कैसे किया असुर वृत्तासुर ने भगवान विष्णु का गुणगान।श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवाँ अध्याय [स्कंध ६]
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]
श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६
नवीन सुख सागर
श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवाँ अध्याय [स्कंध ६]
(वृतासुर का चरित्र वर्णन)
दो००वृतासुर ने भक्तिमय, सुन्दर वरणों ज्ञान।
ग्यारहवें अध्याय में, ताकौ कियो बखान।।
https://shrimadbhagwadmahapuran.blogspot.com/2021/06/blog-post_10.htmlकैसे किया असुर वृत्तासुर ने भगवान विष्णु का गुणगान।
सबसे कमजोर बल: गुरुत्वाकर्षण बल।सबसे ताकतवर बल: नाभकीय बल। शिव।। विज्ञान।।
सौगंध मुझे इस मिट्टी की मैं देश नहीं मिटने दूंगा।।
मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?
क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य? तंत्र- एक विज्ञान।।
आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।
तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।
मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।
Find out how our Gurukul got closed. How did Gurukul end?
श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षत ! जब देवताओं से युद्ध में असुरों की कुछ न चली तो वे भयभीत होकर वृत्तासुर का साथ छोड़ कर भागने लगे तो वृत्तासुर ने दनुजों को सेना को भागते देख कर कहा--
हे शूरवीर ! इस संसार में जिसने जन्म लिया है। उसकी अवश्य मृत्यु होती है। परन्तु इस युद्ध में वीर गति को प्राप्त होने वाले को इस लोक में यश तथा परलोक में स्वर्ग प्राप्त होता है। सो हे वीरो! आप लोग समझिये कि योग साधन द्वारा मृत्यु और वीरगति ये दोनों ही दुर्लभ हैं। अतः रण में ही लड़ कर मृत्यु पाना ही उत्तम है। तुम लोग लौट कर भरसक युद्ध करो।
परन्तु वृत्तासुर के कहे को भागते हुये मूर्ख असुरों ने नहीं माना।
इधर देवताओं की सैना भागती हुई असुरों की सैना को मारने लगी तब वृत्तासुर ने हँस कर कहा--
हे देवताओं! तुम लोग वृथा इन भागते हुये असुरों को मारने के लिये क्यों दौड़ रहे हो।
जो अपने आप को शूरवीर बनते हैं, उनका यह धर्म नहीं है कि वह भागते पर हाथ छोड़ें। यदि तुम अपने आपको बलवान समझते हो, और युद्ध करने की अभिलाषा रखते हो तो समर क्षेत्र में क्षण मात्र के लिये मेरे सामने खड़े हो जाओ।
इतना कहकर क्रोध करके वह वृत्तासुर गरजने लगा तथा वह वृत्तासुर शूल हाथ में लेकर पैरों से धरती को धसकाता हुआ देवताओं की सेना का चूर-चूर करने लगा। इस बात को देख गुस्सा में भरकर इन्द्र ने अपने 'शत्रु उस वृत्तासुर के ऊपर गदा फेंकी, वृत्तासुर ने आती हुई उस गदा को बाँये हाथ से पकड़ कर उसी गदा से एरावत की कनपटी पर प्रहार किया। उसके इस हस्त लाघवता के कार्य की सब लोगों ने बड़ी प्रशंसा की।
ऐरावत हाथी उस गदा की चोट से मुँह से रुधिर बहाता हुआ इन्द्र के सहित सात धनुष के बराबर पर पीछे को हट गया । तब इन्द्रदेव के अमृत वर्षा हाथ के स्पर्श करने से तत्काल ऐरावत हाथी की गदा चोट की पीड़ा दूर हो गई और फिर संभल कर युद्ध के लिये वृत्तासुर के सामने आ कर डट गया।
