श्रीमद  भागवद  पुराण चौबीसवाँ अध्याय [स्कंध ८] मत्स्य चरित्र कथन

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]


श्रीमद  भागवद  पुराण चौबीसवाँ अध्याय [स्कंध ८] मत्स्य चरित्र कथन दोहा- बनि मत्स्य चौबीस में सागर माहि सहाय।। भए सत्यव्रत के सुहरित वरणो सुख पाय।।   परीक्षित ने पूछा- हे भगवान | हरि भगवान के मत्स्य अवतार की अद्भुत कथा सुनना चाहता हूँ। ईश्वर होकर कर्मों में फसे जीव की तरह भगवान ने मछली का रूप क्यूं धारण किया ? कृपया भगवान के इस सुखदायक चरित्र का यथावत वर्णन कीजिये ।    शुकदेवजी बोले-हे राजन् ! गौ, ब्रह्मण, देवता, वेद और धर्म अर्थ की रक्षा करने की इच्छा से भगवान शरीर धारण करते हैं तथा ऊंच नीच सब प्राणियों में वायु का तरह सर्वत्र वर्तमान रहते हैं। परन्तु उनके उच्चनीय गणों को नहीं प्राप्त होते हैं।   कल्पान्त में जब ब्रह्मा की निद्रा के कारण से संसार का प्रलय हुआ था पृथिव्यादि सब लोक समुद्र में डूब गये थे, और उसी समय ब्रह्मा के मुख निकले हुए वेदों को दैत्य हरकर ले गया। उस असुर के मारने को भगवान ने मछली का रूप धारण किया था।    सत्य ब्रत नाम का कोई राज ऋषि केवल जल का पान करता नारायण में एकाग्र बुद्धि लगाकर तप करता था। यह इस तरह महाकाल्प में सूर्य का पुत्र होकर श्राद्धदेव मनु के नाम से विख्यात है।   एक दिन यह राजा कृतमाल नाम नदी के तट पर बैठा ल से तर्पण कर रहा था तब उसको अञ्जलि के जल में अकस्मात एक मछली आ गई। सत्यव्रत ने हाथ में आई हुई उस मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। तब मछली उस राजा से कहने लगी----   हे दीनानाथ ! मैं अपने सजातीय जलचरों के डर के मारे रक्षा के लिये आपकी शरण आई थी, सो मुझ गरीबरी को आप इसी नदी के जल में ही क्यों छोड़ देते हो ! राजा को यह मालूम नहीं था, मेरी ही रक्षा के लिये भगवान ने मत्स्यरूप धारण किया है।   इस बात के बिना ही बिचारे राजा ने उस मछली की रक्षा करने का विचार किया।   तब उसे कलश के जल में उसको अपने आश्रम में ले आया। वह उस कमण्डलु में एक ही रात में इतनी बढ़ गई कि उसके रहने को उसमें जगह न रही, तब वह राजा से बोली----   --हे राजन! मुझको इस कमण्डलु में बड़ा कष्ट है, कोई और बड़ा स्थान बताओ जिसमें सुख पर्वक रह सकूं।    तब राजा ने उस मछली को वहाँ से निकाल कर किसी जल के कुण्ड में डालदी उसमें जाते ही वह मछली दो घड़ी में तीन हाथ लम्बी हो गई फिर वह राजा से कहने लगी ----   --हे राजन ! ये जलाशय भी मेरे सुख से रहने योग्य नहीं है मेरे लिये कोई बड़ा जलाशय बताओ।   तब राजा ने उसे वहाँ निकालकर एक सरोवर में डालदी और वहाँ वह ऐसी बढ़ी कि सरोवर का जल उससे ढक गया तब फिर बोली----   ---हे राजन् ! सरोवर भी ठीक नहीं है मुझको किसो गम्भीर जलाशय  में छोड़ो।   इसके कहने पर जहाँ तहाँ बड़े जलाशय मिल सके वहाँ तक उनमें राजा उसे डालता रहा, परन्तु जब मछली कहीं न समाई तब समुद्र में डाल दी।    समुद्र में डालते ही वह मछली बोली-----   --हे राजन् ! तुम मुझको इसमें मत डालो क्योंकि इसमें जल के मकरादिक बड़े-बड़े जीब मेरा भक्षण कर लेंगे । इस कारण मछली की सुन्दर वाणी से विमोहित हो राजा ने पूछा आप कौन हैं ? जो मछली के रूप से हमको मोहित कर रहे हो । हमने तो ऐसा पराक्रमी जल का जीब आज तक कभी नहीं देखा है आप निश्चय ही साक्षात हरि भगवान हैं, प्राणियों पर अनुग्रह करने के लिये आपने यह जल के जीव का रूप धारण किया है। हे विभो ! प्राणियों के कल्याण के निमित्त ही आपके सब लीलावतार हैं, अब मैं आपको जानना चाहता हूँ ।"   