श्रीमद भागवद पुराण * नौवां अध्याय *[स्कंध ५] (भरत का विप्र जन्म लेना)

श्रीमद भागवद पुराण * नौवां अध्याय *[स्कंध ५] (भरत का विप्र जन्म लेना) दोहा-या नवमे अध्याय में, भये भरत जड़ रूप।  सो उनकी सारी कथा, वर्णन करी अनूप ॥    श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षत ! आत्म ज्ञानी एक ब्राम्हण   की बड़ी स्त्री से उस ब्राम्हण के समान नौ पुत्र उत्पन्न हुये और छोटी स्त्री के एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई। सो हे राजा परीक्षित जो राजा भरत था और हिरण का जन्म लिया था सो वही हिरण का जन्म त्याग इस ब्राम्हण की दूसरी स्त्री के एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई थी सो उसी में जो पुत्र था वही भरत था।  (अर्थात इस बात को इस प्रकार समझिये कि जो जीवात्मा भरत था वह दूसरे जन्म में हिरण हुआ फिर वही जी अात्मा उस ब्राम्हण का पुत्र हुआ था)  वह ब्राम्हण अथर्व वेद का पढ़ने वाला था जिसके यहाँ पुत्र रूप में भरत ने जन्म लिया था उस जन्म में भी उसका नाम भरत रखा गया । सो हे परीक्षित! उस भरत को अपने पूर्व जन्मों का वृतांत स्मरण था । अत: युवा होने पर उसने अपने मन में यह विचारा कि कहीं फिर वह संसारी बंधन में न फंस जाये । यही सोच कर उन्होंने गृह से बिरक्त रहने के लिये हरि चरणों का स्मरण करना ही निश्चय कर लिया था।    तब वह सब लोगों को अपने आप को एक पागल के समान दिखाने वाले आचरण करने लगे । अर्थात वह अन्धा और बहिरा तथा पागल मूर्ख के समान अपने आपको दर्शाते थे। तब भरत जी की ब्राह्मण ने जब ऐसी दशा देखी तो वह बहुत दुखी हुआ, परन्तु उसने फिर भी अपने पुत्र को सुधारने का बहुत प्रयत्न किया। उसने उसके सब संस्कार करा कर यज्ञोपवीत धारण कराय संध्या बंदनादि की शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया। परन्तु भरत ने अपने पिता की शिक्षा पर कोई ध्यान न दिया और वह उसी प्रकार के उल्टे सीधे आचरण कर अपने आपको मूर्ख जताने लगे । वे पिता के सिखाये आचरणों के प्रतिकूल आचरण करते थे। किन्तु उसके पिता का विचार यह था कि पुत्र को पढ़ाना ही चाहिये । सो वह अधिक परिश्रम करके पुत्र को पढ़ाना चाहता था परन्तु इतने परिश्रम पर भी भरत विद्या नहीं पढ़ता और अपना आचरण पागलों की भाँति बनाये रखता।   इसी बीच काल की गति से वह ब्राह्मण अपने मनोरथ को अपूर्ण ही छोड़कर घर में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब उस ब्राह्मण की छोटी स्त्री अपने दोनों पुत्र और पुत्री को अपनी सपत्नी को सोप कर पति के साथ सती हो गई।    जड़ भरत की कथा।।  पिता की मृत्यु के पश्चात भरत के नौ भाइयों ने भी भरत को विद्या पढ़ाने का यत्न किया, परन्तु अंत में वे भी इससे हताश हो गये कि वह उसी प्रकार से मूर्खो जैसे आचरण करता था। वे इधर उधर पागलों के समान घूमा करते जो कोई मनुष्य उन से जो कुछ कार्य कराता था वह उसे तुरन्त कर देते । उसके बदले में जो कुछ भी रुखा सूखा मिलता उसी को खा कर संतोष कर लेते थे । वे भरत जी आत्म ज्ञानी हो गये थे, इसी कारण से अपनी आनंद आत्मा में मग्न रहने लगे । उनका देहाभिमान छूट गया था। वे प्रत्येक ऋतु में सदैव नंगे घूमा करते थे, जिसके कारण उसकी देह धूल से सनी रहती थी । यहाँ तक कि जो लंगोट और जनेऊ ( यज्ञो पवीत) पहने रहते वह भी बहुत मलीन होने के कारण उनकी महिमा को कोई भी नहीं जानता था।    