सुख सागर।। श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १० [स्कंध ९ ] श्री रामचन्द्र का चरित्र एवम वंश वर्णन।। (सम्पूर्ण रामायण) (भागवद कथा)

।। श्री गणेशाय नमः।।

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

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नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १० [स्कंध ९ ] श्री रामचन्द्र का चरित्र एवम वंश वर्णन।। (सम्पूर्ण रामायण) (भागवद कथा) दोहा - पहि दसवें अध्याय में, राम कथा सुखसार।। ता पीषछे इक्ष्वाकु को वंश कथा बिस्तार 1१०1   पिछले अध्याय में आपने पढ़ा   श्रीशुकदेवजी बोले-खटवांग का पुत्र दीर्घबाहु, दीर्घबाहु का रघु, पृथुश्रवा। रघु का अज और अज का पुत्र दशरथ हुआ।   दशरथ के घर साक्षात भगवान अपने अशांश से चार रूपों में विलक्त होकर प्रकट हुए इन चारों के नाम राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हुए इनका चरित्र वाल्मीकादि तत्वदर्शी मुनीश्वरों ने बहुत वर्णन किया है। आपने भी सुना परन्तु फिर भी संक्षेप से कहते हैं।    राम ने अपने पिता के कहने से राज्य छोड़ दिया और सीता को लेकर बन-बन में फिरे। इनके रास्ते का श्रम हनुमानादिक कपीस और लक्ष्मण ने दूर किया और शूर्पणखा के नाक कान काट डाले। इतने में ही रावण इनकी प्राण प्रिय सीता को हर कर ले गया।   तब उसके विरहजन्य क्रोध से भृकुटियों को टेढ़ी कर समुद्र में खल बलाहट मचा दी और पुल बाँध लिया। ऐसे खलरूप बनको जलाने वाले श्रीराम हमारी रक्षा करे।   इन्होंने विश्वामित्र के यज्ञ में लक्ष्मण के देखते देखते पैने पैने वाणों के मारीचादि राक्षसों को मार गिराया। इन्हीं ने उस समाज में जहाँ संसार के बड़े-बड़े वीर एकत्र हुए थे, सीता के स्वयंवर के यज्ञ भूमि में रक्खे हुए धनुष को जो तीन सौ आदमियों से उठता था, खींचकर ऐसे तोड़ डाला जैसे हाथी को बच्चा खेल में ईख को तोड़ डालता है।     इस तरह गुण शील, वय, अग और रूप में अपनी अनुरूप सीता को जी बक्षस्थल में विराजमान लक्ष्मी का अवतार है, विवाह कर चले। तब रास्ते में उन परशुरामजी का गर्व खंडित कर दिया जिन्होंने इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन कर दिया था। स्त्री के वशीभूत सत्यपाश से दंधे हुए पिता की आज्ञा को सिर पर धारण कर रामजी.... राज्य, लक्ष्मी, मित्र, सुहृदय और महल मन्दिर को छोड़ सीता को साथ ले वनको ऐसे चले गये जैसे योगोजन संग रहित हो प्राणों को त्याग देते है।   रास्ते में रावण की बहिन शूर्पणखा ने आ घेरा, तब उस राक्षसी के नाक कान काटकर उसे विरूप कर दिया। उसने जाकर अपने दुःख को कथा अपने भाइयों से कही। त्रिशरा और दूशणादक उसके भाई चौदह सहस्त्र राक्षसों को लेकर चढ़ आये उन सबको मार भगाया। सीता के रूप की प्रशंसा सुन रावण ने मारीच को भेजा । वह कपट मृग का रूप धारण कर राम को बहुत दूर ले गया। वहाँ राम ने उस राक्षस को ऐसे मार गिराया जैसे रुद्र ने दक्ष को मारा था। इस अवसर में सीता को अकेली देख भेड़िये की तरह आकर उसे हर रावण कर ले गया। राम अपनी प्यारी के वियोग में भाई को साथ ले कृपण की तरह---- (स्त्रीसंगी पुरुषों की इसी तरह दशा होती है) लड़कर यह प्रगट करते हुए वन में ढूंढने लगे फिर रावण के साथ से सीता को बचाने के लिए जिस जटायु ने रावण से अपने प्राण त्याग दिये थे उसका दाह किया फिर कबंध को मार कर आगे बढ़े और बन्दरों से मित्रता की।  