सुख सागर अध्याय २ [स्कंध ९] (कारूपादि पंचपुत्र वंश का वृतान्त) ब्राह्मण एवं वैश्य जाति की उतपत्ति।।

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

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Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]


नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पूराण दूसरा अध्याय [स्कंध ९] (कारूपादि पंचपुत्र वंश का वृतान्त) दोहा-मनुपुत्र युगल विरक्त हुए शेष पांचकर वंश। यही द्वितीय अध्याय में वर्णो इनका अंश।।   श्री शुकदेवजी कहने लगे- सुद्युम्न के बन जाने पर वेवस्वतु मनु ने पुत्र की इच्छा से यमुना तट पर सौ वर्ष तक तप किया। तप के प्रभाव से इनके आत्मसदृश इक्ष्वाकु आदि दस पत्र हुए।   गुरु न मनु के पुत्र पृषध्र को गौओ की रक्षा के लिए नियत किया। एक दिन रात्रि में मेह बरस रहा था, इतन ही में एक व्याघ्र खिड़क में घुसा, उसके डर से सोती हुई गायें उठ कर खिड़क में इधर उधर भागने लगीं। उनमें से एक गौ को उस बाघ ने पकड़ली और वह भयभीत होकर डकराने लगी। उसकी उस क्रन्दन ध्वनि को सुन पृषध्र दौड़ा रात्रि के उस गाढ़े अन्धकार में बाघ की शङ्का से पृषध्र कृपाण से गौ का शिर काट डाला, और वह बाघ भी तौक्ष्ण खंग के वेग से अपने कानों के कट जाने पर डर कर भाग गया। पृषध्र ने मन में बिचारा कि व्याघ्र मार गया। परन्तु दिन निकलने पर जब गौ को मरी हुई देखी तब बड़ा दुःख हुआ। वशिष्ठ जी ने पृषध्र को शाप दिया कि तू क्षत्रिय नहीं है इस कर्म से तू शूद्र होगा।   पृषध गरु के शाप को हाथ जोड़ के अंगीकार कर ब्रह्मचर्य व्रत से मुनि धर्म का पालन करने लगा। परमात्मा में अपने आत्मा को लगाय ज्ञान से तृप्त हो एकाग्र मन से जड़वत अन्धे और बहरे की तरह पृथ्वी में विचरने लगा इस नियम से बन में जा दावाग्नि में जलकर मर गया और परब्रह्म से जा मिला।   मनु के सब पुत्रों में छोटा कवि नाम पुत्र बचपन ही में विषयवासनाओं का परियाग कर, पर ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म को हृदय में रख वन में जय परमात्मा से मिल गया। करूष से कारूप नाम क्षत्रियों की एक जाति उत्पन्न हुई और उत्तर दिशा में जाकर धर्म से राज्य करने लगी।   धृष्ट के आर्ष्ट नाम क्षत्री हुए थे सो पृथ्वी में ब्राह्मण बन गये, नृप के वंश में इसका पुत्र भूतज्योति तथा भूतज्योति का वसु, वसु का प्रतीक हुआ, प्रतीक का ओघवान, ओघवान का औंघवान और कन्या का नाम औघवती था जो सुदर्शन को व्याही गई। मनु के पुत्र नरिष्यन्त के चित्रसेन इसके ऋक्ष, ऋक्ष के मीढ़वान, मीढ़वान के कूर्च, कूर्च के इन्द्रसेन, इन्द्रसेन के वीतिहोत्र। इसके सत्यश्रवा, सत्यश्रवा के उरुश्रवा, इसके देवदत्त, देवदत्त के साक्षात अग्नि भगवान अग्निवेश्य नाम से हुए इन्हीं की जातकूर्ण्य और कानीन भी कहते हैं।   हे राजन् ! इन्हीं अग्निवैश्य के ब्रहमकुल को अरिन वेश्यायन कहते हैं। यह नरिष्यन्तका वंश हुआ, अब विष्ट के वंश का वर्णन करते हैं ।   विष्ट के पुत्र का नाम नाभाग था वह अपने कर्म से वैश्य हो गया, फिर नाभाग का भलन्दन, भलन्दन के धत्सप्रीति, इसके प्रान्शु, प्रान्शु के प्रमति, प्रमति के चालव और इसका विर्विशति हुआ | विर्विशति का रम्भ, रम्भ का खनिनेत्र, इसका करन्धम हुआ। करन्धम के अवीक्षित और अवीक्षित के चक्रवर्ती राजा मरुत हुआ। फिर मरुत के दम और दम के राज्यवर्धन इसको सुधृति और सुधृति को नर हुआ। नर का केवल, केवल का बन्धुमास और इसका वेगतान हुआ, वेगतान का बन्धु और बन्धु का तृणबिन्दु हुआ। तृणबन्धु से अलम्वृषा नाम अप्सरा ने विवाह कर लिया था। इससे कई पुत्र हुए और एक इडविडा नाम कन्या हुई थी। इस कन्या से विश्रवाऋषि के कुबेर नाम पुत्र हुआ। इसने अपने पिता योगेश्वर से अन्त ध्वनि होने की उत्तम विद्या प्राप्त की। तृणबिन्दु के विशाल, शून्यबन्धु और धूम्रकेतु ये तीन पुत्र हुये थे, इनमें से विशाल का वंश चला था और इसने अपने नाम से वैशाली नाम पुरी बसाई थी । विशाल का हेमचन्द्र इसका धूमाक्ष, उसका संयम कृशाश्व और सहदेव दो पुत्र हुए | कृशाश्व का सोमदत हुआ। इसने अश्वमेध यज्ञ करके भगवान को सन्तुष्ट किया, इससे उसको परमगति प्राप्त हुई। सोमदत्त का सुमति और सुमति का जन्मेजय हुआ, इस तरह ये विशाल वंश के राजा हुए वे सब तृणबिन्दु के यश फैलाने वाले हुये थे।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

