वृत्रासुर कौन था॥वृत्रासुर कथा भागवत कथा॥

वृत्रासुर कौन था॥वृत्रासुर कथा भागवत कथा॥


नवीन सुख सागर
श्रीमद भगवद महापुराण सत्रहवाँ अध्याय [स्कंध ६]


(चित्रकेतु को उमा का श्राप)


दा०-कही ब्रतृ ने भक्तिमय, सुन्दर कथा सुनाय। 
सो सत्रह अध्याय में, कही सकल समझाय॥

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६

नवीन सुख सागर श्रीमद भगवद महापुराण  सत्रहवाँ अध्याय [स्कंध ६] (चित्रकेतु को उमा का श्राप)  दा०-कही ब्रतृ ने भक्तिमय, सुन्दर कथा सुनाय।  सो सत्रह अध्याय में, कही सकल समझाय॥  श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब शेष भगवान चित्रकेतु को दर्शन देकर अंतर्ध्यान हो गये तो वह भी शेष के साथ अंतर्ध्यान होने वाली दिशा में आकाश मार्ग से भ्रमण करने लगा।  चित्रकेतु का लाखों वर्ष तक पराक्रम न घटा। जितने सिद्ध, मुनि चारण आदि थे। वे सब उसकी स्तुति करते थे। उसे महा योगी का स्थान प्राप्त हो गया था।   पश्चात चित्रकेतु कुलाचल पर्वत की गुफा में हरि भगवान का गुणगान करता हुआ विद्याधरों की स्त्रियों के साथ विहार करने लगा। एक समय वह भगवान विष्णु द्वारा प्राप्त विमान पर चढ़ कर विचरता हुआ जहाँ भगवान शिव विराज रहे थे वहाँ जा पहुँचा।   उस समय हे राजा परीक्षत ! भगवान शिव की गोद में पार्वती बैठी थीं जो कि शिव जी की भुजाओं के सहारे चिपटी हुई बैठी थीं तब चित्रकेतु वहाँ जाय समीप खड़ा हो व्यंग हँसी युक्त बचन कहने लगा । बड़े आश्चर्य की बात है कि जो संपूर्ण लंकों के गुरू, साक्षात धर्म के वक्ता और शरीर धारियों के मुख्य हैं, सो तुम इनका आवरण देखो कि वे इस भरी सभा के बीच अपनी स्त्री को गोद में बिठा कर चिपटाये बैठे हैं।   जब चित्रकेतु ने यह बचन कहे तो महादेव जी थोड़ा हँस कर चुप हो रहे। तब चित्रकेतु फिर उन्हीं बचनों को बारम्बार कहने लगा। तब उन बचन को पार्वती सहन न कर सकी और क्रोध करके इस प्रकार बचन बोलों---  अहो! क्या हम जैसे निर्लज्ज दुष्ट जनों को दंड देने वाला यह चित्रकेतु हो इस समय शिक्षक नियत हुआ है। क्या और कोई नहीं रहा है। बड़े आश्चर्य की बात है क्या वृह्मा जी भी धर्म को नहीं जानते हैं, या भृगु, नारद आदि मुनियों को भी धर्म का ज्ञान नहीं है जो यह दुष्ट खोटे बचन कर कर हमें शिक्षा दे रहा है यह दुष्ट दंड देने के योग्य है।   मैं तुझे श्राप देती हूँ कि हे दुष्ट मति वाले पुत्र ! तुझे अभिमान है इस कारण पाप वाली राक्षसी योनी भोंगेगा। तब चित्रकेतु विमान से उतर कर पार्वती जी को शिर नवाय प्रसन्न करने का उपाय करता हुआ बोला -हे माता ! मैं आपके दिये श्राप को ग्रहण करता हूँ। आपने मेरे प्रति जो कुछ कहा है सो वह सब मेरे पूर्व कर्मों का ही फल है मैं अज्ञानवश मोह को प्राप्त हो इस संसार चक्र में भ्रमण करता रहा और दुख भोगता हूँ।  सो इस कारण हे माता ! मैं आपको प्रसन्न करने के लिये विनय करता हूँ। मैं बारम्बार क्षमा माँगता हूँ सो इसलिये नहीं कि पाप से छुटकारा पाना चाहता हूँ सो ऐसी धारणा नहीं है, किन्तु मेरा कहना योग्य होने पर भी आप अयोग्य मानती हो, सो यही हमारा अपराध क्षमा कीजिये।   जब चित्रकेतु श्राप को धारण कर पार्वती से अपने अपराध को क्षमा कराकर वहाँ से चला गया तब शिव जी ने समस्त पार्षद गणों के सम्मुख शिव ने पार्वती जी से कहा हे पार्वती जी ! जो जन भगवान हरि के भक्त हैं और नर्क तथा स्वर्ग में एक समान दृष्टि रखते हैं वे किसी से नहीं डरते हैं। यह चित्रकेतु भगवान का दास है अतः इसने इतनी उदारता का होना कोई विचित्र नहीं है। यही चित्रकेतु पार्वती के श्राप के कारण आगे समय पाय वृत्तासुर के रूप में प्रगट हो प्रसिद्ध हुआ।