सुग्रीव के भाई बालि को मार कर बन्दरों द्वारा सीता की खोज कराई और बन्दरों के दलों को साथ ले समुद्र के तटपर आ गये। राम ने तीन दिन तक निराकार व्रत धारण कर समुद्र के बुलाने के लिये तप किया परन्तु समुद्र न आया तब लाल आंखे कर भृकुटी चढ़ा ली उस समय भय के मारे मकरादि सब जल जन्तुओं के श्वास रुक गये, समुद्र का शब्द बन्द हो गया तब भयभीत होकर समुद्र सिर पर पूजा की सामग्री रख भगवान के चरणों में गिर गिड़ा कर कहने लगा।    "हे भूमन् ! हमारी जड़ बुद्धि है, आप कूटस्थ आदि हैं, हम आपको नहीं जान सकते हैं, आप अपनी इच्छा के अनुकूल जाइये और विश्रवाॠषि के विष्ठा रूप त्रिलोकी को रोदन करने वाले रावण को मार वीर पत्नी सीता को ले आइये। मेरे जल पर आप पुल बांधिये इससे आपका यश विपुल हो जायगा।"   यह कह समुद्र तो चला गया और राम की आज्ञा से बड़े बड़े बन्दरों ने पर्वतों के बने शिखर लाकर डालदिये इस तरह पुल बाँध कर सुग्रीव, नील, हनुमानादि अनेक सेनापति विभीषण को बुद्धि के अनुसार बन्दरों की सेना लङ्का में घुस गई।   इसी लङ्का को हनुमान जी पहले गये थे। जब रावण ने यह दशा देखी तब उसने बड़े बड़े शूर सामन्त, कुम्भकरण के साथ युद्धस्थल में भेजे | जब यह दुर्जन सेना चली तब सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान, अगद जामवन्त आदि आदि बड़े २ सूरवीरों को लेकर राम भी जा पहुँचे । राम की सेना के बड़े बड़े यूथपाल रावण के जगपति, अश्वपति, रथी, महारथी आदि से जा भिड़े और रावण के सैन्यजनों को वृक्ष पर्वत गदा और वाणों से मारने लगे। जब रावण ने अपनी सेना को नष्ट होते हुए देखा तब क्रुद्ध हो पुष्पक विमान में बैठकर रामचन्द्र के सम्मुख आया, इधर इन्द्र ने अपने सारथी मातलि के साथ अपना रथ राम चन्द्र के लिए भेज दिया था इस पर राम बैठ गये।   रावण सन्मुख आकर बड़े २ पैने तीरों को प्रहार करने लगा राम उससे बोले----   "हे तू राक्षसों का विष्टारूप है तू कुत्ते की तरह शून्यस्थान में घुसकर मरे पिछाड़ी से सीता को हरलाय उस निन्दित कर्म का फल मैं तुझको अभी देता हूँ।"   तदनन्तर धनुष पर वज्र तुल्य बाण को चढ़ाय रावण के मारा जिससे उसका हृदय फट गया सौर दशों मुखों से रुधिर डालता हुआ विमान से गिरकर मर गया।    उसके मरने पर सहस्त्रों राक्षसों मन्दो दरी के साथ लङ्का से निकल कर रूदन करती हुई युद्धस्थल में आई । और लक्ष्मण के बाणों से मरे हुए अपने-अपने कुटुम्बियों को देख देख कर बड़ क्रन्दनस्वर से रोने लगी----   " हे रावण ! आपके भय से सम्पूर्ण लोक रोते थे, हे नाथ ! अब हमारा बड़ा अनर्थ हो गया है शत्रुओं से दमन की हुई अब यह लंका आप  बिना किसकी शरण जायगी ?"   