श्री नारद मुनि द्वारा मोक्ष लक्षण वर्णन।।

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥


नवीन सुख सागर कथा 

श्रीमद भागवद पुराण पन्द्रहवां अध्याय  [स्कंध७]
(मोक्ष लक्षण वर्णन)

दो०-या पंद्रह अध्याय में, नारद कही सुनाय। 
मोक्ष प्राप्त लक्षण सभी, कहे सत्य समझाय || 




नवीन सुख सागर कथा  श्रीमद भागवद पुराण पन्द्रहवां अध्याय  [स्कंध७] (मोक्ष लक्षण वर्णन) दो०-या पंद्रह अध्याय में, नारद कही सुनाय।  मोक्ष प्राप्त लक्षण सभी, कहे सत्य समझाय ||    नारदजी बोले-हे राजन! कोई ब्राह्मण कर्म निष्ठ कोई तपोनिष्ठ कोई वेद पढ़ने और पढ़ाने में तथा ज्ञान व योगाभ्यास में निष्ठा रखने वाले होते हैं। मोक्ष गुण रखने की इच्छा रखने वाले गृहस्थी को उचित हैं, कि देव पितृ सम्बन्धी कर्मों में ज्ञान निष्ठां वाले ब्राह्मण को भोजन करावे व दान देवे यदि वह न मिले तो फिर अन्य ब्राह्मणों को भोजनादि कराना उचित है। देव कार्य में दो ब्राह्मण और पितृकार्य में तीन ब्राम्हण जिमाना उचित है, अथवा दोनों कर्मों में एक ही एक जिमावे, अधिक समृद्धि वाले पुरुष को भी श्राद्ध में ब्राम्हणों को अधिक संख्या नहीं करनी चाहिये क्योंकि देश व काल योग्य श्रद्धा, द्रव्य पात्र और पूजन ये सब अधिक विस्तार बढ़ाने से श्राद्ध में नहीं मिल सकते हैं। योग्य देव व काल, प्राप्त हो जाय, तव समा, मूग चावल आदि मुनि अन्न को भगवान के समर्पण को श्रद्धा पूर्वक स्वत्पात्र ब्राह्मण को जिमावे तो वह अन्न कामनाओं को पूर्ण करने वाला व अज्ञय फल का देने वाला हो जाता है। देवता, ऋषि, पितर, प्राणिमात्र अन्न का विभाग कर देने वाले पुरुष तथा आत्मा को परमेश्वर रूप समझे । श्राद्ध मांस में भोजन कभी न देवे । मन, वाणी, व शरीर से किसी प्राणी को क्लेश नहीं पहुँचाना चाहिये। विधर्म, परधर्म आभास, उपमा और दल ये पांच अधर्म की शाखा हैं।  जिस धर्म के करने में अपने धर्म में बाधा पहुँचे वह विधर्म कहाता है। जो धर्म अन्य जनों का हो वह परधर्म है। जो आश्रम कहीं विधान न किया हो। केवल अपनी रुचि के अनुसार नवीन धर्म चलाता हो उसको आभास कहते हैं।   जो पाखण्ड से किया जाय उसको उपमा कहा है। जिस धर्म में शास्त्र के बचनों का उल्टा अर्थ माना जाए, जैसे गौ दान करना कहा है तो मरती हुई गौ का दान करने इत्यादि को छल कहते हैं।    हे राजन! सन्तोषी इच्छा रहित और, आत्माराम पुरुष को जो सुख होता है। वह सुख काम से लोभ से तृष्णा से दशों दिशाओं से घूमने वाले को कब प्राप्त हो सकता है। सन्तोषी तो केवल जल मात्र से ही अपना निर्वाह कर सकता है।   और असन्तोषी पुरुष एक लिंग इन्द्रिय और जिव्हा के भोग के निमित्त कुत्ते की तरह घर घर अपना अपमान कराता फिरता है।   जो ब्राम्हण सन्तोषी नहीं उनकी इन्द्रियों की चंचलता से तेज, विद्या, तप, ज्ञान, यश, ये सब नाश हो जाते हैं।  भूख और प्यास से कामदेव को शान्ति हो जाती है और मारने या गाली देने से क्रोध भी शान्त हो जाता है । परन्तु मनुष्य का लोभ सब तरह के पदार्थ भोग करके भी शान्त नहीं होता।   