श्रीमद भागवद पुराण पाँचवां अध्याय [स्कंध ९] ( दुर्वासा की प्राण रक्षा )

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
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श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

नवीन  सुख  सागर  श्रीमद  भागवद  पुराण पाँचवां अध्याय [स्कंध ९] ( दुर्वासा की प्राण रक्षा ) दोहा-पंचम में हरि भक्त ने चक्रहि बहुत निहोर। दुर्वासा के प्राण रखि भयो मन माँझ विभोर ॥   श्री शुकदेव बोले-- चक्र की पीड़ा से उत्तम दुर्वासा भगवान की आज्ञा के अनुसार अम्बरीष के पास गये और दुःखी होकर उसके पाँव पकड़ लिये। उनके कष्ट को देखकर राजा को बड़ी करुणा हुई और चक्र की प्रार्थना करने लगा----   "हे चक्र ! आपही अग्नि हो, आपही सूर्य, तारापति, आपही जल, पृथ्वी, वायु, और आकाश हो आप ही आप हो इन्द्रिय मात्र हो । हे सुदर्शन ! आपको नमस्कार है, आप इस ब्राह्मण की रक्षा करो, नहीं तो ब्रह्महत्या होने से हमारी लोकों में अपकीर्ति और कुलका नाश होगा।"   हे राजन् ! जब राजा ने इस तरह प्रार्थना की तब वह सुदर्शन चक्र जो उस ब्राह्मण को चारों तरफ से जलाये देता था शान्त हो गया। जब दुर्वासा उस प्रस्ताग्नि के ताप से छूट गये और स्वस्थ्य हुए तब आशीर्वाद देकर राजा की प्रशंसा करने लगे ---   "अहो ! मैने भगवान के दासों का चमत्कार आज ही देखा है कि अपराधी भी उन दासों से कल्याण को प्राप्त करता है। हे राजन् ! तुम करुणावान हो, तुमने मेरे पाप को पीठ पीछे करके प्राणों की रक्षा की है।"   राजा ने उनके फिर आने की आकांक्षा से भोजन नहीं किया था इसलिये उनके चरणों को पकड़कर उन्हें प्रसन्नकर भोजन कराया। इस तरह आदर पूर्वक आतिथ्य सत्कार से भोजन कर दुर्वासा ऋषि राजा से कहने लगे---   "तुम भी भोजन करो। आपके दर्शन स्पर्शन, सम्भाषण और आतिथ्य-सत्कार से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ । आपने सुदर्शन चक्र से मेरी रक्षाकर मुझ पर बहुत दया की है। स्वर्ग की स्त्रियां इस तेरे स्वर्गीय कर्म का बारम्बार गान करेंगी और पृथ्वी में तेरी परम पुनीत कीर्ति चारों ओर फलेगी।"   इस तरह दुर्वासा ऋषि राजा की प्रशंसा कर विदा हो आकाश मार्ग द्वारा ब्रह्मलोक को चले गये। चक्र के डर से भागे हुए मुनि एक वर्ष में आये थे और राजा ने उनके दर्शन की अभिलाषा में केवल जलपान करके समय व्यतीत किया था। दुर्वासा के चले जाने पर ब्राह्मणों से बचे हुए भोजन को खाकर अम्बरीष बहुत प्रसन्न हुए । ऐसे ऐसे अनेक गुणों से युक्त राजा अम्बरीष क्रिया कलाप द्वारा वासुदेव में भक्ति करते थे, और उसके सामने ब्रहमलोक के सुख को भी तुच्छ समझते थे। फिर अपने ही समान गुणयुक्त अपने पुत्रों को राज्य देकर भगवान में मन लगाकर वन को चले गये और त्रिगुण संसार से मुक्त हो गये ।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

नवीन  सुख  सागर 

श्रीमद  भागवद  पुराण पाँचवां अध्याय [स्कंध ९]
( दुर्वासा की प्राण रक्षा )

दोहा-पंचम में हरि भक्त ने चक्रहि बहुत निहोर।

दुर्वासा के प्राण रखि भयो मन माँझ विभोर ॥ 


श्री शुकदेव बोले-- चक्र की पीड़ा से उत्तम दुर्वासा भगवान की आज्ञा के अनुसार अम्बरीष के पास गये और दुःखी होकर उसके पाँव पकड़ लिये। उनके कष्ट को देखकर राजा को बड़ी करुणा हुई और चक्र की प्रार्थना करने लगा---- 

"हे चक्र ! आपही अग्नि हो, आपही सूर्य, तारापति, आपही जल, पृथ्वी, वायु, और आकाश हो आप ही आप हो इन्द्रिय मात्र हो । हे सुदर्शन ! आपको नमस्कार है, आप इस ब्राह्मण की रक्षा करो, नहीं तो ब्रह्महत्या होने से हमारी लोकों में अपकीर्ति और कुलका नाश होगा।"


हे राजन् ! जब राजा ने इस तरह प्रार्थना की तब वह सुदर्शन चक्र जो उस ब्राह्मण को चारों तरफ से जलाये देता था शान्त हो गया। जब दुर्वासा उस प्रस्ताग्नि के ताप से छूट गये और स्वस्थ्य हुए तब आशीर्वाद देकर राजा की प्रशंसा करने लगे --- 


"अहो ! मैने भगवान के दासों का चमत्कार आज ही देखा है कि अपराधी भी उन दासों से कल्याण को प्राप्त करता है। हे राजन् ! तुम करुणावान हो, तुमने मेरे पाप को पीठ पीछे करके प्राणों की रक्षा की है।" 

राजा ने उनके फिर आने की आकांक्षा से भोजन नहीं किया था इसलिये उनके चरणों को पकड़कर उन्हें प्रसन्नकर भोजन कराया। इस तरह आदर पूर्वक आतिथ्य सत्कार से भोजन कर दुर्वासा ऋषि राजा से कहने लगे--- 

"तुम भी भोजन करो। आपके दर्शन स्पर्शन, सम्भाषण और आतिथ्य-सत्कार से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ । आपने सुदर्शन चक्र से मेरी रक्षाकर मुझ पर बहुत दया की है। स्वर्ग की स्त्रियां इस तेरे स्वर्गीय कर्म का बारम्बार गान करेंगी और पृथ्वी में तेरी परम पुनीत कीर्ति चारों ओर फलेगी।" 

इस तरह दुर्वासा ऋषि राजा की प्रशंसा कर विदा हो आकाश मार्ग द्वारा ब्रह्मलोक को चले गये। चक्र के डर से भागे हुए मुनि एक वर्ष में आये थे और राजा ने उनके दर्शन की अभिलाषा में केवल जलपान करके समय व्यतीत किया था। दुर्वासा के चले जाने पर ब्राह्मणों से बचे हुए भोजन को खाकर अम्बरीष बहुत प्रसन्न हुए । ऐसे ऐसे अनेक गुणों से युक्त राजा अम्बरीष क्रिया कलाप द्वारा वासुदेव में भक्ति करते थे, और उसके सामने ब्रहमलोक के सुख को भी तुच्छ समझते थे। फिर अपने ही समान गुणयुक्त अपने पुत्रों को राज्य देकर भगवान में मन लगाकर वन को चले गये और त्रिगुण संसार से मुक्त हो गये । 


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।



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