कैसे करते हैं ज्ञानीजन प्राणों का त्याग।। श्रीमद भगवद पुराण महात्मय अध्याय २[स्कंध २]

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]


श्रीमद भागवद पुराण * दूसरा अध्याय * स्कंध २( योगी के क्रमोत्कर्ष का विवरण)


दोहा: सूक्ष्म विष्णु शरीर में, जा विधि ध्यान लखाय।

सो द्वितीय अध्याय में वर्णीत है हरषाय ॥



श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत! पदम योनी श्रीब्रह्माजी महाराज प्रलय के अंत में प्रथम श्रृष्टि को भूल गये थे, किन्तु श्री हरि ने प्रसन्न हो उन्हें पीछे धारण शक्ति प्रदान की, जिससे वह पुनः रचना कर सके। 





स्वर्ग इत्यादि नाना कल्पना में मनुष्य ने बुद्धि को व्यर्थ चिन्ताओं में ग्रसित कर रखा है ।
जिस प्रकार मनुष्य स्वप्न में केवल देखता है और भोग नहीं सकता उसी प्रकार स्वर्ग आदि प्राप्त होने पर भी मनुष्य असली सुख को नहीं भोग सकता है। इसी कारण बुद्धिमान जन केवल प्राण मात्र धारण के उपयुक्त विषयों का भोग करते हैं। जब कि वे संसार के क्षणिक भोगों में नहीं पड़ते हैं।
युग, काल एवं घड़ी, मुहूर्त, आदि की व्याख्या।।मनवन्तर आदि के समय का परमाण वर्णन।।







 जबकि भूमि उपलब्ध है तो पलंग की आवश्यकता क्या है। दोनों वाहु के होने से तोषक (तकिये) की आवश्यकता क्या है, और पेड़ों की छाल हैं
तो भाँति-भाँति के वस्त्रों की क्या आवश्कता है। अंजलि विद्यमान है तो गिलास (पत्र) को जल पीने को क्या आवश्कता है । पेड़ों में फल लगना मनुष्य के भोजन के लिये ही है और समस्त देहधारी जीवों के निमन्त ही नदियों में जल बहता है।पहाड़ की कंदराओं में रहने से किसने मना किया है। क्या भगवान अपने सच्चे भक्तों की रक्षा नहीं करते, तब पंडित जन धन घमंड में लिप्त पुरुष का सेवन क्यों करते हैं, वे हरि तो अतः करण में स्वयं सिद्ध है वे आत्मा हैं इसी लिये अतीव प्यारे हैं, जो कि वह सत्य रूप, भजनीय, गुणों से अलंकृत और अंत रहित है।

भागवद महात्मय।।


अतः इसी लिये मनुष्य को भगवान श्री हरि का गुणानुबाद करना चाहिये । भगवत भजन करने से माया भ्रम नष्ट हो जाता है। ऐसा कौन पुरुष होगा जो अपने अपने कर्म जनित कष्ट भोगते देख भगवान की चिन्ता को त्याग घृणित विषयों में मन लगावेगा।

 जो एकअंगुष्ट स्वरूप पुरुष मानव देह के मध्य भाग हृदय में निवास करता है वह चार भुजा बाला है और चरण, शंख, चक्र के चिन्हों से युक्त हैं । जो हाथ में गदा लिये, प्रसन्न मुख, खिली हुई आँखें, कदंब पुष्प के समान पीतवर्ण वस्त्र, लक्ष्मी हृदय में विराजमान एवं कौस्तुभ मणी गले में शोभायमान है।

 गले में बनमाला धारण किये हुये है, अंग में मेखला, अंगूठी, पाजेव तथा कंगन आदि नाना प्रकार के आभूषण शोभित है।

चिकनी देह, घुंघराले बाल, मधुर मुश्कान, मन को हरन करने वाली है। अनेकों पुरुष उनकी चिन्तवन धारण एकाग्र मन से किया करते हैं। क्यों कि चिन्ता करने पर वे पारब्रह्म ईश्वर प्रगट हो जाया करते हैं। अतः उनका दर्शन तब तक करना चाहिये जब तक कि मन स्थिर भाव से अवस्थान करे, क्यों कि उनका दर्शन करना स्वयं प्रकाशमान समस्त अङ्गों में एक-एक करके क्रमशः श्रेष्ठतर आगे चिन्ता करनी चाहिये । क्यों कि ऐसा
करने पर बुद्धि निर्मल होती है। 


जब तक वृह्मा आदि से भी श्रेष्ठ पुरुष की भक्ति उत्पन्न न हो तब तक एकाग्र चित्त हो हरि के स्थूल शरीर को चिन्ता आवाल्य क्रिया का अनुष्ठान करके करनी चाहिये।