मनोरथ को त्याग कर काम को और काम को त्याग कर क्रोध को जीते।   धन संचय करने से अनर्थ है ऐसा चिन्त वन करके लोभ को जीत लेवे और तत्व के विचार से भय को जीत लेवें ।   आत्म और अनात्म वस्तु के विचार से शोक मोह को जीत लेवे।। महात्माओं का संग करके दम्भ को जीत लेवै।। मौन वृत्ति को धारण करके योग के विघ्न रूप असत्य वार्तालाप को जीतें।। और देहादिक के चेष्ठा मात्र को त्याग कर हिंसा को जीत लेवें।। प्राणियों से उत्पन्न दुख को जीते। उन्हीं प्राणियों पर दया करके स्नेह से जीत लेवे।।   समाधि के बल से देव कृत दुख जीते।। प्राणायाम आदि योग बल से देह के कष्ट को जीत ले।।   व  सात्विक आहार आदि के सेवन से नींद को जीत लेवे ।   हे राजन! इन्द्रियों को जीतना ही फल है। जो पुरुष मन को जीतना चाहे तो वह एकान्त वास करे और भिक्षा में जितना मिल जाय उतना ही भोजन करे। पवित्र आसन पर बैठ फिर ओंकार का जप करे । अनंतर पूरक, कुम्भक, रेचक विधि से प्राण अपान वायु को रोके और अपने नासिका के समान दृष्टि रक्खे। इस प्रकार पुरुष का मन थोड़े दिन में ही शान्ति हो जाता है। जो अपनी आत्मा को परम वृम्ह ज्ञान लेवे और ज्ञान से बासनाओं का नाश कर देवे वही धन्य है।   हे राजन! प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो प्रकार के कर्म वेद में कहे हैं।   प्रवृत्ति कर्म से तो मनुष्य इस जगत में जन्म मरण पाता है, और निवृत्ति कर्म से मुक्त हो जाता है। श्येन-याग आदिक हिंसा प्रधान यज्ञ, पुरोडास आदि अत्यंत आसक्ति-दायक काम्य कर्म, अग्निहोत्र, दश पौर्ण मास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोम याग, वैश्वदेव कर्म, बलिदान ये सब इष्ट कर्म कहलाते हैं।   देवालय बाग बगीचा, कुवाँ, गौशाला इत्यादि कर्म पूर्त यज्ञ कहलाते हैं। ये सब कर्म कामना सहित किये जायँ तो प्रवृत्ति मार्ग देने वाले हैं।   हे राजन ! वेद में कहे हुये अपने आश्रम सम्बन्धी इन कर्मों को कर के भगवान में भक्ति रखने वाला पुरुष गृहस्थाश्रम में रहने पर भी उस परमात्मा की गति को प्राप्त हो सकता है ।   अहंकार व महात्माओं का अपमान करने से भगवान की सेवा भी नष्ट हो जाती है।   हे राजन! मनुष्य लोक में तुम बड़े भाग्य वाले हो, क्यों कि साक्षात श्री कृष्ण भगवान मनुष्य रूप धारण कर तुम्हारे घर में गुप्त रूप से निवास करते हैं। ये श्री कृष्ण आपके परम प्रिय सुहृद, मामा के पुत्र, भाई आत्मा, पूजा करने के योग्य तथा आपकी आज्ञा के अनुसार चलने वाले उपदेश देने वाले गुरू भी हैं। आओ ऐसे भक्त बत्सल श्री कृष्ण भगवान का हम सब साक्षात् में पूजन करें ।   हे परीक्षत ! देवर्षि नारद जी की आज्ञानुसार राजा युधिष्ठर प्रेम से विव्हल होकर सबके साथ श्री कृष्ण भगवान का पूजन करने लगे। तदनंतर नारद मुनि श्री कृष्ण भगवान और राजा युधिष्ठर से आज्ञा लेकर वहाँ से चल दिये।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम पन्द्रहवां अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


किस ब्राह्मण को दान देना उचित है?



