प्रह्लाद को आत्म ज्ञान।।नारद के कहे उपदेश का वृतान्त।। प्रह्लाद कथा भाग ३।

नवीन सुख सागर 

श्रीमद भागवद पुराण  सातवां अध्याय [स्कंध ७]
( नारद के कहे उपदेश का वृतान्त ) 

दो० जिस प्रकार प्रहलाद जी, हुये भक्त सुजान।
सो सप्तम अध्याय में, कीयो सकल बखान || 


नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  सातवां अध्याय [स्कंध ७] ( नारद के कहे उपदेश का वृतान्त )  दो० जिस प्रकार प्रहलाद जी, हुये भक्त सुजान।  सो सप्तम अध्याय में, कीयो सकल बखान ||   प्रहलाद के गुरू का नाम   प्रहलादजी ने जब इस प्रकार दैत्य बालकों को वैष्णव धर्म का उपदेश दिया तो वे बालक आश्चर्य कर बोले-हे प्रहलादजी !! हमने और तुमने शंद्रातर्क गुरु से साथ-साथ ही विद्या पढ़ी है, फिर तुम्हे इस प्रकार का ज्ञान किस तरह से मिला ।   यदि रनवास में यह जाना तो कैसे जाना! क्योंकि वहाँ तो महात्माओं का जाना किसी प्रकार भी न था। सो हमारा यह संदेह दूर करिये।   उन बालकों के पूछने पर प्रहलादजी हँसकर यो बोले-है असुर बालकों! हमारा पिता मन्द्राचल पर्वत पर तप करने को चला गया था, तब देवताओं ने दैत्यों से युद्ध करने का कठिन उद्यम किया था। तब देवताओं ने हमारे पुर तथा महल को घेर लिया और रक्षा के निमित्त दैत्यों ने युद्ध किया। परन्तु देवता बलवान थे। अतः अनेक असुर मारे गये और अनेकों अपनी जान बचाकर भाग गये थे। तब देवताओं ने राज मन्दिर की मनमानी की और हमारी माता राजरानी कयाधू को पकड़ कर इंद्र ले चला था। उसी समय अकस्मात नारदजी मार्ग में आते हुये देख पड़े।   नारदजी ने देखकर कहा- हे इन्द्र ! इस निरपराधिनी अबला को तू क्यों लिये जाता है। इंद्र ने कहा- हे मुनि ! इस के गर्भ में हिरण्यकश्यपु का गर्भ है सो जो बालक होगा वह हमें बड़ा दुख देगा। अतः जब तक वह बालक होगा, तब तक इसे मैं अपने यहाँ रखेंगा और जब बालक हो जायगा तो उसे मारकर इस स्त्री की छोड़ दूँगा ।   नारदजी ने कहा- हे देवराज ! यह विचार तुम्हारा विपरीत है, तुम यह बात नहीं जानते हो कि यह गर्भ निष्पाप है, इस गर्भ में परम वैष्णव महात्मा बालक हैं जो भगवत भक्तों का अनुचर और बड़ा बलवान होगा। यह बालक, हे सुरपति! तुम्हारे हाथ से नहीं मर सकेगा।   तब नारद के बचन मान इन्द्र मेरी माता की परिक्रमा कर उसे छोड़ स्वर्ग को चले गये। तदनन्तर नारदजी मेरी माता को अपने आश्रम में लिवा गये जहाँ उन्हें आसा भरोसा देकर धीरज बँधाय बोले--हे पुत्री जब तक तेरा पति न आवे तब तक तू आराम से मेरे रह।   सो हे बालको! मेरी माता नारदजी के आश्रम में तब तक निवास करती रहीं जब तक कि मेरे पिता अपना घोर तप पूर्ण करके वापिस आये। तब नारदजी ने आश्रम निवास काल में मेरी माता को धर्म का सत्व और निर्मल ज्ञान सिखाया उसमें मुझको सिखाने का उद्देश्य भी था।   सो हे बालको ! स्त्री स्वभाव के कारण मेरी माता तो उस ज्ञान को भूल गई, परन्तु मुझे वह निर्मल ज्ञान अभी तक भली प्रकार स्मरण है ।   सो तुम लोग भी इस ज्ञान को मेरे बचनों में श्रद्धा रखकर प्राप्त करो। आत्मा शुद्ध है, आत्मा एक है, देह अनेक हैं, यह आत्मा देह आदि को नहीं चाहता है। आत्मा सबका आश्रय है, देह आत्मा के आश्रय है, आत्मा विकार है, देह विकार सहित आत्मा स्वयं प्रकाशवान हैं, देह दूर से प्रकाशित होता है, आत्मा सबका कारण है और देह कार्य पदार्थ है। आत्मा सर्व-व्यापक है, देह एक देशीय हैं, आत्मा संग रहित है, देह संग युक्त है, आत्मा किसी से आवृत नहीं होता और देह वस्त्रादिक से आच्छादित हो जाता है। विद्वान पुरुष आत्मा के इन बारह लक्षणों द्वारा आत्म स्वरूप को जानकर अहं (मैं) यह वृथा देह आदि के अभिमान को त्याग देवे। आत्म ज्ञान के जानने वाले पुरुष क्षेत्र स्थानी देहों में आत्म-योग करके वृह्म गति को प्राप्त होते हैं।   मूल प्रकृति, महतत्व, अहंकार, (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) ये आठ प्रकृति हैं। सत्व, रज, तम ये तीनों प्रकृति के गुण हैं। इस प्रकार ११ इन्द्रिय और पंच महाभूत मिलकर १६ हुये आत्मा पुमन है वह एक ही है क्योंकि इन सबों के साक्षी रूप से उसका अन्वय है। इन सबों के समूह को देह कहते हैं, जो स्थावर, जंगम ऐसे दो प्रकार हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीन वृत्तियाँ बुद्धि की हैं। देखो देवता, असुर, मनुष्य, यक्षादि सभी भगवान के चरणारविन्द का भजन करने से कल्याण को प्राप्त होते हैं। सो यदि तुम भी भगवान नारायण विष्णु का भजन करोगे तो अवश्य कल्याण को प्राप्त होगे। यह न समझना चाहिये कि हम असुर हैं सो हमें भगवान का भजन करने का अधिकार ही नहीं हैं। सो हे दानव पुत्रों! इस हेतु निहकपट भाव से भगवान हरि की भक्ति करो तो तुम्हारा भी कल्याण अवश्य होगा ।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम सप्तम अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १




नवीन सुख सागर
श्रीमद भागवद पुराण  सातवां अध्याय [स्कंध ७]
( नारद के कहे उपदेश का वृतान्त )
दो० जिस प्रकार प्रहलाद जी, हुये भक्त सुजान।
सो सप्तम अध्याय में, कीयो सकल बखान ||

प्रहलाद के गुरू का नाम


प्रहलादजी ने जब इस प्रकार दैत्य बालकों को वैष्णव धर्म का उपदेश दिया तो वे बालक आश्चर्य कर बोले-हे प्रहलादजी !! हमने और तुमने शंद्रातर्क गुरु से साथ-साथ ही विद्या पढ़ी है, फिर तुम्हे इस प्रकार का ज्ञान किस तरह से मिला ।

यदि रनवास में यह जाना तो कैसे जाना! क्योंकि वहाँ तो महात्माओं का जाना किसी प्रकार भी न था। सो हमारा यह संदेह दूर करिये।

उन बालकों के पूछने पर प्रहलादजी हँसकर यो बोले-है असुर बालकों! हमारा पिता मन्द्राचल पर्वत पर तप करने को चला गया था, तब देवताओं ने दैत्यों से युद्ध करने का कठिन उद्यम किया था। तब देवताओं ने हमारे पुर तथा महल को घेर लिया और रक्षा के निमित्त दैत्यों ने युद्ध किया। परन्तु देवता बलवान थे। अतः अनेक असुर मारे गये और अनेकों अपनी जान बचाकर भाग गये थे। तब देवताओं ने राज मन्दिर की मनमानी की और हमारी माता राजरानी कयाधू को पकड़ कर इंद्र ले चला था। उसी समय अकस्मात नारदजी मार्ग में आते हुये देख पड़े।

