नारद मुनि द्वारा जीवात्मा का सत्य।।

नवीन सुख सागर 

श्रीमद भागवद पुराण सोलहवां अध्याय [स्कंध ६]
( नारद द्वारा चित्रकेतू को ज्ञान देना )

दो• सुत द्वारा नृप शोक सब नारद दियो हटाय । 
हर्ष भयौ भूपाल मन सोलहवे अध्याय॥


नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  सोलहवां अध्याय [स्कंध ६]  ( नारद द्वारा चित्रकेतू को ज्ञान देना ) दो• सुत द्वारा नृप शोक सब नारद दियो हटाय ।  हर्ष भयौ भूपाल मन सोलहवे अध्याय॥   श्री शुकदेवजी बोले-हे परीक्षत ! नारदजी ने राजा चित्रकेतु का शोक दूर करने के लिये मृतक राजपुत्र के जीवात्मा को जीवित कर कहा-हे जीवात्मन् ! यह तुम्हारे माता और सुहृदय बन्धु-जन तुम्हारे न रहने के शोक से अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, सो तुम इनके शोक को दूर करने के लिये अपने देह में प्रवेश कर के अपनी शेष आयु को अपने पिता के दिये भोगों को भोगो।   नारद जी की यह बात सुन उस राजकुमार के जीवात्मा ने कहा है-   हे मुनि ! यह मेरे माता-पिता किस जन्म में हुये थे। मैं तो अपने कमों के अनुसार मनुष्य पशु-पक्षी आदि सभी योनियों का भ्रमण करता हूँ। यदि यह मेरे मरने से शोक करते हैं तो यह इनकी अज्ञानता है, इन्हें तो मुझे अपना शत्रु समझकर प्रसन्न होना चाहिये। क्योंकि सभी पुरुष पर्याय से सबके बन्धु, जाति, शत्रु, मध्यस्थ, मित्र, द्वेषी, उदासीन परस्पर होते हैं, इस कारण पुत्र आदि सम्बन्ध का कोई विशेष नियम नहीं है।   जिस प्रकार सुवर्ण आदि वस्तुयें बेचने व खरीदने वाले चारों ओर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार कर्मानुसार जीवात्मा भी घूमता रहता है। जैसे पशु का संबन्ध पहले से टूट जाता है, और खरीदने वाले से जुड़ जाता है। ऐसे ही जीव का जिससे जैसा संबन्ध जब तक जिससे होता है तब तक रहता है।   जब जीवात्मा शरीर को त्याग देता है तब वह सम्बन्ध टूट जाता है। इस कारण हे राजा ! जब हमारा सत्व इस देह में था तब तक इसकी ममता थी, अब मृतक हुये पीछे इस शरीर से हमारा कुछ सम्बन्ध नहीं है। तब मेरे निमित्त आपका शोक करना व्यर्थ है।   हे राजन! बालक को मारने वाली वे रानियां ब्राह्मणों के कहे अनुसार बालहत्या का प्रायश्चित यमुना किनारे करने योग्य है। इस पर उन सौति रानियों ने यमुना स्नान कर बाल हत्या का प्रायश्चित किया।  इस प्रकार हे राजा परीक्षत ! अंगिरा ऋषि और नारद मुनि द्वारा ज्ञानोपदेश करने पर राजा चित्रकेतु ने पुत्र होने की कामना को त्याग दिया। राजा को ज्ञान होने पर उसने यमुना में स्नान किया और तर्पण आदि क्रिया करके अनन्तर मौन धारण करके जितेन्द्रिय होकर राजा ने नारद और अगिरा ऋषि को प्रणाम किया।   तब अध्यात्म विद्या का उपदेश करके नारदजी अंगिरा ऋषि के साथ  बृह्मा लोक को चले गये।   फिर राजा चित्रकेतु नारद द्वारा वर्णन की हुई विद्या को सात दिन तक जल पान मात्र करके यथोक्त रीति से धारण करता रहा।  सो हे परीक्षत ! राजा चित्र केतु को इस मंत्र के प्रभाव से जप करने से विध्याधरों का अधिपत्य मिला। कुछ दिन पश्चात वह शेष भगवान के चरणों के समीप पहुँचा। तब उनके दर्शनों से चित्रकेतु पाप मुक्त हुआ और शेष भगवान की स्तुती करने लगा। राजा चित्रकेतु ने अनेक प्रकार से शेष भगवान की स्तुती की जिससे प्रसन्न हो अध्यात्म विध्यां का सारगर्भित उपदेश दे कर राजा के मन का मोहान्धकार नाश किया और फिर अन्तर्ध्यान हो गये।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम सोलहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_




