श्रीमद भागवद पुराण सातवां अध्याय [स्कंध ९] ( हरिश्चन्द्र का उपाख्यान) वरुण देव-रोहितास प्रसंग।।

।। श्री गणेशाय नमः ।।


-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

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Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
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श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

नवीन  सुख  सागर  श्रीमद  भागवद पुराण सातवां अध्याय [स्कंध ९] ( हरिश्चन्द्र का उपाख्यान)  दोहा-यहि सप्तम अध्याय में मान्धातृकर वंश|  हरिश्चन्द्र पुरुत्स से उपजे कुलके अंश ॥७॥    श्रीशुकदेवजी बोले-राजन् ! मांधाता के ज्येष्ठ पुत्र अम्बरीष को उसके बाबा युवनाश्व ने गोद ले लिया थी। अम्बरीष का बेटा हारीत हुआ। यह अम्बरीष और यौवनाश्व मांधाता के कुटुम्ब में प्रवर था। सर्पों ने पुरुकुत्स को अपनी बहिन नर्मदा विवाह दी । वासुकी के कहने से नर्मदा अपने पति को रसातल में ले गई। वहाँ जाकर विष्णु शक्तिधारी पुरकुत्स ने वध के योग्य गन्धर्वो को मारा।   इस बात पर प्रसन्न हो सर्पों ने यह वर दिया कि जो इस चरित्र को पढ़ेगा उसको सर्पों का भय न होगा।   इसके त्रसहस्य हुआ और इसके अनरण्य हुआ। इस अनरण्य के हृयश्व हुआ इसके अरुण और अरुण के निबन्धन हुआ, सत्यव्रत हुआ जिसको त्रिशंकु कहा गया।  इसने ब्राह्मण की कन्या को विवाह होते समय हर लिया था इसलिये क्रुद्ध हुए वशिष्ठ के शाप से चाँडाल हो गया था। और विश्वा मित्र के तेजोबल से संदेह स्वर्ग को गया वहाँ अब तक दिखाई देता है।   तदन्तर देवताओं ने उसको ओंधा करके फेंका परन्तु विश्वामित्र ने अपने बलसे उसे वहीं रोक दिया।   इसी त्रिशंकु का पुत्र हरिश्चन्द्र हुआ।    इसके लिये विश्वामित्र और वशिष्ठ में ऐसा वाग्युद्ध हुआ कि आपस में एक दूसरे के शाप से पक्षी बनकर बहुत दिन तक लड़ते रहे।   हरिश्चन्द्र के कोई पुत्र नहीं हुआ इससे यह अत्यन्त खिन्न होकर नारद के कहने से वरुण की शरण गया और कहने लगा---- "हे प्रभो ! मेरे पुत्र हो ऐसा उद्योग करो। यदि मेरे पुत्र होगा तो उसी पुत्र रूप पशु के द्वारा मैं आपका भजन करूंगा। जब राजा ने ऐसा प्रण किया तब वरुण के कहने से इसके रोहित नाम पुत्र हुआ।   तब वरुण ने कहा----   " हे राजन तेरे पुत्र हो गया तू अब इससे मेरा भजन कर । हरिश्चन्द्र ने कहा कि यह दस दिवस में शुद्ध होगा ग्यारवें दिन वरुण ने आकर फिर कहा कि अब पूजन करो सब राजा ने कहा कि वह दाँत निकल ने पर पवित्र होगा दाँत निकल ने पर फिर आकर वरुण कहने लगा कि अब पूजन करो, तब राजा ने कहा कि इस दाँतों के गिर पड़ने पर यह पवित्र होगा।   दाँतों के गिरने पर फिर आकर कहा कि अब पूजन करो राजा ने कहा कि- जब नये दाँत फिर आ जांयगे तब पवित्र होगा। दांतों के फिर निकलने पर वरुण ने आकर कहा कि अब पूजन करो तब राजा ने कहा जब यह कबच पहिरेगा तब पबित्र होगा।"   इस तरह बेटे के स्नेह से राजा धोखा दे देकर काल को विताता रहा और वरुण भी उसी उसी समय की प्रतीक्षा करता रहा।   जब रोहितास को मालूम हुआ कि मुझ ही से वरुण का यज्ञ होगा तब प्राण बचाने के लिये वह धनुषवाण ले बन को चला गया । तब यज्ञ होने के विषय में निराश हुए वरुण ने हरिश्चन्द्र के पेट में जलोदर नामक रोग उत्पन्न किया । जब रोहित ने यह सुना तब वह नगर को आने लगा परन्तु इन्द्र ने रोक दिया। इन्द्र के समझाने पर रोहित एक वर्ष तक वन में ही रहा । इसी तरह दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें साल जब जब रोहित घर को आने लगता, तब तब इन्द्र वृद्ध ब्राहमण के वेष से उसके समीप आ आकर समझाता रहा । इस तरह छठा वर्ष भी बन ही में व्यतीत करके अजीगर्त के विचले वेटा शुनःशेफ को मोल ले पुरी में आया और उसने अपने बदले में शुनःशेफ नाम पशु पिता को देकर नमस्कार किया।   उस शुनःशेफ से हरिश्चन्द्र ने पुरुषमेध करके वरुणदिक देवताओं का पूजन किया और उदर रोग से छूट गया। इस यज्ञ में विश्वामित्र होता थे, जनदग्नि अध्वर्यु थे, वषिष्ठ ब्रहमा हुए और अगस्त्यमुनि उद्गाता थे।   इस यज्ञ से इन्द्र ने प्रसन्न होकर हरिचन्द्र को सुवर्णमय रथ दिया। शुनः शेफ का महात्म्य आगे वर्णन करेंगे।   राजा और रानी दोनों को सत्यवक्ता और धैर्यवान देखकर विश्वामित्र ने प्रसन्न हो उसको ज्ञान का उपदेश दिया उस ज्ञान से राजा को मोक्ष होने की रीति कहते हैं:-   "सब संसार का मूल मन है और मन अन्नमय हैं। इस कारण राजा ने अन्न शब्द वाच्य पृथ्वी में अपने मन की एकता करके उस पृथ्वी में जल की एकता की। उस जल की तेज में एकता करके उस तेज की वायु एकता की, उस वायु को आकाश में करके आकाश अहङ्कार में, और अहङ्कार की महत्तत्व में लय किया । उस महत्तत्व में ज्ञान कला का चिन्तवन करके उस ज्ञान कला से आत्मरूप को ढकने वाला अज्ञान दूर किया। तदनन्तर स्वरूप सुख के अनुभव से उस ज्ञान कला का भी त्याग करके वह राजा संसार बन्धन से छूटकर...... जिसको दिखा देना और तर्क करना कठिन है ऐसे अपने सच्चिदानन्द स्वरूप से स्थित हो मोक्ष पद को प्राप्त हुआ।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

