हिरण्यकश्यपु का नरसिंह द्वारा विनाश।। महभक्त प्रह्लाद की कथा भाग ४

नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  आठवाँ अध्याय [स्कंध ७]  ( हिरण्यकश्यपु का नरसिंह द्वारा विनाश ) दो० प्रगट भये नरसिंह हरि, या अष्टम अध्याय। मारन को प्रहलाद को, असुर चलो जब धाय।।   नारदजी बोले-हे युधिष्ठर! प्रहलादजी के बचनों को दैत्या पुत्रों ने अंगीकार किया, और गुरु की शिक्षा को न माना। तब सब दैत्य-बालकों का चित्त नारायण में लगा देख शुक्राचार्य के पुत्र को भय हुआ।  वह तुरन्त हिरण्यकश्यपु के समीप पहुँचा और सारा वृतान्त कह सुनाया। तब तो दैत्यराज अति क्रोधित हुआ और प्रहलाद को बुलाय क्रोध से लाल नेत्र कर बोला-हे दुविनीति ! तू मेरी शिक्षा के बाहर चला है सो अवश्य ही अब तुझे यम के घर पहुँचाऊँगा। प्रहलाद ने यह सुन धीरे से कहा-- हाँ आज तो अवश्य ही मरेगा।   यह सुन क्रोधित हो हिरण्यकश्यपु ने कहा- रे मूढ़ ! मेरी आज्ञा को तू निर्भय होकरके उलंघन करता है। इतना निशंक तू किसके बल से है, जो मुझसे नहीं डरता है।   प्रहलाद ने कहा- हे राजन् ! जिस ईश्वर ने सब जगत को अपने वश में कर रक्खा है उसी परमेश्वर का मुझको तथा अन्य सबको बलरूप है।   अतः आप अपना दानव स्वभाव छोड़ कर सब में समान भाव रखो तो तुम्हारा भी शीघ्र ही शुभ कल्याण होवेगा।   यह सुन हिरण्यकश्यपु बोला-रे मूढ़ अब मैंने जाना कि तू मरना चाहता है। मैं देखूंगा कि मुझसे अतिरिक्त दूसरा कौन ईश्वर है जिसे तू बतलाता है। अब मैं तेरा शिर तेरे शरीर से पृथक किये देता हूँ सो बुला तू अपने उस परमेश्वर को जो तेरी रक्षा करे।  इतना कह हिरण्यकश्यपु अपने सिंहासन से खंग ले कूद पड़ा और क्रोधकर खंब में मुठ्ठी बाँध कर एक धूंसा मारा । सो हे युधिष्ठर ! घूस के लगते ही उसी क्षण उस खंब में से महा भयंकर शब्द हुआ कि जिसमें सारा वृह्माण्ड थरथरा गया। उस भयंकर शब्द को सुन दैत्य चारों ओर भयभीत से यह देखने लगा कि यह शब्द कहाँ से उत्पन्न हुआ है।   इतने में वरदान को सत्य करने तथा प्रहलाद की रक्षा करने के लिये अनेक बार भगवान ने निजमुख से कहा कि मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ। इस बात को सत्य दर्शाने के लिये, जो न मनुष्य है, न सिंह है ऐसा अद्भुत नृसिंहरूप धारण कर सभा के बीच खंब फाड़कर सबको दर्शन दिया।   खम्ब में से यह नृसिंहरूप निकला देखकर दैत्यराज अपने मन में विचार करने लगा। न तो यह पशु है और न मनुष्य हैं, क्या विचित्र स्वरूप है। दैत्य भी गरज कर हाथ में गदा ले नरसिंह भगवान पर झपटा और अपनी गदा से नरसिंह भगवान की छाती पर प्रहार किया। तब उस क्षण भगवान नरसिंह ने अपनी तरफ आते हुये दैत्य को इस प्रकार पकड़ लिया कि जिस प्रकार गरुड़ सर्प को पकड़ लेता हैं। तभी दैत्य भी नृसिंह भगवान की पकड़ में से छूट गया कि जिस प्रकार सर्प गरुड़ के क्रीड़ा करने से निकलता है। पुनः दैत्य ढाल तलवार ले भगवान के सामने आया और प्रहार करना ही चाहता था कि तभी भगवान नृसिंह ने घोर अट्टहास करके दैत्य को भयभीत कर दिया जिससे दैत्य के नेत्र मिच गये । तभी नृसिंह भगवान ने दैत्य को फिर पकड़ लिया। तब नृसिंह भगवान की कठिन पकड़ में फँसकर फड़फड़ाने लगा। तब भगवान ने निशंक हो दैत्य को ले घर की देहली पर बैठ गये और अपनी जँघाओं पर दैत्य को डालकर अपने पैने भयानक नखों से दैत्य का पेट फाड़ डाला।  तब नृसिंह भगवान इसके उपरान्त उस सभा में परमोत्तम राजसिंहासन पर जा विराजे। उस समय आकाश से देवांगना फूल बरसाने लगीं देवताओं के विमानों की पंक्तियों से आकाश भर गया। सब देव, देवता, नाग, किन्नर, महादेव, वृह्मा, शेष, आदि, सभी दर्शन करने की इच्छा से आये । ये सब लोग प्रथक-प्रथक भाव से भगवान नृसिंह की स्तुति करने लगे ।   सब लोग स्तुति करते हुये बोले- हे भगवान! सब लोकों सुख देने वाला यह अद्भुत सिंह रूप आज आपका हम लोगों ने देखा। ऐसा अद्भूतरूप हमने आज तक नहीं देखा था। अपने दास दैत्य-राज को श्राप मुक्त करने के लिये आपने यह नृसिंह अवतार धारण किया। आपने इस दत्य को मारकर हम पर परम अनुग्रह किया है।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अष्टम अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?