वृत्तासुर भाई के मारने वाले इन्द्र से, जिसके कि हाथ में बज्र लगा हुआ देखकर बोला- हे इन्द्र ! तू ब्रम्ह, गुरू और भाई की हत्या करने वाला है। इसलिये आज तुझे मार कर भाई के ऋण से मैं मुक्त हो जाऊँगा, हे इन्द्र ! तूने स्वर्ग के पाने की इच्छा से पशु की तरह हमारे ज्येष्ठ भ्राता के शिर काट डाले है। अतः इस निन्दनीय कर्म से लज्जा, दया, धर्म आदि से तो तू भ्रष्ट हो ही गया है, अतः मेरे शूल से फटे हुए हृदय वाले तुझे अब गिद्ध खावेंगे । और जितने भी देवता हैं जो कि मेरे ऊपर शस्त्रों का प्रहार कर रहे हैं उन सबको त्रिशूल से काट २ कर भैरवादिक देवताओं को भेंट देदूंगा, और हे इन्द्र ! यदि तूने मेरे शिर को काट गिराया तो मैं अपनी देह से भूतों को बलि देकर परम पद को प्राप्त हो जाऊँगा। हे इन्द्र ! मेरे उपर तू बज्र क्यों नहीं फेंकता है, पहिले फेंकी हुई गदा की तरह यह तेरा फेंका हुआ बज्र निष्फल नहीं जायेगा, क्योंकि यह बज्र हरि भगवान के तेज से तथा दधीचि की तपस्या से भरे हुए होने के कारण बड़ा तीक्ष्ण हो गया है, अत: इस बज्र से ही मुझ शत्रु को मार। जहाँ हरि भगवान जिनके पक्ष में होते हैं वहाँ युद्ध में उसी की विजय होती है, मैं संकर्षण भगवान के चरणारविंदों में मन लगा कर तेरे वज्र से मरा हुआ योगियों की गति को प्राप्त हो जाऊँगा। हरिभगवान अपने भक्तों को स्वर्ग को आदि लोकों की सम्पति नहीं देते क्यों कि उन संम्पतियों को पाकर भक्तों के हृदय में द्वेष आदि होने लग जाते हैं। इसलिए हमारे स्वामी श्री हरि भगवान धर्म, कर्म और काम इन तीनों वर्गों के प्राप्त करने के श्रम को नष्ट कर देते हैं, और भक्तों को तो वह सीधी मुक्ति ही देते हैं जो कि सब पुरुषार्थों में उत्तम पुरुषार्थ है।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम ग्यारहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।
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जो अपने आप को शूरवीर बनते हैं, उनका यह धर्म नहीं है कि वह भागते पर हाथ छोड़ें। यदि तुम अपने आपको बलवान समझते हो, और युद्ध करने की अभिलाषा रखते हो तो समर क्षेत्र में क्षण मात्र के लिये मेरे सामने खड़े हो जाओ।
इतना कहकर क्रोध करके वह वृत्तासुर गरजने लगा तथा वह वृत्तासुर शूल हाथ में लेकर पैरों से धरती को धसकाता हुआ देवताओं की सेना का चूर-चूर करने लगा। इस बात को देख गुस्सा में भरकर इन्द्र ने अपने 'शत्रु उस वृत्तासुर के ऊपर गदा फेंकी, वृत्तासुर ने आती हुई उस गदा को बाँये हाथ से पकड़ कर उसी गदा से एरावत की कनपटी पर प्रहार किया। उसके इस हस्त लाघवता के कार्य की सब लोगों ने बड़ी प्रशंसा की।
ऐरावत हाथी उस गदा की चोट से मुँह से रुधिर बहाता हुआ इन्द्र के सहित सात धनुष के बराबर पर पीछे को हट गया । तब इन्द्रदेव के अमृत वर्षा हाथ के स्पर्श करने से तत्काल ऐरावत हाथी की गदा चोट की पीड़ा दूर हो गई और फिर संभल कर युद्ध के लिये वृत्तासुर के सामने आ कर डट गया।
वृत्तासुर भाई के मारने वाले इन्द्र से, जिसके कि हाथ में बज्र लगा हुआ देखकर बोला- हे इन्द्र ! तू ब्रम्ह, गुरू और भाई की हत्या करने वाला है। इसलिये आज तुझे मार कर भाई के ऋण से मैं मुक्त हो जाऊँगा, हे इन्द्र ! तूने स्वर्ग के पाने की इच्छा से पशु की तरह हमारे ज्येष्ठ भ्राता के शिर काट डाले है। अतः इस निन्दनीय कर्म से लज्जा, दया, धर्म आदि से तो तू भ्रष्ट हो ही गया है, अतः मेरे शूल से फटे हुए हृदय वाले तुझे अब गिद्ध खावेंगे । और जितने भी देवता हैं जो कि मेरे ऊपर शस्त्रों का प्रहार कर रहे हैं उन सबको त्रिशूल से काट २ कर भैरवादिक देवताओं को भेंट देदूंगा, और हे इन्द्र ! यदि तूने मेरे शिर को काट गिराया तो मैं अपनी देह से भूतों को बलि देकर परम पद को प्राप्त हो जाऊँगा। हे इन्द्र ! मेरे उपर तू बज्र क्यों नहीं फेंकता है, पहिले फेंकी हुई गदा की तरह यह तेरा फेंका हुआ बज्र निष्फल नहीं