श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध १](निजजनों से स्तुति किये हुये श्रीकृष्ण भगवान द्वारका पहुंचे और अत्यन्त प्रसन्न भये)
दोहा-द्वारावतिजसायकर, सुखी भये यदुराय।
सो ग्यारहवें अध्याय में, कथा कही हर्षाय ।॥१९॥
सूतजी कहने लगे-हे ऋषिश्वरो ! वे श्री कृष्ण भगवान ने अच्छी तरह समृद्धि से बढ़े हुए अपने द्वारका के देशों को प्राप्त होकर अपने पाँच जन्य शंख को बजाया माना इन्ही से सब की पीड़ा को हरते हैं। फिर जगत के भय को दूर करने वाले उस शंख के शब्द को सुनकर अपने स्वामी के दर्शन की लालसा वाली सम्पूर्ण प्रजा सन्मुख आई। प्रसन्न मुख वाली होकर हर्ष से गद्-गद् वाणी सहित ऐसे बोलने लगी कि जैसे बालक अपने पिता से बोलते हैं। प्रजा के लोग स्तुति करने लगे कि------
----हे नाथ ! ब्रह्म और सनकादि ऋषियों से वंदित चरणारविन्दों को हम सदा प्रणाम करते हैं । हे विश्व के पालक ! तुम हमारा पालन करो तुमही माता सुहृद तथा तुमही पिता हो, तुमही परम गुरु और परम देव हो, हम बड़े सनाथ हो गये । हे कमल नयन ! जिस समय आप हम को त्याग हस्तिनापुर व मथुरा को पधारते हो, तब हमको एक क्षण तुम्हारे बिना करोड़ों वर्ष समान व्यतीत होते हैं।
भक्तों पर दया करने वाले भगवान ने इस प्रकार की कही हुई वाणी को सुनकर अपनी दृष्टि से प्रजा पर अनुग्रह कहते हुए, द्वारकापुरी में प्रवेश किया।
वह सुरक्षित द्वारिकापुरी ऐसी है, जहाँ सब ऋतुओं की सम्पदा सहित पवित्र वृक्ष और लता मण्डपों से युक्त बाग बगीचों से घिरे हुए सरोवरों की शोभा सुन्दर मनोहर है। जहाँ शहर पनाह के दरवाजे, घरों के द्वार के, मार्ग में उत्सव के हेतु से बंदनवार द्वारा सजे हैं, और विचित्र ध्वजा पताका व झालरों से जो छाया है उससे शहर के भी कहाँ धूप नहीं है। जो राजद्वार में जाने के मार्ग थे वे अच्छी तरह बुहारे गये, और गली चौपड़ के बाजार भी झाड़े-बुहारे गये और सुगन्धि का जल छिड़का गया।
और पुष्प,फल, अक्षत,अंकुर ये जहाँ बिछौनों की तरह सर्वत्र बिखर रहे हैं। घरों के द्वार-द्वार पर जल से पूर्ण कलश धरे हैं, उनसे वह द्वारकापुरी अत्यन्त शोभित हो रही थी इसके अनन्तर प्राण प्यारे श्रीकृष्ण को आये सुनकर उदार चित्त वाले, वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रम वाले बलदेव, प्रदेश में,चारुदेष्ण जामवंती का पुत्र साम्ब,
ये सब एक बार बेग करके शयन, आसन, भोजन, इन्हें छोड़-छोड़ कर उत्तम हाथियों को आगे ले, ब्राह्मणों को संग ले और मंगलीक पदार्थ लेकर शंख भेरी का शब्द तथा वेद पाठ करते हुए रथ में वैठ, स्नेह करके संभ्रम युक्त हो आनन्द पूर्वक आदर से श्रीकृष्ण भगवान की अगवानी को सन्मुख चलकर आये, और नट , नाटक, गन्धर्व, सत, मागध बन्दी ये सब श्रीकृष्ण भगवान के पुण्य कारक उत्तम चरित्रों को गाने लगे।