क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।

यज्ञशाला में जाने के सात वैज्ञानिक लाभ।। 


आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।


तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।

मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।


Find out how our Gurukul got closed. How did Gurukul end?


नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  आठवाँ अध्याय [स्कंध ७]  ( हिरण्यकश्यपु का नरसिंह द्वारा विनाश ) दो० प्रगट भये नरसिंह हरि, या अष्टम अध्याय। मारन को प्रहलाद को, असुर चलो जब धाय।।   नारदजी बोले-हे युधिष्ठर! प्रहलादजी के बचनों को दैत्या पुत्रों ने अंगीकार किया, और गुरु की शिक्षा को न माना। तब सब दैत्य-बालकों का चित्त नारायण में लगा देख शुक्राचार्य के पुत्र को भय हुआ।  वह तुरन्त हिरण्यकश्यपु के समीप पहुँचा और सारा वृतान्त कह सुनाया। तब तो दैत्यराज अति क्रोधित हुआ और प्रहलाद को बुलाय क्रोध से लाल नेत्र कर बोला-हे दुविनीति ! तू मेरी शिक्षा के बाहर चला है सो अवश्य ही अब तुझे यम के घर पहुँचाऊँगा। प्रहलाद ने यह सुन धीरे से कहा-- हाँ आज तो अवश्य ही मरेगा।   यह सुन क्रोधित हो हिरण्यकश्यपु ने कहा- रे मूढ़ ! मेरी आज्ञा को तू निर्भय होकरके उलंघन करता है। इतना निशंक तू किसके बल से है, जो मुझसे नहीं डरता है।   प्रहलाद ने कहा- हे राजन् ! जिस ईश्वर ने सब जगत को अपने वश में कर रक्खा है उसी परमेश्वर का मुझको तथा अन्य सबको बलरूप है।   अतः आप अपना दानव स्वभाव छोड़ कर सब में समान भाव रखो तो तुम्हारा भी शीघ्र ही शुभ कल्याण होवेगा।   यह सुन हिरण्यकश्यपु बोला-रे मूढ़ अब मैंने जाना कि तू मरना चाहता है। मैं देखूंगा कि मुझसे अतिरिक्त दूसरा कौन ईश्वर है जिसे तू बतलाता है। अब मैं तेरा शिर तेरे शरीर से पृथक किये देता हूँ सो बुला तू अपने उस परमेश्वर को जो तेरी रक्षा करे।  इतना कह हिरण्यकश्यपु अपने सिंहासन से खंग ले कूद पड़ा और क्रोधकर खंब में मुठ्ठी बाँध कर एक धूंसा मारा । सो हे युधिष्ठर ! घूस के लगते ही उसी क्षण उस खंब में से महा भयंकर शब्द हुआ कि जिसमें सारा वृह्माण्ड थरथरा गया। उस भयंकर शब्द को सुन दैत्य चारों ओर भयभीत से यह देखने लगा कि यह शब्द कहाँ से उत्पन्न हुआ है।   इतने में वरदान को सत्य करने तथा प्रहलाद की रक्षा करने के लिये अनेक बार भगवान ने निजमुख से कहा कि मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ। इस बात को सत्य दर्शाने के लिये, जो न मनुष्य है, न सिंह है ऐसा अद्भुत नृसिंहरूप धारण कर सभा के बीच खंब फाड़कर सबको दर्शन दिया।   