सब उन्हे मूर्ख एवं पागल ही जानते इसलिये लोगों ने उनका नाम जड़ भरत रख लिया था । सब लोग जड़ भरत को यह कह कर निरादर किया करते थे कि यह ब्राह्मणों में नीच है। जब इस प्रकार जड़ भरत अन्य लोगों का काम करके बदले में भोजन भर के लिये माँग कर लेते थे, तो इसे देखकर कुछ ब्राह्मणों ने जड़ भरत के भाइयों से कहा कि बड़े लज्जा की बात है कि तुम अपने एक भाई को घर में रख कर पेट भर भोजन भी नहीं दे सकते हो। ऐसा अनेक प्रकार कह सुन धमका कर पंच लोगों ने जो ब्राह्मण जात के थे भरत के अन्य भाईयों को धमकाया कि यदि तुमने भरत को घर में रख कर भोजन न दिया, और इस प्रकार अन्य लोगों का काम करके भोजन करने दिया तो वे उन्हें जाति से बाहर निकाल देंगें।    सो हे परीक्षित ! जब जात के पन्चों ने भरत के भाइयों को ताड़ना दी  तो उन्होंने भरत को अपने घर रख कर ही भोजन देना स्वीकार कर लिया। परन्तु इसमें भी एक अड़चन सामने आने लगी वह यह कि भरत के सामने चाहे जितनी रोटियाँ रख दी जाती वह उन सबको खा जाता था, और आगे खाने के मना भी नहीं करता था चाहे ढाई सेर आटे की भी रोटी हों तो भी उन्हें खा कर भी वह मना नहीं करता था। तब रोटियाँ बनाने वाली गृह पत्नियां अपने आपको अति संकट में पड़ा जानने लगीं। जिसके कारण उन स्त्रीजनों ने अपने-अपने पतियों से स्पष्ट कह दिया कि यह व्याधा हमसे नहीं भोगी जायगी। तब जड़ भरत के भाइयों ने उसे भोजन का लोभ देकर धानों के खेतों में क्यारियाँ बनाने के काम में लगा दिया। तब भरत वहाँ भी काम करते परन्तु मन न लगने के कारण ठीक प्रकार से काम नहीं करते थे। तब भी वे जैसा बनता वैसा खेत का कार्य करते और पक्षियों तथा पशुओं और चोरों आदि से खेत की रखवाली रात-दिन करते थे ।    हे परीक्षित! इसके अनन्तर एक सामंतक नाम का भीलों का राजा था, वह भद्रकाली का बड़ा उपासक था। उस राजा के कोई सन्तान नहीं हुई थी। जिस कारण उस राजा ने भद्रकाली की मनौती कर कहा कि, हे भद्रकाली ! यदि मेरे घर में पुत्र हो तो मैं तुझ पर एक मनुष्य की बलि चढ़ाऊँगा। सो हे राजन! कुछ समय के पश्चात ईश्वर की कृपा से उस सामंतक राजा के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। तब उस राजा ने भद्रकाली पर चढ़ाने के लिये एक मनुष्य को मोल लेकर पाला कि वह समय पर उसकी वलि अपना वचन पूरा करने के लिये भद्रकाली की भेंट चढा सकें परन्तु उस मनुष्य को किसी प्रकार यह ज्ञात हो गया कि कुछ दिन पश्चात उसे भद्रकाली पर राजा द्वारा बलि चढ़ा दिया जायगा। सो हे राजन् ! वह मनुष्य अपने प्राण बचाने की नियत से एक दिन रात के समय चुपचाप भाग गया।   जब राजा को यह बात ज्ञात हुई कि जो मनुष्य बलि देने के लिये पाला गया था वह चुपचाप रात को कहीं भाग गया है, तो उसने दूतों को आज्ञा दी कि वह शीघ्र ही उस मनुष्य को ढूँढ़कर पकड़ ले।    तब राजा की आज्ञा से वे राजा के दूत उस मनुष्य को खोजने के लिये इधर उधर दौड़ पड़े। परन्तु समस्त दिन खोज करने पर भी उन दूतों को वह मनुष्य कहीं पर भी न मिला। जब रात हो गई तो वे दूत उस मनुष्य को खोजते हुये उसी स्थान पर जा पहुँचे कि जहाँ पर जड़ भरत वीरासन से खड़े खेत की चोरों आदि से रखवाली कर रहे थे । वहाँ उन दूतों ने जड़ भरत को दोष रहित लक्षण वाला जानकर पकड़ लिया, श्रौर उसकी बलि देना राजा के लिये उत्तम जानकर अपनी रस्सी में बाँधकर राजा के निवास