श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध ९](सम्पूर्ण रामायण)  श्री रामचन्द्र का यज्ञादि अनुष्ठान।।राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का वंश वर्णन।।

।। श्री गणेशाय नमः।।

-  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 

-  ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।  

-  ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि। 

-  ॐ विष्णवे नम: 

 - ॐ हूं विष्णवे नम: 

- ॐ आं संकर्षणाय नम: 

- ॐ अं प्रद्युम्नाय नम: 

- ॐ अ: अनिरुद्धाय नम: 

- ॐ नारायणाय नम: 

- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान। यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।। 

ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 

ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥

धर्म कथाएं

Bhagwad puran

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

▲───────◇◆◇───────▲▲───────◇◆◇───────▲▲───────◇◆◇───────▲


श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध ९](सम्पूर्ण रामायण)  श्री रामचन्द्र का यज्ञादि अनुष्ठान।।राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का वंश वर्णन।।नवीन सुख सागर   श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध ९](सम्पूर्ण रामायण)  श्री रामचन्द्र का यज्ञादि अनुष्ठान।।राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का वंश वर्णन।।   दोद्दा-यज्ञादिक जो किये राम सह भ्रात। या गैरहे अध्याय में कथा सोई दरशाय॥     श्रीशुकदेवजी बोले- रामचन्द्र ने उत्तम सारथियों से युक्त यज्ञ का प्रारम्भ सर्व देवमय अपनी आत्मा के पूजन करने का विचार किया। तब ही होता को पूर्व दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण दिशा, अर्ध्वयु को पश्चिम दिशा और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी।  दिशाओं के मध्य की सब भूमि आचार्य को दे दी।   क्योंकि रामचन्द्रजी नि:स्पृह थे और यह जानते थे कि यह सब भूमि ब्राह्मणों ही के योग्य है।   इसी तरह सीता ने भी सोभाग्य सूचक वस्त्राभरणों के अतिरिक्त कुछ न रक्खा।   वे सब ब्राह्मण राम का अपने ऊपर ऐसा वात्सल्य भाव देखकर बड़े प्रसन्न हुए और लिया हुआ राज्य रामचन्द्र को फिर देकर कहने लगे।   "हे भगवान ! ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो आपने हम को न दी हो । आपने हमारे हृदय में प्रवेश करके अपनी कान्ति से हमारे हृदयस्थ अन्धकार को दूर कर दिया है।"   एक दिन अधेरी रात में राम भेष बदले हुए प्रजा की दशा देखत हुए थे उस समय कोई मनुष्य अपनी स्त्री से अप्रसन्न हो कह रहा था कि तू दुष्टा और असती है मेरी आज्ञा के बिना तू पराये घर चली गई थी मैं तुझको अब अपने घर में कदापि नहीं रक्खूँगा, स्त्री का लोभी राम है वह सीता को ही रखले परन्तु मैं तुमको नहीं रख सकता।   लोगों के मुख से इस दुरापवाद को सुनकर रामचन्द्र ने सीता को परित्याग कर दिया और वह वाल्मीकि के आश्रम में चली गई। सीता गर्भवती थी, ठीक समय पर इससे दो जोड़ले पुत्र हुए, ये लवकुश के नाम से, विख्यात हुए, इनके नाम करणादि संस्कार सब वाल्मीकि ऋषि ने स्वयं किये थे।   लक्ष्मण के पुत्रों का नाम अंगद और चित्रकेतु था तथा भरत के पुत्रों के नाम तक्ष और पुष्कल थे। शत्रुध्न के पुत्र सुबाहु और श्रुतसेन हुए ।    भरत ने दिग्विजय में करोड़ गन्धर्वो को मार गिराया उनका धन ला लाकर सब रामचन्द्र को दे दिया, शत्रुध्न ने मधु के पुत्र लवणासुर को मधु वन में मारकर मथुरापुरी बसाई थी, रामचन्द्र से निकाली हुई सीता बाल्मीकि को दोनों पुत्र देकर अपने पति के चरणों में ध्यान लगा कर पृथ्वी में समा गई।   रामचन्द्रजी ने यह समाचार सुन अपनी बुद्धि से शोक को रोका। परन्तु जब उसके गुण की याद आई तब शोक न रोक सके।   यह पति पत्नी का वियोग ऐसा ही होता है। सीता के पृथ्वी में प्रवेश होने के पश्चात रामचन्द्र ने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया, तेरह सहस्त्र वर्ष तक अखण्डित अग्निहोत्र करते रहे। फिर दंडक बन के कांटों से विधे हुए अपने चरणों को भक्तों के हृदय में स्थापित कर आत्मज्योति में लीन हो गये।    जिन रामचन्द्र ने देवताओं की प्रार्थना से लीलावपु धारण किया था, उनका प्रभाव सामान्य नहीं था........शस्त्रों से राक्षसों को नष्ट किया, समुद्र में पुल बांधा! क्या ये सब बातें कुछ बड़ी नहीं थी! शत्रुओं के मारने में बन्दर उनकी क्या सहायता कर सकते थे, ये सब क्रीड़ा मात्र थी।   हे राजन ! कौशल देश वासियों ने रामचन्द्र का स्पर्श किया, दर्शन किया संग बैठे, पीछे पीछे चले वे सब उस स्थान को गये जहाँ योगीजन जाते हैं। जो मनुष्य रामचन्द्रजी के यशों को कानों से सुनता है, वह शान्तिनिष्ठ पुरुष कर्म बन्धनों से छूट जाता है।   परीक्षित ने पूछा-हे प्रभो ! रामचन्द्र ने भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया सो कहिये ।   श्रीशुकदेव जी बोले- रामचन्द्र ने भाइयों को दिग्विजय करने की आज्ञा दी। स्वयं भी लोगों से मिलने भेंटने को अपने साथियों सहित पुरी को देखने जाया करते थे । यह पुरी सुगंधित द्रव्यों के जल और हाथियों के मद से मार्ग में छिड़काब हो जाने के कारण ऐसी मालुम होने लगती थी कि अपने स्वामी के आने से निरंतर मदोन्मत्त हो रही है। जहाँ जहाँ रामचन्द्र जाते थे वहाँ वहां पुरवासी लोग भेंट लेकर आते थे और यह आशीर्वाद देते थे कि जैसे पहिले बाराहरूप धारण कर पृथ्वी का उद्धार किया था उसी तरह अब भी इसको रक्षा कीजिये। अपने स्वामी को बहुत दिन पीछे आया जान स्त्री पुरुष घर छोड़ कोठे कोठरी छज्जों पर चढ़कर फूलों की वर्षा करके प्यासे नेत्रों की तृष्णा बुझाने लगते । तदुपरान्त अपने लोगों के साथ राज भवन में आते जहाँ अनन्त रत्नों के कोष भण्डार आदि आदि भरे हुए थे।    ये महल ऐसे बने हुए थे कि इनमें मूगों की देहली थीं वज्र्य मणि के स्तम्भ थे, मरकत मणि के स्थल और स्फटिक मणियों की भीत थीं। इन घरों में राम रामचन्द् प्राण प्यारी सीता के साथ रमण करने लगे। इस तरह धर्म का प्रतिपालन करते हुए रामचन्द्र बहुत दिनों तक भाइयों सहित अनेक भोगो को भोगते रहे और सब प्रजाजन उनके चरणों का ध्यान रखते रहे।    ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।   ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