नारदजी बोले-हे राजन! कोई ब्राह्मण कर्म निष्ठ, कोई तपोनिष्ठ, कोई वेद पढ़ने और पढ़ाने में तथा ज्ञान व योगाभ्यास में निष्ठा रखने वाले होते हैं। तो मोक्ष गुण रखने की इच्छा रखने वाले गृहस्थी को उचित हैं, कि देव पितृ सम्बन्धी कर्मों में ज्ञान निष्ठां वाले ब्राह्मण को भोजन करावे व दान देवे यदि वह न मिले तो फिर अन्य ब्राह्मणों को भोजनादि कराना उचित है।

 देव कार्य में दो ब्राह्मण और पितृकार्य में तीन ब्राम्हण जिमाना उचित है, अथवा दोनों कर्मों में एक ही एक जिमावे, अधिक समृद्धि वाले पुरुष को भी श्राद्ध में ब्राम्हणों को अधिक संख्या नहीं करनी चाहिये क्योंकि देश व काल योग्य श्रद्धा, द्रव्य पात्र और पूजन ये सब अधिक विस्तार बढ़ाने से श्राद्ध में नहीं मिल सकते हैं। 

योग्य देव व काल प्राप्त हो जाय, तव समा, मूग चावल आदि मुनि अन्न को भगवान के समर्पण को श्रद्धा पूर्वक स्वत्पात्र ब्राह्मण को जिमावे तो वह अन्न कामनाओं को पूर्ण करने वाला व अज्ञय फल का देने वाला हो जाता है। 


देवता, ऋषि, पितर, प्राणिमात्र अन्न का विभाग कर देने वाले पुरुष तथा आत्मा को परमेश्वर रूप समझे । श्राद्ध मांस में भोजन कभी न देवे । मन, वाणी, व शरीर से किसी प्राणी को क्लेश नहीं पहुँचाना चाहिये। विधर्म, परधर्म आभास, उपमा और दल ये पांच अधर्म की शाखा हैं। 


●जिस धर्म के करने में अपने धर्म में बाधा पहुँचे वह विधर्म कहाता है।
●जो धर्म अन्यजनों का हो वह परधर्म है।
●जो आश्रम कहीं विधान न किया हो। केवल अपनी रुचि के अनुसार नवीन धर्म चलाता हो उसको आभास कहते हैं। 

●जो पाखण्ड से किया जाय उसको उपमा कहा है।
●जिस धर्म में शास्त्र के बचनों का उल्टा अर्थ माना जाए, जैसे गौ दान करना कहा है तो मरती हुई गौ का दान करने इत्यादि को छल कहते हैं। 


हे राजन! सन्तोषी इच्छा रहित और, आत्माराम पुरुष को जो सुख होता है। वह सुख काम से लोभ से तृष्णा से दशों दिशाओं से घूमने वाले को कब प्राप्त हो सकता है। सन्तोषी तो केवल जल मात्र से ही अपना निर्वाह कर सकता है। 

और असन्तोषी पुरुष एक लिंग इन्द्रिय और जिव्हा के भोग के निमित्त कुत्ते की तरह घर घर अपना अपमान कराता फिरता है। 

जो ब्राम्हण सन्तोषी नहीं उनकी इन्द्रियों की चंचलता से तेज, विद्या, तप, ज्ञान, यश, ये सब नाश हो जाते हैं। 

भूख और प्यास से कामदेव को शान्ति हो जाती है और मारने या गाली देने से क्रोध भी शान्त हो जाता है । परन्तु मनुष्य का लोभ सब तरह के पदार्थ भोग करके भी शान्त नहीं होता। 








नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १







मोक्ष प्राप्ति का मार्ग।। नियम।।


ॐ।  मनोरथ को त्याग कर काम को और काम को त्याग कर क्रोध को जीते। 

ॐ।  धन संचय करने से अनर्थ है ऐसा चिन्त वन करके लोभ को जीत लेवे और तत्व के विचार से भय को जीत लेवें । 