शुकदेवजी बोले- रामचन्द्र की आज्ञा से विभीषण ने संग्राम में मरे हुए राक्षसों की पितृमेघ की विधी से पारलौकिक क्रिया की। फिर राम ने अशोक वाटिका में जाकर शीशम के वृक्ष के नीचे बैठी हुई वियोगजन्य दुःख से कृशाँली सीता को देखा। राम ने अपने दर्शन से सीताजी के मुरझाये हुये मुख-कमल को खिला दिया और पुष्पक विमान में सीता तथा लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमानादि को बैठा कर और विभीषण को लङ्का का राज्य देकर, बनवास की अवधि पूर्ण होने पर रामचन्द्र अयोध्या को आये।   उस समय ब्रह्मादिक सब देवता उनका गुण गान कर रहे थे परन्तु जब राम ने सुना कि भाई भरत गोमूत्र में रांधकर जौ खाता है वृक्षों की छाल पहनता है, जटा धारण किये हुये है। और पृथ्वी में सोता है तब बहुत दुःखी हुए और जब भरत ने सुना कि राम आ रहे हैं तब भाई से मिलने के लिये पुरजन, मन्त्री, पुरोहित सबको साथ ले...... सिर पर रामचन्द्र की पादुकाओं को धर अपने निवास स्थान नंदिग्राम से राम के सम्मुख आये।   भरतजी श्री राम के पैरों में जा पड़े, प्रेम से हृदय भर गया फिर पादुकाओं को आगे रख हाथ जोड़ नेत्रों में आँसू भर खड़े हो गये।   तब राम ने दोनों हाथों से भरत को छाती से लगा लिया उस समय रामचन्द्र के नेत्रों से जल की ऐसी वर्षा हुई कि भरत जी तर हो गये तदनन्तर बड़ों को आपने नमस्कार किया। सब प्रजा ने उन को नमस्कार किया। बहुत दिन में आये हुए अपने स्वामी को देख कर आनन्द में मग्न हो अपने दुपट्टों को फिराने लगे। उत्तर कोशल देश के लोग फूलों की वर्षा करते।   लक्ष्मण ने छत्र, शत्रुघ्न ने धनुष और तर्कस तथा सीता ने कमण्डलु लिया। अंगद ने खड़ग जाम्बवंत ने ढाल उठाली, उस समय स्त्रियों सहित बन्दीगण प्रशंसा कर रहे थे।   पुष्पक में बैठे हुए रामचन्द्र की अपूर्व शोभा हो रही थी। इस तरह भाइयों के सम्मान के साथ पुरी में प्रविष्ट हुए। राज भवन में जाकर कैकेयी से मिले, सीता और लक्ष्मण भी यथा योग्य सबसे मिले फिर माता भी अपने पुत्रों से उठकर मिलने लगी जैसे प्राणों के आने से शरीर उठता है और गोदियों में बैठाकर आँसु की धारा बहाने लगी।    तदनन्तर वशिष्ठजो ने कुल वृद्धों के साथ श्रीराम की जटाओं को दूर कराकर चारों समुद्रों के जल से विधिवत् उसी तरह अभिषेक किया जैसे वृहस्पति ने इन्द्र का अभिषेक कराया था। भरत के प्रणाम करने से राम ने प्रसन्न हो राज्यासन ग्रहण किया, इनके शासन काल में प्रजा अपने धर्म में रत रही और वर्णाश्रम धर्म ठीक ठीक बना रहा।   राम पिता की तरह सबका पालन करने लगे। धर्मनिष्ट इस राम राज्य में सब प्राणी सुखी हो गये, राम एक पत्नी व्रत थे इनके चरित्र राजऋषियों के समान थे। गृहस्थ के धर्मों को स्वयं करने लगे तथा औरों को दिखाने लगे और सीता ने प्रेम, सेवा, शीलता, नमृता, लज्जा बुद्धि आदि से अपने पति का भाव जानकर उनका मन अपने वश कर लिया ।   अगला अध्याय


