नवीन सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण -छठवाँ स्कन्ध प्रारम्भ॥अजामिल की मोक्ष वर्णन विषय
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]
श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६
नवीन सुख सागर श्रीमद भागवद पुराण -छठवाँ स्कन्ध प्रारम्भ
* मंगला चरण *दो० नारायण के नाम को जो सुमिरे एक वार।
पाप क्षीण हो क्षणक में, हो भव सागर पार ॥
नर देही धारण करो, लियो न हरि को नाम |
रे मन मूरख किस तरह, चाहँ तू हरि धाम ||
या छटवे स्कंध में, हैं उन्नीस अध्याय ।
पढ़े भक्त जन प्रेम से, प्रभु पद ध्यान लगाय ।।
प्रथम अध्याय(अजामिल की मोक्ष वर्णन विषय)
दो०- विष्णु पार्षद आयट, लिये यम दूत दबाय |
दुष्ट अजामिल को लियौ, प्रथम अध्याय छुड़ाय ||
शुकदेव जी के बचन सुन परीक्षत ने विनय करके कहा हे मुने ! मेरे सामने आप उन उपायों का वर्णन करो कि जिनके करने से मनुष्य उन अनेक उग्र पीड़ा पहुँचाने वाले नरकों को प्राप्त न होवे ।
श्री शुकदेवजी बोले-हे राजा परीक्षत ! चाहे कोई भी मनुष्य क्यों न हो वह इस लोक में अगर मन, वाणी व कर्म से किये पापों का प्रायश्चित नहीं करता है तो वह अवश्य घोर नरक भोगता है।
जिस प्रकार चिकित्सक जन रोगी के रोग को निवारण करने के लिये रोग के सभी लक्षणों को देख कर चिकित्सा करता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने पाप रोगों का प्रायश्चित करना चाहिये। हे राजन! इसके ऊपर तुम्हें एक दृष्टान्त सुनाता हूँ सो ध्यान पूर्वक सुनो।
एक वैद्य ने एक औषधालय खोला उसके ऊपर विज्ञापन लगा दिया कि यहाँ प्रत्येक रोग की चिकित्सा की जाती है। एक दिन वैद्य के पास आ एक जिज्ञासु पुरुष ने कहा- वैद्यजी ! पाप रोग की क्या औषधि है । उस मनुष्य को बात सुनकर कर वैद्यजी चुप हो रहे । परन्तु वहाँ बैठे एक अवधूत ने कहा-हे मानव सुन ! वैराग्य रूप बीज और सन्तोष रूप पत्ते इकट्ठे कर नियम रूप की हर्र बनाय, उसमें धर्मरूप बहेड़ा और आदररूप का आँवला मिलाकर श्रद्धारूप खरल में डालकर कूट ले, फिर विचार रूप पत्र में रख प्रेमरूपी जल भरकर उत्सव की आग पर पकाय पश्चात छानकर ईर्षा, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, लोभ, रूप के कूड़े कर्कट मल आदि को निकाल दे फिर उस छने हुये शुद्ध तत्व को आज्ञा रूपी प्याले में भर हरि गुणानुवाद को मिलाय पाप रोग रूप कण्ठ में डालकर पीवे, तो निसन्देह पाप रोग दूर होवेगा ।
शुकदेव जी की ये बात सुन परीक्षित ने कहा- हे मुनि ! जब कोई मनुष्य पाप करता है और उसका दण्ड राजा द्वारा दिये जाने पर भी वह मनुष्य उसी प्रकार फिर पाप करता है तो कहिये फिर उस पाप का प्रायश्चित क्यों कर के हो सकता है। क्योंकि अज्ञान पाप का प्रायश्चित तो हो सकता है, परन्तु जानकर किये पाप का प्रायश्चित नहीं हो सकता जैसे हाथी स्नान करने के उपरान्त पुनः अपनी देह पर धून डाल लेता है, उसी प्रकार मैं उस पाप के प्रायश्चित को भी वृथा मानता हूँ। मेरी इस शंका का निवारण करो शुकदेवजी बोले हे परीक्षत ! यद्यपि प्रायश्चित करने से पाप तो निवृत होता है, परन्तु वह पाप समूल निवृत नहीं होता है। यदि मनुष्य पहिले ही यह विचार करे कि यह पाप कर्म है तो वह फिर पाप करेगा ही क्यों। जब पाप कर्म को जानेगा और न करेगा तो वह फिर क्यों नरक में जावेगा। अतः मुख्य बात तो विचार करना हो पाप का प्रथम प्रायश्चित है। तप, वृह्मचर्य, शम, दम, दान, सत्य, सौच, यह नियम से धर्मज्ञात व श्रद्धा जन-मन वाणी तथा अन्य बड़े-बड़े काया द्वारा किये पापों को इस प्रकार नष्ट कर देते हैं. कि जैसे दावानल बड़े-बड़े वृक्षों के झुण्डों को भस्म कर देता है।
कोई-कोई तो केवल भक्ति के द्वारा ही समस्त पापों को इस प्रकार नष्ट कर देता है, कि जैसे सूर्य की किरणों से कोहरा नष्ट हो जाता है।