नवीन सुख सागर 

श्रीमद भागवद पूराण दूसरा अध्याय [स्कंध ९]
(कारूपादि पंचपुत्र वंश का वृतान्त) ब्राह्मण एवं वैश्य जाति की उतपत्ति।।

दोहा-मनुपुत्र युगल विरक्त हुए शेष पांचकर वंश।

यही द्वितीय अध्याय में वर्णो इनका अंश।।











श्री शुकदेवजी कहने लगे- सुद्युम्न के बन जाने पर वेवस्वतु मनु ने पुत्र की इच्छा से यमुना तट पर सौ वर्ष तक तप किया। तप के प्रभाव से इनके आत्मसदृश इक्ष्वाकु आदि दस पत्र हुए। 

गुरु ने मनु के पुत्र पृषध्र को गौओ की रक्षा के लिए नियत किया। एक दिन रात्रि में मेह बरस रहा था, इतन ही में एक व्याघ्र खिड़क में घुसा, उसके डर से सोती हुई गायें उठ कर खिड़क में इधर उधर भागने लगीं। उनमें से एक गौ को उस बाघ ने पकड़ली और वह भयभीत होकर डकराने लगी। उसकी उस क्रन्दन ध्वनि को सुन पृषध्र दौड़ा रात्रि के उस गाढ़े अन्धकार में बाघ की शङ्का से पृषध्र कृपाण से गौ का शिर काट डाला, और वह बाघ भी तौक्ष्ण खंग के वेग से अपने कानों के कट जाने पर डर कर भाग गया। पृषध्र ने मन में बिचारा कि व्याघ्र मार गया। परन्तु दिन निकलने पर जब गौ को मरी हुई देखी तब बड़ा दुःख हुआ। वशिष्ठ जी ने पृषध्र को शाप दिया कि तू क्षत्रिय नहीं है इस कर्म से तू शूद्र होगा। 