नवीन सुख सागर

श्रीमद भागवद पुराण अध्याय १० [स्कंध ९ ]
श्री रामचन्द्र का चरित्र एवम वंश वर्णन।। (सम्पूर्ण रामायण)
(भागवद कथा)

दोहा - पहि दसवें अध्याय में, राम कथा सुखसार।।
ता पीषछे इक्ष्वाकु को वंश कथा बिस्तार।१०।


पिछले अध्याय में आपने पढ़ा


श्रीशुकदेवजी बोले-खटवांग का पुत्र दीर्घबाहु, दीर्घबाहु का रघु, पृथुश्रवा। रघु का अज और अज का पुत्र दशरथ हुआ।


दशरथ के घर साक्षात भगवान अपने अशांश से चार रूपों में विलक्त होकर प्रकट हुए इन चारों के नाम राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हुए इनका चरित्र वाल्मीकादि तत्वदर्शी मुनीश्वरों ने बहुत वर्णन किया है। आपने भी सुना परन्तु फिर भी संक्षेप से कहते हैं।

चरित्र 


राम ने अपने पिता के कहने से राज्य छोड़ दिया और सीता को लेकर वन-वन में फिरे। इनके रास्ते का श्रम हनुमानादिक कपीस और लक्ष्मण ने दूर किया और शूर्पणखा के नाक कान काट डाले। इतने में ही रावण इनकी प्राण प्रिय सीता को हर कर ले गया।

तब उसके विरहजन्य क्रोध से भृकुटियों को टेढ़ी कर समुद्र में खल बलाहट मचा दी और पुल बाँध लिया। ऐसे खलरूप बनको जलाने वाले श्रीराम हमारी रक्षा करे।

इन्होंने विश्वामित्र के यज्ञ में लक्ष्मण के देखते देखते पैने पैने वाणों के मारीचादि राक्षसों को मार गिराया। इन्हीं ने उस समाज में जहाँ संसार के बड़े-बड़े वीर एकत्र हुए थे, सीता के स्वयंवर के यज्ञ भूमि में रक्खे हुए धनुष को जो तीन सौ आदमियों से उठता था, खींचकर ऐसे तोड़ डाला जैसे हाथी को बच्चा खेल में ईख को तोड़ डालता है।


इस तरह गुण शील, वय, अग और रूप में अपनी अनुरूप सीता को जी बक्षस्थल में विराजमान लक्ष्मी का अवतार है, विवाह कर चले। तब रास्ते में उन परशुरामजी का गर्व खंडित कर दिया जिन्होंने इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन कर दिया था। स्त्री के वशीभूत सत्यपाश से दंधे हुए पिता की आज्ञा को सिर पर धारण कर रामजी.... राज्य, लक्ष्मी, मित्र, सुहृदय और महल मन्दिर को छोड़ सीता को साथ ले वनको ऐसे चले गये जैसे योगोजन संग रहित हो प्राणों को त्याग देते है।

रास्ते में रावण की बहिन शूर्पणखा ने आ घेरा, तब उस राक्षसी के नाक कान काटकर उसे विरूप कर दिया। उसने जाकर अपने दुःख को कथा अपने भाइयों से कही। त्रिशरा और दूशणादक उसके भाई चौदह सहस्त्र राक्षसों को लेकर चढ़ आये उन सबको मार भगाया। सीता के रूप की प्रशंसा सुन रावण ने मारीच को भेजा । वह कपट मृग का रूप धारण कर राम को बहुत दूर ले गया। वहाँ राम ने उस राक्षस को ऐसे मार गिराया जैसे रुद्र ने दक्ष को मारा था। इस अवसर में सीता को अकेली देख भेड़िये की तरह आकर उसे हर रावण कर ले गया। राम अपनी प्यारी के वियोग में भाई को साथ ले कृपण की तरह---- (स्त्रीसंगी पुरुषों की इसी तरह दशा होती है) लड़कर यह प्रगट करते हुए वन में ढूंढने लगे फिर रावण के साथ से सीता को बचाने के लिए जिस जटायु ने रावण से अपने प्राण त्याग दिये थे उसका दाह किया फिर कबंध को मार कर आगे बढ़े और बन्दरों से मित्रता की।
सुग्रीव के भाई बालि को मार कर बन्दरों द्वारा सीता की खोज कराई और बन्दरों के दलों को साथ ले समुद्र के तटपर आ गये। राम ने तीन दिन तक निराकार व्रत धारण कर समुद्र के बुलाने के लिये तप किया परन्तु समुद्र न आया तब लाल आंखे कर भृकुटी चढ़ा ली उस समय भय के मारे मकरादि सब जल जन्तुओं के श्वास रुक गये, समुद्र का शब्द बन्द हो गया तब भयभीत होकर समुद्र सिर पर पूजा की सामग्री रख भगवान के चरणों में गिर गिड़ा कर कहने लगा।



