प्रहलाद द्वारा बालकों को उपदेश।। भक्त प्रह्लाद की कथा भाग २।।

नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  छटवां अध्याय [स्कंध ७] (प्रहलाद द्वारा बालकों को उपदेश)  दो०  गुरू घर जा प्रहलाद ने, प्रकटे निजी विचार।  सहपाठी को उपदेश दे, राम नाम है सार।।   नारद जी बोले-हे राजन् ! गुरू के घर जाय प्रहलाद रहने लगा एक दिन गुरू किसी काम से गये थे, जिससे वह चटशाला से अनुपस्थित थे, तब प्रहलाद ने अपने साथ के पढ़ने वाले बालकों को इस प्रकार उपदेश दिया।   प्रहलाद जी बोले--हे दैत्य पुत्रो ! बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह वाल्यकला से ही वैष्णव धर्म की उपासना करे। क्योंकि प्राणियों को यह मनुष्य जन्म मिलना कठिन है।   सब अर्थों को देने वाला यही मनुष्य जन्म है। देह धारियों को इंद्रिय सुख तो आपसे आपही मिल जाते अत: उन सुखों के लिये वृथा परिश्रम नहीं करना चाहिये। अतः मनुष्य को अपने कल्याण के निमित्त भगवान विष्णु का भजन करना चाहिये, इसके अतिरिक्त कल्याण का कोई दूसरा मार्ग नहीं है।  यदि यह कहो कि मनुष्य की सौ वर्ष की आयु है तो बाल्य काल से ही श्रेय संपादन करने की क्या आवश्यकता है । सो हे मित्रो ! सौ वर्ण की आयु में से आधी तो निष्फल हो जानना चाहिये क्योंकि इतने समय तो मनुष्य निद्रा में सोता रहता है । शेष वर्ष में से २० वर्ष बालकपन अवस्था में खेलने कूदने में ही व्यतीत हो जाते हैं। तथा २० वर्ष बुढ़ापा तथा शरीर रोग की असमर्थता में 'व्यतीत हो जाते हैं। शेष दस वर्ष काम, क्रोध, आदि से दुख तृष्णा को परिपूर्ण करने व गृहस्थी में आसक्त रह कर उन्मत्त वेसुध दशा में समाप्त हो जाते हैं। यदि विद्वान पुरुष भी इस प्रकार अपने और पराये में भेद दृष्टि सबकर कुट का पालन करता है वह आत्म विचार करने में किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हो सकता है। बल्कि अपने पराये के प्रपंच में फंसकर मूर्खता करके नरक पाता है। जो स्त्रियों के मोह में पड़ता है। वह पुत्र रूप बेड़ियों के बन्धन में जकड़ जाता है।   सो हे दैत्य पुत्रो ! विषय लिप्त दैत्यों के संग को त्यागकर केवल नारायण की शरण में जाओ। जब देव भगवान प्रसन्न हो जाते हैं तो कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं रहता है ।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम छटवाँ अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १


नारद जी बोले-हे राजन् ! गुरू के घर जाय प्रहलाद रहने लगा एक दिन गुरू किसी काम से गये थे, जिससे वह चटशाला से अनुपस्थित थे, तब प्रहलाद ने अपने साथ के पढ़ने वाले बालकों को इस प्रकार उपदेश दिया।

प्रहलाद जी बोले--हे दैत्य पुत्रो ! बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह वाल्यकला से ही वैष्णव धर्म की उपासना करे। क्योंकि प्राणियों को यह मनुष्य जन्म मिलना कठिन है।