तब श्रीकृष्ण भगवान बंधुजन और सेवा करने वाले शहर के लोगों से यथा योग्य मिलकर सभी का सम्मान करने लगे। किसी को मस्तक नवाकर प्रणाम, किसी को नमस्कार, किसी से अंग मिलाकर मिलना, किसी से हाथ मिला कर मिलना, किसी को मन्द मुस्कान सहित देखना किसी को अभय देना इत्यादि यथा योग्य विधि से सभी का सन्मान किया और चाण्डाल पर्यन्त सभी जाति को यथेष्ट वरदान देकर प्रसन्न किया। फिर आप भी गुरुजनों से दिये हुये आशीर्वाद को लेते द्वारकापुरी के भीतर गये।
हे विप्र! श्री कृष्ण भगवान जब राज मार्ग में पहुचे तब द्वारका में उत्तम कुल की सभी स्त्रियाँ दर्शन की इच्छा करके महलों पर चढ़ी और श्रीकृष्ण भगवान को देख देख नेत्र तृप्त करने लगीं। फिर भगवान माता पिता के घर में गये और सब माताओं से मिलकर विशेष तथा देवकी आदि सात माताओं को आनन्द पूर्वक शिर से प्रणाम किया।
वे माता अपने पुत्र श्री कृष्ण महाराज को गोद में बिठाकर हर्ष से बिहल होकर अपने नेत्रों के नलों से उन्हें सींचने लगीं और सत्नों से स्तनों में दूध की धारा बहने लगी। इसके अनन्तर श्रीकष्ण भगवान ने जहाँ सोलह हजार एक सौ आठ १६१०८ रानियों के अलग-अलग महल थे, वहाँ अपने महलों में प्रवेश किया फिर पर देश रहने के उपरान्त घर में आये हुए पति को देख कर भगवान को सब स्त्रियां मन में बहुत उत्साह के साथ शीघ्र ही एक बार अपने आसनों से उठी और लज्जा से नीचे नेत्र और मुखों को किये हुऐ कटाक्ष पूर्वक देखने लगी। अपने पति को पहले बुद्धि से फिर दृष्टि से मिली, पीछे पुत्र आ गये तब अपने पुत्रों को अपने कण्ठों से लिपटाकर मिलने की उमंग पूर्ण की।
हे शौनक ! उस समय प्रेम से उनके नेत्र में जल भर आया तब उसको रोकती हुई उन सखियों के भी नेत्रों से कुछ आंसू बाहर निकल आये। हे ऋषीश्वरो ! इस प्रकार पृथ्वी पर भाररूपी राजाओं को आपस में नष्ट कराके श्री कृष्ण भगवान अपनी माया से अवतार कर उत्तम रत्न स्वरूप स्त्री समूह में स्थिर होकर जैसे साधारण मनुष्य हो ऐसे रमण करने लगे। जिन स्त्रियों के सुन्दर हास्य व लज्जा सहित देखना इन्हीं दोनों शस्त्रों से ताड़ना किये महादेव जी ने भी मोहित होकर अपने धनुष को त्याग दिया, स्त्रियां भी अपने हाव भाव कटाक्ष आदिकों से भगवान श्री कृष्ण के मन को नहीं मोह सकी। यही ईश्वर की ईश्वरता है कि जैसे सदा आत्मा में स्थित हुए भी श्री कृष्ण भगवान उस माया के सुख दुखादि गुणों से युक्त नहीं होते, ऐसे ही उस परमेश्वर को मूर्ख स्त्रियों ने स्त्री यानी अपने वंश में हुए मान लिया, और वे एकान्त में अपने पास ही रहने वाले उन्हें मानती, सो वे सब अपने भर्ता के परिणाम को नहीं जानती थीं अथवा जिसकी जैसी बुद्धि थी तैसा ही ईश्वर को मानती थीं।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।
༺═──────────────═༻
༺═──────────────═༻
_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_
Comments
Post a Comment