असुर वृत्तासुर का देव भाव को प्राप्त होना।।

विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
 श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६



नवीन सुख सागर 
श्रीमद भागवद पुराण चौदहवाँ अध्याय [स्कंध ६]
(चित्रकेतु चरित्र वर्णन)
दो०- चिरकेतु के चरित्र को वर्णन कियौ सुनाये।
भाख्यो शुक संपूर्ण यश चौदहवे अध्यायः॥


असुर वृत्तासुर का देव भाव को प्राप्त होना।। नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  चौदहवाँ अध्याय [स्कंध ६] (चित्रकेतु चरित्र वर्णन) दो०- चिरकेतु के चरित्र को वर्णन कियौ सुनाये।  भाख्यो शुक संपूर्ण यश चौदहवे अध्यायः॥   राजा परीक्षत ने पूछा- हे मुनि ! मुझे यह शंसय घोर आश्चर्य में डालता है, कि जो दैत्य था और जिसका स्वभाव रजोगुण, तमोगुण, वाला था। तो वह असुर स्वभाव के विरूद्ध भगवान भक्त किस प्रकार से हुआ? सो यह सब वृतांत आप कहिये।  श्री शुकदेवजी बोले हे -राजा परीक्षत ! इस विषय पर मैं तुमसे एक इतिहास कहता है, जोकि मैंने महर्षि व्यासजी तथा नारद और देवल के मुखारविन्द से सुना है।   पूर्व समय में सुरसेन नाम देश में चित्रकेतु नाम का प्रसिद्ध राजा राज करता था। उनके प्रताप से समस्त प्रानन्द थे। पृथ्वी मनवाँच्छित फल देती थी।   राजा चित्रकेतु को एक करोड़ रानी थीं, परन्तु देवयोग से सभी बांझ थीं। जिसके कारण उसके लिये यह सारा वैभव फीका था।   एक समय उसके महलों में विचरण करते हुये अंगिरा ऋषि अये। ऋषि को आया देख राजा ने ऋषि के सम्मुख जाय हाथ जोडकर दण्डवत कर अर्ध्यपाद्य आसनादि से विधि पूर्वक अति यथासत्कार किया तथा निकट ही स्वयं भी आसन बिछा कर बैठ गया। तब अंगिरा ऋषि ने कहा- हे राजन् ! तुम हर प्रकार मंगलमय हो, कहो तुम्हारा मुख किस चिन्ता से मलीन है।   राजा चित्रकेतु ने कहा- हे ब्राह्मन! आप सब कुछ जानते हुये भी यदि मुझे पूछते हैं तो मैं आपकी आज्ञा से अपने मन की बात कहता हूँ।  हे देव! जिस प्रकार भूखे मनुष्य को कोई भी सुख अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार बिना सन्तान के मुझे यह राजपाट वैभव कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। मैं अपने पित्रों सहित नरक में जाने वाला हूँ सो आप ऐसा उपाय कहिये कि जिससे सन्तान उत्पन्न हो और मैं इस दुस्तर संसार से पार होऊँ।   राजा की विनय सुन ऋषि ने त्वष्टा देवता का शाकल्य तैयार कर पुत्र प्राप्ती के निमित्त राजा से यज्ञ कराया, और यज्ञ का शेष अन्न राजा की बड़ी रानी को समर्पण किया। जिस अन्न का भोजन करे तो उससे आपको हर्ष तथा शोक देने वाला एक पुत्र होगा। जिसके जन्म से तुम्हें हर्ष होग। और मरण से शोक होगा। यह कहकर अंगिरा ऋषि अपने स्थान को चले गये।    तब वह अन्न राजा चित्रकेतु की बड़ी रानी कृतुद्युति ने खाया और राजा के वीर्य से गर्भ धारण किया। जिससे समय पाय रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। राजा चित्रकेतु की पुत्र प्राप्त होने से बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अनेकों गाय दान में दी तथा अन्न धन का दान किया। पश्चात बालक का जाति कर्म आदि कराया राजा को अपने पुत्र से अति स्नेह हुआ। क्योंकि उसके वही एक संतान हुई थी। जिससे उसका पुत्र में स्नेह दिनों-दिन बढ़ने लगा। रानी कृतुद्युति का स्नेह भी बालक में बहुत बढ़ गया था।   इधर राजा चित्रकेतु की अन्य रानियों को इस बात का द्वेष हुआ कि बड़ी रानी को पुत्र प्राप्त हुआ है । सो वह दिन-रात उस बालक के प्राण लेने की चेष्टा करने लगीं। एक दिन उन रानियों ने आपस में एक षडयंत्र रचा और उस बालक को खिलाने के बहाने अपने कक्ष में ले आई और उसे तीक्षण विष खिला दिया। पश्चात उसे रानी कृतिद्युति को दे आई । वह बालक विष के जोर से सो गया था सो रानी ने समझा कि उसका पुत्र निद्रा के वशी भूत सोया हुआ है।   उसने सौति रानियों के डाह को न जाना । वह बालक को पालने में सुलाकर अपने कक्ष में आराम करने लगी। जब वह बालक बहुत देर तक न जागा तो उसने अपनी धाय से बालक लाने को कहा। तब वह धाय बालक को लेने गई तो उसने बालक के नेत्रों की पुतली ऊपर को चढ़ी हुई देखों और उस में जीवन के कोई चिन्ह शेष न देखे तो वह 'हाय मैं मरी, हाय मैं मरी, कहकर चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगी तो रानी कृतुद्युति वहाँ दौड़ी-दौड़ी पहुँची जहां उसने अपने बालक को मरा देखा तो वह व्याकुल हो विलाप करती हुई पृथ्वी पर मूर्छित हो गिर पड़ी। यह समाचार जब राजा चित्रकेतु ने राज सभा में सुना तो वह भी बहुत दुखी हुआ, और अपने मंत्री आदि सभा सदों के साथ महल में आया जहां अपने प्रिय पुत्र को मरा देख कर रोने लगा, और मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय महल में रहने वाले सभी पुरुष और नारियाँ वहाँ आय रुदन करने लगे। रानी कृतुद्युति की सभी सौति रानियाँ भी सौतिया डाह के कपट भाव को छुपाकर दिखावे के लिये रुदन करने लगीं। जब इस दुख के कारण रो-रोकर सभी मूर्छित हो गिरने लगे तो उसी समय इस वृत्तान्त को जानकर अंगिरा ऋषि नारद मुनि को साथ ले राजा के भवन में आये ।   ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम चौदहवाँ अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

