परीक्षित राजा के जन्म कर्म और मुक्ति की कथा।।

धर्म कथाएं

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
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श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६

श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ७

श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ८


श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का सप्तम आध्यय [स्कंध १]

(परीक्षित जन्म कथा)

दो:अवस्थामा जिमि हने सोवत द्रोपदी लाल। सो सप्तम अध्याय में वर्णों चरित्र रसाल ।७।











नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।

शौनक जी पूछने लगे कि हे सूतजी! इस प्रकार नारद मुनि के अभिप्राय को सुनने वाले वेदव्यास ने नारद मुनि के गये पीछे क्या किया? 





सूतजी बोले-हे ऋषीश्वरो! सरस्वती नदी के पश्चिमतटपर आश्रम था, उसको शम्याप्रास कहते हैं। वह ऋषि लोगों के यज्ञ को बढ़ाने वाला है। उस आश्रम में तपोमूर्ति वेद व्यास अपने मन को स्थिर करके नारदजी के उपदेश का ज्ञान करने लगे। भक्ति योग करके अच्छे निर्मल हुए निश्चय मन में पहले तो परमेश्वर को देखा फिर तिन्हों के अधीन रहने वाली माया को देखा। श्रीपरमेश्वर की भक्ति करना यही साक्षात अनर्थ शान्त होने का उपाय है। इसके नहीं जानने वाले मनुष्यों के कल्याण करने वाले विद्वान् वेदव्यास जी ने भागवत संहिता सुनना आरंभ किया।

 जिस भागवत संहिता के सुनने से सन्सरी जिवों के शोक, वृद्धावस्था दूर होते हैं। उसे वेद व्यास जी ने आत्मज्ञानी शुकदेवजी को पढ़ाया।

सूतजी कहने लगे, हे! ऋषिवरों जो कि आत्माराम मुनि हैं, वे किसी ग्रन्थ को पढ़ने की इष्छा नही रखते हैं, अथवा उनके हृदय में अज्ञान रूप ग्रन्थि नही रहती, तो भी परमेश्वर की भक्ति किया करते है, क्योंकि हरि भगवान के गुण ऐसे ही है । भगवान के गुणों से खिचे हुए मन वाले शुकदेव मुनि विष्णु भक्तजनों के साथ प्रीति व सत्सङ्गति करने की बहुत इच्छा रखते थे इसलिये बहुत बड़ी इस भागवत संहिता को पढ़ने लगे।

हे ऋषीश्वरो ! अब मैं परीक्षित राजा के जन्म कर्म और मुक्ति को और जिससे श्रीकृष्ण महाराज की कथा का प्रसङ्ग चलेगा ऐसी पांडवों को हिमालय में जाने की यात्रा कहूँगा। 

जिस वक्त कौरव पांडवों का युद्ध होने लगा और शूरवीर लोग सन्मुख मर मर के स्वर्ग में पहुंचने लगे तब भीमसेन की गदा लगने से दुर्योधन की दोनों जांघ टूट गई। तब द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने विचार कर देखा कि मेरे स्वामी दुर्योधन की प्रसन्नता इस बात से होगी। ऐसा निश्चय कर सोते हुये द्रोपती के पाँचों बालकों के शिर उतार लाया। तब उसका यह काम दुर्योधन को भी बहुत बड़ा मालूम हुआ क्योंकि सभी मनुष्य निन्दित काम की बुराई करते हैं बालकों की माता द्रोपती अपने पुत्रों का स्मरण सुनकर बड़ी दुखी हुई और नेत्रों में जल भरकर रोने लगी। तब मुकुटधारी अर्जुन तिसको समझाकर कहने लगे। हे प्रिय ! जब मैं अपने धनुष से छोड़े हुए पेने वाणों करके ब्राह्मणों में अधम अस्त्रधारी उस अश्वत्थामा का शिर उतार कर तेरे पास लाऊं, और दग्ध पुत्रों वाली तू उस शिर पर बैठकर स्नान करे, तब तेरे शोक के आंसुओं को दूर करेगा।