नवीन सुख सागर


श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवां अध्याय [स्कंध ९](सम्पूर्ण रामायण) श्री रामचन्द्र का यज्ञादि अनुष्ठान।।राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का वंश वर्णन।।


दोद्दा-यज्ञादिक जो किये राम सह भ्रात।
या गैरहे अध्याय में कथा सोई दरशाय॥


पिछले अध्याय में आपने पढ़ा


श्रीशुकदेवजी बोले- रामचन्द्र ने उत्तम सारथियों से युक्त यज्ञ का प्रारम्भ सर्व देवमय अपनी आत्मा के पूजन करने का विचार किया। तब ही होता को पूर्व दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण दिशा, अर्ध्वयु को पश्चिम दिशा और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी। दिशाओं के मध्य की सब भूमि आचार्य को दे दी।

क्योंकि रामचन्द्रजी नि:स्पृह थे और यह जानते थे कि यह सब भूमि ब्राह्मणों ही के योग्य है।


इसी तरह सीता ने भी सोभाग्य सूचक वस्त्राभरणों के अतिरिक्त कुछ न रक्खा।

वे सब ब्राह्मण राम का अपने ऊपर ऐसा वात्सल्य भाव देखकर बड़े प्रसन्न हुए और लिया हुआ राज्य रामचन्द्र को फिर देकर कहने लगे।

"हे भगवान ! ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो आपने हम को न दी हो । आपने हमारे हृदय में प्रवेश करके अपनी कान्ति से हमारे हृदयस्थ अन्धकार को दूर कर दिया है।"

एक दिन अधेरी रात में राम भेष बदले हुए प्रजा की दशा
देखत हुए थे उस समय कोई मनुष्य अपनी स्त्री से अप्रसन्न हो कह रहा था कि तू दुष्टा और असती है मेरी आज्ञा के बिना तू पराये घर चली गई थी मैं तुझको अब अपने घर में कदापि नहीं रक्खूँगा, स्त्री का लोभी राम है वह सीता को ही रखले परन्तु मैं तुमको नहीं रख सकता।


लोगों के मुख से इस दुरापवाद को सुनकर रामचन्द्र ने सीता को परित्याग कर दिया और वह वाल्मीकि के आश्रम में चली गई।

सीता गर्भवती थी, ठीक समय पर इससे दो जोड़ले पुत्र हुए, ये लवकुश के नाम से, विख्यात हुए, इनके नाम करणादि संस्कार सब वाल्मीकि ऋषि ने स्वयं किये थे।