असुर वृत्तासुर का देव भाव को प्राप्त होना।।



राजा परीक्षत ने पूछा- हे मुनि ! मुझे यह शंसय घोर आश्चर्य में डालता है, कि जो दैत्य था और जिसका स्वभाव रजोगुण, तमोगुण, वाला था। तो वह असुर स्वभाव के विरूद्ध भगवान भक्त किस प्रकार से हुआ?
सो यह सब वृतांत आप कहिये।

श्री शुकदेवजी बोले हे -राजा परीक्षत ! इस विषय पर मैं तुमसे एक इतिहास कहता है, जोकि मैंने महर्षि व्यासजी तथा नारद और देवल के मुखारविन्द से सुना है।

पूर्व समय में सुरसेन नाम देश में चित्रकेतु नाम का प्रसिद्ध राजा राज करता था। उनके प्रताप से समस्त प्रानन्द थे। पृथ्वी मनवाँच्छित फल देती थी।

राजा चित्रकेतु को एक करोड़ रानी थीं, परन्तु देवयोग से सभी बांझ थीं। जिसके कारण उसके लिये यह सारा वैभव फीका था।

एक समय उसके महलों में विचरण करते हुये अंगिरा ऋषि अये। ऋषि को आया देख राजा ने ऋषि के सम्मुख जाय हाथ जोडकर दण्डवत कर अर्ध्यपाद्य आसनादि से विधि पूर्वक अति यथासत्कार किया तथा निकट ही स्वयं भी आसन बिछा कर बैठ गया। तब अंगिरा ऋषि ने कहा- हे राजन् ! तुम हर प्रकार मंगलमय हो, कहो तुम्हारा मुख किस चिन्ता से मलीन है।