हे राजन! सत्यव्रत राजा के इस वचन को सुनकर मत्स्यरूप भगवाल बोले---   ''हे अरिन्दम ! आज के सातवें दिन ये भूर्भुवादिक तीनों लोक प्रलय के जन से डूब जायंगे तब मेरी भेजी हुई एक नाव आकर तेरे उपस्थित होगी। उसी समय तक तुम सब छोटी बड़ी औषधियों के बीजों को, सप्तक्षषि और सब प्राणियों को लेकर उस विशाल नाव पर चढ़कर एक निरालोक समुद्र ऋषियों के तेज से बिचरोगे। उस नाव के अपने पास आने पर उसे वासुकी सर्प से मेरे श्रृंग में बाँध देना में ऋषियों और नाव सहित तुझको बृह्म की रात्रि तक समुद्र में खेंचता हुआ विचरूंगा उसी समय तुम को मेरी माया का ज्ञान होगा।"   यह कहकर भगवान अन्तरध्यान हो गये।    तब राजा भगवान के बताए हुए समय की प्रतीक्षा करने लगा। तदन्तर घोर वृष्टि के कारण समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर इतना बढ़ा दिखाई दिया कि जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी जल से डूबी दिखाई देने लगी।   इतने ही में भगवान को भेजी हुई एक नाव आई। राजा उस पर सप्तऋषि और सम्पर्ण औषधियों के बीजों को लेकर चढ़ गया। तब ऋषि प्रसन्न हो कर राजा से कहने लगे-हे राजने ! केशव भगवान का अब तुम ध्यान करो वही भगवान हमारे इस संकट को दूर कर हमारा कल्याण करेंगे। तदन्तर राजा के ध्यान करने पर उस महा सागर में एक सींग वाला सुवर्ण का एक मत्स्य दिखाई दिया, जिसका विस्तार एक लाख योजना का था। तब राजा हरि की पहिली आज्ञा के अनुसार वासुकी सर्प को रस्सी से नाव को सींग में बांधकर भगवान की स्तुति करने लगा।    यह अज्ञानी प्राणी अपने कर्म से बचनों से बँधा हुआ सुख की इच्छा से महा दुःख दाई कर्म करता है वह असुख कर्म की दुर्बुद्धि आपकी सेवा से नष्ट हो जाती है। सो हे भगवान ! आप हमारे गुरु हैं, आप हमारे हृदय की ग्रन्थि को काट डालिये ! आपके अनुग्रह से प्राणी अज्ञान से उत्पन्न हुए मल को ऐसे त्याग देता है जैसे अग्नि के लगने से सुवर्ण अपने मैल को त्याग देता है और स्वच्छ हो जाता है।   इसी तरह हे अभ्यय ! हे ईश ! हे गुरो! आप हमारे परम उपदेष्टा कीजिये| देवता गुरु व मनुष्य कोई भी ये सब मिलकर भी जो आपकी कृपा का दसहजारवां भाग है वो भी नहीं कर सकते है। इसी से हे ईश्वर ! मैं आपकी शरण आया है। जैसे अन्धे का मार्ग प्रदर्शक अन्धा हो उसी तरह अज्ञानी गुरु होना निष्फल है, और आप तो सबकी दृष्टि के प्रकाशक सूर्य हो। इसलिये हम अपना स्वरूप जानने के लिये आपको अपना गुरु बनाते हैं। ये मनुष्य मनुष्य को असत् उपदेश देता है जिससे ये दुरस्य अन्धकार में फंस जाता है।   आप अव्यय है और आप हमें उस अव्यय अमोघ ज्ञान का उपदेश देते हो जिसके प्रताप से मनुष्य आपके चरण की शरण में पहुंच जाता है। आप सब लोकों के सुहृद, ईश्वर, आत्मा, गुरु, ज्ञान और अभीष्ट सिद्धि हो, तो अनेक कामों में यानी विषय वासनाओं में बँधे हुए अन्धी बुद्धि वाले मनुष्य हृदय में विराजमान होने पर भी आपको नहीं जान सकते हैं। हे वरेण्य ! मैं ज्ञान की प्राप्ति के लिये आपकी शरण में आया हूँ, सो आप परम अर्थ के दीपकरूप बचनों से मेरे हृदय की गांठों को खोलकर मेरे हृदय में अपने आनन्द स्वरूप को प्रकाश करो जिससे मेरा हृदयान्धकार दूर होवे।"   राजा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर मत्स्यरूपी भगवान महासागर में विचरते हुए उस राजा को तत्व का उपदेश करने लगे। उनके मुख से राजा ने सांख्य योग की क्रिया से युक्त अत्यन्त गुह्य मत्स्य पुराण सुना था। इन्हीं मत्स्यरूप भगवान ने प्रलय के अन्त में हयग्रीव नाम असुर को मारकर सोकर उठे हुए ब्रह्मा के लिये वेद ला दिये वही सत्यव्रत राजा ज्ञान विज्ञान से युक्त विष्णु की दया से इस कल्प में वैवस्वत मनु हुआ।    ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人