श्री शुकदेवजी बोले-हे परीक्षत ! नारदजी ने राजा चित्रकेतु का शोक दूर करने के लिये मृतक राजपुत्र के जीवात्मा को जीवित कर कहा-हे जीवात्मन् ! यह तुम्हारे माता और सुहृदय बन्धु-जन तुम्हारे न रहने के शोक से अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, सो तुम इनके शोक को दूर करने के लिये अपने देह में प्रवेश कर के अपनी शेष आयु को अपने पिता के दिये भोगों को भोगो।

नारद जी की यह बात सुन उस राजकुमार के जीवात्मा ने कहा है-

हे मुनि ! यह मेरे माता-पिता किस जन्म में हुये थे। मैं तो अपने कमों के अनुसार मनुष्य पशु-पक्षी आदि सभी योनियों का भ्रमण करता हूँ। यदि यह मेरे मरने से शोक करते हैं तो यह इनकी अज्ञानता है, इन्हें तो मुझे अपना शत्रु समझकर प्रसन्न होना चाहिये। क्योंकि सभी पुरुष पर्याय से सबके बन्धु, जाति, शत्रु, मध्यस्थ, मित्र, द्वेषी, उदासीन परस्पर होते हैं, इस कारण पुत्र आदि सम्बन्ध का कोई विशेष नियम नहीं है।

जिस प्रकार सुवर्ण आदि वस्तुयें बेचने व खरीदने वाले चारों ओर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार कर्मानुसार जीवात्मा भी घूमता रहता है। जैसे पशु का संबन्ध पहले से टूट जाता है, और खरीदने वाले से जुड़ जाता है। ऐसे ही जीव का जिससे जैसा संबन्ध जब तक जिससे होता है तब तक रहता है।

जब जीवात्मा शरीर को त्याग देता है तब वह सम्बन्ध टूट जाता है। इस कारण हे राजा ! जब हमारा सत्व इस देह में था तब तक इसकी ममता थी, अब मृतक हुये पीछे इस शरीर से हमारा कुछ सम्बन्ध नहीं है। तब मेरे निमित्त आपका शोक करना व्यर्थ है।


हे राजन! बालक को मारने वाली वे रानियां ब्राह्मणों के कहे अनुसार बालहत्या का प्रायश्चित यमुना किनारे करने योग्य है। इस पर उन सौति रानियों ने यमुना स्नान कर बाल हत्या का प्रायश्चित किया।

इस प्रकार हे राजा परीक्षत ! अंगिरा ऋषि और नारद मुनि द्वारा ज्ञानोपदेश करने पर राजा चित्रकेतु ने पुत्र होने की कामना को त्याग दिया। राजा को ज्ञान होने पर उसने यमुना में स्नान किया और तर्पण आदि क्रिया करके अनन्तर मौन धारण करके जितेन्द्रिय होकर राजा ने नारद और अगिरा ऋषि को प्रणाम किया।

तब अध्यात्म विद्या का उपदेश करके नारदजी अंगिरा ऋषि के साथ बृह्मा लोक को चले गये।

फिर राजा चित्रकेतु नारद द्वारा वर्णन की हुई विद्या को सात दिन तक जल पान मात्र करके यथोक्त रीति से धारण करता रहा।

सो हे परीक्षत ! राजा चित्र केतु को इस मंत्र के प्रभाव से जप करने से विध्याधरों का अधिपत्य मिला। कुछ दिन पश्चात वह शेष भगवान के चरणों के समीप पहुँचा। तब उनके दर्शनों से चित्रकेतु पाप मुक्त हुआ और शेष भगवान की स्तुती करने लगा। राजा चित्रकेतु ने अनेक प्रकार से शेष भगवान की स्तुती की जिससे प्रसन्न हो अध्यात्म विध्यां का सारगर्भित उपदेश दे कर राजा के मन का मोहान्धकार नाश किया और फिर अन्तर्ध्यान हो गये।

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