नवीन सुख सागर श्रीमद भगवद महापुराण  सत्रहवाँ अध्याय [स्कंध ६] (चित्रकेतु को उमा का श्राप)  दा०-कही ब्रतृ ने भक्तिमय, सुन्दर कथा सुनाय।  सो सत्रह अध्याय में, कही सकल समझाय॥  श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब शेष भगवान चित्रकेतु को दर्शन देकर अंतर्ध्यान हो गये तो वह भी शेष के साथ अंतर्ध्यान होने वाली दिशा में आकाश मार्ग से भ्रमण करने लगा।  चित्रकेतु का लाखों वर्ष तक पराक्रम न घटा। जितने सिद्ध, मुनि चारण आदि थे। वे सब उसकी स्तुति करते थे। उसे महा योगी का स्थान प्राप्त हो गया था।   पश्चात चित्रकेतु कुलाचल पर्वत की गुफा में हरि भगवान का गुणगान करता हुआ विद्याधरों की स्त्रियों के साथ विहार करने लगा। एक समय वह भगवान विष्णु द्वारा प्राप्त विमान पर चढ़ कर विचरता हुआ जहाँ भगवान शिव विराज रहे थे वहाँ जा पहुँचा।   उस समय हे राजा परीक्षत ! भगवान शिव की गोद में पार्वती बैठी थीं जो कि शिव जी की भुजाओं के सहारे चिपटी हुई बैठी थीं तब चित्रकेतु वहाँ जाय समीप खड़ा हो व्यंग हँसी युक्त बचन कहने लगा । बड़े आश्चर्य की बात है कि जो संपूर्ण लंकों के गुरू, साक्षात धर्म के वक्ता और शरीर धारियों के मुख्य हैं, सो तुम इनका आवरण देखो कि वे इस भरी सभा के बीच अपनी स्त्री को गोद में बिठा कर चिपटाये बैठे हैं।   जब चित्रकेतु ने यह बचन कहे तो महादेव जी थोड़ा हँस कर चुप हो रहे। तब चित्रकेतु फिर उन्हीं बचनों को बारम्बार कहने लगा। तब उन बचन को पार्वती सहन न कर सकी और क्रोध करके इस प्रकार बचन बोलों---  अहो! क्या हम जैसे निर्लज्ज दुष्ट जनों को दंड देने वाला यह चित्रकेतु हो इस समय शिक्षक नियत हुआ है। क्या और कोई नहीं रहा है। बड़े आश्चर्य की बात है क्या वृह्मा जी भी धर्म को नहीं जानते हैं, या भृगु, नारद आदि मुनियों को भी धर्म का ज्ञान नहीं है जो यह दुष्ट खोटे बचन कर कर हमें शिक्षा दे रहा है यह दुष्ट दंड देने के योग्य है।   मैं तुझे श्राप देती हूँ कि हे दुष्ट मति वाले पुत्र ! तुझे अभिमान है इस कारण पाप वाली राक्षसी योनी भोंगेगा। तब चित्रकेतु विमान से उतर कर पार्वती जी को शिर नवाय प्रसन्न करने का उपाय करता हुआ बोला -हे माता ! मैं आपके दिये श्राप को ग्रहण करता हूँ। आपने मेरे प्रति जो कुछ कहा है सो वह सब मेरे पूर्व कर्मों का ही फल है मैं अज्ञानवश मोह को प्राप्त हो इस संसार चक्र में भ्रमण करता रहा और दुख भोगता हूँ।  सो इस कारण हे माता ! मैं आपको प्रसन्न करने के लिये विनय करता हूँ। मैं बारम्बार क्षमा माँगता हूँ सो इसलिये नहीं कि पाप से छुटकारा पाना चाहता हूँ सो ऐसी धारणा नहीं है, किन्तु मेरा कहना योग्य होने पर भी आप अयोग्य मानती हो, सो यही हमारा अपराध क्षमा कीजिये।   जब चित्रकेतु श्राप को धारण कर पार्वती से अपने अपराध को क्षमा कराकर वहाँ से चला गया तब शिव जी ने समस्त पार्षद गणों के सम्मुख शिव ने पार्वती जी से कहा हे पार्वती जी ! जो जन भगवान हरि के भक्त हैं और नर्क तथा स्वर्ग में एक समान दृष्टि रखते हैं वे किसी से नहीं डरते हैं। यह चित्रकेतु भगवान का दास है अतः इसने इतनी उदारता का होना कोई विचित्र नहीं है। यही चित्रकेतु पार्वती के श्राप के कारण आगे समय पाय वृत्तासुर के रूप में प्रगट हो प्रसिद्ध हुआ।