पर लाये । वहाँ उन्होंने जड़ भरत को अपने विधान के अनुसार स्नान करा कर नवीन वस्त्र पहिनाये, और आभूषण आदि पहिनाये तथा शरीर पर सुगन्धि लगाय फूलों की माला पहिनाई। तत्पश्चात उसके मस्तक पर तिलक आदि चन्दन लेपन कर भली प्रकार से सजाया। फिर भोजन कराकर धूप, दीप, फूल, हार,अक्षत, और मेवा, आदि भेंट रखकर विधान के अनुसार पूजन किया। तत्प- श्चात उसका उत्सव मनाते हुये नाना प्रकार के बाजों को बजाते हुये भद्रकाली के मन्दिर पर लाये । राजा सामंतक भी उस जड़ भरत को देख कर अति प्रसन्न हुआ कि यह मनुष्य बलि के योग्य, अच्छा है, जो अपने मरने का कोई भय नहीं करता है। तब राजा के पुरोहित ने अपना विधान पूरा करके जड़ भरत को मारने के लिये अपना तीक्ष्ण धार वाला खड़ग हाथ में उठाया। तब उसे देखकर भरत ने अपने हृदय में विचारा कि अच्छे-अच्छे भोजन करने के समय जब इस मुख ने खोलते समय ही नहीं विचारा था तो अब मस्तक कटने के समय ही क्या भय करना और विचारना ।   सो हे परीक्षत ! जड़ भरत ने चुपचाप कटाने के लिये अपना मस्तक देवी भद्रकाली की प्रतिमा के सामने झुका दिया। हे राजा परीक्षित! उस समय भद्रकाली चण्डिका ने जब यह देखा कि वह शूद्र राजा एक निर्दोष ब्राहाण की बलि देकर मुझे भी पाप भागी बनाना चाहता है।   तब उस समय भद्रकाली चिन्तित थी तब जड़ भरत जी के तेज से देवी का शरीर जलने लगा था। जब वह पीड़ा भद्रकाली के लिये असह्य हो गई तो वह भद्रकाली देवी अपनी प्रतिमा को त्याग कर तुरन्त उसी में से बाहर आ साक्षात प्रगट हो गई, और अतिशय क्रोध और वेग आने के कारण देवी भद्रकाली ने तुरन्त ब्राह्मण के हाथ से खड़ग छीन कर राजा तथा पुरोहित ब्राह्मण और उसके सभी संगी-साथियों के शिर काट डाले।  तत्पश्चात उन पापात्माओं के शिरो को काटकर वह देवी भद्रकाली इस अभिप्राय से नांचने लगी कि,यदि जड़ भरत प्रसन्न होकर मुझे कृपा की दृष्टि से देखें तो मेरा भला हो । क्योंकि इस आत्मज्ञानी जड़ भरत ब्राह्मण के दुखी होने से मेरा किसी प्रकार भी कल्याण नहीं होगा।   परन्तु इस प्रकार भद्रकाली द्वारा जड़ भरत को नाँचकर प्रसन्न करने का प्रयत्न करने पर भी जड़ भरत पहिली ही प्रकार से अपना शिर झुकाये खड़े रहे । तब भद्रकाली ने जड़ भरत को उसी मुद्रा में खड़ा देखा तो वह स्तुति करती हुई इस प्रकार बोली-हे ब्राह्मण ! आप मेरा अपराध क्षमा करो क्योंकि जब किसी का भक्त अथवा सेवक यदि किसी अन्य का अपराध करता है तो उसके स्वामी का नाम रखा जाता है । सो आप ऐसा विचार न करें कि यह सामंतक राजा भद्रकाली का भक्त था। यह तो बड़ा भारी पापी और मुझे अपयश का भागी बनाने वाला था, जो आप जैसे हरिभक्त,  आत्मज्ञानी महात्मा, को न पहिचान कर दुख देना चाहा। यह अपने राज्य धन के मद में अन्धा हुआ था सो, आपको न पहिचाना।   तब देवी के यह वचन सुनकर जड़ भरत ने कहा-हे देवी ! आत्मा का कभी नाश नहीं होता है इस लिये मैं अपना शिर कटने से कभी नहीं डरता हूँ । परन्तु मुझे इस बात की चिन्ता हो गई है कि तेरा भक्त इस पाप के बदले नरक भोगेगा। इस प्रकार वचन कह मुस्कराते हुये जड़ भरत ने देवी भद्रकाली को प्रणाम किया और वहाँ से अपने स्थान को चले आये ।   श्री शुकदेवजी कहते हैं कि हे राजा परीक्षित ! यह बात तुम निश्चय करके जानो कि जो मनुष्य अपना मन श्री नारायण जी में एक चित्त हो लगाये रहता है उसे संसार में कोई दुख नहीं दे सकता है ।



