श्रीमद भागवद पुराण चौदहवां अध्याय [स्कंध ९] (सोम वंश का विवरण )

-श्री गणेशाय नमः

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

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Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]





* नवम स्कन्ध प्रारम्भ * * नवम स्कन्ध प्रारम्भ *  * मङ्गलाचरण 

* मङ्गलाचरण * 


दोहा- यदुनायक तारन तरन, दीनबन्धु प्रतिपाल |
राधावर अशरण शरण, गिरवरधर गोपाल ॥ 


छन्द-- जय-जय यदुनायक जन सुखदायक, कंस विनाशन अधहारी। 
जय-जय नदनन्दन जगदुखकन्दन मेटन भय प्रभु नर तनुधारी॥
जे दीनदयाला अमृत कृपाला जगपाला भक्तन हितकारी| 
करशक्ति प्रदाना हे भगवाना पाहि पाहि प्रभु पाहि मुरारी॥ ▲───────◇◆◇───────▲


श्रीमद भागवद पुराण चौदहवां अध्याय [स्कंध ९] (सोम वंश का विवरण )   दोहा-चौदह में वर्णन कियो चन्दवोर्य को वंश।  भये पुरूरुवा ज्यों प्रकटो श्रीबुध को लहि अंश॥   श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन ! अब हम चन्द्रवंश का वर्णन करते हैं, यह कुल बड़ा पवित्र है इसी में पुरवादिक बड़े बड़े पुण्यकीर्ति राजा हुए हैं।   सहस्त्रशीर्ष नारायण की नाभि से कमल हुआ उस कमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया, ब्रह्मा को अत्रि नामक पुत्र हुआ। इसी अत्रि को नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा उत्पन्न हुआ और ब्रह्मा ने इसको ब्राह्मण, औषधि तथा तारागणों का पति बना दिया।   फिर इसने लोकों को जीत कर राजज्ञय यज्ञ किया और वृहस्पति की स्त्री तारा को बल पूर्वक ले आया । इस पर देव गुरु बृहस्पति ने कितनी ही बार चन्द्रमा से तारा को मांगा पर उसने न दी। इसी बात पर देव दानवों का घोर संग्राम हुआ।   वृहस्पति से बैर होने के कारण शुक्राचार्य ने दैत्यों को साथ ले चन्द्रमा का पक्ष लिया और महादेव ने वृहस्पति को पिता से विद्या पढ़ी थी इससे उसका पक्ष ले सब भूतगणों को साथ ले आये।   इन्द्र भी गुरु की ओर हो गया, इस तारा को निमित्त होने वाले युद्ध में देव और दानवों का बहुत नाश हुआ तथापि तारा को चन्द्रमा ने नहीं दिया तब वृहस्पति ने ब्रह्मा से कहा कि तुम बीच बचाव करा दो तब ब्रह्मा ने चन्द्रमा को धमका कर तारा बृहस्पति को दिलादी परन्तु यह गर्भवती थी ।   यह देखकर वृहस्पति ने कहा है दुर्बुद्धे! मेरे क्षेत्र में तू अन्य से वीर्य ले आई है इसका शीघ्र त्याग कर दे मैं तुझको भस्म कर देता परन्तु दूसरी सन्तान उत्पन्न किया चाहता हूँ इससे तुझको भस्म नहीं करूंगा । इस बात पर तारा ने लज्जित होकर उस गर्भ को त्याग दिया परन्तु वह बालक सुवर्ण के समान कांतिमान था इससे बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों उस बालक के लेने की इच्छा करने लगे। इस बालक के लिये बड़ा घोर वाद विवाद होने लगा।   हर एक यह कहता था कि यह पुत्र मेरा है तब ऋषि और देवता लोगों ने मध्यस्थ हो तारा से पूछा कि यह बालक किससे उत्पन्न हुआ है परन्तु लाज के मारे तारा ने कुछ उत्तर न दिया।   तब इन लज्जा कारक बातों से कुपित होकर बालक ने माता से कहा कि हे दुराचारणी ! स्पष्ट क्यों नहीं कह देती है कि मैं किसका हूँ ? ब्रह्मा ने तारा को एकान्त में बुलाकर समझा बुझा के पूछा तब उसने कह दिया कि यह चन्द्रमा से उत्पन्न हुम्रा है, यह सुन उस बालक को चन्द्रमा ने ले लिया।   इस बालक की बुद्धि बड़ी गम्भीर थी इससे ब्रह्मा ने इसका नाम बुध रक्खा इस बुध से चन्द्रमा बहुत प्रसन्न था। इसी बुध से इला के उदर में पुरूरवा उत्पन्न हुआ, उसके रूप, गुण शील और परा क्रम की प्रशंसा नारद ने इन्द्र लोक में की थी।   उसको सुनकर कामशर से पीड़ित हो उर्वशी पुरूरवा के पास आई। मित्रा वरुण के शाप से ऊर्वशी ने मनुष्य लोक में आने की इच्छा की थी, उस पुरुषोत्तम को कामदेव के समान रूपवान सुनकर वह बड़ी धीरता से पुरूरवा के निकट आकर खड़ी हो गई। राजा का उसके सौन्दर्य को देखकर रोम रोम प्रसन्न हो गया और मधुर मधुर वाणी से कहने लगा---   "हे वरारोहे! आइये आइये हमारा भाग्य धन्य है कि आपने दर्शन दिया। बैठिये कहिये आपका आगमन कैसे हुआ, हमारे साथ रमण कीजिये, बहुत समय तक हमारा आपका सहवास रहेगा।"   