श्रीमद भागवद पुराण * चौथा अध्याय *[स्कंध ५] ( ऋषभ देव का चरित्र वर्णन )


श्रीमद भागवद पुराण * चौथा अध्याय *[स्कंध ५]  ( ऋषभ देव का चरित्र वर्णन )    दोहा-ऋषभ देव अवतार भये, कहूँ कथा समझाय।  या चौथे अध्याय में, कहें शुकदेव सुनाय ।।  शुकदेवजी बोले-हे राजा परीक्षत ! समय पाय भगवान श्री हरि नारायण आदि पुरुष ने राजा नाभि के घर उनकी रानी मेरुदेवी से अवतार लिया। तब राजा नाभि उन्हें पर ब्रह्म परमात्मा जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। तब उसने ब्राह्मणों एवं याचकों को बुलाकर इतना दान दिया कि उनके राज्य में कोई भी व्यक्ति दरिद्री नहीं रहा । तब राजा नाभि ने अपने उस नारायण अवतार पुत्र का नाम ऋषभ देव जी रखा (यहाँ ऋषभ शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है) क्योंकि भगवान अवतार ऋषभ देवजी के जन्म से ही दाहिने हाथ चक्र आदि चिन्ह ओर पाँव में बज आदि चिन्ह थे इस कारण भगवान के लक्षणों युक्त होने से ही नाभि ने उनका नाम ऋषभ देव रखा । दिन प्रति दिन ऋषभ देवजी का प्रताप बढ़ता गया। राजा नाभि अपने मन के अनुकूल पुत्र रत्न पाकर बड़ा आनन्दित रहता था। वह भगवान को पुत्र आदि संबोधन से पुकार कर पित्रोचित लाड़ दर्शाता था।     हे राजा परीक्षत! विद्या पढ़ने के लिये ऋषभ देवजी ने कुछ दिन के लिये गुरुकुल में वास किया । अनंतर वे गुरुजनों की आज्ञा ले अपने घर आय पिता की आज्ञाओं का पालन कर सुख देने लगे ।     हे परीक्षत ! ऋषभ देवजी के बढ़ते प्रताप को देखकर पृथ्वी तक की पालना करने को सब प्रजा, देवता, मंत्री- गण, सभी ऋषभ देव जी द्वारा राज्य करने की चाह करने लगे । तब इन सबके चाह करने पर राजा नाभि ने भी यह निश्चय किया कि अब ऋषभ देवजी को राज्य दे, वन में जाय भगवान का भजन कर अपना पर - लोक सुधारना चाहिये। सो ऐसा विचार कर राजा नाभि ने जान लिया कि नगर के सब लोग मंत्री और ब्राह्मण आदि मेरे इस पुत्र पर अत्यन्त स्नेह रखते हैं। सो ऐसा जानकर धर्म मर्यादा के रक्षार्थ अपने पुत्र ऋषभ देव को राज तिलक देने के निमित्त, सब लोगों को बुलाय कहा-हे प्रजाजनों । अब मेरे लिये उचित है कि ऋषभ देवजी को राज सिंहासन पर विराज मान करके रानी सहित बन में जाकर भगवान श्री हरि का भजन करुँ। तब राजा के यह वचन सुनकर, समस्त सभा सद एवं मंत्रीगण बड़े प्रसन्न हुये। तब राजा ने विद्वजनों को बुलाकर शुभ लग्न निश्चय करके श्री ऋषभ देवजी का राज्यभिषेक बड़ी धूम धाम से कर दिया। तत्पश्चात राजा नाभि अपनी स्त्री मेरुवती को माथ लेकर बद्रिकाश्रम को चला गया, और वहाँ जाकर निर्मल व तीज तप के प्रभाव से मन को एकाग्र करके भगवान की उपासना करते हुये योग की समाधि के द्वारा समय पाय जीवन मुक्त हो गया।     ऋषभ देव जी ने धर्म राज्य करते हुये प्रजा का पालन इस प्रकार किया कि उनके राज्य में गाय और शेर एक ही घाट पर पानी पीने लगे । राजा ऋषभ देवजी के न्याय के कारण प्रजा का कोई भी प्राणी दीन व दुखी नहीं था। सभी देवता लोग भी ऋषभ देव जी की अति प्रशंसा किया करते थे। जब इन्द्र देव ने अपने सभी छोटे बड़े देवताओं के मुख से राजा ऋषभ देव जी की इस प्रकार बड़ाई सुनी तो देवराज इन्द्र ने डाह के कारण ऋषि ने देवी के राज्य भरत खंड में जल - नहीं बरसाया। तब ऋषभ देव जी इन्द्र का वृतांत मालूम किया तो उन्हें इंद्र की इस अज्ञानता पर हंसी आ गई । उन्होंने अपने योग बल से राज्य में ऐसी व्यवस्था करी कि जब जल की आवश्यकता होती थी तभी जल बरस जाता था। जब इन्द्र ने ऋषभ देव जी का यह बल पराक्रम देखा तो उसने उन्हें साक्षात नारायण जी का अवतार हुआ जाना और उनकी सेवा अर्चना के निमित्त अपनी जयन्ती नाम कन्या का विवाह ऋषभ देव जी के साथ कर दिया, और अपने अपराध की क्षमा याचना करके अपने सुरलोक को चला आया । तदनंतर राजा ऋषभ देव जी गृहस्थी जनों के धर्मों का आचरण करते हुये राज्य करने लगे ।    श्री ऋषभ देव जी ने अपनी जयन्ती नाम बाली भार्या में अपने समान लक्षणों वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये । उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र भरत नाम का था, जो परम योगी उत्तम गुणों से युक्त था । जिसके नाम से ही यह भारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ऋषभ देव जी के अन्य जो निन्यानवे पुत्र थे उनमें कुशावर्त, दूलावर्त, ब्रह्मवर्त, मलयकेतु, भद्रनसेन, इन्द्र पृक, विदर्भ और कीकट, ये नौ पुत्र शेष नब्बे पुत्रों से बड़े थे। उन से छोटे कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र द्रुमिल, चमस, कर भजन नाम के थे।   नौ पुत्र भगवद्ध में परायण परम वैष्णव हुये। जिनका सुन्दर जीवन चरित्र आगे ग्यारहवें स्कंध में नारद वसुदेव संबाद में वर्णन करेंगे।    हे राजा परीक्षत ! इन सबसे छोटे शेष इक्यासी पुत्र पिता की आज्ञा पालन करने वाले, वेद के ज्ञाता आदि सब विनीत होकर यज्ञ के कर्म विशुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये। यद्यपि राजा ऋषभ देव जी ईश्वर अवतार थे परन्तु लोक मर्यादा हित प्रजा को पथ भ्रष्ट होने से बचाते थे। ऋषभ देव जी के नियमों का पालन प्रजा को यथेष्ठ रूप से किया, जिससे ऋषभ देव जी ने धर्म की परिपाटी को भी यथेष्ठ रूप से बांधा।