श्रीमद भागवद पुराण * नौवां अध्याय *[स्कंध ५] (भरत का विप्र जन्म लेना)

दोहा-या नवमे अध्याय में, भये भरत जड़ रूप।

सो उनकी सारी कथा, वर्णन करी अनूप ॥




जड़भरत की कथा, जड़ भरत की कहानी, जड़ भरत जी की कथा, जड़भरत कथा, जड़ भरत जी, जड़ भरत चरित्र, जड़ भरत का चरित्र, जड़ भरत के पिता

श्री शुकदेव  जी बोले-हे परीक्षत ! आत्म ज्ञानी एक ब्राम्हण
की बड़ी स्त्री से उस ब्राम्हण के समान नौ पुत्र उत्पन्न हुये और छोटी स्त्री के एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई। सो हे राजा परीक्षित जो राजा भरत था और हिरण का जन्म लिया था सो वही हिरण का जन्म त्याग इस ब्राम्हण की दूसरी स्त्री के एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई थी सो उसी में जो पुत्र था वही भरत था।

मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?

Why idol worship is criticized? Need to know idol worshipping.

तंत्र--एक कदम और आगे। नाभि से जुड़ा हुआ एक आत्ममुग्ध तांत्रिक।

क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य?  तंत्र- एक विज्ञान।।

जनेऊ का महत्व।।


आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।


तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।

मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।

(अर्थात इस बात को इस प्रकार समझिये कि जो जीवात्मा भरत था वह दूसरे जन्म में हिरण हुआ फिर वही जी अात्मा उस ब्राम्हण का पुत्र हुआ था)

वह ब्राम्हण अथर्व वेद का पढ़ने वाला था जिसके यहाँ पुत्र रूप में भरत ने जन्म लिया था उस जन्म में भी उसका नाम भरत रखा गया । सो हे परीक्षित! उस भरत को अपने पूर्व जन्मों का वृतांत स्मरण था । अत: युवा होने पर उसने अपने मन में यह विचारा कि कहीं फिर वह संसारी बंधन में न फंस जाये । यही सोच कर उन्होंने गृह से बिरक्त रहने के लिये हरि चरणों का स्मरण करना ही निश्चय कर लिया था।