नवीन सुख  सागर

श्रीमद  भागवद  पुराण चौबीसवाँ अध्याय [स्कंध ८]
मत्स्य चरित्र कथन

दोहा- बनि मत्स्य चौबीस में सागर माहि सहाय।।

भए सत्यव्रत के सुहरित वरणो सुख पाय।।


परीक्षित ने पूछा- हे भगवान! हरि भगवान के मत्स्य अवतार की अद्भुत कथा सुनना चाहता हूँ। ईश्वर होकर कर्मों में फसे जीव की तरह भगवान ने मछली का रूप क्यूं धारण किया ? कृपया भगवान के इस सुखदायक चरित्र का यथावत वर्णन कीजिये ।


शुकदेवजी बोले-हे राजन् ! गौ, ब्रह्मण, देवता, वेद और धर्म अर्थ की रक्षा करने की इच्छा से भगवान शरीर धारण करते हैं तथा ऊंच नीच सब प्राणियों में वायु का तरह सर्वत्र वर्तमान रहते हैं। परन्तु उनके उच्चनीय गणों को नहीं प्राप्त होते हैं।

कल्पान्त में जब ब्रह्मा की निद्रा के कारण से संसार का प्रलय हुआ था पृथिव्यादि सब लोक समुद्र में डूब गये थे, और उसी समय ब्रह्मा के मुख निकले हुए वेदों को दैत्य हरकर ले गया। उस असुर के मारने को भगवान ने मछली का रूप धारण किया था।


सत्य ब्रत नाम का कोई राज ऋषि केवल जल का पान करता नारायण में एकाग्र बुद्धि लगाकर तप करता था। यह इस तरह महाकाल्प में सूर्य का पुत्र होकर श्राद्धदेव मनु के नाम से विख्यात है।

एक दिन यह राजा कृतमाल नाम नदी के तट पर बैठा ल से तर्पण कर रहा था तब उसको अञ्जलि के जल में अकस्मात एक मछली आ गई। सत्यव्रत ने हाथ में आई हुई उस मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। तब मछली उस राजा से कहने लगी----


हे दीनानाथ ! मैं अपने सजातीय जलचरों के डर के मारे रक्षा के लिये आपकी शरण आई थी, सो मुझ गरीबरी को आप इसी नदी के जल में ही क्यों छोड़ देते हो ! राजा को यह मालूम नहीं था, मेरी ही रक्षा के लिये भगवान ने मत्स्यरूप धारण किया है।

