श्रीमद भागवद पुराण * पाँचवाँ अध्याय * [स्कंध५]( ऋषभ देवजी का उपदेश करना )


श्रीमद भागवद पुराण * पाँचवाँ अध्याय * [स्कंध५] ( ऋषभ देवजी का उपदेश करना )  दोहा-ऋषभ देव निज जात जिमि, दई सीख सुख दाय।  मोक्ष मार्ग वर्णन कियो, या पंचम अध्याय ।।  श्री शुकदेवजी बोले-हे राजा परीक्षित ! एक समय श्री ऋषभ देव जी विवरण करते हुये ब्रह्मा वर्त देश में जा पहुँचे। वहाँ पर वह ब्रह्मर्षि जनों की सभा में जाकर अपने पुत्रों को इस प्रकार उपदेश करने लगे।   हे पुत्रो! मनुष्य को नर तन पाकर दुख दाई विषय भोगों में नहीं फंसना चाहिये। क्योंकि यह विषय भोग तो शूकर आदि विष्ठा भक्षण करने वाले जीवों को भी प्राप्त हो जाता है। अतः यह मानव देह तो तप करने के योग्य है, क्योंकि तप करने से अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, और तभी मनुष्य को वृह्मानंद की प्राप्ती होती है । विद्वानों का कथन है कि महान् पुरुष की सेवा करना ही मुक्ति का द्वार है, और स्त्री एवं कामी पुरुषों का सत्संग नरक का द्वार है । जो क्रोध न लावें और शान्ति वृत्ति वाले सदाचार का पालन करते हैं वही साधु पुरुषों के लक्षण हैं। परमेश्वर में मित्र भाव रखने वाले और उस भाव को परम पुरुषार्थ जानने वाले ही महापुरुष हैं। प्राणी का आत्मा जब तक अज्ञान रूप अधिकार में रहता है तब तक मन को पूर्व कर्म अपने वश में रखता है और यह मन ही मनुष्य को काम के वश में कर देता है।    जीवात्मा जब तक देह के संबंध से नहीं छूटता है, जब तक कि उनकी प्रीति वासुदेव स्वरूप में नहीं होती है। मनुष्य मिथुनी भाव से तब निवृत्त होता है जब कि हृदय में कर्मों से संबंधी तम रूप दृढ़ ग्रन्थि शिथिल हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह हैं जब स्त्री पुरुष का संग पृथक हो जाता है तब अहंकार को त्याग कर मुक्त हो परम पद को प्राप्त होता है।    सो हे पुत्रो ! अहंकार की ग्रंथि का भेदन करने के लिये निम्न लिखित बातों पर ध्यान देना परम आवश्यक है ।   ये बात यह हैं-ईश्वर एवं गुरु में भक्ति रखना, सुख दुःख आदि की सहन करना, तृष्णा का त्याग करना, सब लोकों में दुःख व्यसन समझना, आत्म तत्व ज्ञान की इच्छा रखना, तप करना, सकाम कर्मों का त्याग करना, ईश्वर हेतु कर्म करना, हरि कथा श्रवण करना, नारायण के भक्तों की सदा संगति करना, भगवान के गुणों का कीर्तन करना, समदृष्टि रखना, किसी से वैर भाव न करना, देह, घर, ममता को त्यागने की इच्छा रखना, निरंतर सावधान रहना, वाणी को वश में रखना, वेदांत शास्त्र का अध्ययन करना, एकान्त में निवास करना, प्राण इंद्रिय, मन को जीतना, श्रेष्ठ, श्रद्धा, वृहाव्रत से रहना, सर्वत्र ईश्वर को व्याप्त हुआ अनुभव करना, योगाभ्यास, सम्मति  पच्चीस साधनों को करके धैर्य, उद्यम, विवेक युक्त निपुण पुरुषं ही अहंकार नाम वाली लिंग उपाधि को दूर कर सकता है ।   