नवीन  सुख  सागर 

श्रीमद  भागवद पुराण सातवां अध्याय [स्कंध ९]
( हरिश्चन्द्र का उपाख्यान) 

दोहा-यहि सप्तम अध्याय में मान्धातृकर वंश| 

हरिश्चन्द्र पुरुत्स से उपजे कुलके अंश ॥७॥ 



श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन् ! मांधाता के ज्येष्ठ पुत्र अम्बरीष को उसके बाबा युवनाश्व ने गोद ले लिया थी। अम्बरीष का बेटा हारीत हुआ। यह अम्बरीष और यौवनाश्व मांधाता के कुटुम्ब में प्रवर था। सर्पों ने पुरुकुत्स को अपनी बहिन नर्मदा विवाह दी । वासुकी के कहने से नर्मदा अपने पति को रसातल में ले गई। वहाँ जाकर विष्णु शक्तिधारी पुरकुत्स ने वध के योग्य गन्धर्वो को मारा। 

इस बात पर प्रसन्न हो सर्पों ने यह वर दिया कि जो इस चरित्र को पढ़ेगा उसको सर्पों का भय न होगा। 

इसके त्रसहस्य हुआ और इसके अनरण्य हुआ। इस अनरण्य के हृयश्व हुआ इसके अरुण और अरुण के निबन्धन हुआ, सत्यव्रत हुआ जिसको त्रिशंकु कहा गया।  इसने ब्राह्मण की कन्या को विवाह होते समय हर लिया था इसलिये क्रुद्ध हुए वशिष्ठ के शाप से चाँडाल हो गया था। और विश्वा मित्र के तेजोबल से संदेह स्वर्ग को गया वहाँ अब तक दिखाई देता है। 

तदन्तर देवताओं ने उसको ओंधा करके फेंका परन्तु विश्वामित्र ने अपने बलसे उसे वहीं रोक दिया। 

इसी त्रिशंकु का पुत्र हरिश्चन्द्र हुआ। 



इसके लिये विश्वामित्र और वशिष्ठ में ऐसा वाग्युद्ध हुआ कि आपस में एक दूसरे के शाप से पक्षी बनकर बहुत दिन तक लड़ते रहे। 

