श्रीमद भागवद पुराण छठवां अध्याय [स्कंध ९] ( अम्बरीष का विवरण ) सौभारि ॠषि का प्रसंग


-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

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Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
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श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
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श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

नवीन  सुख  सागर  श्रीमद  भागवद  पुराण छठवां अध्याय [स्कंध ९] ( अम्बरीष का विवरण ) दोहा- यहि छठवें में संतती अम्बरीष निरधारि।  इक्ष्वाकुल शुभ वंश को वर्गों प्रभु उर धारि ॥ ६॥   श्रीशुकदेवजी कहने लगे- विरूप, केतुमान और शम्भु ये अम्बरीष के तीन पुत्र थे। विरूप के पुत्र का नाम पृषदश्व और इसका पुत्र रथीतर था। रथीतर के कोई सन्तान नहीं थी, इसने अंगिरा ऋषि की आराधना की तब इस ऋषि ने ब्रहमतेज से युक्त तीन पुत्र उत्पन्न किये।   ये रथीतर के क्षेत्र में अंगिरा से उत्पन्न हुए थे, इसलिए उनको अंगिरस कहने लगे, परन्तु ये अन्य रथीतरों में मुख्य हुए क्योंकि ये क्षत्रिय जातीय ब्राह्मण थे।   छीक लेते समय मनु की नासिका से इक्ष्वाकु उत्पन्न हुआ इसके सौ पुत्र थे, इनमें से विकुक्षि, निमि और दण्डक बड़े थे । एक दिन इक्ष्वाकु ने अष्टका श्राद्ध करने के लिये अपने पुत्र को आज्ञा दी कि---   " हे विकुक्षे ! तुम शीघ्र मांस ले अओ। यह वन में जाकर श्राद्ध के योग्य मृगों को मारते-मारते थक गया और थकावट के कारण ऐसा बेसुध हो गया कि खरहे को स्वयं खागया। शेष लाकर पिता को दे दिये। जब श्राद्ध करने बैठे तो आचार्य ने कहा कि यह मांस अपवित्र है कर्म के योग्य नहीं है। तदन्तर गुरु के मुख से पुत्र के उस निन्दनीय कर्म को सुनकर राज इक्ष्वाकु ऐसा रुष्ट हुआ कि इसको अपने देश से निकाल दिया।  तदन्नर इक्ष्वाकु ने विशिष्ठ से सम्भाषण कर योगी हो प्राण त्याग दिये।   पिता के मरने पर विकुक्षि वन से आकर राज करने लगा और यज्ञों द्वारा हरि भगवान का पूजन कर शशाद नामसे विख्यात हो गया।    विकुक्षि के एक पुत्र हुआ उसको उसके कर्मों के अनुसार पुरञ्जय, इन्द्रवान और ककुत्स्थ इन तीनों नामों से पुकारने लगे। सतयुग के अन्त में जब दैत्य और देवताओं में घोर संग्राम हुआ था। तब देवताओं ने हार कर इस राजा से सहायता मांगी थी। इस राजा ने कहा कि जो इन्द्र मेरा वाहन होगा तो मैं दैत्यों से लडूंगा, परन्तु इन्द्र ने यह बात स्त्रीकर नहीं की।   फिर भगवान के कहने से इन्द्र ने बैल का रूप धारण कर लिया तब वह राजा उस बैल के कन्धे पर चढ़ बैठा। तो विष्णु के तेज से उत्तेजित हो पश्चिम दिशा में जाकर राजा ने दवताओं के साथ दैत्यों को पुरी को घेर लिया। तब उनका आपस में बड़ा घोर संग्राम हुआ, उस युद्ध में राजा ने अपने वाणों से दैत्यों को मार-मार कर संदेह यमलोक को पहुँचा दिया।   सम्पूर्ण धन और पुरी जीतकर राजा ने इन्द्र को दे दी । इसने दैत्य पुरी जीती थी, इसलिये पुरञ्जय, इन्द्र पर चढ़ा था इसलिये इन्द्रवान और बैल के कन्धे पर, बैठा था इसलिये ककुत्स्थ नाम हुआ।   पुरञ्जय के अनेना, इसके पृथु, इसके विश्वरन्थी, इसके चन्द्र और युवनाश्व हुआ। युवनाश्व के शावस्त हुआ, इसने शावस्तपुरी बनाई थी। इसके वृहदश्व और बृहदश्व के कुवलयाश्व हुआ। इसने उतंग ऋषि का हित करने के लिए इक्कीस हजार बेटों को साथ ले धुन्धु नाम राक्षस को मार गिराया।  