हे पुत्रो! मुझे श्रेष्ठ जन ऋषभ देवजी क्यों कहते हैं, क्योंकि मैंने सदैव अधर्म को दूर ही से पीठ पीछे रखा है, अतः तुम इर्षा भाव को त्याग कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। क्योंकि तुम सब मेरे हृदय से उत्पन्न हुये मेरे पुत्र हो। भरत की सेवा करना ही इस प्रजा की सेवा करना है। हे पुत्रो ! मेरी आज्ञा है कि सर्व श्रेष्ठ ईश्वर ( मैं हूँ) है, और ईश्वर ने भी कर्म काण्ड युक्त श्रेष्ठ वेद ग्राही ब्राह्मणों की पूजा की है इस कारण संसार में सर्व श्रेष्ठ कर्म वाले वेद के ज्ञाता नियम का पालन करने वाले धर्म धारण करने वाले हरि भक्त विद्वान ब्राह्मण हैं (ब्राह्मण शब्द का अर्थ किसी विशेष ब्राह्मण जाति से नहीं बल्कि हरि भक्त तथा सुकर्म करने वाले विद्वान को ब्राह्मण कहना ही उचित है) अतः पाप को ऐसे वृद्ध के ज्ञाता विद्वान जनों की सेवा से विमुख नहीं होना चाहिये। अतः ऐसे महा पुरुषों को अपनी सेवा से प्रसन्न करते रहने में ही सदा भलाई है।    हे वत्स गण! सब प्राणियों का सम्मान करना ही भगवान श्री हरि नारायण की पूजा करना है। वही पूजा करना मन, वचन, चक्षु तथा अन्य इंद्रियों की चेष्ठा का फल है । अतः सब कर्म रूप व्यापार को जब तक मनुष्य ईश्वर के अर्पण नहीं करता तब तक वह मोह मय यम (अर्थात यहाँ मोह को यम सम्बोधित किया गया है)  को फाँसी से किसी प्रकार भी मुक्ति नहीं पा सकता है ।    हे राजा परीक्षित! अपने पुत्रों को इस प्रकार की शिक्षा देकर स्वयं ऋषभ देव जी अपने बड़े पुत्र भरत जी को राज्य देकर माया मोह को त्याग दिगंबर वेष धारणा कर बृह्मावर्त से चल दिये। वे उन्मत्त के समान देह में धूल आदि लाग कर अवधूत रूप धारण कर जड़, मूक, अंध, बधिर, के समान बन कर मौन धारण किये नगर, गाँव, वन तथा मुनियों ने आश्रमों इत्यादि स्थानों पर विचरण करने लगे। उन्हें मार्ग में इस वेष में देख नीच पुरुष कष्ट भी देते थे, परन्तु वे सब कुछ सहन कर किसी से कुछ न कहते, अच्छे बुरे जड़ चेतन का अनुभव करते हुए परमानंद को प्राप्त करते हुए पृथ्वी पर विचरते रहे। उनके सुन्दर शरीर पर धूल आदि के लग जाने से उस वेष को देख कर  संसारी लोग उन्हें पिशाच ग्रस्थ समझते थे ।     तब श्री  ऋषभ देव जी को यह अनुभव हुआ कि यह संसारी लोग अपने अज्ञान के कारण उनके योगाभ्यास मार्ग में विघ्न पैदा करते हैं । इस कारण वे लोगों से पीछा छुड़ाने के लिये एक ही स्थान पर रह कर शयन, भोजन जलपान, चर्वण, मल मूत्र त्याग इत्यादि क्रियायें करने लगे। इन सब प्रकार के योगों के कारण अखंडित परमानंद के स्वरूप को प्राप्त हुये। इसी कारण उन्हें स्वतः ही संपूर्ण - - सिद्धियाँ प्राप्त होगई थीं। जैसे आकाश गमन, वायु समान मन के समान वेगवान शरीर का होना, तथा अन्तर्ध्यान होना, और अन्य की देह में प्रवेश होना, दूर की वस्तु अथवा दूसरे के मन की बात को जान लेना आदि अनेक योगिक सिद्धियाँ प्राप्त हो गई थी। जा को रु नंद को प्राप्त करते हुये पृथ्वी पर विचरते रहे ।    परन्तु इन सब सिद्धियों के स्वतः ही प्राप्त हो जान पर भी श्री ऋषभ देव जी ने इन सिद्धियों का कभी मन से सत्कार नहीं किया था।