तब वह सब लोगों को अपने आप को एक पागल के समान दिखाने वाले आचरण करने लगे । अर्थात वह अन्धा और बहिरा तथा पागल मूर्ख के समान अपने आपको दर्शाते थे। तब भरत जी की ब्राह्मण ने जब ऐसी दशा देखी तो वह बहुत दुखी हुआ, परन्तु उसने फिर भी अपने पुत्र को सुधारने का बहुत प्रयत्न किया। उसने उसके सब संस्कार करा कर यज्ञोपवीत धारण कराय संध्या बंदनादि की शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया। परन्तु भरत ने अपने पिता की शिक्षा पर कोई ध्यान न दिया और वह उसी प्रकार के उल्टे सीधे आचरण कर अपने आपको मूर्ख जताने लगे । वे पिता के सिखाये आचरणों के प्रतिकूल आचरण करते थे। किन्तु उसके पिता का विचार यह था कि पुत्र को पढ़ाना ही चाहिये । सो वह अधिक परिश्रम करके पुत्र को पढ़ाना चाहता था परन्तु इतने परिश्रम पर भी भरत विद्या नहीं पढ़ता और अपना आचरण पागलों की भाँति बनाये रखता।

इसी बीच काल की गति से वह ब्राह्मण अपने मनोरथ को अपूर्ण ही छोड़कर घर में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब उस ब्राह्मण की छोटी स्त्री अपने दोनों पुत्र और पुत्री को अपनी सपत्नी को सोप कर पति के साथ सती हो गई।


जड़ भरत की कथा।।


पिता की मृत्यु के पश्चात भरत के नौ भाइयों ने भी भरत को विद्या पढ़ाने का यत्न किया, परन्तु अंत में वे भी इससे हताश हो गये कि वह उसी प्रकार से मूर्खो जैसे आचरण करता था। वे इधर उधर पागलों के समान घूमा करते जो कोई मनुष्य उन से जो कुछ कार्य कराता था वह उसे तुरन्त कर देते । उसके बदले में जो कुछ भी रुखा सूखा मिलता उसी को खा कर संतोष कर लेते थे । वे भरत जी आत्म ज्ञानी हो गये थे, इसी कारण से अपनी आनंद आत्मा में मग्न रहने लगे । उनका देहाभिमान छूट गया था। वे प्रत्येक ऋतु में सदैव नंगे घूमा करते थे, जिसके कारण उसकी देह धूल से सनी रहती थी । यहाँ तक कि जो लंगोट और जनेऊ ( यज्ञो पवीत) पहने रहते वह भी बहुत मलीन होने के कारण उनकी महिमा को कोई भी नहीं जानता था।


सब उन्हे मूर्ख एवं पागल ही जानते इसलिये लोगों ने उनका नाम जड़ भरत रख लिया था । सब लोग जड़ भरत को यह कह कर निरादर किया करते थे कि यह ब्राह्मणों में नीच है। जब इस प्रकार जड़ भरत अन्य लोगों का काम करके बदले में भोजन भर के लिये माँग कर लेते थे, तो इसे देखकर कुछ ब्राह्मणों ने जड़ भरत के भाइयों से कहा कि बड़े लज्जा की बात है कि तुम अपने एक भाई को घर में रख कर पेट भर भोजन भी नहीं दे सकते हो। ऐसा अनेक प्रकार कह सुन धमका कर पंच लोगों ने जो ब्राह्मण जात के थे भरत के अन्य भाईयों को धमकाया कि यदि तुमने भरत को घर में रख कर भोजन न दिया, और इस प्रकार अन्य लोगों का काम करके भोजन करने दिया तो वे उन्हें जाति से बाहर निकाल देंगें।