 इस तरह प्रिया को शान्त कर वह अर्जुन श्रीकृष्ण भगवान को रथ का सारथी बना, कवच पहिन, धनुष धारण कर रथ पर चढ अश्वत्थामा के पीछे दौड़। तब आते हुए उसी अर्जुन को दूर से देखकर बालहत्या करने वाला, विक्षित, अश्वतामा अपने प्राण बचाने के वास्त्ते रथ में बैठ कर जितनी सामर्थ थी वहां तक पृथ्वी पर दोड़ा, जैसे कि शिवजी के भय से ब्रह्माजी दौडे थे, अथवा सूर्य देव भागे थे।

 जब द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने अपनी रक्षा करने वाला कोई नहीं देखा और उसके घोड़े थक गये तब अश्वत्थामा ने अपनी रक्षा करने वाला ब्रह्मास्त्र को जाना, तब जल स्पर्श कर सावधान होकर अश्वत्थामा ने उस ब्रह्मास्त्र को अर्जुन के ऊपर छोड़ दिया यद्यपि अश्वत्थामा उस ब्रह्मास्त्र को लोटाना नहीं जानता था। फिर ब्रह्मास्त्र से सब दिशाओं में बड़ा प्रचण्ड तेज फैला। 

उसे देख अपने प्राणों की विपत्ति आई जानकर अर्जुन श्रीकृष्ण से बोला-हे कृष्ण ! हे महाभाग! हे भक्तों के रक्षक, हे आदि पुरुष, हे देवों के देव ! जो परम दारुण तेज सब दिशाओ में फैला हुआ आता है सो क्या है ? और कहाँ से आया है?


श्रीकृष्ण भगवान कहने लगे-हे अजुन! इसको द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र जानो। इस दारुण तेज को तुम अपने ब्रह्मास्त्र के तेज करके नष्ट कर।

 सूतजी कहते हैं-शत्रुओं को नष्ट करने वाले अर्जुन ने इस प्रकार भगवान के वचन को सुनकर जलका स्पर्श कर, श्रीकृष्ण को परिक्रमा कर, उस ब्रह्मास्त्र के दूर करने को अपने ब्रह्मास्त्र को छोड़ा तो वो दोनों अस्त्र आपस में भिड़ गये। तब उन दोनों वाणों के तेज से स्वर्ग तथा पृथ्वी व आकाश घिर गया। इस प्रकार त्रिलोकी को दग्ध करते हुए महान उन अस्त्रों के तेज को देख कर जलती हुई सब प्रजा ने ये माना कि ये प्रलयकाल की अग्नि कहाँ से आई फिर लोगों के नाश और प्रजा के घोर उपद्रव को देख कर, श्री कृष्ण भगवान के मन को जानकर अर्जुन, ने उन दोनों अस्त्रों का परिहार किया। 

पीछे अर्जुन ने तुरन्त ही अश्वत्थामा को पकड़ लिया, और क्रोध से लाल नेत्र कर उसे इस प्रकार बांध लिया कि जैसे रस्सी से पशु को बाँधते है । रस्सी से बांधकर उस शत्रु को जब बल करके घेरे में लाने लगा।


श्रीकृष्ण भगवान परीक्षा लेने के वास्ते बोले---


---हे अर्जुन ! शस्त्रधारी इस अधम ब्राह्मण को तुम मार दो, क्योंकि इस दुष्ट ने रात्रि समय सोते हुए निरापराधी बालकों को मारा। इस अत्यायी के मारने में दोष नहीं हैं। और तुमने मेरे सुनते हुए द्रोपदी के आगे प्रतिज्ञा की है, कि हे प्रिय ! तेरे पुत्रों को मारने वाले के शिर को उतार लाऊगा। इसलिये अपने बन्धुओं को मारने वाला यह पापी अपराधी दुष्ट मरना ही चाहिये । हे वीर ! अपने कुल को दाग लगाने वाला यह दुष्ठ अपने मालिक दुर्योधन को भी सुखी नहीं कर सका । 

इस प्रकार श्री कृष्ण भगवान के प्रमाण करने पर भी भगवान के मन की बात को समझने वाले अर्जुन ने गुरु के पुत्र को नहीं मारा। 


