श्रीमद भागवद पुराण * दसवां अध्याय *[स्कंध ५] (जड़ भरत और राजा रहूगण का संवाद)
श्रीमद भागवद पुराण * दसवां अध्याय *[स्कंध ५] (जड़ भरत और राजा रहूगण का संवाद)
दोहा-सेवक पकड़े जड़ भरत, दिये सुख पाल लगाय ।
सो दसवें अध्याय में, कहयौ संवाद सुनाय ।।
श्रीमद भागवद पुराण * नौवां अध्याय *[स्कंध ५] जड़ भरत की कथा भाग १
(भरत का विप्र जन्म लेना)दोहा-या नवमे अध्याय में, भये भरत जड़ रूप।
सो उनकी सारी कथा, वर्णन करी अनूप ॥
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श्री शुकदेवजी बोले-हे राजा परीक्षत ! एक समय सिन्धु सौवीर का राजा रहूगण सुखपाल (पालकी) में बैठकर कपिल मुनि के आश्रम पर मुनि से ज्ञान सीखने के लिये जाता था। कि अचानक राजा की सुखपाल को उठाने वाले चार कहारों में एक कहार बीमार हो गया। तब सुखपाल को ले चलना उन तीन कहारों को कठिन हुआ।
तब वे चौथा मनुष्य खोजने के लिये चले । थोड़ी ही दूर पर उन कहारों ने इक्षुमती नदी के तट पर भगवान के चिन्तन में विचार करते हुये श्री जड़ भरत को विचरण करते हुये देखा। कहारों ने जड़ भरत को हृष्ट पुष्ट युवा, लंवा, चौड़ा शक्तिवान अङ्गवाला देखकर पकड़ लिया, और अपने साथ चौथे कहार के स्थान पर सुखपाल में लगाया ।
नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।
सो हे परीक्षत इस प्रकार रहूगण के सुखपाल को उठाय वे कहार चलने लगे । तब जड़ भरत मार्ग में इस प्रकार चलते थे कि उनके पग रखने से किसी जीव की हिंसा न हो जावे, सो वे कहीं उछलते तो कभी कम पग का फासला कर चलते। जिस के कारण अन्य कहारों को भी चलने में असुविधा होती, और राजा रहूगण की सुखपाल बार-बार नींची-ऊंची तथा टेड़ी होती कभी एक साथ झटका लगता तो कभी यह प्रतीत होता था कि वह पालकी कहीं गिर न जाय । इस प्रकार राजा रहूगण ने जब अपनी सुखपाल को हिलते देखा और इसे इस सुखपाल में बैठने पर असुविधा होने लगी तो वह कुछ रुष्ट हुआ, और अपने कहारों से पूछा कि हे कहारों यह सुखपाल टेड़ी क्यों हुई जाती है तथा इस प्रकार झटके से क्यों लगते हैं।तब वे कहार राजा के भयभीत हो निवेदन कर कहने लगे कि-हे महाराज! यह हमारी कुछ असावधानता नहीं है, बल्कि हमारा एक कहार रोगी हो गया था, और उसके स्थान पर हमने यह एक नया मनुष्य पकड़ कर लगाया है। सो वह शीघ्र नहीं चलता है, जिसके कारण हम भी शीघ्र नहीं चल पाते ।
तब वह राजा रहूगण उस जड़ भरत के गुप्त तेज को न जानकर कुछ क्रोधित हो उपहास करता हुआ जड़ भरत से इस प्रकार बोला-अहो! बड़े कष्ट की बात है, हे भाई! तुम बहुत थक गये हो, क्योंकि अकेले ही बहुत दूर से पालकी उठाकर लाये हो तुम बहुत पुष्ट भी नहीं हो, और तुमको वृद्धावस्था ने भी घेर लिया है। राजा रहूगण के इस प्रकार कहने पर भी जड़ भरतने उसे कुछ उत्तर नहीं दिया और वह पहले की भाँति ही पालकी को उठाये चलते रहे ।
महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १
हिरण्यकश्यपु का नरसिंह द्वारा विनाश।। महभक्त प्रह्लाद की कथा भाग ४
प्रह्लाद द्वारा भगवान का स्तवन। महाभक्त प्रह्लाद की कथा भाग ५।।
जब इस प्रकार चलने के कारण सुखपाल टेडी हुयी, और राजा की कुछ झटका सा लगा तो उस समय क्रोधित होकर राजा रहूगण ने कहा -अरे ! क्या हैं। क्या तू जीवित ही मरा हुआ हैं। क्या तू मुझको कुछ न समझकर मेरा अपमान करता है, और अपने स्वामी की आज्ञा का पालन नहीं करता है। क्या तुझे अपनी मृत्यु का भी भय नहीं है, ठहर में तुझे अभी यमराज के पास भेजे देता हूँ।जब राजा रहूगण ने क्रोधित हो कर जड़ भरत से इस प्रकार कहा तो यह बचन सुनकर जड़ भरत ने अपने मन में विचार किया कि, यह राजा अपने आपको बड़ा ज्ञानी समझता है । अतः इसका अभिमान दूर करना चाहिए ऐसा विचार कर जड़ भरत ने मुस्करा कर कहा - हे वीर ! तुमने जो कुछ भी कहा सो ठीक ही कहा है। सो इसमें हमारा कुछ भी तिरस्कार नहीं हुआ है। क्योंकि मैं अपनी आत्मा का देह के
साथ कोई सम्बन्ध नहीं समझता हूँ, इसीलिये मैं ऐसा नहीं समझता हूँ। कि तुमने मेरा कोई तिरस्कार किया है। यह बोझ क्या है, तथा यह देह क्या वस्तु है, सो इसका कोई निरूपण नहीं हो सकता है, क्योंकि भाव व देह के साथ मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। ऐसे ही गमन कर्ता को कोई प्राप्त होने योग्य स्थान हो अथवा मार्ग कोई वस्तु हो और उन के साथ मेरा सम्बन्ध हो, तो ऐसा होने पर ही मैं तुम्हारे कहे हुये बचनों से अपना तिरस्कार हुआ समझूं ।
