दधीची ऋषि की अस्थियों द्वारा वज्र निर्माण (वृत्तासुर और इन्द्र का युद्ध)

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श्रीमद भागवद पुराण दसवां अध्याय [स्कंध ६]दधीची ऋषि की अस्थियों द्वारा वज्र निर्माण (वृत्तासुर और इन्द्र का युद्ध)

दो०- मुनि दधीच की अस्थि का, सुरपति बज्र बनाय।

वृत्तासुर से युद्ध अति भयो दसवें अध्याय॥

गये। और उनसे धर्म के निमित्त उनका शरीर माँगा । तब दधीच ने कहा- हे देवगण प्राणी को मरण समय जो असह्य क्लेश होता है उसे तुम नहीं जानते हो। जो जीवित रहने की इच्छा रखता उसे अपना शरीर बहुत प्यारा होता है। फिर भी ऐसा कौन है जो भगवान विष्णु के माँगने पर भी अपना शरीर न दे सके । देवता बोले-हे ब्रह्मन् ! प्राणियों पर दया करने वाले महात्मा पुरुषों को कोई वस्तु दुस्त ज्य नहीं है। यह संपूर्ण लोक अपने स्वार्थ में तत्पर रहता है । अतः यह पराये संकट को नहीं जानता है । यदि दूसरों के दुखः को जाने तो और देने में समर्थ होवे तो वह ना नहीं करे। दधीच ने कहा-हे देवताओ ! मैं यही धर्म तुम से सुनना चाहता था। यद्यपि यह देह हमको भी बहुत प्यारी है । परन्तु फिर भी वह साथ छोड़ जायगी । अतः अच्छा यही है कि परमार्थ इस शरीर को छोड़ कर तुम्हें देव । इतना कह कर दधीच मुनि ने अपनी आत्मा को परम ब्रम्ह भगवान में एक कर के शरीर को त्याग दिया । जिसे देवता उठा कर ले गये, और उसकी अस्थियों में से विश्वकर्मा ने एक बहुत दृढ़ वज्र बनाया जिसे धारण कर इंद्र देव एरावत हाथी पर बैठ देवों की सैना ले वृत्तासुर से लड़ने लगा । यह देवता और दानवों का महा दारुण युद्ध प्रथम चौकड़ी के त्रेता युग के आरंभ में नर्वदा नदी के तट पर हुआ। देवता और दनुजों में घमाशान भयंकर युद्ध हुआ इस युद्ध में दोनों ही ओर से गदा, परिध, वाण, भाला, मुग्दर, तोमर आदि अनेक शस्त्रों का प्रयोग हुआ। इस युद्ध में देवता बली हुए तथा राक्षस यद्यपि बड़े बलबान थे, पत्थरों की वर्षा भी करते थे, परन्तु फिर भी देवता लोग उनके अस्त्र शस्त्रों का निवारण कर देते थे। जब असुरों ने यह देखा कि उनका देवताओं को कुछ भी मय हुआ है। तो वे उस युद्ध में घबड़ा गये, सो वे वृत्तासुर को छोड़ कर अपनी जान बचाने को इधर उधर भागने लगे ।




श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षत ! इंद्र को आज्ञा देकर भगवान तो अंतर्ध्यान हो गये तब देवता गण मुनि दधीच के पास गये। और उनसे धर्म के निमित्त उनका शरीर माँगा ।


तब दधीच ने कहा- हे देवगण प्राणी को मरण समय जो असह्य क्लेश होता है उसे तुम नहीं जानते हो। जो जीवित रहने की इच्छा रखता उसे अपना शरीर बहुत प्यारा होता है। फिर भी ऐसा कौन है जो भगवान विष्णु के माँगने पर भी अपना शरीर न दे सके ।


देवता बोले-हे ब्रह्मन् ! प्राणियों पर दया करने वाले महात्मा पुरुषों को कोई वस्तु दुस्तज्य नहीं है। यह संपूर्ण लोक अपने स्वार्थ में तत्पर रहता है । अतः यह पराये संकट को नहीं जानता है । यदि दूसरों के दुखः को जाने और देने में समर्थ होवे तो वह ना नहीं करे।

दधीच ने कहा-हे देवताओ ! मैं यही धर्म तुम से सुनना चाहता था। यद्यपि यह देह हमको भी बहुत प्यारी है । परन्तु फिर भी वह साथ छोड़ जायगी । अतः अच्छा यही है कि परमार्थ के लिये इस शरीर को छोड़ कर तुम्हें दे दूं ।

इतना कह कर दधीच मुनि ने अपनी आत्मा को परम ब्रम्ह भगवान में एक कर के शरीर को त्याग दिया । जिसे देवता उठा कर ले गये, और उसकी अस्थियों में से विश्वकर्मा ने एक बहुत दृढ़ वज्र बनाया जिसे धारण कर इंद्र देव एरावत हाथी पर बैठ देवों की सैना ले वृत्तासुर से लड़ने लगा ।

युध्द की अवधि

यह देवता और दानवों का महा दारुण युद्ध प्रथम चौकड़ी के त्रेता युग के आरंभ में नर्वदा नदी के तट पर हुआ। देवता और दनुजों में घमाशान भयंकर युद्ध हुआ इस युद्ध में दोनों ही ओर से गदा, परिध, वाण, भाला, मुग्दर, तोमर आदि अनेक शस्त्रों का प्रयोग हुआ। इस युद्ध में देवता बली हुए तथा राक्षस यद्यपि बड़े बलबान थे, पत्थरों की वर्षा भी करते थे, परन्तु फिर भी देवता लोग उनके अस्त्र शस्त्रों का निवारण कर देते थे। जब असुरों ने यह देखा कि उनका देवताओं को कुछ भी भय हुआ है। तो वे उस युद्ध में घबड़ा गये, सो वे वृत्तासुर को छोड़ कर अपनी जान बचाने को इधर उधर भागने लगे ।

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।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम दसवां अध्याय समाप्तम🥀।।

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