जायेगा, क्योंकि यह बज्र हरि भगवान के तेज से तथा दधीचि की तपस्या से भरे हुए होने के कारण बड़ा तीक्ष्ण हो गया है, अत: इस बज्र से ही मुझ शत्रु को मार। जहाँ हरि भगवान जिनके पक्ष में होते हैं वहाँ युद्ध में उसी की विजय होती है, मैं संकर्षण भगवान के चरणारविंदों में मन लगा कर तेरे वज्र से मरा हुआ योगियों की गति को प्राप्त हो जाऊँगा। हरिभगवान अपने भक्तों को स्वर्ग को आदि लोकों की सम्पति नहीं देते क्यों कि उन संम्पतियों को पाकर भक्तों के हृदय में द्वेष आदि होने लग जाते हैं। इसलिए हमारे स्वामी श्री हरि भगवान धर्म, कर्म और काम इन तीनों वर्गों के प्राप्त करने के श्रम को नष्ट कर देते हैं, और भक्तों को तो वह सीधी मुक्ति ही देते हैं जो कि सब पुरुषार्थों में उत्तम पुरुषार्थ है।
यह कह कर अब वृत्तासर भगवान की स्तुति करने लगा।
हे हरे ! मैं जन्म जन्मान्तरों में आपके आपके दासों का ही दास होता रहूँ । मेरा मन आपके स्मरण करने में लगा रहे मेरी वाणी आपके नामों का कीर्तन करती रहे और शरीर मेरा आपकी सेवा कार्य करता रहे।
हे ईश्वर ! आप के बिना स्वर्ग तथा ब्रम्हादि लोकों को भी मैं नहीं चाहता हूँ। हे भगवान ! जिस तरह भूखे प्यासे और जिनके पंख नहीं उगे हैं वे छोटे छोटे पक्षियों के बच्चे अपनी मईया की तरफ टकटकी लगा कर देखते रहते हैं, उसी प्रकार मेरा मन भी आपके दर्शन करना चाहता है। संसार के आवागवन के इस चक्र में घूमते हुए मेरी मित्रता आपके भक्तों में ही होती रहे, पुत्र, स्त्री गृह आदि में मेरा प्रेम न होने पावे ।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम ग्यारहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।
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![नवीन सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवाँ अध्याय [स्कंध ६] (वृतासुर का चरित्र वर्णन) दो००वृतासुर ने भक्तिमय, सुन्दर वरणों ज्ञान। ग्यारहवें अध्याय में, ताकौ कियो बखान।। कैसे किया असुर वृत्तसुर ने भगवान विष्णु का गुणगान। नवीन सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण ग्यारहवाँ अध्याय [स्कंध ६] (वृतासुर का चरित्र वर्णन) दो००वृतासुर ने भक्तिमय, सुन्दर वरणों ज्ञान। ग्यारहवें अध्याय में, ताकौ कियो बखान।। कैसे किया असुर वृत्तसुर ने भगवान विष्णु का गुणगान। श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षत ! जब देवताओं से युद्ध में असुरों की कुछ न चली तो वे भयभीत होकर वृत्तासुर का साथ छोड़ कर भागने लगे तो वृत्तासुर ने दनुजों को सेना को भागते देख कर कहा-- हे शूरवीर ! इस संसार में जिसने जन्म लिया है। उसकी अवश्य मृत्यु होती है। परन्तु इस युद्ध में वीर गति को प्राप्त होने वाले को इस लोक में यश तथा परलोक में स्वर्ग प्राप्त होता है। सो हे वीरो! आप लोग समझिये कि योग साधन द्वारा मृत्यु और वीरगति ये दोनों ही दुर्लभ हैं। अतः रण में ही लड़ कर मृत्यु पाना ही उत्तम है। तुम लोग लौट कर भरसक युद्ध करो। परन्तु वृत्तासुर के कहे को भागते हुये मूर्ख असुरों ने नहीं माना। इधर देवताओं की सैना भागती हुई असुरों की सैना को मारने लगी तब वृत्तासुर ने हँस कर कहा-- हे देवताओं! तुम लोग वृथा इन भागते हुये असुरों को मारने के लिये क्यों दौड़ रहे हो। जो अपने आप को शूरवीर बनते हैं उनका यह धर्म नहीं है कि वह भागते पर हाथ छोड़ें। यदि तुम अपने आपको बलवान समझते हो, और युद्ध करने की अभिलाषा रखते हो तो समर क्षेत्र में क्षण मात्र के लिये मेरे सामने खड़े हो जाओ। इतना कहकर क्रोध करके वह