इस बात के बिना ही बिचारे राजा ने उस मछली की रक्षा करने का विचार किया।

तब उसे कलश के जल में उसको अपने आश्रम में ले आया। वह उस कमण्डलु में एक ही रात में इतनी बढ़ गई कि उसके रहने को उसमें जगह न रही, तब वह राजा से बोली----


--हे राजन! मुझको इस कमण्डलु में बड़ा कष्ट है, कोई और बड़ा स्थान बताओ जिसमें सुख पर्वक रह सकूं।


तब राजा ने उस मछली को वहाँ से निकाल कर किसी जल के कुण्ड में डालदी उसमें जाते ही वह मछली दो घड़ी में तीन हाथ लम्बी हो गई फिर वह राजा से कहने लगी ----

--हे राजन ! ये जलाशय भी मेरे सुख से रहने योग्य नहीं है मेरे लिये कोई बड़ा जलाशय बताओ।

तब राजा ने उसे वहाँ निकालकर एक सरोवर में डालदी और वहाँ वह ऐसी बढ़ी कि सरोवर का जल उससे ढक गया तब फिर बोली----

---हे राजन् ! सरोवर भी ठीक नहीं है मुझको किसो गम्भीर जलाशय  में छोड़ो।

इसके कहने पर जहाँ तहाँ बड़े जलाशय मिल सके वहाँ तक उनमें राजा उसे डालता रहा, परन्तु जब मछली कहीं न समाई तब समुद्र में डाल दी।


समुद्र में डालते ही वह मछली बोली-----

--हे राजन् ! तुम मुझको इसमें मत डालो क्योंकि इसमें जल के मकरादिक बड़े-बड़े जीब मेरा भक्षण कर लेंगे । इस कारण मछली की सुन्दर वाणी से विमोहित हो राजा ने पूछा आप कौन हैं ? जो मछली के रूप से हमको मोहित कर रहे हो । हमने तो ऐसा पराक्रमी जल का जीब आज तक कभी नहीं देखा है आप निश्चय ही साक्षात हरि भगवान हैं, प्राणियों पर अनुग्रह करने के लिये आपने यह जल के जीव का रूप धारण किया है। हे विभो ! प्राणियों के कल्याण के निमित्त ही आपके सब लीलावतार हैं, अब मैं आपको जानना चाहता हूँ ।"


हे राजन! सत्यव्रत राजा के इस वचन को सुनकर मत्स्यरूप भगवाल बोले---

''हे अरिन्दम ! आज के सातवें दिन ये भूर्भुवादिक तीनों लोक प्रलय के जन से डूब जायंगे तब मेरी भेजी हुई एक नाव आकर तेरे उपस्थित होगी। उसी समय तक तुम सब छोटी बड़ी औषधियों के बीजों को, सप्तक्षषि और सब प्राणियों को लेकर उस विशाल नाव पर चढ़कर एक निरालोक समुद्र ऋषियों के तेज से बिचरोगे। उस नाव के अपने पास आने पर उसे वासुकी सर्प से मेरे श्रृंग में बाँध देना में ऋषियों और नाव सहित तुझको बृह्म की रात्रि तक समुद्र में खेंचता हुआ विचरूंगा उसी समय तुम को मेरी माया का ज्ञान होगा।"

यह कहकर भगवान अन्तरध्यान हो गये।





तब राजा भगवान के बताए हुए समय की प्रतीक्षा करने लगा। तदन्तर घोर वृष्टि के कारण समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर इतना बढ़ा दिखाई दिया कि जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी जल से डूबी दिखाई देने लगी।

इतने ही में भगवान को भेजी हुई एक नाव आई। राजा उस पर सप्तऋषि और सम्पर्ण औषधियों के बीजों को लेकर चढ़ गया। तब ऋषि प्रसन्न हो कर राजा से कहने लगे-हे राजने ! केशव भगवान का अब तुम ध्यान करो वही भगवान हमारे इस संकट को दूर कर हमारा कल्याण करेंगे। तदन्तर राजा के ध्यान करने पर उस महा सागर में एक सींग वाला सुवर्ण का एक मत्स्य दिखाई दिया, जिसका विस्तार एक लाख योजना का था। तब राजा हरि की पहिली आज्ञा के अनुसार वासुकी सर्प को रस्सी से नाव को सींग में बांधकर भगवान की स्तुति करने लगा।