इस लिये इस राजा का नाम धुन्धुमार हो गया, परन्तु मरते समय इस राक्षस के मुख से ऐसी ज्वाला निकली कि इसके सब पुत्र जल गये केवल तीन दृढ़श्व, कपि लाश्व और भद्राश्व बचे। इनमें से दृढ़श्व के हर्यश्व, इसके निकुम्भ हुआ निकुम्भ के बर्हणाश्व। इसके कुशाश्व और इसके सेनाजित हुआ, सेनाजिन के यौवनाश्व हुआ।   यौवनाश्व पुत्रहीन था । इसलिये यह दुःखी होकर अपनी सौ रानियों को संग ले वन को चला गया। वहां कृपालु ऋषि ने प्रसन्न होकर पुत्रोत्पत्ति के लिये इन्द्र का यज्ञ किया। राजा को रात्रि में प्यास ने सताया तो चुपचाप उठकर ब्राह्मणों को सोते देख अभिमन्त्रित जल को पी गया।   ऋषि ने उठकर देखा तो घड़े में जल नहीं था, तब पूछने लगे कि यह किसका कर्म है ? पुत्र की उत्पत्ति करने वाला जल किसने पी लिया है ?   जब उनको यह विदित हुआ कि यह जल राजा ने पी लिया है, तब परमेश्वर को नमस्कार करने लगे और बोले कि भगवान को माया प्रवल है।   फिर समय पूरा होने पर यौवनाश्वकी दहिनी कोख फाड़कर चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ। तब यह सन्देह हुआ कि यह बालक दूध के लिए रोता है किसके स्तन पान करेगा ? तब इन्द्र बोला कि इसे दूध मैं पिलाऊँगा और बालक से कहा कि तू रो मत यह कह तर्जनी अंगुली उसके मुख में दे दी । विप्र देवों को कृपा से उसका पिता भी न मरा और युवनाश्व उसी जगह तप करके परम पद को प्राप्त हो गया।    हे राजन ! इन्द्र ने इसका नाम तत्र्सदस्यु रक्खा, क्योंकि इसके भय से रावणादिक दस्यु कांपते थे।   युवनाश्व का बेटा मान्धाता बड़ा चक्रवर्ती हुआ। और भगवान के प्रताप से सप्तद्वीपवती पृथ्वी का अकेला हो शासन करता था। सूर्य उदय से अस्त पर्यन्त तक सब पृथ्वी मान्यता की है ऐसा कहा है।   शशिविन्दु की बेटी बिन्दुमती से इस राजा के पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द ये तीन पुत्र हुए थे। इसकी पचास बहिन सौभरि ऋषि को ब्याही थीं। यह ऋषि यमुना जल में भीतर बैठकर तप किया करते थे। एक दिन इन्होंने मच्छ और मछलियों को मैथुन करते हुए देखा, तब इनको भी विवाह करने की उत्कण्ठा हुई और राजा से एक कन्या माँगी |    यह सुन राजा ने कहा- है ब्रह्मन ! जो कन्या में आपको वर ले उसो को ले लीजिए । राजा ने ऐसी बात इसलिए कहो थी कि इस वृद्ध को देखकर मेरी कन्या न वरेगी। सौभरि ऋषिने भी यही बात सोची, फिर मनमें विचार किया। में अपना ऐसा रूप बनाऊंगा कि जिसको देखकर देवांगनायें भी मोहित हो जांय | फिर मृत्युलोक की स्त्रियों का तो कहना हो क्या।    जब उस अद्भुन रूप को धारण कर ॠषि अन्तःपुर में गये, तब सब कन्या बोल उठीं कि इन्हें हम वरेंगी। जब इस तरह उनमें झगड़ा होने लगा तब सौंभरि बोले-कि लड़ो मत तुम सब चली आओ।   वे ऋग्देव सौंभरि ऋषि उन कन्याओं को लेजा कर ऐसे स्थान में रमण करने लगे, जिसमें उनके तपोबल से प्रत्येक आवश्यकीय वस्तु सञ्चित थीं।   चारों तरफ उपवनों में सरोवर थे जिनमें सुगन्ध युक्त कमल खिल रहे थे। घरों में बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र आभूषण, स्नान की सामिग्री, चन्दन, लेपन, भोजनों के सहित सब सामान उपस्थित थे। भ्रमर और पक्षी अपने कलरवों से गुजार कर रहे थे। श्रृंगार किये हुए दासी परिवर्या में उपस्थित थे, गीत गान हो रहे थे । सौंभरि ऋषि के गृहस्थ भोग विलास को देखकर मान्धाता अपने सातों द्वीपों के राज्य को तुच्छ समझने लगा।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