इन्द्र को ब्रम्ह हत्या लगना।। बृह्मा हत्या का स्वरूप।।श्रीमद भागवद पुराण तेरहवां अध्याय [स्कंध ६]

इन्द्र-वृत्तासुर युध्द।। वृत्तासुर वध ।।वृत्तासुर का प्राकरम।।
वृत्रासुर का अंत॥ वृत्रासुर का वध



श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब शेष भगवान चित्रकेतु को दर्शन देकर अंतर्ध्यान हो गये तो वह भी शेष के साथ अंतर्ध्यान होने वाली दिशा में आकाश मार्ग से भ्रमण करने लगा।
चित्रकेतु का लाखों वर्ष तक पराक्रम न घटा। जितने सिद्ध, मुनि चारण आदि थे। वे सब उसकी स्तुति करते थे। उसे महा योगी का स्थान प्राप्त हो गया था।

पश्चात चित्रकेतु कुलाचल पर्वत की गुफा में हरि भगवान का गुणगान करता हुआ विद्याधरों की स्त्रियों के साथ विहार करने लगा। एक समय वह भगवान विष्णु द्वारा प्राप्त विमान पर चढ़ कर विचरता हुआ जहाँ भगवान शिव विराज रहे थे वहाँ जा पहुँचा।

उस समय हे राजा परीक्षत ! भगवान शिव की गोद में पार्वती बैठी थीं जो कि शिव जी की भुजाओं के सहारे चिपटी हुई बैठी थीं तब चित्रकेतु वहाँ जाय समीप खड़ा हो व्यंग हँसी युक्त बचन कहने लगा । बड़े आश्चर्य की बात है कि जो संपूर्ण लंकों के गुरू, साक्षात धर्म के वक्ता और शरीर धारियों के मुख्य हैं, सो तुम इनका आवरण देखो कि वे इस भरी सभा के बीच अपनी स्त्री को गोद में बिठा कर चिपटाये बैठे हैं।


जब चित्रकेतु ने यह बचन कहे तो महादेव जी थोड़ा हँस कर चुप हो रहे। तब चित्रकेतु फिर उन्हीं बचनों को बारम्बार कहने लगा। तब उन बचन को पार्वती सहन न कर सकी और क्रोध करके इस प्रकार बचन बोलों---

अहो! क्या हम जैसे निर्लज्ज दुष्ट जनों को दंड देने वाला यह चित्रकेतु हो इस समय शिक्षक नियत हुआ है। क्या और कोई नहीं रहा है। बड़े आश्चर्य की बात है क्या वृह्मा जी भी धर्म को नहीं जानते हैं, या भृगु, नारद आदि मुनियों को भी धर्म का ज्ञान नहीं है जो यह दुष्ट खोटे बचन कर कर हमें शिक्षा दे रहा है यह दुष्ट दंड देने के योग्य है।


मैं तुझे श्राप देती हूँ कि हे दुष्ट मति वाले पुत्र ! तुझे अभिमान है इस कारण पाप वाली राक्षसी योनी भोंगेगा। तब चित्रकेतु विमान से उतर कर पार्वती जी को शिर नवाय प्रसन्न करने का उपाय करता हुआ बोला -हे माता ! मैं आपके दिये श्राप को ग्रहण करता हूँ। आपने मेरे प्रति जो कुछ कहा है सो वह सब मेरे पूर्व कर्मों का ही फल है मैं अज्ञानवश मोह को प्राप्त हो इस संसार चक्र में भ्रमण करता रहा और दुख भोगता हूँ।
सो इस कारण हे माता ! मैं आपको प्रसन्न करने के लिये विनय करता हूँ। मैं बारम्बार क्षमा माँगता हूँ सो इसलिये नहीं कि पाप से छुटकारा पाना चाहता हूँ सो ऐसी धारणा नहीं है, किन्तु मेरा कहना योग्य होने पर भी आप अयोग्य मानती हो, सो यही हमारा अपराध क्षमा कीजिये।

चित्रकेतु को उमा का श्राप॥ वृत्तासुर उत्पत्ति॥


जब चित्रकेतु श्राप को धारण कर पार्वती से अपने अपराध को क्षमा कराकर वहाँ से चला गया तब शिव जी ने समस्त पार्षद गणों के सम्मुख शिव ने पार्वती जी से कहा हे पार्वती जी ! जो जन भगवान हरि के भक्त हैं और नर्क तथा स्वर्ग में एक समान दृष्टि रखते हैं वे किसी से नहीं डरते हैं। यह चित्रकेतु भगवान का दास है अतः इसने इतनी उदारता का होना कोई विचित्र नहीं है। यही चित्रकेतु पार्वती के श्राप के कारण आगे समय पाय वृत्तासुर के रूप में प्रगट हो प्रसिद्ध हुआ।

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।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम सत्रहवां अध्याय समाप्तम🥀।।

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