उर्वशी बोली---   " हे सुन्दर ! ऐसी कौन स्त्री है, जिसका मन और दृष्टि आपकी मोहिनी सूरत में नहीं फस सकता है आपके अंग का स्पर्श होते ही सबका धीरज छूट जायेगा । हे राजन ! मेरे पास ये दो मेढ़ें हैं इनको मैं आपके पास छोड़ती हूँ जब तक आप इनकी रक्षा करोगे तब तक मैं आपके साथ रमण करूंगी। मैं घृत का भोजन किया करूंगी और मैथुन के सिवाय आपको कभी नग्न न देखूंगी। राजा ने भी इन सब बातों की प्रतिज्ञा करली।    उसने कहा धन्य है आपका रूप और धन्य है आपका भाव आप मनुष्यलोक को मोहने वाली हो, ऐसा कौन अधम मनुष्य है जो अपने आप आई हुई आपको अंगीकार न करे।    फिर रमण करती हुई उस उर्वशी को लेकर पुरूरवा देवताओं के बिहार करने के चैत्ररथादि स्थानों में यथेच्छ विहार करने लगा। उस स्त्री के अंग से कमल की केशर की सी ऐसी महक उठती थी कि उसमें मत्त होकर राजा बहुत दिन तक रमण करता रहा और उसको काल जाता हुआ भी मालुम न हुआ। उर्वशी के बिना इन्द्र-भवन की शोभा फीकी पड़ गई। इसलिये इन्द्र ने उर्वशी देखने लिए गन्धर्व भेजे । गन्धर्वो ने आकर एक दिन महा अँधेरी रात में उर्वशी के दिये हुए दोनों मेढ़े चुरा लिये । गन्धर्व जब उनको चुरा कर लिये जाते थे तब उन पुत्रों का चिल्लाना सुन उर्वशी कहने लगी कि   इस कुनाथ वीरमान नपुंसक ने मेरा नाश कर दिया। मैं इसके विश्वास में आकर नष्ट हो गई। मेरे पुत्रों को चोर हरकर ले गये यह नारी की तरह डरकर सोया हुआ पड़ा है। जैसे हाथी अंकुश से विद्ध होती हैं उसी तरह इसके (उर्वशी) कटुवचन रूपी बाणों से विद्ध होकर राजा रात्रि ही में तीव्र कृपाण हाथ में ले नंगा ही दोड़ा चला गया।    इसको देख गन्धर्वो ने मेंढ़ तो छोड़ दिये परन्तु बिजली का सा प्रकाशकर दिया। इसलिये जब वह मेढ़ो को ला रहा था तब उर्वशी ने उसको नग्न देख लिया। इससे राजा को त्यागकर चली गई तब रजा उर्वशी के बिना दुःखित होकर उन्मत्त को तह पृथ्वी पर घूमने लगा।    एक बार कुरुक्षेत्र में वह सरस्वती नदी पर स्नान करने आई थी तब उसने पांचों सखियों सहित उसे देखकर मधुर वाणी से कहा हे प्रिये ! ठहर-ठहर तू मुझको अधर धार में छोड़कर मत जा, मुझे तृप्त किये बिना जाना उचित नहीं है आओ बात सुनो। हे देवि ! मैं तुझे देखता इतनी दूर चला आया अब जो तू मुझ पर कृपा न करेगी तो यह सुन्दर देह यहीं गिर जायगी और स्यार व गिद्ध इसको खा जांयेंगे।    यह सुन उर्वशी कहने लगी कि राजा तू देह को त्याग मत कर। तू पुरुष है धीरज धर स्त्री किसी की मित्र नहीं लालच में बड़ा अनर्थ कर डालना है। यहां तक तो है कि अपने पति और होती है।   स्त्री बड़ी दयाहीन, क्रूर, दुर्धर्ष और हठीली होती है। सोते भाई को भी मार डालती है, और स्वेच्छा चारिणी तथा व्यभवारिणी होकर नित्य नये की खोज में लगी रहती है। बरस दिन पीछे एक रात्रि मेरा आपका सहवास होगा, आपको और भी पुत्र होंगे इसके कहने से यह सूचित किया अब मैं गर्भिणी हूँ। तदनन्तर उर्वशी को गर्भवती देख कर राजा अपने घर चला आया और बरस दिन पीछे वहाँ जाकर बीरमाता उर्वशी से मिला । और प्रसन्न होकर रात्रि भर उसके साथ रहा जब इसको विरह से बहुत व्याकुल देखा तब उर्वशी बोली । तू इन गन्धर्वो से प्रार्थना कर ये मुझे तुझ को दे जाँयगे। इस तरह राजा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वो ने उसे एह अग्निस्थाली दी।   इसको पुरूरवा ने उर्वशी समझ लिया और उनको ले बन बन बिचरने लगा। फिर स्थाली को बन में छोड़ घर आकर उसका ध्यान करता रहा तदनन्तर त्रेतायुग के आरम्भ में उसके मन में वेदत्रयी उत्पन्न हुई।   तब फिर उस स्थान पर गया जहां स्थाली छोड़ी थी। वहां जाकर उसने देखा कि इसमें तो छीकर के भीतर पीपल लगा हुआ है तब उसमें से दो अरणी बनाकर उर्वशी के लोक में जाने की इच्छा से मथने लगा। नीचे अरणी में उर्वशी का ध्यान ऊपर की में अपना और दोनों के मध्य में पुत्र का ध्यान करके उनको मथने लगा। इस मथने से कर्मफल देने वाला अग्नि उत्पन्न हुआ, यह अग्नि आहवनीय, गाहु पत्य और दक्षिणाग्नि इन तीन प्रकार का हुआ उसको पुरूरवा ने अपना पुत्र ठहराया। इस अग्नि से उर्वशी के लोक में जाने की इच्छा से अधोक्षज भगवान का भजन किया। प्रथम एक ही वेद था सर्व वाणियों से युक्त एक ही ओमकार मन्त्र था, एक ही नारायण देव एक ही अग्नि और एक ही वर्ण था। त्रेता के प्रारम्भ में इसी पुरूरवा की हो  वेदत्रयी हुई है और पुरूरवा इस अग्नि ही को अपना समझता था इससे उसी के द्वारा होकर वह गन्धर्वलोक चला गया ।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