नवीन  सुख  सागर 

श्रीमद  भागवद  पुराण छठवां अध्याय [स्कंध ९]
( अम्बरीष का विवरण )

दोहा- यहि छठवें में संतती अम्बरीष निरधारि। 

इक्ष्वाकुल शुभ वंश को वर्गों प्रभु उर धारि ॥ ६॥ 


श्री शुकदेवजी कहने लगे- विरूप, केतुमान और शम्भु ये अम्बरीष के तीन पुत्र थे। विरूप के पुत्र का नाम पृषदश्व और इसका पुत्र रथीतर था। रथीतर के कोई सन्तान नहीं थी, इसने अंगिरा ऋषि की आराधना की तब इस ऋषि ने ब्रहमतेज से युक्त तीन पुत्र उत्पन्न किये। 

ये रथीतर के क्षेत्र में अंगिरा से उत्पन्न हुए थे, इसलिए उनको अंगिरस कहने लगे, परन्तु ये अन्य रथीतरों में मुख्य हुए क्योंकि ये क्षत्रिय जातीय ब्राह्मण थे।







छीक लेते समय मनु की नासिका से इक्ष्वाकु उत्पन्न हुआ इसके सौ पुत्र थे, इनमें से विकुक्षि, निमि और दण्डक बड़े थे । एक दिन इक्ष्वाकु ने अष्टका श्राद्ध करने के लिये अपने पुत्र को आज्ञा दी कि--- 

" हे विकुक्षे ! तुम शीघ्र मांस ले अओ। यह वन में जाकर श्राद्ध के योग्य मृगों को मारते-मारते थक गया और थकावट के कारण ऐसा बेसुध हो गया कि खरहे को स्वयं खागया। शेष लाकर पिता को दे दिये। जब श्राद्ध करने बैठे तो आचार्य ने कहा कि यह मांस अपवित्र है कर्म के योग्य नहीं है। तदन्तर गुरु के मुख से पुत्र के उस निन्दनीय कर्म को सुनकर राज इक्ष्वाकु ऐसा रुष्ट हुआ कि इसको अपने देश से निकाल दिया। 
तदन्नर इक्ष्वाकु ने विशिष्ठ से सम्भाषण कर योगी हो प्राण त्याग दिये।


पिता के मरने पर विकुक्षि वन से आकर राज करने लगा और यज्ञों द्वारा हरि भगवान का पूजन कर शशाद नामसे विख्यात हो गया। 


विकुक्षि के एक पुत्र हुआ उसको उसके कर्मों के अनुसार पुरञ्जय, इन्द्रवान और ककुत्स्थ इन तीनों नामों से पुकारने लगे। सतयुग के अन्त में जब दैत्य और देवताओं में घोर संग्राम हुआ था। तब देवताओं ने हार कर इस राजा से सहायता मांगी थी। इस राजा ने कहा कि जो इन्द्र मेरा वाहन होगा तो मैं दैत्यों से लडूंगा, परन्तु इन्द्र ने यह बात स्त्रीकर नहीं की। 