ॐ।  आत्म और अनात्म वस्तु के विचार से शोक मोह को जीत लेवे।।
ॐ।  महात्माओं का संग करके दम्भ को जीत लेवै।।
ॐ।  मौन वृत्ति को धारण करके योग के विघ्न रूप असत्य वार्तालाप को जीतें।।
ॐ।  और देहादिक के चेष्ठा मात्र को त्याग कर हिंसा को जीत लेवें।।
प्राणियों से उत्पन्न दुख को जीते।
उन्हीं प्राणियों पर दया करके स्नेह से जीत लेवे।। 

ॐ।  समाधि के बल से देव कृत दुख जीते।।
ॐ।  प्राणायाम आदि योग बल से देह के कष्ट को जीत ले।। 

ॐ।  व  सात्विक आहार आदि के सेवन से नींद को जीत लेवे । 

हे राजन! इन्द्रियों को जीतना ही फल है। जो पुरुष मन को जीतना चाहे तो वह एकान्त वास करे और भिक्षा में जितना मिल जाय उतना ही भोजन करे। पवित्र आसन पर बैठ फिर ओंकार का जप करे । अनंतर पूरक, कुम्भक, रेचक विधि से प्राण अपान वायु को रोके और अपने नासिका के समान दृष्टि रक्खे। इस प्रकार पुरुष का मन थोड़े दिन में ही शान्ति हो जाता है। जो अपनी आत्मा को परम वृम्ह ज्ञान लेवे और ज्ञान से बासनाओं का नाश कर देवे वही धन्य है।


हे राजन! प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो प्रकार के कर्म वेद में कहे हैं। विभिन्न यज्ञों का विधान।।


प्रवृत्ति कर्म से तो मनुष्य इस जगत में जन्म मरण पाता है, और निवृत्ति कर्म से मुक्त हो जाता है। श्येन-याग आदिक हिंसा प्रधान यज्ञ, पुरोडास आदि अत्यंत आसक्ति-दायक काम्य कर्म, अग्निहोत्र, दश पौर्ण मास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोम याग, वैश्वदेव कर्म, बलिदान ये सब इष्ट कर्म कहलाते हैं। 

देवालय बाग बगीचा, कुवाँ, गौशाला इत्यादि कर्म पूर्त यज्ञ कहलाते हैं। ये सब कर्म कामना सहित किये जायँ तो प्रवृत्ति मार्ग देने वाले हैं। 

हे राजन ! वेद में कहे हुये अपने आश्रम सम्बन्धी इन कर्मों को कर के भगवान में भक्ति रखने वाला पुरुष गृहस्थाश्रम में रहने पर भी उस परमात्मा की गति को प्राप्त हो सकता है । 

अहंकार व महात्माओं का अपमान करने से भगवान की सेवा भी नष्ट हो जाती है। 


हे राजन! मनुष्य लोक में तुम बड़े भाग्य वाले हो, क्यों कि साक्षात श्री कृष्ण भगवान मनुष्य रूप धारण कर तुम्हारे घर में गुप्त रूप से निवास करते हैं। ये श्री कृष्ण आपके परम प्रिय सुहृद, मामा के पुत्र, भाई आत्मा, पूजा करने के योग्य तथा आपकी आज्ञा के अनुसार चलने वाले उपदेश देने वाले गुरू भी हैं। आओ ऐसे भक्त बत्सल श्री कृष्ण भगवान का हम सब साक्षात् में पूजन करें । 

हे परीक्षत ! देवर्षि नारद जी की आज्ञानुसार राजा युधिष्ठर प्रेम से विव्हल होकर सबके साथ श्री कृष्ण भगवान का पूजन करने लगे। तदनंतर नारद मुनि श्री कृष्ण भगवान और राजा युधिष्ठर से आज्ञा लेकर वहाँ से चल दिये। 

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम पन्द्रहवां अध्याय समाप्तम🥀।। 

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सनातन-संस्कृति में अन्न और दूध की महत्ता पर बहुत बल दिया गया है !


Astonishing and unimaginable facts about Sanatana Dharma (HINDUISM)



सनातन धर्म के आदर्श पर चल कर बच्चों को हृदयवान मनुष्य बनाओ।


Why idol worship is criticized? Need to know idol worshipping.


तंत्र--एक कदम और आगे। नाभि से जुड़ा हुआ एक आत्ममुग्ध तांत्रिक।

क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।



Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com. Suggestions are welcome!
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