खम्ब में से यह नृसिंहरूप निकला देखकर दैत्यराज अपने मन में विचार करने लगा। न तो यह पशु है और न मनुष्य हैं, क्या विचित्र स्वरूप है। दैत्य भी गरज कर हाथ में गदा ले नरसिंह भगवान पर झपटा और अपनी गदा से नरसिंह भगवान की छाती पर प्रहार किया। तब उस क्षण भगवान नरसिंह ने अपनी तरफ आते हुये दैत्य को इस प्रकार पकड़ लिया कि जिस प्रकार गरुड़ सर्प को पकड़ लेता हैं। तभी दैत्य भी नृसिंह भगवान की पकड़ में से छूट गया कि जिस प्रकार सर्प गरुड़ के क्रीड़ा करने से निकलता है। पुनः दैत्य ढाल तलवार ले भगवान के सामने आया और प्रहार करना ही चाहता था कि तभी भगवान नृसिंह ने घोर अट्टहास करके दैत्य को भयभीत कर दिया जिससे दैत्य के नेत्र मिच गये । तभी नृसिंह भगवान ने दैत्य को फिर पकड़ लिया। तब नृसिंह भगवान की कठिन पकड़ में फँसकर फड़फड़ाने लगा। तब भगवान ने निशंक हो दैत्य को ले घर की देहली पर बैठ गये और अपनी जँघाओं पर दैत्य को डालकर अपने पैने भयानक नखों से दैत्य का पेट फाड़ डाला।  तब नृसिंह भगवान इसके उपरान्त उस सभा में परमोत्तम राजसिंहासन पर जा विराजे। उस समय आकाश से देवांगना फूल बरसाने लगीं देवताओं के विमानों की पंक्तियों से आकाश भर गया। सब देव, देवता, नाग, किन्नर, महादेव, वृह्मा, शेष, आदि, सभी दर्शन करने की इच्छा से आये । ये सब लोग प्रथक-प्रथक भाव से भगवान नृसिंह की स्तुति करने लगे ।   सब लोग स्तुति करते हुये बोले- हे भगवान! सब लोकों सुख देने वाला यह अद्भुत सिंह रूप आज आपका हम लोगों ने देखा। ऐसा अद्भूतरूप हमने आज तक नहीं देखा था। अपने दास दैत्य-राज को श्राप मुक्त करने के लिये आपने यह नृसिंह अवतार धारण किया। आपने इस दत्य को मारकर हम पर परम अनुग्रह किया है।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अष्टम अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १




नारदजी बोले-हे युधिष्ठर! प्रहलादजी के बचनों को दैत्या पुत्रों ने अंगीकार किया, और गुरु की शिक्षा को न माना। तब सब दैत्य-बालकों का चित्त नारायण में लगा देख शुक्राचार्य के पुत्र को भय हुआ।
वह तुरन्त हिरण्यकश्यपु के समीप पहुँचा और सारा वृतान्त कह सुनाया। तब तो दैत्यराज अति क्रोधित हुआ और प्रहलाद को बुलाय क्रोध से लाल नेत्र कर बोला-हे दुविनीति ! तू मेरी शिक्षा के बाहर चला है सो अवश्य ही अब तुझे यम के घर पहुँचाऊँगा। प्रहलाद ने यह सुन धीरे से कहा-- हाँ आज तो अवश्य ही मरेगा।

यह सुन क्रोधित हो हिरण्यकश्यपु ने कहा- रे मूढ़ ! मेरी आज्ञा को तू निर्भय होकरके उलंघन करता है। इतना निशंक तू किसके बल से है, जो मुझसे नहीं डरता है।