फिर भगवान के कहने से इन्द्र ने बैल का रूप धारण कर लिया तब वह राजा उस बैल के कन्धे पर चढ़ बैठा। तो विष्णु के तेज से उत्तेजित हो पश्चिम दिशा में जाकर राजा ने दवताओं के साथ दैत्यों को पुरी को घेर लिया। तब उनका आपस में बड़ा घोर संग्राम हुआ, उस युद्ध में राजा ने अपने वाणों से दैत्यों को मार-मार कर संदेह यमलोक को पहुँचा दिया। 

सम्पूर्ण धन और पुरी जीतकर राजा ने इन्द्र को दे दी । इसने दैत्य पुरी जीती थी, इसलिये पुरञ्जय, इन्द्र पर चढ़ा था इसलिये इन्द्रवान और बैल के कन्धे पर, बैठा था इसलिये ककुत्स्थ नाम हुआ। 











पुरञ्जय के अनेना, इसके पृथु, इसके विश्वरन्थी, इसके चन्द्र और युवनाश्व हुआ।
युवनाश्व के शावस्त हुआ, इसने शावस्तपुरी बनाई थी। इसके वृहदश्व और बृहदश्व के कुवलयाश्व हुआ। इसने उतंग ऋषि का हित करने के लिए इक्कीस हजार बेटों को साथ ले धुन्धु नाम राक्षस को मार गिराया। 
इस लिये इस राजा का नाम धुन्धुमार हो गया, परन्तु मरते समय इस राक्षस के मुख से ऐसी ज्वाला निकली कि इसके सब पुत्र जल गये केवल तीन दृढ़श्व, कपि लाश्व और भद्राश्व बचे।
इनमें से दृढ़श्व के हर्यश्व, इसके निकुम्भ हुआ निकुम्भ के बर्हणाश्व।
इसके कुशाश्व और इसके सेनाजित हुआ, सेनाजिन के यौवनाश्व हुआ। 

यौवनाश्व पुत्रहीन था । इसलिये यह दुःखी होकर अपनी सौ रानियों को संग ले वन को चला गया। वहां कृपालु ऋषि ने प्रसन्न होकर पुत्रोत्पत्ति के लिये इन्द्र का यज्ञ किया। राजा को रात्रि में प्यास ने सताया तो चुपचाप उठकर ब्राह्मणों को सोते देख अभिमन्त्रित जल को पी गया। 

ऋषि ने उठकर देखा तो घड़े में जल नहीं था, तब पूछने लगे कि यह किसका कर्म है ? पुत्र की उत्पत्ति करने वाला जल किसने पी लिया है ? 

जब उनको यह विदित हुआ कि यह जल राजा ने पी लिया है, तब परमेश्वर को नमस्कार करने लगे और बोले कि भगवान को माया प्रवल है। 

फिर समय पूरा होने पर यौवनाश्वकी दहिनी कोख फाड़कर चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ। तब यह सन्देह हुआ कि यह बालक दूध के लिए रोता है किसके स्तन पान करेगा ? तब इन्द्र बोला कि इसे दूध मैं पिलाऊँगा और बालक से कहा कि तू रो मत यह कह तर्जनी अंगुली उसके मुख में दे दी । विप्र देवों को कृपा से उसका पिता भी न मरा और युवनाश्व उसी जगह तप करके परम पद को प्राप्त हो गया। 


हे राजन ! इन्द्र ने इसका नाम तत्र्सदस्यु रक्खा, क्योंकि इसके भय से रावणादिक दस्यु कांपते थे। 

युवनाश्व का बेटा मान्धाता बड़ा चक्रवर्ती हुआ। और भगवान के प्रताप से सप्तद्वीपवती पृथ्वी का अकेला हो शासन करता था। सूर्य उदय से अस्त पर्यन्त तक सब पृथ्वी मान्यता की है ऐसा कहा है। 