"हे भूमन् ! हमारी जड़ बुद्धि है, आप कूटस्थ आदि हैं, हम आपको नहीं जान सकते हैं, आप अपनी इच्छा के अनुकूल जाइये और विश्रवाॠषि के विष्ठा रूप त्रिलोकी को रोदन करने वाले रावण को मार वीर पत्नी सीता को ले आइये। मेरे जल पर आप पुल बांधिये इससे आपका यश विपुल हो जायगा।"



यह कह समुद्र तो चला गया और राम की आज्ञा से बड़े बड़े बन्दरों ने पर्वतों के बने शिखर लाकर डाल दिये। इस तरह पुल बाँध कर सुग्रीव, नील, हनुमानादि अनेक सेनापति विभीषण को बुद्धि के अनुसार बन्दरों की सेना लङ्का में घुस गई।


इसी लङ्का को हनुमान जी पहले गये थे। जब रावण ने यह दशा देखी तब उसने बड़े बड़े शूर सामन्त, कुम्भकरण के साथ युद्धस्थल में भेजे | जब यह दुर्जन सेना चली तब सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान, अगद जामवन्त आदि आदि बड़े २ सूरवीरों को लेकर राम भी जा पहुँचे । राम की सेना के बड़े बड़े यूथपाल रावण के जगपति, अश्वपति, रथी, महारथी आदि से जा भिड़े और रावण के सैन्यजनों को वृक्ष पर्वत गदा और वाणों से मारने लगे। जब रावण ने अपनी सेना को नष्ट होते हुए देखा तब क्रुद्ध हो पुष्पक विमान में बैठकर रामचन्द्र के सम्मुख आया, इधर इन्द्र ने अपने सारथी मातलि के साथ अपना रथ राम चन्द्र के लिए भेज दिया था इस पर राम बैठ गये।

रावण सन्मुख आकर बड़े २ पैने तीरों को प्रहार करने लगा राम उससे बोले----


"हे तू राक्षसों का विष्टारूप है तू कुत्ते की तरह शून्यस्थान में घुसकर मरे पिछाड़ी से सीता को हरलाय उस निन्दित कर्म का फल मैं तुझको अभी देता हूँ।"


तदनन्तर धनुष पर वज्र तुल्य बाण को चढ़ाय रावण के मारा जिससे उसका हृदय फट गया सौर दशों मुखों से रुधिर डालता हुआ विमान से गिरकर मर गया।


उसके मरने पर सहस्त्रों राक्षसों मन्दो दरी के साथ लङ्का से निकल कर रूदन करती हुई युद्धस्थल में आई । और लक्ष्मण के बाणों से मरे हुए अपने-अपने कुटुम्बियों को देख देख कर बड़ क्रन्दनस्वर से रोने लगी----


" हे रावण ! आपके भय से सम्पूर्ण लोक रोते थे, हे नाथ ! अब हमारा बड़ा अनर्थ हो गया है शत्रुओं से दमन की हुई अब यह लंका आप बिना किसकी शरण जायगी ?"