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श्रीमद भागवद पुराण चौदहवां अध्याय [स्कंध ९]

(सोम वंश का विवरण )


दोहा-चौदह में वर्णन कियो चन्दवोर्य को वंश।
भये पुरूरुवा ज्यों प्रकटो श्रीबुध को लहि अंश॥


श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन ! अब हम चन्द्रवंश का वर्णन करते हैं, यह कुल बड़ा पवित्र है इसी में पुरवादिक बड़े बड़े पुण्यकीर्ति राजा हुए हैं।


सहस्त्रशीर्ष नारायण की नाभि से कमल हुआ उस कमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया, ब्रह्मा को अत्रि नामक पुत्र हुआ। इसी अत्रि को नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा उत्पन्न हुआ और ब्रह्मा ने इसको ब्राह्मण, औषधि तथा तारागणों का पति बना दिया।


फिर इसने लोकों को जीत कर राजज्ञय यज्ञ किया और वृहस्पति की स्त्री तारा को बल पूर्वक ले आया । इस पर देव गुरु बृहस्पति ने कितनी ही बार चन्द्रमा से तारा को मांगा पर उसने न दी। इसी बात पर देव दानवों का घोर संग्राम हुआ।

वृहस्पति से बैर होने के कारण शुक्राचार्य ने दैत्यों को साथ ले चन्द्रमा का पक्ष लिया और महादेव ने वृहस्पति को पिता से विद्या पढ़ी थी इससे उसका पक्ष ले सब भूतगणों को साथ ले आये।

इन्द्र भी गुरु की ओर हो गया, इस तारा को निमित्त होने वाले युद्ध में देव और दानवों का बहुत नाश हुआ तथापि तारा को चन्द्रमा ने नहीं दिया तब वृहस्पति ने ब्रह्मा से कहा कि तुम बीच बचाव करा दो तब ब्रह्मा ने चन्द्रमा को धमका कर तारा बृहस्पति को दिलादी परन्तु यह गर्भवती थी ।