राजा चित्रकेतु ने कहा- हे ब्राह्मन! आप सब कुछ जानते हुये भी यदि मुझे पूछते हैं तो मैं आपकी आज्ञा से अपने मन की बात कहता हूँ।

हे देव! जिस प्रकार भूखे मनुष्य को कोई भी सुख अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार बिना सन्तान के मुझे यह राजपाट वैभव कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। मैं अपने पित्रों सहित नरक में जाने वाला हूँ सो आप ऐसा उपाय कहिये कि जिससे सन्तान उत्पन्न हो और मैं इस दुस्तर संसार से पार होऊँ।

राजा की विनय सुन ऋषि ने त्वष्टा देवता का शाकल्य तैयार कर पुत्र प्राप्ती के निमित्त राजा से यज्ञ कराया, और यज्ञ का शेष अन्न राजा की बड़ी रानी को समर्पण किया। जिस अन्न का भोजन करे तो उससे आपको हर्ष तथा शोक देने वाला एक पुत्र होगा। जिसके जन्म से तुम्हें हर्ष होग। और मरण से शोक होगा। यह कहकर अंगिरा ऋषि अपने स्थान को चले गये।


तब वह अन्न राजा चित्रकेतु की बड़ी रानी कृतुद्युति ने खाया और राजा के वीर्य से गर्भ धारण किया। जिससे समय पाय रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। राजा चित्रकेतु की पुत्र प्राप्त होने से बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अनेकों गाय दान में दी तथा अन्न धन का दान किया। पश्चात बालक का जाति कर्म आदि कराया राजा को अपने पुत्र से अति स्नेह हुआ। क्योंकि उसके वही एक संतान हुई थी। जिससे उसका पुत्र में स्नेह दिनों-दिन बढ़ने लगा। रानी कृतुद्युति का स्नेह भी बालक में बहुत बढ़ गया था।

इधर राजा चित्रकेतु की अन्य रानियों को इस बात का द्वेष हुआ कि बड़ी रानी को पुत्र प्राप्त हुआ है । सो वह दिन-रात उस बालक के प्राण लेने की चेष्टा करने लगीं। एक दिन उन रानियों ने आपस में एक षडयंत्र रचा और उस बालक को खिलाने के बहाने अपने कक्ष में ले आई और उसे तीक्षण विष खिला दिया। पश्चात उसे रानी कृतिद्युति को दे आई । वह बालक विष के जोर से सो गया था सो रानी ने समझा कि उसका पुत्र निद्रा के वशी भूत सोया हुआ है।

उसने सौति रानियों के डाह को न जाना । वह बालक को पालने में सुलाकर अपने कक्ष में आराम करने लगी। जब वह बालक बहुत देर तक न जागा तो उसने अपनी धाय से बालक लाने को कहा। तब वह धाय बालक को लेने गई तो उसने बालक के नेत्रों की पुतली ऊपर को चढ़ी हुई देखों और उस में जीवन के कोई चिन्ह शेष न देखे तो वह 'हाय मैं मरी, हाय मैं मरी, कहकर चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगी तो रानी कृतुद्युति वहाँ दौड़ी-दौड़ी पहुँची जहां उसने अपने बालक को मरा देखा तो वह व्याकुल हो विलाप करती हुई पृथ्वी पर मूर्छित हो गिर पड़ी। यह समाचार जब राजा चित्रकेतु ने राज सभा में सुना तो वह भी बहुत दुखी हुआ, और अपने मंत्री आदि सभा सदों के साथ महल में आया जहां अपने प्रिय पुत्र को मरा देख कर रोने लगा, और मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय महल में रहने वाले सभी पुरुष और नारियाँ वहाँ आय रुदन करने लगे। रानी कृतुद्युति की सभी सौति रानियाँ भी सौतिया डाह के कपट भाव को छुपाकर दिखावे के लिये रुदन करने लगीं। जब इस दुख के कारण रो-रोकर सभी मूर्छित हो गिरने लगे तो उसी समय इस वृत्तान्त को जानकर अंगिरा ऋषि नारद मुनि को साथ ले राजा के भवन में आये ।

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