शशिविन्दु की बेटी बिन्दुमती से इस राजा के पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द ये तीन पुत्र हुए थे। इसकी पचास बहिन सौभरि ऋषि को ब्याही थीं। यह ऋषि यमुना जल में भीतर बैठकर तप किया करते थे। एक दिन इन्होंने मच्छ और मछलियों को मैथुन करते हुए देखा, तब इनको भी विवाह करने की उत्कण्ठा हुई और राजा से एक कन्या माँगी | 


यह सुन राजा ने कहा- है ब्रह्मन ! जो कन्या में आपको वर ले उसो को ले लीजिए । राजा ने ऐसी बात इसलिए कहो थी कि इस वृद्ध को देखकर मेरी कन्या न वरेगी। सौभरि ऋषिने भी यही बात सोची, फिर मनमें विचार किया। में अपना ऐसा रूप बनाऊंगा कि जिसको देखकर देवांगनायें भी मोहित हो जांय | फिर मृत्युलोक की स्त्रियों का तो कहना हो क्या। 


जब उस अद्भुन रूप को धारण कर ॠषि अन्तःपुर में गये, तब सब कन्या बोल उठीं कि इन्हें हम वरेंगी। जब इस तरह उनमें झगड़ा होने लगा तब सौंभरि बोले-कि लड़ो मत तुम सब चली आओ। 

वे ऋग्देव सौंभरि ऋषि उन कन्याओं को लेजा कर ऐसे स्थान में रमण करने लगे, जिसमें उनके तपोबल से प्रत्येक आवश्यकीय वस्तु सञ्चित थीं। 

चारों तरफ उपवनों में सरोवर थे जिनमें सुगन्ध युक्त कमल खिल रहे थे। घरों में बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र आभूषण, स्नान की सामिग्री, चन्दन, लेपन, भोजनों के सहित सब सामान उपस्थित थे। भ्रमर और पक्षी अपने कलरवों से गुजार कर रहे थे। श्रृंगार किये हुए दासी परिवर्या में उपस्थित थे, गीत गान हो रहे थे । सौंभरि ऋषि के गृहस्थ भोग विलास को देखकर मान्धाता अपने सातों द्वीपों के राज्य को तुच्छ समझने लगा। 

यद्यपि घर में अनुरक्त सौभरि इस तरह अनेक प्रकार के भोगों को भोगती थी, परन्तु उसको तृप्ति नहीं हुई जैसे बृत बिन्दुओं से अग्नि की तृप्ति नहीं होती है।


एक दिन बैठे-बैठे ऋग्वेदियों के आचार्य सौभरि को ज्ञान हुआ,---

" अहो ! मत्स्यों का व्यवहार देखकर मैंने यह क्या किया? जल में मत्स्य की मैथुन दृष्टि पड़ने से मुझे विवाह आदि प्रपंच प्राप्त होकर बहुत काल के अभ्यास से ध्यान में लाया हुआ जो ब्रह्मरूप था वह विस्मृत हो गया । जो मनुष्य मुक्त होना चाहते हैं उनको गृहस्थियों का सङ्ग सर्वथा वर्जनीय है। इन्द्रियों को वश में रक्खे अकेला रहे, एकान्त में ईश्वर का ध्यान करे और साधु महात्माओं का संग करे । एक समय वह था मैं अकेला ही जल में तप किया करता था, अब मेरे पचास स्त्री हुई और इनके पांच हजार सन्तान हुई तथापि मेरे इस लोक और परलोक में दुख देने वाले कर्मों के मनोरथों का अन्त नहीं आता है। माया के गुणों से मेरी बुद्धि विषयों में फँसकर सर्वथा नष्ट हो गई है।"


इस तरह बहुत दिन तक गृहस्थ के सुखों को भोगते हुए विरक्त होकर सौभरि ऋषि बन को चले गए। तब उनको पतिव्रता स्त्रियाँ भी उनके पीछे पीछे चली गई। जितेन्द्रिय हो शरीर को सुख देने वाला अत्यन्त घोर तप किया और अग्नि के साथ आत्मा को परमात्माओं में मिला दिया। हे राजन! वे स्त्रियाँ अपने पति की अध्यात्म गति को देखकर उसके प्रभाव से आप भी उसके पीछे चलती गई ।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।



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