तुमने कहा तुम पुष्ट हो सो ऐसा तो मूर्ख पुरुष हो कहते हैं क्योंकि यह शरीर पुष्ट है न कि यह आत्मा पुष्ट इसलिये हे राजन ! मैं पुष्ट नहीं हूँ। अतः मोटापन, दुबला पन, आदि व्याधि, क्षुधा, तृषा, भय, क्लेश, जाग, निद्रा, रति, क्रोध शोक, भय, और अहंकार जनक मद, सो तो उस पुरुष को होते हैं जो कि देह अभिमान के सहित जन्मा होता है । अर्थात मुझे इस देह का कोई अभिमान नहीं है यह स्थिर नहीं है कभी भी साथ छोड़ सकती है। इसलिये तुम्हें यह जान लेना चाहिये कि में इस देह से पृथक आत्मा हूँ। फिर तुमने यह भी कहा कि जीवित मुर्दा हूँ सो, यह सम्पूर्ण संसार ही एक जीवित मुर्दा ही है। क्योंकि यह विकार युक्त जगत आदि और अन्त वाया ही हैं। अत: मेरा यह शरीर मेरा नहीं और यह विकार इस शरीर का है मेरा नहीं है और यह जो तुमने कहा कि स्वामी की अाज्ञा को उलंघन करता है सो वो स्वामी भाव और सेवक भाव जो अविचल होवे सो वह तुम्हारे को अविचल नहीं है । अतः तुम्हारे को आज्ञा करना और हमारे को काम करना मात्र ही बन सकता है। सो हे राजन! यह सब व्यवहार मात्र ही है कि यह राजा है और यह सेवक है ! यदि सिद्धान्त पूर्वक देखा जाय और व्यवहारिक दृष्टि को त्याग दिया जाय तो तब यह जान पड़ेगा, कि कौन राजा हैं कौन स्वामी है और कौन दास है। क्योंकि मृत्यु के पश्चात जब यह देह छूट जाती है तो केवल जीव ही होता है, जो दोनों ही एक दूसरे के समान ही होता है।
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हे राजा परीक्षत ! जब जड़ भरत इस प्रकार राजा रहूगण के समस्त बचनों का उत्तर देकर फिर पहले की भाँति सुखपाल को उठाकर चलने लगे तो, वह सिधु और सौवीर देश का राजा रहूगण जड़ भरत के ज्ञानमई बचनों को सुन कर अत्यन्त प्रभावित हुआ, और तुरंत ही सुखपाल से नीचे उतर पड़ा, और अपने राजापन का अभिमान त्याग कर जड़ भरत के चरणों में अपना शिर रखकर अपना अपराध क्षमा करा कर कहने लगा--
हे ब्रह्मन ! मैंने अज्ञान व राजमद के अहंकार के वशीभूत हो आपको पहिचानने में भूल की है। यद्यपि मैं आपके कंधे में यज्ञोपवीत देख रहा हूँ। क्या आप दत्तात्रेय आदि में से कोई अवधूत तो नहीं हो, जो हमारे ही कल्याण के निमित्त यहाँ पधारे हो । अथवा आप कपिल देव तो नहीं हो । मैं विद्वान ज्ञानी धर्माचरण करने वाले ब्राह्मणों का निरादर करने से बहुत ही डरता । अतः हे देव ! आप यह बताइये कि अपार महिमा वाले गुप्त रूप से ज्ञान का अत्यन्त प्रभाव रखने वाले आप कौन हो जो इस प्रकार बावलों की भाँति संग को त्याग कर रहते हो। आपने मेरे कहे हुये समस्त बचनों का उत्तर जिस प्रकार, हे साधु! योग सिद्धान्त से गुथे हुये बचनों में दिया है कि जिन का अर्थ में मन से करने में भी असमर्थ हूँ । सो जान पड़ता है कि आप निश्वय ही महा योगेश्वर आत्म तत्व के जानने वाले मुनियों में प्रधान श्री हरि कपिल मुनि के समान हैं ।
सो हे वृह्मन ! मैं आपको अपना गुरू मानकर आपसे यह जान लेना चाहता हूँ कि संसार में निस्तारक सत्य क्या है। हे नाथ ! मैं इसी हेतु आपके पास जा रहा था । परंतु हम जैसे घर में फंसे मन्द बुद्धि वाले लोग आप जैसे योगेश्वरों की गति को किस प्रकार जान सकते हैं । सो है नाथ ! मेरे प्रथम कहे हुये बचनों के आपने जो उत्तर दिये हैं उनको समझने में मैं असमर्थ हैं । अर्थात उनका अर्थ में ठीक प्रकार से नहीं समझा हूँ । आप कृपा दृष्टि कर वह सब बताइये कि जिससे महात्माओं के अपमान रूप पाप से मेरा निस्तार हो जावे ।
क्या थे श्री कृष्ण के उत्तर! जब भीष्मपितामह ने राम और कृष्ण के अवतारों की तुलना की?A must read phrase from MAHABHARATA.
श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य।।
तंत्र--एक कदम और आगे। नाभि से जुड़ा हुआ एक आत्ममुग्ध तांत्रिक।
क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य? तंत्र- एक विज्ञान।।
आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।
तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।
मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम दशम अध्याय समाप्तम🥀।।
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