 हे राजा परीक्षित ! जब योगीजन देह त्यागने को कामना करते हैं तब वे समय की प्रतीक्षा अथवा पवित्र स्थान की लालसा नहीं किया करते हैं। वे केवल एकाग्र चित्त से मुखासीन हो प्राण वायु को लय करते हैं। समस्त कर्मो से छुट्टी पाने के लिये मन बुद्धि अपने द्रष्टा में और उस द्रष्टा को विशुद्ध आत्मा में तथा आत्मा को परब्रह्म में लीन कर लेते हैं। 

उस आत्मा पर देवता लोग भी अपनी प्रसुता नहीं जता सकते हैं। 


दूसरी बार उनकी सृष्टि करने उस दशा में सत्य, रज, तम, अहंकार तत्व और महत्व भी अर्थ नहीं हुआ करते हैं। वे योगीजन आत्मा के अतिरिक्त हरिभगवान के चरण कमलों की चिन्ता किया करते हैं।


इसी कारण समस्त पदार्थों को त्याग आत्म बुद्धि की देह को हटा कर हर समय विष्णु पद को समस्त पदों से अत्योत्तम जानना चाहिये। 

इस प्रकार किसी की वासना शास्त्र ज्ञान बल से नष्ट हो गई हो वह वृह्म मुनि उपराम को प्राप्त हो अर्थात् मनको स्थिर कर लेवे और देह त्याग के समय गुदा द्वार को ऐडी से रोक कर पवन को बिना परिश्रम छः चक्रों में चढ़ावे । ये छः चक्र छः स्थानों के नाम हैं जो इस प्रकार कहे जाते हैं। 

नाभि (मणि पूरक चक्र) में स्थिति वायु को हृदय (अनाहत चक्र) में लाकर उदान वायु द्वारा छाती (विशुद्ध चक्र) में ले आवे, पश्चात् सावधानी से मन को बुद्धि के जीतने वाला धीरे-धीरे अपने तालु के मन में उसी वायु को ले आवे। फिर दोनों भृकुटियों के मध्य भाग (आज्ञा चक्र) में लावे परन्तु तब अत्याधिक सावधान रहना चाहिये। 


क्यों कि वहां सप्त छिन्द्र हैं (दो कान, नाक के दो, आंख और एक मुख) अतः इन्हें रोक कर किसी वस्तु को चिन्ता न करे।
आज्ञा चकर में १ घड़ी भर ठहर कर वृह्मरूप को प्राप्त हो बृह्म चक्र का भेदन कर शुद्ध दृष्टि से देह व इन्द्रियों को त्याग देवे, यह पूर्वोक्त सद्योमुक्त वर्णन है।

 आगे क्रम मुक्ति वर्णन करते हैं। 


हे राजन् ! मन इन्द्रिय सहित वही जीव जाता है जो बृह्मा के स्थान में होकर जाता है। क्यों कि उस प्राणी की वासना मृत्यु समय यह होती है कि सब लोकों के भोग भोगता हुया जाऊँ। जिन योगेश्वरों की देह पवन स्वरूप होती हैं वे त्रिलोकी के बाहर भीतर सब स्थानों में जाने की रीति होती है। 

अतः संसारी मनुष्य कर्म करके उस गति को नहीं पाते हैं। यह गति विद्या तप योग समाधि वालों को प्राप्त होती है। हे नृपेन्द्र ! योगीजन तेजोमय सुषुम्ना नाड़ी द्वारा आकाश में वृहलोक के मार्ग से आसक्त होता हुआ अभिमानी अग्निदेवता को प्राप्त होता है। तत्पश्चात तारारूप शिशुमारचक्र को प्राप्त होता है। शिशुमार चक्र का वर्णन पांचवें स्कंध में दिया है। सूर्योदिकों का आश्रय भूत अर्थात विश्व की नाभिरूप शिशुमार चक्र को उलंघन करके रजोगुण रहित अति सूक्ष्म देह बना के योगी महर्षि लोक को प्राप्त होता है। इसी लोक को बृह्म ज्ञानी पुरुष नमस्कार करते हैं यहीं पर
भृगु आदि कल्प पर्यन्त आयुर्वल वाले पण्डित रमण करते हैं।


इसके अनन्तर कल्प के अन्त में शेषजी के मुख की अग्नि के जगत को दग्ध होता हुआ देख कर सिद्धेश्वरों से सेवित स्थान,जहाँ ब्रह्माजी आधी आयु पर्यन्त योगीजन वे उसी ब्रह्म लोक को प्राप्त होते है। जहां पर शोक, वृद्धावस्था, पीड़ा, मृत्यु, उद्वेग ये कभी व्याप्त नहीं होते हैं । इससे अधिक दुख संसार में और कुछ नहीं है। जो पुरुष भगवान को ध्यान नहीं करते वे पुरुष दुख भोग करते हैं और चित्त को व्यथा आजाने वाला जन्म मरण
होता रहता है।