श्रीमद भागवद पुराण * पाँचवाँ अध्याय * [स्कंध५]( ऋषभ देवजी का उपदेश करना )

दोहा-ऋषभ देव निज जात जिमि, दई सीख सुख दाय।

मोक्ष मार्ग वर्णन कियो, या पंचम अध्याय ।।








नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १




श्री शुकदेवजी बोले-हे राजा परीक्षित ! एक समय श्री ऋषभ देव जी विवरण करते हुये ब्रह्मा वर्त देश में जा पहुँचे। वहाँ पर वह ब्रह्मर्षि जनों की सभा में जाकर अपने पुत्रों को इस प्रकार उपदेश करने लगे।


हे पुत्रो! मनुष्य को नर तन पाकर दुख दाई विषय भोगों में नहीं फंसना चाहिये। क्योंकि यह विषय भोग तो शूकर आदि विष्ठा भक्षण करने वाले जीवों को भी प्राप्त हो जाता है। अतः यह मानव देह तो तप करने के योग्य है, क्योंकि तप करने से अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, और तभी मनुष्य को वृह्मानंद की प्राप्ती होती है । विद्वानों का कथन है कि महान् पुरुष की सेवा करना ही मुक्ति का द्वार है, और स्त्री एवं कामी पुरुषों का सत्संग नरक का द्वार है । जो क्रोध न लावें और शान्ति वृत्ति वाले सदाचार का पालन करते हैं वही साधु पुरुषों के लक्षण हैं। परमेश्वर में मित्र भाव रखने वाले और उस भाव को परम पुरुषार्थ जानने वाले ही महापुरुष हैं। प्राणी का आत्मा जब तक अज्ञान रूप अधिकार में रहता है तब तक मन को पूर्व कर्म अपने वश में रखता है और यह मन ही मनुष्य को काम के वश में कर देता है।


जीवात्मा जब तक देह के संबंध से नहीं छूटता है, जब तक कि उनकी प्रीति वासुदेव स्वरूप में नहीं होती है। मनुष्य मिथुनी भाव से तब निवृत्त होता है जब कि हृदय में कर्मों से संबंधी तम रूप दृढ़ ग्रन्थि शिथिल हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह हैं जब स्त्री पुरुष का संग पृथक हो जाता है तब अहंकार को त्याग कर मुक्त हो परम पद को प्राप्त होता है।

सो हे पुत्रो !

 अहंकार की ग्रंथि का भेदन करने के लिये निम्न लिखित बातों पर ध्यान देना परम आवश्यक है ।


ये बात यह हैं-ईश्वर एवं गुरु में भक्ति रखना, सुख दुःख आदि की सहन करना, तृष्णा का त्याग करना, सब लोकों में दुःख व्यसन समझना, आत्म तत्व ज्ञान की इच्छा रखना, तप करना, सकाम कर्मों का त्याग करना, ईश्वर हेतु कर्म करना, हरि कथा श्रवण करना, नारायण के भक्तों की सदा संगति करना, भगवान के गुणों का कीर्तन करना, समदृष्टि रखना, किसी से वैर भाव न करना, देह, घर, ममता को त्यागने की इच्छा रखना, निरंतर सावधान रहना, वाणी को वश में रखना, वेदांत शास्त्र का अध्ययन करना, एकान्त में निवास करना, प्राण इंद्रिय, मन को जीतना, श्रेष्ठ, श्रद्धा, वृहाव्रत से रहना, सर्वत्र ईश्वर को व्याप्त हुआ अनुभव करना, योगाभ्यास, सम्मति पच्चीस साधनों को करके धैर्य, उद्यम, विवेक युक्त निपुण पुरुषं ही अहंकार नाम वाली लिंग उपाधि को दूर कर सकता है ।


हे पुत्रो! मुझे श्रेष्ठ जन ऋषभ देवजी क्यों कहते हैं, क्योंकि मैंने सदैव अधर्म को दूर ही से पीठ पीछे रखा है, अतः तुम इर्षा भाव को त्याग कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। क्योंकि तुम सब मेरे हृदय से उत्पन्न हुये मेरे पुत्र हो। भरत की सेवा करना ही इस प्रजा की सेवा करना है। हे पुत्रो ! मेरी आज्ञा है कि सर्व श्रेष्ठ ईश्वर ( मैं हूँ) है, और ईश्वर ने भी कर्म काण्ड युक्त श्रेष्ठ वेद ग्राही ब्राह्मणों की पूजा की है इस कारण संसार में सर्व श्रेष्ठ कर्म वाले वेद के ज्ञाता नियम का पालन करने वाले धर्म धारण करने वाले हरि भक्त विद्वान ब्राह्मण हैं (ब्राह्मण शब्द का अर्थ किसी विशेष ब्राह्मण जाति से नहीं बल्कि हरि भक्त तथा सुकर्म करने वाले विद्वान को ब्राह्मण कहना ही उचित है) अतः पाप को ऐसे वृद्ध के ज्ञाता विद्वान जनों की सेवा से विमुख नहीं होना चाहिये। अतः ऐसे महा पुरुषों को अपनी सेवा से प्रसन्न करते रहने में ही सदा भलाई है।