सब अर्थों को देने वाला यही मनुष्य जन्म है। देह धारियों को इंद्रिय सुख तो आपसे आपही मिल जाते अत: उन सुखों के लिये वृथा परिश्रम नहीं करना चाहिये। अतः मनुष्य को अपने कल्याण के निमित्त भगवान विष्णु का भजन करना चाहिये, इसके अतिरिक्त कल्याण का कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
यदि यह कहो कि मनुष्य की सौ वर्ष की आयु है तो बाल्य काल से ही श्रेय संपादन करने की क्या आवश्यकता है । सो हे मित्रो ! सौ वर्ण की आयु में से आधी तो निष्फल हो जानना चाहिये क्योंकि इतने समय तो मनुष्य निद्रा में सोता रहता है । शेष वर्ष में से २० वर्ष बालकपन अवस्था में खेलने कूदने में ही व्यतीत हो जाते हैं। तथा २० वर्ष बुढ़ापा तथा शरीर रोग की असमर्थता में 'व्यतीत हो जाते हैं। शेष दस वर्ष काम, क्रोध, आदि से दुख तृष्णा को परिपूर्ण करने व गृहस्थी में आसक्त रह कर उन्मत्त वेसुध दशा में समाप्त हो जाते हैं। यदि विद्वान पुरुष भी इस प्रकार अपने और पराये में भेद दृष्टि सबकर कुट का पालन करता है वह आत्म विचार करने में किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हो सकता है। बल्कि अपने पराये के प्रपंच में फंसकर मूर्खता करके नरक पाता है। जो स्त्रियों के मोह में पड़ता है। वह पुत्र रूप बेड़ियों के बन्धन में जकड़ जाता है।


सो हे दैत्य पुत्रो ! विषय लिप्त दैत्यों के संग को त्यागकर केवल नारायण की शरण में जाओ। जब देव भगवान प्रसन्न हो जाते हैं तो कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं रहता है ।

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम छटवाँ अध्याय समाप्तम🥀।।

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नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  छटवां अध्याय [स्कंध ७] (प्रहलाद द्वारा बालकों को उपदेश)  दो०  गुरू घर जा प्रहलाद ने, प्रकटे निजी विचार।  सहपाठी को उपदेश दे, राम नाम है सार।।   नारद जी बोले-हे राजन् ! गुरू के घर जाय प्रहलाद रहने लगा एक दिन गुरू किसी काम से गये थे, जिससे वह चटशाला से अनुपस्थित थे, तब प्रहलाद ने अपने साथ के पढ़ने वाले बालकों को इस प्रकार उपदेश दिया।   प्रहलाद जी बोले--हे दैत्य पुत्रो ! बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह वाल्यकला से ही वैष्णव धर्म की उपासना करे। क्योंकि प्राणियों को यह मनुष्य जन्म मिलना कठिन है।   सब अर्थों को देने वाला यही मनुष्य जन्म है। देह धारियों को इंद्रिय सुख तो आपसे आपही मिल जाते अत: उन सुखों के लिये वृथा परिश्रम नहीं करना चाहिये। अतः मनुष्य को अपने कल्याण के निमित्त भगवान विष्णु का भजन करना चाहिये, इसके अतिरिक्त कल्याण का कोई दूसरा मार्ग नहीं है।  यदि यह कहो कि मनुष्य की सौ वर्ष की आयु है तो बाल्य काल से ही श्रेय संपादन करने की क्या आवश्यकता है । सो हे मित्रो ! सौ वर्ण की आयु में से आधी तो निष्फल हो जानना चाहिये क्योंकि इतने समय तो मनुष्य निद्रा में सोता रहता है । शेष वर्ष में से २० वर्ष बालकपन अवस्था में खेलने कूदने में ही व्यतीत हो जाते हैं। तथा २० वर्ष बुढ़ापा तथा शरीर रोग की असमर्थता में 'व्यतीत हो जाते हैं। शेष दस वर्ष काम, क्रोध, आदि से दुख तृष्णा को परिपूर्ण करने व गृहस्थी में आसक्त रह कर उन्मत्त वेसुध दशा में समाप्त हो जाते हैं। यदि विद्वान पुरुष भी इस प्रकार अपने और पराये में भेद दृष्टि सबकर कुट का पालन करता है वह आत्म विचार करने में किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हो सकता है। बल्कि अपने पराये के प्रपंच में फंसकर मूर्खता करके नरक पाता है। जो स्त्रियों के मोह में पड़ता है। वह पुत्र रूप बेड़ियों के बन्धन में जकड़ जाता है।   सो हे दैत्य पुत्रो ! विषय लिप्त दैत्यों के संग को त्यागकर केवल नारायण की शरण में जाओ। जब देव भगवान प्रसन्न हो जाते हैं तो कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं रहता है ।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम छटवाँ अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_




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