श्रीमद भागवद पुराण नौवां अध्याय स्कंध [९] भागवद कथा।। गंगा का धरती पर आगमन
।। श्री गणेशाय नमः।।
- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
- ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।
- ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।
- ॐ विष्णवे नम:
- ॐ हूं विष्णवे नम:
- ॐ आं संकर्षणाय नम:
- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम:
- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम:
- ॐ नारायणाय नम:
- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्टं च लभ्यते।।
ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥
धर्म कथाएं
Bhagwad puran
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]
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श्रीमद भागवद पुराण नौवां अध्याय स्कंध [९] गंगा का धरती पर आगमन।। राजा खटवांग की कथा।।
पिछले अध्याय में आपने पढ़ा
नवीन सुख सागर
श्रीमद भागवद पुराण नौवां अध्याय स्कंध [९]
( भागीरथ का गंगानयन)
दोहा-नृपति, भागीरथ गंग लै कियो पित्र उद्धार।
सो नवमें अध्याय में वर्णी कथा सभार ||
श्रीशुकदेवजी बोले- अंशुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये बड़ा तप किया। पर फल सिद्ध न हुआ और अन्त में उसको काल ने ग्रस लिया। इसी तरह इसका पुत्र दिलीप भी बहुत दिन तक तप करने के पश्चात् गंगा के लाने में असमर्थ हो कालग्रस्त हो गया।
तब इसका पुत्र भगीरथ घोर तप करने लगा गंगा ने इस पर प्रसन्न हो इसको दर्शन किया और कहने लगी कि वर मांग......, तब इसने प्रणाम कर अपना अभिप्राय प्रगट किया।
गंगाजी बोली----
"हे राजन् ! आकाश से आने के समय मेरे बेग को कौन सहेगा ? मैं पृथ्वी पर कैसे आऊ, क्योंकि पापी लोग मुझमें पाप धोवेंगे फिर उस पाप को मैं कहाँ धोऊंगी।"
तब भागीरथ बोले----
"लोक पावन सन्यासी, शान्त ब्रह्मनिष्ठ योगीजन तेरे जल में स्नान कर करके अपने अगसंग से तेरा पाप दूर करेंगे क्योंकि नाशक हरि भगवान उनमें विराजमान हैं। तेरे वेग को शङ्करजी धारण करेंगे क्योंकि यह जगत उनमें ऐसा ओत प्रोत है जैसे वस्त्र धागे हैं।"
यह कह उस राजा ने फिर घोर तप कर शिव की आराधना की और बहुत थोड़े ही काल में शिवजी उस पर प्रसन्न हो गये और शिव ने राजा के कहे हुए को अंगकार कर हरि चरणों के स्पर्श से पवित्र गंगा जल को शिर पर धारण कर लिया।
तब भागीरथ लोक पावनी गाजी की धार को वहाँ ले गये जहां पित्तरों की भस्म के ढेर लग रहे थे । ब्रह्मशाप से मरे हुए भी सगर के पुत्र गंगाजल से अपनी देह की भस्म का केवल स्पर्श हो जाने से हो स्वर्ग को चले गये।
इस भागीरथ के श्रुत नामक पुत्र हुआ, इसके नाभ, नाभ का सिंधुद्वीप,सिंधुद्वीप का आयुतायु हुआ। आयुतायु के ऋतुपर्ण हुआ, ऋतुपर्ण के पुत्र का नाम सर्वकाम था। सर्वकाम के सुदास और सुदास के सौदास हुआ यह मदयन्ती का पति था। कोई इसे मित्रसह कोई कल्माषांध्रि भी कहते थे।
उसको वशिष्ठजी ने शाप दे दिया था इससे यह राक्षस हो गया और अपने कर्मों के कारण नि:सन्तान रह गया था।
परीक्षित ने पछा-सौदास महात्मा को गुरु के शाप का क्या कारण था यदि इसमें कोई गूढ़ बात न हो तो कह दीजिये।
राजा खटवांग की कथा।।
शुकदेवजी बोले--सौदास ने एक दिन शिकार खेलने में एक राक्षस को मार डाला और उसके भाई को छोड़ दिया वह राजा से बदला लेने के लिये प्रयत्न करने लगा और राजा का बुरा करने के लिये रसोइया को रूप रख कर राज भवन में रहने लगा। एक दिन वशिष्ठ जी को भोजन के लिये मनुष्य को पकाकर ले आया वशिष्ठ ने उस अभक्षय मांस को देख क्रुद्ध हो राजा को शाप दिया कि तू राक्षस हो जायगा। जब वशिष्टजी को यह मालुम हुआ कि यह कर्म राक्षस का किया हुआ है राजा ने नहीं किया है तब अपना वाक्य असत्य न होने के निमित्त यह शाप बारह वर्ष पर्यन्त हो रहेगा ऐसा कह दिया । तब राजा भी जल ले गुरु को शाप देने के लिए उद्यत परन्तु जो शाप हो गया है वह दूर नहीं होगा तथा गुरु का अपमान करने से दूसरा एक और अनर्थ हो जायगा ऐसा जानने वाली उसकी मदयन्ती रानी ने रोक दिया और उस जलको उसने अपने पांवों पर डाल दिया। उस जल से इसके पांव काले पड़ गये इसलिये इसको कल्मषाँर्धी भी कहते हैं।