सो हे परीक्षित ! जब जात के पन्चों ने भरत के भाइयों को ताड़ना दी तो उन्होंने भरत को अपने घर रख कर ही भोजन देना स्वीकार कर लिया। परन्तु इसमें भी एक अड़चन सामने आने लगी वह यह कि भरत के सामने चाहे जितनी रोटियाँ रख दी जाती वह उन सबको खा जाता था, और आगे खाने के मना भी नहीं करता था चाहे ढाई सेर आटे की भी रोटी हों तो भी उन्हें खा कर भी वह मना नहीं करता था। तब रोटियाँ बनाने वाली गृह पत्नियां अपने आपको अति संकट में पड़ा जानने लगीं। जिसके कारण उन स्त्रीजनों ने अपने-अपने पतियों से स्पष्ट कह दिया कि यह व्याधा हमसे नहीं भोगी जायगी। तब जड़ भरत के भाइयों ने उसे भोजन का लोभ देकर धानों के खेतों में क्यारियाँ बनाने के काम में लगा दिया। तब भरत वहाँ भी काम करते परन्तु मन न लगने के कारण ठीक प्रकार से काम नहीं करते थे। तब भी वे जैसा बनता वैसा खेत का कार्य करते और पक्षियों तथा पशुओं और चोरों आदि से खेत की रखवाली रात-दिन करते थे ।


हे परीक्षित! इसके अनन्तर एक सामंतक नाम का भीलों का राजा था, वह भद्रकाली का बड़ा उपासक था। उस राजा के कोई सन्तान नहीं हुई थी। जिस कारण उस राजा ने भद्रकाली की मनौती कर कहा कि, हे भद्रकाली ! यदि मेरे घर में पुत्र हो तो मैं तुझ पर एक मनुष्य की बलि चढ़ाऊँगा। सो हे राजन! कुछ समय के पश्चात ईश्वर की कृपा से उस सामंतक राजा के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। तब उस राजा ने भद्रकाली पर चढ़ाने के लिये एक मनुष्य को मोल लेकर पाला कि वह समय पर उसकी वलि अपना वचन पूरा करने के लिये भद्रकाली की भेंट चढा सकें परन्तु उस मनुष्य को किसी प्रकार यह ज्ञात हो गया कि कुछ दिन पश्चात उसे भद्रकाली पर राजा द्वारा बलि चढ़ा दिया जायगा। सो हे राजन् ! वह मनुष्य अपने प्राण बचाने की नियत से एक दिन रात के समय चुपचाप भाग गया।

जब राजा को यह बात ज्ञात हुई कि जो मनुष्य बलि देने के लिये पाला गया था वह चुपचाप रात को कहीं भाग गया है, तो उसने दूतों को आज्ञा दी कि वह शीघ्र ही उस मनुष्य को ढूँढ़कर पकड़ ले।


तब राजा की आज्ञा से वे राजा के दूत उस मनुष्य को खोजने के लिये इधर उधर दौड़ पड़े। परन्तु समस्त दिन खोज करने पर भी उन दूतों को वह मनुष्य कहीं पर भी न मिला। जब रात हो गई तो वे दूत उस मनुष्य को खोजते हुये उसी स्थान पर जा पहुँचे कि जहाँ पर जड़ भरत वीरासन से खड़े खेत की चोरों आदि से रखवाली कर रहे थे । वहाँ उन दूतों ने जड़ भरत को दोष रहित लक्षण वाला जानकर पकड़ लिया, श्रौर उसकी बलि देना राजा के लिये उत्तम जानकर अपनी रस्सी में बाँधकर राजा के निवास पर लाये । वहाँ उन्होंने जड़ भरत को अपने विधान के अनुसार स्नान करा कर नवीन वस्त्र पहिनाये, और आभूषण आदि पहिनाये तथा शरीर पर सुगन्धि लगाय फूलों की माला पहिनाई। तत्पश्चात उसके मस्तक पर तिलक आदि चन्दन लेपन कर भली प्रकार से सजाया। फिर भोजन कराकर धूप, दीप, फूल, हार,अक्षत, और मेवा, आदि भेंट रखकर विधान के अनुसार पूजन किया। तत्प- श्चात उसका उत्सव मनाते हुये नाना प्रकार के बाजों को बजाते हुये भद्रकाली के मन्दिर पर लाये । राजा सामंतक भी उस जड़ भरत को देख कर अति प्रसन्न हुआ कि यह मनुष्य बलि के योग्य, अच्छा है, जो अपने मरने का कोई भय नहीं करता है। तब राजा के पुरोहित ने अपना विधान पूरा करके जड़ भरत को मारने के लिये अपना तीक्ष्ण धार वाला खड़ग हाथ में उठाया। तब उसे देखकर भरत ने अपने हृदय में विचारा कि अच्छे-अच्छे भोजन करने के समय जब इस मुख ने खोलते समय ही नहीं विचारा था तो अब मस्तक कटने के समय ही क्या भय करना और विचारना ।