हरिश्चन्द्र के कोई पुत्र नहीं हुआ इससे यह अत्यन्त खिन्न होकर नारद के कहने से वरुण की शरण गया और कहने लगा----
"हे प्रभो ! मेरे पुत्र हो ऐसा उद्योग करो। यदि मेरे पुत्र होगा तो उसी पुत्र रूप पशु के द्वारा मैं आपका भजन करूंगा। जब राजा ने ऐसा प्रण किया तब वरुण के कहने से इसके रोहित नाम पुत्र हुआ। 

तब वरुण ने कहा---- 


" हे राजन तेरे पुत्र हो गया तू अब इससे मेरा भजन कर । हरिश्चन्द्र ने कहा कि यह दस दिवस में शुद्ध होगा ग्यारवें दिन वरुण ने आकर फिर कहा कि अब पूजन करो सब राजा ने कहा कि वह दाँत निकल ने पर पवित्र होगा दाँत निकल ने पर फिर आकर वरुण कहने लगा कि अब पूजन करो, तब राजा ने कहा कि इस दाँतों के गिर पड़ने पर यह पवित्र होगा। 

दाँतों के गिरने पर फिर आकर कहा कि अब पूजन करो राजा ने कहा कि- जब नये दाँत फिर आ जांयगे तब पवित्र होगा। दांतों के फिर निकलने पर वरुण ने आकर कहा कि अब पूजन करो तब राजा ने कहा जब यह कबच पहिरेगा तब पबित्र होगा।" 

इस तरह बेटे के स्नेह से राजा धोखा दे देकर काल को विताता रहा और वरुण भी उसी उसी समय की प्रतीक्षा करता रहा। 

जब रोहितास को मालूम हुआ कि मुझ ही से वरुण का यज्ञ होगा तब प्राण बचाने के लिये वह धनुषवाण ले बन को चला गया । तब यज्ञ होने के विषय में निराश हुए वरुण ने हरिश्चन्द्र के पेट में जलोदर नामक रोग उत्पन्न किया । जब रोहित ने यह सुना तब वह नगर को आने लगा परन्तु इन्द्र ने रोक दिया। इन्द्र के समझाने पर रोहित एक वर्ष तक वन में ही रहा । इसी तरह दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें साल जब जब रोहित घर को आने लगता, तब तब इन्द्र वृद्ध ब्राहमण के वेष से उसके समीप आ आकर समझाता रहा । इस तरह छठा वर्ष भी बन ही में व्यतीत करके अजीगर्त के विचले वेटा शुनःशेफ को मोल ले पुरी में आया और उसने अपने बदले में शुनःशेफ नाम पशु पिता को देकर नमस्कार किया। 

उस शुनःशेफ से हरिश्चन्द्र ने पुरुषमेध करके वरुणदिक देवताओं का पूजन किया और उदर रोग से छूट गया। इस यज्ञ में विश्वामित्र होता थे, जनदग्नि अध्वर्यु थे, वषिष्ठ ब्रहमा हुए और अगस्त्यमुनि उद्गाता थे। 

इस यज्ञ से इन्द्र ने प्रसन्न होकर हरिचन्द्र को सुवर्णमय रथ दिया। शुनः शेफ का महात्म्य आगे वर्णन करेंगे। 

राजा और रानी दोनों को सत्यवक्ता और धैर्यवान देखकर विश्वामित्र ने प्रसन्न हो उसको ज्ञान का उपदेश दिया उस ज्ञान से राजा को मोक्ष होने की रीति कहते हैं:- 

"सब संसार का मूल मन है और मन अन्नमय हैं। इस कारण राजा ने अन्न शब्द वाच्य पृथ्वी में अपने मन की एकता करके उस पृथ्वी में जल की एकता की। उस जल की तेज में एकता करके उस तेज की वायु एकता की, उस वायु को आकाश में करके आकाश अहङ्कार में, और अहङ्कार की महत्तत्व में लय किया । उस महत्तत्व में ज्ञान कला का चिन्तवन करके उस ज्ञान कला से आत्मरूप को ढकने वाला अज्ञान दूर किया। तदनन्तर स्वरूप सुख के अनुभव से उस ज्ञान कला का भी त्याग करके वह राजा संसार बन्धन से छूटकर...... जिसको दिखा देना और तर्क करना कठिन है ऐसे अपने सच्चिदानन्द स्वरूप से स्थित हो मोक्ष पद को प्राप्त हुआ। 

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।

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