यह अज्ञानी प्राणी अपने कर्म से बचनों से बँधा हुआ सुख की इच्छा से महा दुःख दाई कर्म करता है वह असुख कर्म की दुर्बुद्धि आपकी सेवा से नष्ट हो जाती है। सो हे भगवान ! आप हमारे गुरु हैं, आप हमारे हृदय की ग्रन्थि को काट डालिये ! आपके अनुग्रह से प्राणी अज्ञान से उत्पन्न हुए मल को ऐसे त्याग देता है जैसे अग्नि के लगने से सुवर्ण अपने मैल को त्याग देता है और स्वच्छ हो जाता है।


इसी तरह हे अभ्यय ! हे ईश ! हे गुरो! आप हमारे परम उपदेष्टा कीजिये| देवता गुरु व मनुष्य कोई भी ये सब मिलकर भी जो आपकी कृपा का दसहजारवां भाग है वो भी नहीं कर सकते है। इसी से हे ईश्वर ! मैं आपकी शरण आया है। जैसे अन्धे का मार्ग प्रदर्शक अन्धा हो उसी तरह अज्ञानी गुरु होना निष्फल है, और आप तो सबकी दृष्टि के प्रकाशक सूर्य हो। इसलिये हम अपना स्वरूप जानने के लिये आपको अपना गुरु बनाते हैं। ये मनुष्य मनुष्य को असत् उपदेश देता है जिससे ये दुरस्य अन्धकार में फंस जाता है।

आप अव्यय है और आप हमें उस अव्यय अमोघ ज्ञान का उपदेश देते हो जिसके प्रताप से मनुष्य आपके चरण की शरण में पहुंच जाता है। आप सब लोकों के सुहृद, ईश्वर, आत्मा, गुरु, ज्ञान और अभीष्ट सिद्धि हो, तो अनेक कामों में यानी विषय वासनाओं में बँधे हुए अन्धी बुद्धि वाले मनुष्य हृदय में विराजमान होने पर भी आपको नहीं जान सकते हैं। हे वरेण्य ! मैं ज्ञान की प्राप्ति के लिये आपकी शरण में आया हूँ, सो आप परम अर्थ के दीपकरूप बचनों से मेरे हृदय की गांठों को खोलकर मेरे हृदय में अपने आनन्द स्वरूप को प्रकाश करो जिससे मेरा हृदयान्धकार दूर होवे।"

राजा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर मत्स्यरूपी भगवान महासागर में विचरते हुए उस राजा को तत्व का उपदेश करने लगे। उनके मुख से राजा ने सांख्य योग की क्रिया से युक्त अत्यन्त गुह्य मत्स्य पुराण सुना था। इन्हीं मत्स्यरूप भगवान ने प्रलय के अन्त में हयग्रीव नाम असुर को मारकर सोकर उठे हुए ब्रह्मा के लिये वेद ला दिये वही सत्यव्रत राजा ज्ञान विज्ञान से युक्त विष्णु की दया से इस कल्प में वैवस्वत मनु हुआ।




।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।

༺═──────────────═༻
༺═──────────────═༻
_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_













The events, the calculations, the facts aren't depicted by any living sources. These are completely same as depicted in our granths. So you can easily formulate or access the power of SANATANA. Jai shree Krishna.🙏ॐ

 ▲───────◇◆◇───────▲ 

 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।

 Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!

Comments

Popular posts from this blog

सुख सागर अध्याय ३ [स्कंध९] बलराम और माता रेवती का विवाह प्रसंग ( तनय शर्याति का वंशकीर्तन)

जानिए भागवद पुराण में ब्रह्मांड से जुड़े रहस्य जिन्हें, विज्ञान को खोजने में वर्षों लग गये।

चारों आश्रमों के धर्म का वर्णन।।