श्रीमद भागवद पुराण * चौथा अध्याय *[स्कंध ५] ( ऋषभ देव का चरित्र वर्णन )



दोहा-ऋषभ देव अवतार भये, कहूँ कथा समझाय।

या चौथे अध्याय में, कहें शुकदेव सुनाय ।।





शुकदेवजी बोले-हे राजा परीक्षत ! समय पाय भगवान श्री हरि नारायण आदि पुरुष ने राजा नाभि के घर उनकी रानी मेरुदेवी से अवतार लिया। तब राजा नाभि उन्हें पर ब्रह्म परमात्मा जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। तब उसने ब्राह्मणों एवं याचकों को बुलाकर इतना दान दिया कि उनके राज्य में कोई भी व्यक्ति दरिद्री नहीं रहा । तब राजा नाभि ने अपने उस नारायण अवतार पुत्र का नाम ऋषभ देव जी रखा (यहाँ ऋषभ शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है) क्योंकि भगवान अवतार ऋषभ देवजी के जन्म से ही दाहिने हाथ चक्र आदि चिन्ह ओर पाँव में बज आदि चिन्ह थे इस कारण भगवान के लक्षणों युक्त होने से ही नाभि ने उनका नाम ऋषभ देव रखा । दिन प्रति दिन ऋषभ देवजी का प्रताप बढ़ता गया। राजा नाभि अपने मन के अनुकूल पुत्र रत्न पाकर बड़ा आनन्दित रहता था। वह भगवान को पुत्र आदि संबोधन से पुकार कर पित्रोचित लाड़ दर्शाता था।



हे राजा परीक्षत! विद्या पढ़ने के लिये ऋषभ देवजी ने कुछ दिन के लिये गुरुकुल में वास किया । अनंतर वे गुरुजनों की आज्ञा ले अपने घर आय पिता की आज्ञाओं का पालन कर सुख देने लगे ।