सो हे परीक्षत ! जड़ भरत ने चुपचाप कटाने के लिये अपना मस्तक देवी भद्रकाली की प्रतिमा के सामने झुका दिया। हे राजा परीक्षित! उस समय भद्रकाली चण्डिका ने जब यह देखा कि वह शूद्र राजा एक निर्दोष ब्राहाण की बलि देकर मुझे भी पाप भागी बनाना चाहता है।

तब उस समय भद्रकाली चिन्तित थी तब जड़ भरत जी के तेज से देवी का शरीर जलने लगा था। जब वह पीड़ा भद्रकाली के लिये असह्य हो गई तो वह भद्रकाली देवी अपनी प्रतिमा को त्याग कर तुरन्त उसी में से बाहर आ साक्षात प्रगट हो गई, और अतिशय क्रोध और वेग आने के कारण देवी भद्रकाली ने तुरन्त ब्राह्मण के हाथ से खड़ग छीन कर राजा तथा पुरोहित ब्राह्मण और उसके सभी संगी-साथियों के शिर काट डाले।
तत्पश्चात उन पापात्माओं के शिरो को काटकर वह देवी भद्रकाली इस अभिप्राय से नांचने लगी कि,यदि जड़ भरत प्रसन्न होकर मुझे कृपा की दृष्टि से देखें तो मेरा भला हो । क्योंकि इस आत्मज्ञानी जड़ भरत ब्राह्मण के दुखी होने से मेरा किसी प्रकार भी कल्याण नहीं होगा।

परन्तु इस प्रकार भद्रकाली द्वारा जड़ भरत को नाँचकर प्रसन्न करने का प्रयत्न करने पर भी जड़ भरत पहिली ही प्रकार से अपना शिर झुकाये खड़े रहे । तब भद्रकाली ने जड़ भरत को उसी मुद्रा में खड़ा देखा तो वह स्तुति करती हुई इस प्रकार बोली-हे ब्राह्मण ! आप मेरा अपराध क्षमा करो क्योंकि जब किसी का भक्त अथवा सेवक यदि किसी अन्य का अपराध करता है तो उसके स्वामी का नाम रखा जाता है । सो आप ऐसा विचार न करें कि यह सामंतक राजा भद्रकाली का भक्त था। यह तो बड़ा भारी पापी और मुझे अपयश का भागी बनाने वाला था, जो आप जैसे हरिभक्त, आत्मज्ञानी महात्मा, को न पहिचान कर दुख देना चाहा। यह अपने राज्य धन के मद में अन्धा हुआ था सो, आपको न पहिचाना।

तब देवी के यह वचन सुनकर जड़ भरत ने कहा-हे देवी ! आत्मा का कभी नाश नहीं होता है इस लिये मैं अपना शिर कटने से कभी नहीं डरता हूँ । परन्तु मुझे इस बात की चिन्ता हो गई है कि तेरा भक्त इस पाप के बदले नरक भोगेगा। इस प्रकार वचन कह मुस्कराते हुये जड़
भरत ने देवी भद्रकाली को प्रणाम किया और वहाँ से अपने स्थान को चले आये ।

श्री शुकदेवजी कहते हैं कि हे राजा परीक्षित ! यह बात तुम निश्चय करके जानो कि जो मनुष्य अपना मन श्री नारायण जी में एक चित्त हो लगाये रहता है उसे संसार में कोई दुख नहीं दे सकता है ।







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