यह देखकर वृहस्पति ने कहा है दुर्बुद्धे! मेरे क्षेत्र में तू अन्य से वीर्य ले आई है इसका शीघ्र त्याग कर दे मैं तुझको भस्म कर देता परन्तु दूसरी सन्तान उत्पन्न किया चाहता हूँ इससे तुझको भस्म नहीं करूंगा । इस बात पर तारा ने लज्जित होकर उस गर्भ को त्याग दिया परन्तु वह बालक सुवर्ण के समान कांतिमान था इससे बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों उस बालक के लेने की इच्छा करने लगे। इस बालक के लिये बड़ा घोर वाद विवाद होने लगा।

हर एक यह कहता था कि यह पुत्र मेरा है तब ऋषि और देवता लोगों ने मध्यस्थ हो तारा से पूछा कि यह बालक किससे उत्पन्न हुआ है परन्तु लाज के मारे तारा ने कुछ उत्तर न दिया।

तब इन लज्जा कारक बातों से कुपित होकर बालक ने माता से कहा कि हे दुराचारणी ! स्पष्ट क्यों नहीं कह देती है कि मैं किसका हूँ ? ब्रह्मा ने तारा को एकान्त में बुलाकर समझा बुझा के पूछा तब उसने कह दिया कि यह चन्द्रमा से उत्पन्न हुम्रा है, यह सुन उस बालक को चन्द्रमा ने ले लिया।

इस बालक की बुद्धि बड़ी गम्भीर थी इससे ब्रह्मा ने इसका नाम बुध रक्खा इस बुध से चन्द्रमा बहुत प्रसन्न था। इसी बुध से इला के उदर में पुरूरवा उत्पन्न हुआ, उसके रूप, गुण शील और परा क्रम की प्रशंसा नारद ने इन्द्र लोक में की थी।

उसको सुनकर कामशर से पीड़ित हो उर्वशी पुरूरवा के पास आई। मित्रा वरुण के शाप से ऊर्वशी ने मनुष्य लोक में आने की इच्छा की थी, उस पुरुषोत्तम को कामदेव के समान रूपवान सुनकर वह बड़ी धीरता से पुरूरवा के निकट आकर खड़ी हो गई। राजा का उसके सौन्दर्य को देखकर रोम रोम प्रसन्न हो गया और मधुर मधुर वाणी से कहने लगा---

"हे वरारोहे! आइये आइये हमारा भाग्य धन्य है कि आपने दर्शन दिया। बैठिये कहिये आपका आगमन कैसे हुआ, हमारे साथ रमण कीजिये, बहुत समय तक हमारा आपका सहवास रहेगा।"

उर्वशी बोली---

" हे सुन्दर ! ऐसी कौन स्त्री है, जिसका मन और दृष्टि आपकी मोहिनी सूरत में नहीं फस सकता है आपके अंग का स्पर्श होते ही सबका धीरज छूट जायेगा । हे राजन ! मेरे पास ये दो मेढ़ें हैं इनको मैं आपके पास छोड़ती हूँ जब तक आप इनकी रक्षा करोगे तब तक मैं आपके साथ रमण करूंगी। मैं घृत का भोजन किया करूंगी और मैथुन के सिवाय आपको कभी नग्न न देखूंगी। राजा ने भी इन सब बातों की प्रतिज्ञा करली।



उसने कहा धन्य है आपका रूप और धन्य है आपका भाव आप मनुष्यलोक को मोहने वाली हो, ऐसा कौन अधम मनुष्य है जो अपने आप आई हुई आपको अंगीकार न करे।


फिर रमण करती हुई उस उर्वशी को लेकर पुरूरवा देवताओं के बिहार करने के चैत्ररथादि स्थानों में यथेच्छ विहार करने लगा। उस स्त्री के अंग से कमल की केशर की सी ऐसी महक उठती थी कि उसमें मत्त होकर राजा बहुत दिन तक रमण करता रहा और उसको काल जाता हुआ भी मालुम न हुआ। उर्वशी के बिना इन्द्र-भवन की शोभा फीकी पड़ गई। इसलिये इन्द्र ने उर्वशी देखने लिए गन्धर्व भेजे । गन्धर्वो ने आकर एक दिन महा अँधेरी रात में उर्वशी के दिये हुए दोनों मेढ़े चुरा लिये । गन्धर्व जब उनको चुरा कर लिये जाते थे तब उन पुत्रों का चिल्लाना सुन उर्वशी कहने लगी कि