इसके अनन्तर अर्जुन ने अपने डेरे में पहुँचकर मरे हुये पुत्रों का शोक करती हुई द्रौपदी को वह अश्वत्थामा सौंप दिया। इस प्रकार से पकड़ के लाया हुआ, पशु को तरह बाँधा हुआ, और अपने निन्दित कर्न से नीचे को मुख किये, ऐसा अपराधी उस गुरु के पुत्र अश्वत्थामा को देखकर सुन्दर स्वभाव वाली द्रौपदी ने उसे प्रणाम किया, और अर्जुन से बोली-



---कि हे प्राणप्रिय ! इसको छोड़ दो, ब्राह्मण तो सदा ही गुरु होते हैं। आपने जिनके अनुग्रह से धनुष विद्या तथा अस्त्र प्रयोग सीखा है, वह द्रोणाचार्य ही पुत्र रूप करके यह विद्यमान हैं। इस शूरवीरकी माता कृपी पति के सङ्ग सती भी नहीं हुई है। इसलिए महभाग! तुमको गुरु कुल को दुख नहीं देना चाहिये और गौतम वंश में होने वाली पतिव्रता उसके माता भी ऐसे न रोवे कि जैसे मृत पुत्रों से मैं बारम्बार आँसू गिरा के रोती हूँ।
जिन अजितेन्द्रिय राजा लोगों ने ब्राह्मणों का कुल कुपित किया है, तो फिर शोक से व्याकुल हुआ वह ब्राह्मणों का कुल उन राजाओं के कुल को परिवारसहित भस्मकर देता हूँ । 


धर्म से युक्त, न्याय से युक्त, करुणा सहित, निष्कपट, महत गुण युक्त ऐसे छः प्रकार के धर्म सम्बन्धी द्रोपदी के वचन सुनकर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर उन वचनों को सराहने लगे। 

फिर वहां भीष्म सेन क्रोध करके बोला कि इस अन्याई ने न तो स्वामी के अर्थ और ने अपने ही अर्थ कुछ भला चाहा किन्तु इसने सोते हुए बालको को वृथा ही मार डाला है इसलिये इसका मारना ही अच्छा है, नहीं ये नरकादिकों के दुःख को भोगेगा । 

श्री कृष्ण के वस्त्रावतार का रहस्य।।


Most of the hindus are confused about which God to be worshipped. Find answer to your doubts.



हम किसी भी व्यक्ति का नाम विभीषण क्यों नहीं रखते ?


How do I balance between life and bhakti? 


 मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?


यज्ञशाला में जाने के सात वैज्ञानिक लाभ।। 


सनातन व सिखी में कोई भेद नहीं।


सनातन-संस्कृति में अन्न और दूध की महत्ता पर बहुत बल दिया गया है !


Astonishing and unimaginable facts about Sanatana Dharma (HINDUISM)



चतुर्भुज भगवान ऐसे भीमसेन के वचन सुन, अर्जुन का दुख देखकर बोले---


--यदि बृह्म्बंधु अधम ब्राह्मण भी होवे तो भी उसे नहीं मारना चाहिये वह अस्त्र धारणकर अपनो को मारने को आता होवे तब भले ही वो ब्राह्मण होवे तो भी उसे मार ही देना चाहिये। तुमने जो द्रोपदी को समझाते हुए प्रतिज्ञा की थी कि इसका शिर उतार लाऊँगा उसको अच्छा करो, और भीमसेन का कहा मान्य करो इसको मारना ही चाहिये, तथा द्रोपदी की भी इच्छा पूरी करो कि इसको छोड़ों यह भी अच्छा करो । 

सूतजी कहते हैं, कि अर्जुन ने तुरन्त ही भगवान के अभिप्राय को जानकर अश्वत्थामा के मस्तक में जो मणि थी उसको बालों के समेत तलवार से काट लिया। फिर बाल हत्या से हीन कान्ति वाले मणीहीन, अश्वत्थामा को रस्सी से बंधे हुए को छोड़कर अपने डेरे से बाहर निकाला। शिर मूड़ देना व मूछदाढ़ी मूढ़ लेना, सब धन छीन लेना, स्थान से निकाल देना इतना ही दुष्ट ब्राह्मण के शरीर का बध करना योग्य नहीं है ! इसके अनन्तर पुत्र के शोक से दुखित हुए सम्पूर्ण पाण्डव तथा द्रोपदी सब ही ने उन मरे हुओं का दाह आदि कर्म किया ।

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