वृत्तासुर गरजने लगा तथा वह वृत्तासुर शूल हाथ में लेकर पैरों से धरती को धसकाता हुआ देवताओं की सेना का चूर-चूर करने लगा। इस बात को देख गुस्सा में भरकर इन्द्र ने अपने 'शत्रु उस वृत्तासुर के ऊपर गदा फेंकी, वृत्तासुर ने आती हुई उस गदा को बाँये हाथ से पकड़ कर उसी गदा से एरावत की कनपटी पर प्रहार किया। उसके इस हस्त लाघवता के कार्य की सब लोगों ने बड़ी प्रशंसा की। ऐरावत हाथी उस गदा की चोट से मुँह से रुधिर बहाता हुआ इन्द्र के सहित सात धनुष के बराबर पर पीछे को हट गया । तब इन्द्रदेव के अमृत वर्षा हाथ के स्पर्श करने से तत्काल ऐरावत हाथी की गदा चोट की पीड़ा दूर हो गई और फिर संभल कर युद्ध के लिये वृत्तासुर के सामने आ कर डट गया। वृत्तासुर भाई के मारने वाले इन्द्र से, जिसके कि हाथ में बज्र लगा हुआ देखकर बोला- हे इन्द्र ! तू ब्रम्ह, गुरू और भाई की हत्या करने वाला है। इसलिये आज तुझे मार कर भाई के ऋण से मैं मुक्त हो जाऊँगा, हे इन्द्र ! तूने स्वर्ग के पाने की इच्छा से पशु की तरह हमारे ज्येष्ठ भ्राता के शिर काट डाले है। अतः इस निन्दनीय कर्म से लज्जा, दया, धर्म आदि से तो तू भ्रष्ट हो हो गया है, अतः मेरे शूल से फटे हुए हृदय वाले तुझे अब गिद्ध खावेंगे । और जितने भी देवता हैं जो कि मेरे ऊपर शस्त्रों का प्रहार कर रहे हैं उन सबको त्रिशूल से काट २ कर भैरवादिक देवताओं को भेंट देवगा, और हे इन्द्र ! यदि तूने मेरे शिर को काट गिराया तो मैं अपनी देह से भूतों को बलि देकर परम पद को प्राप्त हो जाऊँगा। हे इन्द्र ! मेरे उपर तू बज्र क्यों नहीं फेंकता है, पहिले फेंकी हुई गदा की तरह यह तेरा फेंका हुआ बज्र निष्फल नहीं जायगा, क्योंकि यह बज हरि भगवान के तेज से तथा दधीचि की तपस्या से भरे हुए होने के कारण बड़ा तीक्ष्ण हो गया है, अत: इस बज्र से ही मुझ शत्रु को मार। जहाँ हरि भगवान जिनके पक्ष में होते हैं वहाँ युद्ध में उसी की विजय होती है, मैं संकर्षण भगवान के चरणारविंदों में मन लगा कर तेरे वज्र से मरा हुआ योगियों की गति को प्राप्त हो जाऊँगा। हरिभगवान अपने भक्तों को स्वर्ग को आदि लोकों की सम्पति नहीं देते क्यों कि उन संम्पतियों को पाकर भक्तों के हृदय में द्वेष आदि होने लग जाते हैं। इसलिए हमारे स्वामी श्री हरि भगवान धर्म, कर्म और काम इन तीनों वर्गों के प्राप्त करने के श्रम को नष्ट कर देते हैं, और भक्तों को तो वह सीधी मुक्ति ही देते हैं जो कि सब पुरुषार्थों में उत्तम पुरुषार्थ है। यह कह कर अब वृत्तासर भगवान की स्तुति करने लगा। हे हरे ! मैं जन्म जन्मान्तरों में आपके आपके दासों का ही दास होता रहूँ । मेरा मन आपके स्मरण करने में लगा रहे मेरी वाणी आपके नामों का कीर्तन करती रहे और शरीर मेरा आपकी सेवा कार्य करता रहे। हे ईश्वर ! आप के बिना स्वर्ग तथा ब्रम्हादि लोकों को भी मैं नहीं चाहता हूँ। हे भगवान ! जिस तरह भूखे प्यासे और जिनके पंख नहीं उगे हैं वे छोटे छोटे पक्षियों के बच्चे अपनी मईया की तरफ टकटकी लगा कर देखते रहते हैं, उसी प्रकार मेरा मन भी आपके दर्शन करना चाहता है। संसार के आवागवन के इस चक्र में घूमते हुए मेरी मित्रता आपके भक्तों में ही होती रहे, पुत्र, स्त्री गृह आदि में मेरा प्रेम न होने पावे ।](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzo1uDkBxxbxgSdjpCAxKOq_tb0f-3KBMHgrkf08lRMRcAZT-keSPZXWK_9yWmY_289wWgReGwPtLptSXk4LvhGXuYWFoNd55e5p4vAoZ1-yS9cUQFrKYHKy5jUTmsikMX8sbYkfr7RCGr/w320-h320/20210610_150259.jpg)
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