प्रहलाद ने कहा- हे राजन् ! जिस ईश्वर ने सब जगत को अपने वश में कर रक्खा है उसी परमेश्वर का मुझको तथा अन्य सबको बलरूप है।

अतः आप अपना दानव स्वभाव छोड़ कर सब में समान भाव रखो तो तुम्हारा भी शीघ्र ही शुभ कल्याण होवेगा।


यह सुन हिरण्यकश्यपु बोला-रे मूढ़ अब मैंने जाना कि तू मरना चाहता है। मैं देखूंगा कि मुझसे अतिरिक्त दूसरा कौन ईश्वर है जिसे तू बतलाता है। अब मैं तेरा शिर तेरे शरीर से पृथक किये देता हूँ सो बुला तू अपने उस परमेश्वर को जो तेरी रक्षा करे।
इतना कह हिरण्यकश्यपु अपने सिंहासन से खंग ले कूद पड़ा और क्रोधकर खंब में मुठ्ठी बाँध कर एक धूंसा मारा । सो हे युधिष्ठर ! घूस के लगते ही उसी क्षण उस खंब में से महा भयंकर शब्द हुआ कि जिसमें सारा वृह्माण्ड थरथरा गया। उस भयंकर शब्द को सुन दैत्य चारों ओर भयभीत से यह देखने लगा कि यह शब्द कहाँ से उत्पन्न हुआ है।

इतने में वरदान को सत्य करने तथा प्रहलाद की रक्षा करने के लिये अनेक बार भगवान ने निजमुख से कहा कि मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ। इस बात को सत्य दर्शाने के लिये, जो न मनुष्य है, न सिंह है ऐसा अद्भुत नृसिंहरूप धारण कर सभा के बीच खंब फाड़कर सबको दर्शन दिया।

खम्ब में से यह नृसिंहरूप निकला देखकर दैत्यराज अपने मन में विचार करने लगा। न तो यह पशु है और न मनुष्य हैं, क्या विचित्र स्वरूप है। दैत्य भी गरज कर हाथ में गदा ले नरसिंह भगवान पर झपटा और अपनी गदा से नरसिंह भगवान की छाती पर प्रहार किया। तब उस क्षण भगवान नरसिंह ने अपनी तरफ आते हुये दैत्य को इस प्रकार पकड़ लिया कि जिस प्रकार गरुड़ सर्प को पकड़ लेता हैं। तभी दैत्य भी नृसिंह भगवान की पकड़ में से छूट गया कि जिस प्रकार सर्प गरुड़ के क्रीड़ा करने से निकलता है। पुनः दैत्य ढाल तलवार ले भगवान के सामने आया और प्रहार करना ही चाहता था कि तभी भगवान नृसिंह ने घोर अट्टहास करके दैत्य को भयभीत कर दिया जिससे दैत्य के नेत्र मिच गये । तभी नृसिंह भगवान ने दैत्य को फिर पकड़ लिया। तब नृसिंह भगवान की कठिन पकड़ में फँसकर फड़फड़ाने लगा। तब भगवान ने निशंक हो दैत्य को ले घर की देहली पर बैठ गये और अपनी जँघाओं पर दैत्य को डालकर अपने पैने भयानक नखों से दैत्य का पेट फाड़ डाला।
तब नृसिंह भगवान इसके उपरान्त उस सभा में परमोत्तम राजसिंहासन पर जा विराजे। उस समय आकाश से देवांगना फूल बरसाने लगीं देवताओं के विमानों की पंक्तियों से आकाश भर गया। सब देव, देवता, नाग, किन्नर, महादेव, वृह्मा, शेष, आदि, सभी दर्शन करने की इच्छा से आये । ये सब लोग प्रथक-प्रथक भाव से भगवान नृसिंह की स्तुति करने लगे ।

सब लोग स्तुति करते हुये बोले- हे भगवान! सब लोकों सुख देने वाला यह अद्भुत सिंह रूप आज आपका हम लोगों ने देखा। ऐसा अद्भूतरूप हमने आज तक नहीं देखा था। अपने दास दैत्य-राज को श्राप मुक्त करने के लिये आपने यह नृसिंह अवतार धारण किया। आपने इस दत्य को मारकर हम पर परम अनुग्रह किया है।






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