शुकदेवजी बोले- रामचन्द्र की आज्ञा से विभीषण ने संग्राम में मरे हुए राक्षसों की पितृमेघ की विधी से पारलौकिक क्रिया की। फिर राम ने अशोक वाटिका में जाकर शीशम के वृक्ष के नीचे बैठी हुई वियोगजन्य दुःख से कृशाँली सीता को देखा। राम ने अपने दर्शन से सीताजी के मुरझाये हुये मुख-कमल को खिला दिया और पुष्पक विमान में सीता तथा लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमानादि को बैठा कर और विभीषण को लङ्का का राज्य देकर, बनवास की अवधि पूर्ण होने पर रामचन्द्र अयोध्या को आये।

उस समय ब्रह्मादिक सब देवता उनका गुण गान कर रहे थे परन्तु जब राम ने सुना कि भाई भरत गोमूत्र में रांधकर जौ खाता है वृक्षों की छाल पहनता है, जटा धारण किये हुये है। और पृथ्वी में सोता है तब बहुत दुःखी हुए और जब भरत ने सुना कि राम आ रहे हैं तब भाई से मिलने के लिये पुरजन, मन्त्री, पुरोहित सबको साथ ले...... सिर पर रामचन्द्र की पादुकाओं को धर अपने निवास स्थान नंदिग्राम से राम के सम्मुख आये।

भरतजी श्री राम के पैरों में जा पड़े, प्रेम से हृदय भर गया फिर पादुकाओं को आगे रख हाथ जोड़ नेत्रों में आँसू भर खड़े हो गये।

तब राम ने दोनों हाथों से भरत को छाती से लगा लिया उस समय रामचन्द्र के नेत्रों से जल की ऐसी वर्षा हुई कि भरत जी तर हो गये तदनन्तर बड़ों को आपने नमस्कार किया।
सब प्रजा ने उन को नमस्कार किया। बहुत दिन में आये हुए अपने स्वामी को देख कर आनन्द में मग्न हो अपने दुपट्टों को फिराने लगे। उत्तर कोशल देश के लोग फूलों की वर्षा करते।


लक्ष्मण ने छत्र, शत्रुघ्न ने धनुष और तर्कस तथा सीता ने कमण्डलु लिया। अंगद ने खड़ग जाम्बवंत ने ढाल उठाली, उस समय स्त्रियों सहित बन्दीगण प्रशंसा कर रहे थे।

पुष्पक में बैठे हुए रामचन्द्र की अपूर्व शोभा हो रही थी। इस तरह भाइयों के सम्मान के साथ पुरी में प्रविष्ट हुए। राज भवन में जाकर कैकेयी से मिले, सीता और लक्ष्मण भी यथा योग्य सबसे मिले फिर माता भी अपने पुत्रों से उठकर मिलने लगी जैसे प्राणों के आने से शरीर उठता है और गोदियों में बैठाकर आँसु की धारा बहाने लगी।

तदनन्तर वशिष्ठजो ने कुल वृद्धों के साथ श्रीराम की जटाओं को दूर कराकर चारों समुद्रों के जल से विधिवत् उसी तरह अभिषेक किया जैसे वृहस्पति ने इन्द्र का अभिषेक कराया था। भरत के प्रणाम करने से राम ने प्रसन्न हो राज्यासन ग्रहण किया, इनके शासन काल में प्रजा अपने धर्म में रत रही और वर्णाश्रम धर्म ठीक ठीक बना रहा।

राम पिता की तरह सबका पालन करने लगे। धर्मनिष्ट इस राम राज्य में सब प्राणी सुखी हो गये, राम एक पत्नी व्रत थे इनके चरित्र राजऋषियों के समान थे। गृहस्थ के धर्मों को स्वयं करने लगे तथा औरों को दिखाने लगे और सीता ने प्रेम, सेवा, शीलता, नमृता, लज्जा बुद्धि आदि से अपने पति का भाव जानकर उनका मन अपने वश कर लिया ।


अगला अध्याय

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।

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_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


The events, the calculations, the facts aren't depicted by any living sources. These are completely same as depicted in our granths. So you can easily formulate or access the power of SANATANA. Jai shree Krishna.🙏ॐ 


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 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। 

 Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!

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