को, फिर शिव जी कटिबद्ध हुये, और धनुष बाण हाथ में लेकर रथ पर जा बैठे तब महादेव जी ने अपने बाण को छोड़ा। हे राजन! उस एक ही बाण से महादेव जी ने तीनों पुर दग्ध कर दिये, स्वर्ग में नगारे बजने लगे। सैकड़ों विमानों की भीड़ हो गई, और देवता ऋषि पितर सिद्धेश्वर ये सब जय-जय शब्द बोलते हुये फूलों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार तीनों पुरों को दग्धकर महादेवजी वृह्मादिक देवताओं के स्तुति करते-करते अपने धाम को सिधारे । 


क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।





।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम दसवाँ अध्याय समाप्तम🥀।। 

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Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com. Suggestions are welcome!

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