नारदजी ने देखकर कहा- हे इन्द्र ! इस निरपराधिनी अबला को तू क्यों लिये जाता है। इंद्र ने कहा- हे मुनि ! इस के गर्भ में हिरण्यकश्यपु का गर्भ है सो जो बालक होगा वह हमें बड़ा दुख देगा। अतः जब तक वह बालक होगा, तब तक इसे मैं अपने यहाँ रखेंगा और जब बालक हो जायगा तो उसे मारकर इस स्त्री की छोड़ दूँगा ।

नारदजी ने कहा- हे देवराज ! यह विचार तुम्हारा विपरीत है, तुम यह बात नहीं जानते हो कि यह गर्भ निष्पाप है, इस गर्भ में परम वैष्णव महात्मा बालक हैं जो भगवत भक्तों का अनुचर और बड़ा बलवान होगा। यह बालक, हे सुरपति! तुम्हारे हाथ से नहीं मर सकेगा।

तब नारद के बचन मान इन्द्र मेरी माता की परिक्रमा कर उसे छोड़ स्वर्ग को चले गये। तदनन्तर नारदजी मेरी माता को अपने आश्रम में लिवा गये जहाँ उन्हें आसा भरोसा देकर धीरज बँधाय बोले--हे पुत्री जब तक तेरा पति न आवे तब तक तू आराम से मेरे रह।

सो हे बालको! मेरी माता नारदजी के आश्रम में तब तक निवास करती रहीं जब तक कि मेरे पिता अपना घोर तप पूर्ण करके वापिस आये। तब नारदजी ने आश्रम निवास काल में मेरी माता को धर्म का सत्व और निर्मल ज्ञान सिखाया उसमें मुझको सिखाने का उद्देश्य भी था।

सो हे बालको ! स्त्री स्वभाव के कारण मेरी माता तो उस ज्ञान को भूल गई, परन्तु मुझे वह निर्मल ज्ञान अभी तक भली प्रकार स्मरण है।

प्रह्लाद द्वारा आत्म ज्ञान

 तुम लोग भी इस ज्ञान को मेरे बचनों में श्रद्धा रखकर प्राप्त करो। आत्मा शुद्ध है, आत्मा एक है, देह अनेक हैं, यह आत्मा देह आदि को नहीं चाहता है। आत्मा सबका आश्रय है, देह आत्मा के आश्रय है, आत्मा विकार है, देह विकार सहित आत्मा स्वयं प्रकाशवान हैं, देह दूर से प्रकाशित होता है, आत्मा सबका कारण है और देह कार्य पदार्थ है। आत्मा सर्व-व्यापक है, देह एक देशीय हैं, आत्मा संग रहित है, देह संग युक्त है, आत्मा किसी से आवृत नहीं होता और देह वस्त्रादिक से आच्छादित हो जाता है। विद्वान पुरुष आत्मा के इन बारह लक्षणों द्वारा आत्म स्वरूप को जानकर अहं (मैं) यह वृथा देह आदि के अभिमान को त्याग देवे। आत्म ज्ञान के जानने वाले पुरुष क्षेत्र स्थानी देहों में आत्म-योग करके वृह्म गति को प्राप्त होते हैं।

मूल प्रकृति, महतत्व, अहंकार, (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) ये आठ प्रकृति हैं। सत्व, रज, तम ये तीनों प्रकृति के गुण हैं। इस प्रकार ११ इन्द्रिय और पंच महाभूत मिलकर १६ हुये आत्मा पुमन है वह एक ही है क्योंकि इन सबों के साक्षी रूप से उसका अन्वय है। इन सबों के समूह को देह कहते हैं, जो स्थावर, जंगम ऐसे दो प्रकार हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये तीन वृत्तियाँ बुद्धि की हैं। देखो देवता, असुर, मनुष्य, यक्षादि सभी भगवान के चरणारविन्द का भजन करने से कल्याण को प्राप्त होते हैं। सो यदि तुम भी भगवान नारायण विष्णु का भजन करोगे तो अवश्य कल्याण को प्राप्त होगे। यह न समझना चाहिये कि हम असुर हैं सो हमें भगवान का भजन करने का अधिकार ही नहीं हैं। सो हे दानव पुत्रों! इस हेतु निहकपट भाव से भगवान हरि की भक्ति करो तो तुम्हारा भी कल्याण अवश्य होगा ।


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम सप्तम अध्याय समाप्तम🥀।।

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