हे परीक्षत ! ऋषभ देवजी के बढ़ते प्रताप को देखकर पृथ्वी तक की पालना करने को सब प्रजा, देवता, मंत्री- गण, सभी ऋषभ देव जी द्वारा राज्य करने की चाह करने लगे । तब इन सबके चाह करने पर राजा नाभि ने भी यह निश्चय किया कि अब ऋषभ देवजी को राज्य दे, वन में जाय भगवान का भजन कर अपना पर - लोक सुधारना चाहिये। सो ऐसा विचार कर राजा नाभि ने जान लिया कि नगर के सब लोग मंत्री और ब्राह्मण आदि मेरे इस पुत्र पर अत्यन्त स्नेह रखते हैं। सो ऐसा जानकर धर्म मर्यादा के रक्षार्थ अपने पुत्र ऋषभ देव को राज तिलक देने के निमित्त, सब लोगों को बुलाय कहा-हे प्रजाजनों । अब मेरे लिये उचित है कि ऋषभ देवजी को राज सिंहासन पर विराज मान करके रानी सहित बन में जाकर भगवान श्री हरि का भजन करुँ। तब राजा के यह वचन सुनकर, समस्त सभा सद एवं मंत्रीगण बड़े प्रसन्न हुये। तब राजा ने विद्वजनों को बुलाकर शुभ लग्न निश्चय करके श्री ऋषभ देवजी का राज्यभिषेक बड़ी धूम धाम से कर दिया। तत्पश्चात राजा नाभि अपनी स्त्री मेरुवती को माथ लेकर बद्रिकाश्रम को चला गया, और वहाँ जाकर निर्मल व तीज तप के प्रभाव से मन को एकाग्र करके भगवान की उपासना करते हुये योग की समाधि के द्वारा समय पाय जीवन मुक्त हो गया।




ऋषभ देव जी ने धर्म राज्य करते हुये प्रजा का पालन इस प्रकार किया कि उनके राज्य में गाय और शेर एक ही घाट पर पानी पीने लगे । राजा ऋषभ देवजी के न्याय के कारण प्रजा का कोई भी प्राणी दीन व दुखी नहीं था। सभी देवता लोग भी ऋषभ देव जी की अति प्रशंसा किया करते थे। जब इन्द्र देव ने अपने सभी छोटे बड़े देवताओं के मुख से राजा ऋषभ देव जी की इस प्रकार बड़ाई सुनी तो देवराज इन्द्र ने डाह के कारण ऋषि ने देवी के राज्य भरत खंड में जल - नहीं बरसाया। तब ऋषभ देव जी इन्द्र का वृतांत मालूम किया तो उन्हें इंद्र की इस अज्ञानता पर हंसी आ गई । उन्होंने अपने योग बल से राज्य में ऐसी व्यवस्था करी कि जब जल की आवश्यकता होती थी तभी जल बरस जाता था। जब इन्द्र ने ऋषभ देव जी का यह बल पराक्रम देखा तो उसने उन्हें साक्षात नारायण जी का अवतार हुआ जाना और उनकी सेवा अर्चना के निमित्त अपनी जयन्ती नाम कन्या का विवाह ऋषभ देव जी के साथ कर दिया, और अपने अपराध की क्षमा याचना करके अपने सुरलोक को चला आया । तदनंतर राजा ऋषभ देव जी गृहस्थी जनों के धर्मों का आचरण करते हुये राज्य करने लगे ।

ऋषभ देव जी का वंश विवरण।।


श्री ऋषभ देव जी ने अपनी जयन्ती नाम बाली भार्या में अपने समान लक्षणों वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये । उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र भरत नाम का था, जो परम योगी उत्तम गुणों से युक्त था । जिसके नाम से ही यह भारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ऋषभ देव जी के अन्य जो निन्यानवे पुत्र थे उनमें कुशावर्त, दूलावर्त, ब्रह्मवर्त, मलयकेतु, भद्रनसेन, इन्द्र पृक, विदर्भ और कीकट, ये नौ पुत्र शेष नब्बे पुत्रों से बड़े थे। उन से छोटे कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र द्रुमिल, चमस, कर भजन नाम के थे।

नौ पुत्र भगवद्ध में परायण परम वैष्णव हुये। जिनका सुन्दर जीवन चरित्र आगे ग्यारहवें स्कंध में नारद वसुदेव संबाद में वर्णन करेंगे।


हे राजा परीक्षत ! इन सबसे छोटे शेष इक्यासी पुत्र पिता की आज्ञा पालन करने वाले, वेद के ज्ञाता आदि सब विनीत होकर यज्ञ के कर्म विशुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये। यद्यपि राजा ऋषभ देव जी ईश्वर अवतार थे परन्तु लोक मर्यादा हित प्रजा को पथ भ्रष्ट होने से बचाते थे। ऋषभ देव जी के नियमों का पालन प्रजा को यथेष्ठ रूप से किया,
जिससे ऋषभ देव जी ने धर्म की परिपाटी को भी यथेष्ठ रूप से बांधा।


Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉

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