राजा राक्षस होकर घूमने लगा। एक दिन इसने बनवासी ब्राह्मण ब्राह्मणी को मैथुन करते देखा। यह भूख से बड़ा व्याकुल था इसने खाने के लिये ब्राह्मण को पकड़ लिया।
ब्राह्मणी गिड़ गिडाकर कहने लगी-आप राक्षस नहीं हैं आप तो साक्षात इक्ष्वाकु कुल भूषण महारथी हैं आपको अधर्म करना उचित नहीं है, मैं पुत्र की इच्छा से रमण में प्रवृत्त थी मेरी इच्छा पूर्ण नहीं हुई है, इससे मेरा पति मुझको दे दीजिये । हे राजर्षि ! आप इस महर्षि को मारना किस तरह धर्म समझते है। क्या पुत्र को पिता का मारना धर्म नहीं है ? साधुजनों के माननीय आप इस साधु, निष्पाप, वेदवक्ता का वध करने का मन में भी कैसे विचार करते हो ? किन्तु जैसे गौ का वध करने का मन में विचार करना भी अयोग्य है, ऐसे ही यह भी तुमको अयोग्य है । जो आप इसका भक्षण करना चाहते हो तो पहिले मेरा भक्षण करलो, इसके बिना में एक क्षण भर भी जीती न रही।
इस तरह वह अनाथ की तरह विलाप करती रही और सौदास शाप के कारण उसके देखते देखते उसे ऐसे खा गया जैसे व्याघ्र पशु को चबा जाता है । जब ब्राह्मणी ने देखा कि मेरे गर्भ दाता को राक्षस खा गया तब अपने पति के निमित्त शोक करने वाली उस पतिव्रता ने क्रोधित हो राजा को महान श्राप दिया कि---
तुमने मुझ काम पीड़ित का पति खा लिया है। हे नीच ! तेरी भी मृत्यु स्त्री के समागम के काल में होगी।
इस तरह मित्रसह को शाप देकर वह ब्राह्मणी अपने पति की हडिड्यों को इकठठी कर चिता पर रख भस्म होकर पतिलोक को चली गई।
बारह वर्ष पीछे शाप से छूटकर जब राजा मैथुन करने के लिए उद्यत हुआ तब ब्राह्मणी के कारण रानी ने रोक दिया। तब से राजा ने स्त्री सुख को परित्याग कर दिया और इस कर्म से निःसन्तान रह गया तब राजा की आज्ञा से वशिष्ठ ने मदयन्ती में गर्भ रक्खा परन्तु सात वर्ष तक बालक ने जन्म न लिया तब वशिष्ठजी ने रानी के उदर में पत्थर मारा तब पुत्र उत्पन्न हुआ इससे उसका नाम अश्मक पड़ गया।
अश्मक के पुत्र का नाम मूलक था इसको स्त्रियों ने छिपा लिया था इससे इसका नाम नारी कवच हो गया। यह बालक क्षत्रीहीन भूमि में क्षत्रियों के वंश का मूल हुआ था उससे इसको मूलक कहने लग गये थे।
इससे दशरथ, दशरथ के ऐडविड, ऐडविड के विश्वसह और विश्वसह के खटवांग हुआ । देवता ने इस राजा से प्रार्थना की कि तब इसने युद्ध में दैत्यों को मार भगाया और जब इसको मालूम हुआ कि मेरी अब केवल दो घड़ी रह गई है तब अपने पुर में आकर अपना मन इसने परमेश्वर में लगा दिया और कहने लगा----
"मुझको मेरे कुलदेव 4 ब्राह्मणों के वंश से अधिक प्राण व पुत्र कुछ प्रिय नहीं है मुझे न लक्ष्मी, न पृथ्वी, न राज्य, न रानी प्यारी है। बाल्यावस्था में भी मेरी रुचि कभी अधर्म में नहीं लगी मैं भगवान के सिवाय और किसी वस्तु को नहीं देखता हूँ। देवताओं ने मुझको अभीष्ट देने के लिये कहा, परन्तु मैंने परमेश्वर का निवास मन में होने से वर न मांगा। विक्षिप्तेन्द्रिय बुद्धि वाले देवता लोग जब स्वयं ही हृदयस्थ भगवान को नहीं जानते हैं तब और तो कहां से जान सकते हैं। इसलिये मैं गन्धर्व नगर के समान मिथ्या दृश्य मान भगवान की माया से रचित गुणों से युक्त संसार में जो मेरा मन लग रहा है, उस बन्धन को भगवान की कृपा से तोड़ कर उन्हों की शरण जाता हूँ।"
इस प्रकार खटवांग देहादि में मिथ्या अभिमान का परित्यागकर आत्मभाव में लीन हो गया।
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।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।
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_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_
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श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।
Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉
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