लक्ष्मण के पुत्रों का नाम अंगद और चित्रकेतु था तथा भरत के पुत्रों के नाम तक्ष और पुष्कल थे। शत्रुध्न के पुत्र सुबाहु और श्रुतसेन हुए ।



भरत ने दिग्विजय में करोड़ गन्धर्वो को मार गिराया उनका धन ला लाकर सब रामचन्द्र को दे दिया, शत्रुध्न ने मधु के पुत्र लवणासुर को मधु वन में मारकर मथुरापुरी बसाई थी, रामचन्द्र से निकाली हुई सीता बाल्मीकि को दोनों पुत्र देकर अपने पति के चरणों में ध्यान लगा कर पृथ्वी में समा गई।

रामचन्द्रजी ने यह समाचार सुन अपनी बुद्धि से शोक को रोका। परन्तु जब उसके गुण की याद आई तब शोक न रोक सके।

यह पति पत्नी का वियोग ऐसा ही होता है। सीता के पृथ्वी में प्रवेश होने के पश्चात रामचन्द्र ने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया, तेरह सहस्त्र वर्ष तक अखण्डित अग्निहोत्र करते रहे। फिर दंडक बन के कांटों से विधे हुए अपने चरणों को भक्तों के हृदय में स्थापित कर आत्मज्योति में लीन हो गये।



जिन रामचन्द्र ने देवताओं की प्रार्थना से लीलावपु धारण किया था, उनका प्रभाव सामान्य नहीं था........शस्त्रों से राक्षसों को नष्ट किया, समुद्र में पुल बांधा! क्या ये सब बातें कुछ बड़ी नहीं थी! शत्रुओं के मारने में बन्दर उनकी क्या सहायता कर सकते थे, ये सब क्रीड़ा मात्र थी।

हे राजन ! कौशल देश वासियों ने रामचन्द्र का स्पर्श किया, दर्शन किया संग बैठे, पीछे पीछे चले वे सब उस स्थान को गये जहाँ योगीजन जाते हैं। जो मनुष्य रामचन्द्रजी के यशों को कानों से सुनता है, वह शान्तिनिष्ठ पुरुष कर्म बन्धनों से छूट जाता है।



परीक्षित ने पूछा-हे प्रभो ! रामचन्द्र ने भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया सो कहिये ।

श्रीशुकदेव जी बोले- रामचन्द्र ने भाइयों को दिग्विजय करने की आज्ञा दी। स्वयं भी लोगों से मिलने भेंटने को अपने साथियों सहित पुरी को देखने जाया करते थे । यह पुरी सुगंधित द्रव्यों के जल और हाथियों के मद से मार्ग में छिड़काब हो जाने के कारण ऐसी मालुम होने लगती थी कि अपने स्वामी के आने से निरंतर मदोन्मत्त हो रही है। जहाँ जहाँ रामचन्द्र जाते थे वहाँ वहां पुरवासी लोग भेंट लेकर आते थे और यह आशीर्वाद देते थे कि जैसे पहिले बाराहरूप धारण कर पृथ्वी का उद्धार किया था उसी तरह अब भी इसको रक्षा कीजिये। अपने स्वामी को बहुत दिन पीछे आया जान स्त्री पुरुष घर छोड़ कोठे कोठरी छज्जों पर चढ़कर फूलों की वर्षा करके प्यासे नेत्रों की तृष्णा बुझाने लगते । तदुपरान्त अपने लोगों के साथ राज भवन में आते जहाँ अनन्त रत्नों के कोष भण्डार आदि आदि भरे हुए थे।


ये महल ऐसे बने हुए थे कि इनमें मूगों की देहली थीं वज्र्य मणि के स्तम्भ थे, मरकत मणि के स्थल और स्फटिक मणियों की भीत थीं। इन घरों में राम रामचन्द् प्राण प्यारी सीता के साथ रमण करने लगे। इस तरह धर्म का प्रतिपालन करते हुए रामचन्द्र बहुत दिनों तक भाइयों सहित अनेक भोगो को भोगते रहे और सब प्रजाजन उनके चरणों का ध्यान रखते रहे।

अगला अध्याय


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम अध्याय समाप्तम🥀।।

༺═──────────────═༻
༺═──────────────═༻
_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

The events, the calculations, the facts aren't depicted by any living sources. These are completely same as depicted in our granths. So you can easily formulate or access the power of SANATANA. Jai shree Krishna.🙏




 ▲───────◇◆◇───────▲


 श्रीमद भागवद पुराण वेद व्यास जी द्वारा रचित एक मुख्य ग्रंथ है। एक बार सुनने या पढ़ने से किसी भी ग्रंथ का सार अंतकरण में बैठना सम्भव नहीं। किंतु निरंतर कथाओं का सार ग्रहण करने से निश्चय ही कृष्ण भक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म ग्रंथों का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए। 


 Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com Suggestions are welcome!
Previous Post Next Post