 तीन प्रकार की गति होती है जो व्रत, पुन्य, दान करने से जाती है ! वे कल्पान्तर में पुन्य के कम अधिक होने से अधिकारी होते है और जो हिरन्य गर्भ आदिक के उपासना बल से जाते हैं, वे वृह्या के साथ मुक्ति प्राप्त करते हैं और जो पुरुष भगवान के उपासक होते हैं वे अपनी इच्छा से वृह्माण्ड को भेद कर विष्णु लोक को प्राप्त होते है।


 निर्भय हुआ योगी तदनन्तर आवरणों का भेदन करने के अर्थ प्रथम लिङ्ग देह से पृथ्वीरूप होकर जलरूप हो जाता है। और फिर धीरे-धारे ज्योर्तिमय अग्निरूप हो जाता है।


 समय पाय तेजरूप से पवन को प्राप्त कर पश्चात व्यापकता से परमात्मा को प्रकाश करने वाले आकाश को प्राप्त हो जाता है। प्राणेन्द्रिय के गन्ध, रसना से रस, दृष्टि से रूप, त्वचा से स्पर्श, श्रोत इन्द्रिय से आकाश के
गुण शब्द को प्राप्त हो प्राण से अर्थात कर्मेन्द्रियों से उन-उन कर्मेन्द्रियों की क्रिया को प्राप्त हो जाता है। तामस, राजस, सात्विक, नाम से तीन प्रकार का अहंकार होता है। 


तामस में जड़ भूत सूक्ष्म उत्पन्न होते हैं, राजस से बाई मुख दस इन्द्रियां, और सात्विक से मन इन्द्रिय और देवता। उसका लय उसी से होता
है जिससे उसकी उत्पत्ति होती है। 


जो योगी भूत, सूक्ष्म इन्द्रियों के लय, मनोमय देवमय, अहंकार की गति से प्राप्त हो कर जिनमें गुणों का लय ऐसे महत्व को प्राप्त होता है वह योगी अनन्तर प्रधान रूप से शान्त हो आनन्द रूप होकर आनन्दमय परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
जो पुरुष इस भागवत गति को प्राप्त हो जाता है वह कभी संसार में आसक्त नहीं होता है।


हे राजन् ! तुमने जो वेद में कहे सनातन मार्ग वृह्माजी द्वारा आराधना करने पर भगवान ने वर्णन किये हैं। इससे अन्य मार्ग जन्म मरण वाले संसारी जीवों को कल्याणकारी नहीं है। क्योंकि इससे भगवान हरि में भक्ति योग उत्पन्न होता है।
श्री वृह्माजी ने अपनी बुद्धि से संपूर्ण वेदों को तीन बार विचारा और यह निश्चय किया कि जिस मार्ग से भगवान में भक्ति मार्ग हो वही मार्ग श्रेष्ठ है। क्योंकि भगवान हरि जगत के समपूर्ण प्राणियों में आत्मा करके देखे जाते हैं। ईश्वर के देखने के उपाय दृश्य जड़ बुद्धि आदिक हैं, जिनका प्रकाश तभी दिखाई देता है जब जीव अपना प्रकाश देख लेता है। 

जिस प्रकार चेतन्य के सहारे बिना कुल्हाड़ी वृक्ष आदि को काट नहीं पाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर को देखने के उपाय बुद्धि अनुपात आदि है इसी कारण सर्वत्र आत्मा में हरि भगवान हैं। अतः वे सब काल में भगवान श्रवण और कीर्तन करने के योग्य हैं।वे ही मनुष्य हरि के कथा रूपी अमृत को श्रवण रूपी दोनाओं में भरकर पान करने योग्य है। ऐसे करने से विषयों से अति दूषित अतः करण भी पवित्र हो जाते हैं, और हरि भगवान नारायण श्री विष्णु के चरण बिन्दों के समीप हो जाते हैं ।

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम द्वितीय अध्याय समाप्तम🥀।।


The events, the calculations, the facts aren't depicted by any living sources. These are completely same as depicted in our granths. So you can easily formulate or access the power of SANATANA. 
Jai shree Krishna.🙏ॐ

▲───────◇◆◇───────▲

 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। 


Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!
༺═──────────────═༻


Comments

Popular posts from this blog

सुख सागर अध्याय ३ [स्कंध९] बलराम और माता रेवती का विवाह प्रसंग ( तनय शर्याति का वंशकीर्तन)

जानिए भागवद पुराण में ब्रह्मांड से जुड़े रहस्य जिन्हें, विज्ञान को खोजने में वर्षों लग गये।

चारों आश्रमों के धर्म का वर्णन।।