इस कुनाथ वीरमान नपुंसक ने मेरा नाश कर दिया। मैं इसके विश्वास में आकर नष्ट हो गई। मेरे पुत्रों को चोर हरकर ले गये यह नारी की तरह डरकर सोया हुआ पड़ा है। जैसे हाथी अंकुश से विद्ध होती हैं उसी तरह इसके (उर्वशी) कटुवचन रूपी बाणों से विद्ध होकर राजा रात्रि ही में तीव्र कृपाण हाथ में ले नंगा ही दोड़ा चला गया।


इसको देख गन्धर्वो ने मेंढ़ तो छोड़ दिये परन्तु बिजली का सा प्रकाशकर दिया। इसलिये जब वह मेढ़ो को ला रहा था तब उर्वशी ने उसको नग्न देख लिया। इससे राजा को त्यागकर चली गई तब रजा उर्वशी के बिना दुःखित होकर उन्मत्त को तह पृथ्वी पर घूमने लगा।


एक बार कुरुक्षेत्र में वह सरस्वती नदी पर स्नान करने आई थी तब उसने पांचों सखियों सहित उसे देखकर मधुर वाणी से कहा हे प्रिये ! ठहर-ठहर तू मुझको अधर धार में छोड़कर मत जा, मुझे तृप्त किये बिना जाना उचित नहीं है आओ बात सुनो। हे देवि ! मैं तुझे देखता इतनी दूर चला आया अब जो तू मुझ पर कृपा न करेगी तो यह सुन्दर देह यहीं गिर जायगी और स्यार व गिद्ध इसको खा जांयेंगे।


यह सुन उर्वशी कहने लगी कि राजा तू देह को त्याग मत कर। तू पुरुष है धीरज धर स्त्री किसी की मित्र नहीं लालच में बड़ा अनर्थ कर डालना है। यहां तक तो है कि अपने पति और होती है।


स्त्री बड़ी दयाहीन, क्रूर, दुर्धर्ष और हठीली होती है। सोते भाई को भी मार डालती है, और स्वेच्छा चारिणी तथा व्यभवारिणी होकर नित्य नये की खोज में लगी रहती है। बरस दिन पीछे एक रात्रि मेरा आपका सहवास होगा, आपको और भी पुत्र होंगे इसके कहने से यह सूचित किया अब मैं गर्भिणी हूँ। तदनन्तर उर्वशी को गर्भवती देख कर राजा अपने घर चला आया और बरस दिन पीछे वहाँ जाकर बीरमाता उर्वशी से मिला । और प्रसन्न होकर रात्रि भर उसके साथ रहा जब इसको विरह से बहुत व्याकुल देखा तब उर्वशी बोली । तू इन गन्धर्वो से प्रार्थना कर ये मुझे तुझ को दे जाँयगे। इस तरह राजा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वो ने उसे एह अग्निस्थाली दी।

इसको पुरूरवा ने उर्वशी समझ लिया और उनको ले बन बन बिचरने लगा। फिर स्थाली को बन में छोड़ घर आकर उसका ध्यान करता रहा तदनन्तर त्रेतायुग के आरम्भ में उसके मन में वेदत्रयी उत्पन्न हुई।

तब फिर उस स्थान पर गया जहां स्थाली छोड़ी थी। वहां जाकर उसने देखा कि इसमें तो छीकर के भीतर पीपल लगा हुआ है तब उसमें से दो अरणी बनाकर उर्वशी के लोक में जाने की इच्छा से मथने लगा। नीचे अरणी में उर्वशी का ध्यान ऊपर की में अपना और दोनों के मध्य में पुत्र का ध्यान करके उनको मथने लगा। इस मथने से कर्मफल देने वाला अग्नि उत्पन्न हुआ, यह अग्नि आहवनीय, गाहु पत्य और दक्षिणाग्नि इन तीन प्रकार का हुआ उसको पुरूरवा ने अपना पुत्र ठहराया। इस अग्नि से उर्वशी के लोक में जाने की इच्छा से अधोक्षज भगवान का भजन किया। प्रथम एक ही वेद था सर्व वाणियों से युक्त एक ही ओमकार मन्त्र था, एक ही नारायण देव एक ही अग्नि और एक ही वर्ण था। त्रेता के प्रारम्भ में इसी पुरूरवा की हो  वेदत्रयी हुई है और पुरूरवा इस अग्नि ही को अपना समझता था इससे उसी के द्वारा होकर वह गन्धर्वलोक चला गया ।



।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।

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The events, the calculations, the facts aren't depicted by any living sources. These are completely same as depicted in our granths. So you can easily formulate or access the power of SANATANA. Jai shree Krishna.🙏ॐ

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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। 



 Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!

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