श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य।।


How do I balance between life and bhakti? 


 मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?


यज्ञशाला में जाने के सात वैज्ञानिक लाभ।। 


सनातन व सिखी में कोई भेद नहीं।


सनातन-संस्कृति में अन्न और दूध की महत्ता पर बहुत बल दिया गया है !


Astonishing and unimaginable facts about Sanatana Dharma (HINDUISM)



सनातन धर्म के आदर्श पर चल कर बच्चों को हृदयवान मनुष्य बनाओ।



हे वत्स गण! सब प्राणियों का सम्मान करना ही भगवान श्री हरि नारायण की पूजा करना है। वही पूजा करना मन, वचन, चक्षु तथा अन्य इंद्रियों की चेष्ठा का फल है । अतः सब कर्म रूप व्यापार को जब तक मनुष्य ईश्वर के अर्पण नहीं करता तब तक वह मोह मय यम (अर्थात यहाँ मोह को यम सम्बोधित किया गया है) को फाँसी से किसी प्रकार भी मुक्ति नहीं पा सकता है ।


हे राजा परीक्षित! अपने पुत्रों को इस प्रकार की शिक्षा देकर स्वयं ऋषभ देव जी अपने बड़े पुत्र भरत जी को राज्य देकर माया मोह को त्याग दिगंबर वेष धारणा कर बृह्मावर्त से चल दिये। वे उन्मत्त के समान देह में धूल आदि लाग कर अवधूत रूप धारण कर जड़, मूक, अंध, बधिर, के समान बन कर मौन धारण किये नगर, गाँव, वन तथा मुनियों ने आश्रमों इत्यादि स्थानों पर विचरण करने लगे। उन्हें मार्ग में इस वेष में देख नीच पुरुष कष्ट भी देते थे, परन्तु वे सब कुछ सहन कर किसी से कुछ न कहते, अच्छे बुरे जड़ चेतन का अनुभव करते हुए परमानंद को प्राप्त करते हुए पृथ्वी पर विचरते रहे। उनके सुन्दर शरीर पर धूल आदि के लग जाने से उस वेष को देख कर संसारी लोग उन्हें पिशाच ग्रस्थ समझते थे ।

तब श्री ऋषभ देव जी को यह अनुभव हुआ कि यह संसारी लोग अपने अज्ञान के कारण उनके योगाभ्यास मार्ग में विघ्न पैदा करते हैं । इस कारण वे लोगों से पीछा छुड़ाने के लिये एक ही स्थान पर रह कर शयन, भोजन जलपान, चर्वण, मल मूत्र त्याग इत्यादि क्रियायें करने लगे। इन सब प्रकार के योगों के कारण अखंडित परमानंद के स्वरूप को प्राप्त हुये।

इसी कारण उन्हें स्वतः ही संपूर्ण - - सिद्धियाँ प्राप्त होगई थीं। जैसे आकाश गमन, वायु समान मन के समान वेगवान शरीर का होना, तथा अन्तर्ध्यान होना, और अन्य की देह में प्रवेश होना, दूर की वस्तु अथवा दूसरे के मन की बात को जान लेना आदि अनेक योगिक सिद्धियाँ प्राप्त हो गई थी। जा को रु नंद को प्राप्त करते हुये पृथ्वी पर विचरते रहे ।



परन्तु इन सब सिद्धियों के स्वतः ही प्राप्त हो जान पर भी श्री ऋषभ देव जी ने इन सिद्धियों का कभी मन से सत्कार नहीं किया था।


मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?

क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।


आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।


तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।

मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।


Find out how our Gurukul got closed. How did Gurukul end?


Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com


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