पृषध गरु के शाप को हाथ जोड़ के अंगीकार कर ब्रह्मचर्य व्रत से मुनि धर्म का पालन करने लगा। परमात्मा में अपने आत्मा को लगाय ज्ञान से तृप्त हो एकाग्र मन से जड़वत अन्धे और बहरे की तरह पृथ्वी में विचरने लगा इस नियम से बन में जा दावाग्नि में जलकर मर गया और परब्रह्म से जा मिला। 

मनु के सब पुत्रों में छोटा कवि नाम पुत्र बचपन ही में विषयवासनाओं का परियाग कर, पर ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म को हृदय में रख वन में जय परमात्मा से मिल गया। करूष से कारूप नाम क्षत्रियों की एक जाति उत्पन्न हुई और उत्तर दिशा में जाकर धर्म से राज्य करने लगी। 

धृष्ट के आर्ष्ट नाम क्षत्री हुए थे सो पृथ्वी में ब्राह्मण बन गये, नृप के वंश में इसका पुत्र भूतज्योति तथा भूतज्योति का वसु, वसु का प्रतीक हुआ, प्रतीक का ओघवान, ओघवान का औंघवान और कन्या का नाम औघवती था जो सुदर्शन को व्याही गई। मनु के पुत्र नरिष्यन्त के चित्रसेन इसके ऋक्ष, ऋक्ष के मीढ़वान, मीढ़वान के कूर्च, कूर्च के इन्द्रसेन, इन्द्रसेन के वीतिहोत्र। इसके सत्यश्रवा, सत्यश्रवा के उरुश्रवा, इसके देवदत्त, देवदत्त के साक्षात अग्नि भगवान अग्निवेश्य नाम से हुए इन्हीं की जातकूर्ण्य और कानीन भी कहते हैं। 

हे राजन् ! इन्हीं अग्निवैश्य के ब्रहमकुल को अरिन वेश्यायन कहते हैं। यह नरिष्यन्तका वंश हुआ, अब विष्ट के वंश का वर्णन करते हैं।



विष्ट के पुत्र का नाम नाभाग था वह अपने कर्म से वैश्य हो गया, फिर नाभाग का भलन्दन, भलन्दन के धत्सप्रीति, इसके प्रान्शु, प्रान्शु के प्रमति, प्रमति के चालव और इसका विर्विशति हुआ | विर्विशति का रम्भ, रम्भ का खनिनेत्र, इसका करन्धम हुआ। करन्धम के अवीक्षित और अवीक्षित के चक्रवर्ती राजा मरुत हुआ। फिर मरुत के दम और दम के राज्यवर्धन इसको सुधृति और सुधृति को नर हुआ। नर का केवल, केवल का बन्धुमास और इसका वेगतान हुआ, वेगतान का बन्धु और बन्धु का तृणबिन्दु हुआ। तृणबन्धु से अलम्वृषा नाम अप्सरा ने विवाह कर लिया था। इससे कई पुत्र हुए और एक इडविडा नाम कन्या हुई थी। इस कन्या से विश्रवाऋषि के कुबेर नाम पुत्र हुआ। इसने अपने पिता योगेश्वर से अन्त ध्वनि होने की उत्तम विद्या प्राप्त की। तृणबिन्दु के विशाल, शून्यबन्धु और धूम्रकेतु ये तीन पुत्र हुये थे, इनमें से विशाल का वंश चला था और इसने अपने नाम से वैशाली नाम पुरी बसाई थी । विशाल का हेमचन्द्र इसका धूमाक्ष, उसका संयम कृशाश्व और सहदेव दो पुत्र हुए | कृशाश्व का सोमदत हुआ। इसने अश्वमेध यज्ञ करके भगवान को सन्तुष्ट किया, इससे उसको परमगति प्राप्त हुई। सोमदत्त का सुमति और सुमति का जन्मेजय हुआ, इस तरह ये विशाल वंश के राजा हुए वे सब तृणबिन्दु के यश फैलाने वाले हुये थे।


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।। 

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The events, the calculations, the facts aren't depicted by any living sources. These are completely same as depicted in our granths. So you can easily formulate or access the power of SANATANA. Jai shree Krishna.🙏ॐ


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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।


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