यदि कोई यह चाहे कि हरि से विमुख रहकर पापों का प्रायश्चित कर लेगा तो वह सब असम्भव है। जिनने अपना मन ईश्वर में लीन किया है तथा एक बार भी भगवान के चरणों में मन को लगाया है वह स्वप्न में भी कभी यम तथा यमदूतों को नहीं देखता है। हे परीक्षत ! इस विषय पर हम एक प्राचीन इतिहास कहते हैं सो वह सुनो।
कान्यकुब्ज देश में एक अजामिल नाम का ब्राह्मण रहता था । परन्तु वह वैश्यागामी हो गया था जिससे वह जुआ आदि खेलता तथा चोरी, डॉका, अन्य जनों को मारना, हत्या आदि सभी निन्दित कर्म करने लग गया था। वह उस वश्या का ही हो रहा। उसने वैश्या से दस पुत्र उत्पन्न किये, सबसे छोटे पुत्र का नाम नारायण था। अजामिल को उन वैश्या पुत्रों का पालन करते-करते अट्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गये । वह अपने उस छोटे पुत्र को अत्यधिक चाहता था। उसके खेल इत्यादि एवं तोतली बोली को सुनकर व खेलों को देख देख कर बड़ा प्रसन्न होता था। जब स्वयं भोजन करता तो कहता अरे नारायण ! आ भोजन खाले, पानी पीता तो कहता अरे ओ नारायण ! आ पानी पीले; तात्पर्य यह है कि प्रत्येक कार्य में नारायण को पुकार कर कहता था। इस प्रकार उसे अपनी आयु के दिन व्यतीत होना भी प्रतीत न हुआ। वह वृद्ध हो गया तो जब कालगमन हुआ तो वह यह भी नहीं जान सका कि अब उसका अन्तिम समय है। जब अत्यन्त भयंकर तीन यम के दूत उसे लेने को आये तो अजामिल ने पुकारकर कहा- अरे नारायण आइयो । तब नारायण नाम उच्चारण करने से उसी समय विष्णु के पार्षद वहाँ आगये। उन्होंने यमदूतों को बलात्कार दूर किया और अजामिल की आत्मा उसके हृदय से निकाल कर अपने अधिकार में कर उन यमदूतों से कहा- तुम लोग इसको स्पर्श मत करना ! तिस पर यमदूतों ने कहा- हे देव ! तुम लोग कौन हो जो हमें धर्मराज की आज्ञा पालन करने से रोकते हो । तुम किसके दूत हो और क्योंकर इस पापी को यमपुरी ले जाने से हमें रोकते हो। विष्णुपार्षद बोले- यदि तुम लोग धर्मराज के दूत हो तो धर्म के लक्षण और तत्व कहिये- कि मनुष्य किन किन कर्मों के करने से किन-किन दण्डों को भोगने का भागो है।
यमदूत बोले- जो वेद में कहा है वह धर्म है, और जो वेद से विरुद्ध हैं वह अधर्म है। क्योंकि वेद नारायण के स्वाँस मात्र से प्रकट हुये हैं। सूर्य, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, अहोरात्रि, सन्ध्या, दिशा, जल, पृथ्वी, काल, धर्मराज, यह बारह जीव के धर्म-अधर्म के साक्षी कहे हैं। सो कर्म करने वालों से तो शुभ-अशुभ कर्म बनते ही रहते हैं। क्योंकि मनुष्य गुणों का संग बना रहने के कारण कर्म किये बिना नहीं रहता है। अतः जिस मनुष्य ने इस लोक में जितना धर्म-अधर्म कर्म किया होता है, वह उतना ही कर्मों के अनुसार फल को भोगता है। यह अजामिल पहले वेदपाठी ब्राह्मण था, जो कि शील स्वभाव वाले गुणों से युक्त, सत्य बोलने वाला एवं माता, पिता गुरु की सेवा करने वाला साधु पुरुष था। एक समय यह अजामिल अपने पिता की आज्ञा से कार्य हेतु बन को गया, जब वहाँ से लौटकर आता था, तो मार्ग में किसी दासी के साथ कामी पुरुष को रमण करते हुये देखा। तब उस बासनामय दोनों को काम क्रीड़ा में मग्न देख कर अजामिल का मन कामदेव के वश में हो गया। तब इसने उस वैश्या में अपना मन लगाया और अपनी व्याहृता ब्राह्मणी को त्याग कर दिया, तथा उस वैश्या के साथ रमण कर रहने लगा।
उसका पालन करने को इसने अपना समस्त पैतृक धन लगा दिया। जब कुछ न रहा तो अनेक दुष्कर्म करके धनोपार्जन कर पालन करता रहा । सो इसने जो-जो पाप किये हैं उनका कोई प्रायश्चित भी नहीं किया है। इसी कारण हम इसे इसके कर्मों का दण्ड भुगतवाने को धर्मराज की आज्ञा से यमपुरी ले जाने को आये थे। सो तुम हम इस पापो को ले जाने से क्यों रोकते हो।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम प्रथम अध्याय समाप्तम🥀।।
༺═──────────────═༻
༺═──────────────═༻
_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_
Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉
For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com
Comments
Post a Comment