देवऋषि नारद का जीवन सार।। (नारद अवतार)

श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का छटवाँ आध्यय [स्कंध १]

दोहा-कहयो व्यास सों जन्म को नारद जैसो हाल ।।

सोई षट अध्याय में वर्णी कथा रसाल।।











नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।

देवऋषि नारद का जीवन सार।।देवर्षि नारद मुनि अपने पूर्व जन्म जी कथा वेद व्यास जी को कहना।।


सूत जी बोले कि ऋषीश्वर! वेदव्यास भगवान इस प्रकार मुनि के जन्म व कर्मो को सुनकर बोले, हे मुनि! आपको ज्ञान देने वाले वे साधु महात्मा जब चले गये तब बालक अवस्था में वर्तमान तुम क्या करते भये ? तुमने किस बर्ताव से अपनी पिछली उमर पूरी करी और काल आया तब बह शरीर किस तरह छोड़ा? हे नारद! काल तो सब बात को नष्ट करने वाला है, फिर आपको पूर्वजन्म की स्मृति दूर कैसे नहीं हुई । 







नरसिंह भगवान का अंतर्ध्यान होना।। मय दानव की कहानी।।



सनातन धर्म तथा सभी वर्ण आश्रमों का नारद मुनि द्वारा सम्पूर्ण वखान।।


महा भक्त प्रह्लाद की कथा।। भाग १


नारदजी बोले जिस समय मुझको ज्ञान देने वाले साधु महात्मा चले गये, बालक अवस्था वाले मैंने यह आचरण धारण किया। मेरी माता को एक ही पुत्र था, इसलिये वह मुझसे अत्यन्त स्नेह रखती थी। एक समय मेरी माता रात्रि में घर से बाहर चलकर गौ दोहन को जाती थी तब एक सर्प ने उसके पैर को डस लिया। तब मैं उसी समय मेरी मरी हुई माँ के मुख देखने को भी न गया और ईश्वर में मन लगाकर उत्तर दिशा में चल दिया। भूख और प्यास से व्याकुल होगया फिर वहाँ पर एक नदी में स्नान कर उस जल का आचमन किया व जलपान किया तब मेरा खेद दूर हो गया। निर्जन बन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर फिर अपनी बुद्धि से हृदय में स्थित हुए परमात्मा को,जैसा कि महात्माओं से सुना था उसके अनुकूल चिन्तवन करने लगा। 



तब प्रेम से नेत्रों में जल भर आया और हरि भगवानशनैः शनैः मेरे हृदय में प्राप्त होगये। उस वक्त अत्यन्त प्रेम सेरोमावली खड़ी होगई तथा मैं परमानन्द में मग्न होकर लीनहोगया उसी आनन्द अवस्था में मुझे अपनी और दूसरे की कुछसुध नहीं रही। तदनन्तर भगवान का जो रूप मनोहर तथा शोक को हरने वाला कहा है, उस रूप को ध्यान में देख रहा था वह रूप मुझे जब ध्यान में नहीं आया तब मैं उदास होकर बैठ गया और फिर भी उसी स्वरूप को देखने की इच्छा कर मन को हृदय में ठहरा कर देखने लगा तो भी वह रूप नहीं दिखा।


 तब नहीं तृप्त हुआ मैं, अति आतुर ( दुखी ) हो गया जैसे किसी भूखे मनुष्य के आगे पत्तल परोस कर हटा लेवे, तब उस मनुष्य का जो हाल हो सो मेरा हो गया। 

उस गह्वर निर्जन वनमें इस प्रकार यत्न करते हुए मुझको देखकर दशों दिशाओं में शब्द करती गम्भीर, मनोहर सुन्दर वचन से मानों मेरे शोक को दूर करती हो ऐसी आकाशवाणी सुनाई देने लगी । 


अरे ओ बालक ! इसजन्म में मेरे दर्शन नहीं कर सकते हो क्यों कि जिनके कामादिक मल दूर नहीं हुए है ऐसे कच्चे योगियों को मेरा दर्शन होना बड़ा मुश्किल है । मैंने जो यह अपना स्वरूप एक बार तुझे दिखा दिया है सो केवल तेरा मन लगने के लिये ही दिखाया है। 
हे निष्पाप ! जो साधुजन मेरी कामना रखता है वह चित्त को सम्पूर्ण विषयादिक कामनाओं को त्याग देता है। बहुत दिनों तक जो तुमने सन्तजनों की सेवा की तिससे तेरी बुद्धि मेरे में दृढ़ता से लग गई है, सो अब तू इस निन्दित शरीर को त्याग कर मेरा पार्षद होगा, और तैने जो मेरे विषे यह बुद्धि लगाई है सो ये ते री बुद्धि मेरे में से कभी भी दूर नहीं होगी। तथा मेरे अनुग्रह से प्रलयकाल में भी तेरी स्मृति बनी रहेगी।


 इस प्रकार कह के वह आकाश में व्याप्त शरीर वाले तथा प्रत्यक्ष शरीर रहित माया से आकाशवाणी करनेवाले साक्षात परमेश्वर सन्तान हो गये।फिर मैंने भी उस परब्रह्म परमात्मा को सिर नवाकर श्रद्धा से प्रणाम किया ।

 संसार की लज्जा से रहित हुआ उस अनन्त भगवान के नामों का स्मरण करता हुआ व गुह्य मङ्गल रूप को मैं स्मरण करता हुआ, प्रसन्न मन वाला होकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरने लगा, और मद तथा मत्सरता से रहित होकर काल आने की राह देखने लगा। 

भगवान ने जब मेरा शुद्ध सत्व शरीर समझकर अपना पार्षद बनाना विचार बत प्रारब्ध कर्म पूरा होते ही वह पंचभूतों से बना हुआ पहिला शरीर छूट गया। 

कल्प के अन्त में इस त्रिलोकी का संहार करके एकार्णव जल में श्री नारायण शयन करने लगे तब उनके उदर में मैं श्वास की राह से चला। 

फिर हजार युगों के अनन्तर भगवान ने योग निद्रा से जागकर जब इस संसार को रचने को इच्छा की तब उस नारायण के प्राणों से मरीचि आदि ऋषीश्वर उत्पन्न हुए और मैं भी नारायण के प्राणों से उत्पन्न हुआ। सो अब तिस परमेश्वर के अनुग्रह से मैं त्रिलोकी के भीतर बाहर विचरता हुआ रहता हूँ। मेरी गति सब जगह है, यानी जहां मैं नहीं जा सकू ऐसी कोई जगह नहीं है। ईश्वर से दी हई इस बीणा को स्वरमय ब्रह्म से विभूषित कर मूर्च्छना आलाप वाली बनाकर हरि के गुणानुवादों को गाता हुआ मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भर में विचरता हूँ। इस प्रकार यश गाते हुए मैं, हृदय में जब इच्छा करता हूँ, उसी समय हरि भगवान शीघ्र ही बुलाये हुए को तरह मुझको प्रत्यक्ष आकर दर्शन देते हैं।

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विषय भोगों की इच्छा से व्याकुल चित्त वाले पुरुषों को संसार रूपी सागर में पार होने के वास्ते यही एक सुन्दर नौका दिखती है, कि विष्णु भगवान की कथाओं को वर्णन करना। नारद कहते हैं कि हे व्यासजी! मैंने इसका खूब निश्चय कर लिया है कि काम लोभादिकों ये हत, अलग हुआ, मन जेसे हरि भगवान की सेवा, स्मरण करने से साक्षात शान्त होता है तैसे यम नियम आदि धर्मों से नहीं शान्त होता है, हे अनघ वेदव्यास !
तुमने जो मुझसे पूछा था वह सम्पूर्ण अपना कर्म जो कि गुप्त और तुम्हारे मन को संतोष कराने वाला था सो कहा है।सूतजी कहते हैं कि नारद मुनि इस प्रकार वेदव्यास जी को कहकर फिर आज्ञा मांगकर अपनी बीणा को बजाते हुए स्वेच्छा से विचरण वाले वह मुनि वहां से चले गये।
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