श्रीमद भागवद पुराण पाचवाँ अध्याय [स्कंध ६] ( दक्ष द्वारा नारद को अभिश्राप )
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]
श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६
नवीन सुख सागर
श्रीमद भागवद पुराण पाचवाँ अध्याय [स्कंध ६]
( दक्ष द्वारा नारद को अभिश्राप )
दो०-कूट वचन नारद कहे, सुत संपूर्ण नसाय।
दियौ शाप देवर्षि को, दक्ष क्रोध उर लाय ॥
श्री शुकदेवजी बोले-हे परीक्षत ! विष्णु भगवान के जाने के पश्चात् उनका कहा शिरधार दक्ष ने पंचजन की कन्या अविसनी के साथ अपना विवाह कर लिया। जिसमें दक्ष प्रजापति ने हर्यश्व नाम के दशहजार (१००००) पुत्र उत्पन्न किये।
दक्ष प्रजापति ने अपने उन सब पुत्रों को सृष्टि उत्पन्न करने की आज्ञा प्रदान की, तब वे सब हर्यश्व नाम वाले दक्षपुत्र पिता की आज्ञा की मानकर जहाँ सिन्ध नदी समुद्र में मिलती है, उस संगम के निकट नारायण सर तीर्थ में सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से तपस्या करने लगे।
तब वहाँ नारदजी ने उन्हें तप करने को उद्यत देखकर कहा- हे हर्यश्वो ! बड़े खेद को बात है, कि आप सृष्टि उत्पन्न करना चाहते हो और अभी आपने--
१) पृथ्वी का अन्त नहीं देखा है, भला बिना पृथ्वी का अन्त देखे किस प्रकार सृष्टि रचना कर पाओगे।
२) जो एक मनुष्य वाला देश; और उस में प्रवेश के पश्चात निकलने का मार्ग नहीं देख पाता,
३) ऐसी गुफा बहुत रूप धारण करने वाली स्त्री, और
४) वह मनुष्य जो व्यभि चारिणी स्त्री का पति हो,
५) दोनों ओर बहने वाली नदी,
६) वह अद्भुत गृह जो पच्चीस पदार्थों से बना हुआ हो,
७) किसी समय विचित्र कथा कहता हुआ हंस,
८) छुरे और वज्रों से बना स्वयं चालित चक्र, और
९) अपने पिता की आज्ञा¹⁰ से इन दस बातों को बिना जाने, भला तुम मूर्ख लोग किस प्रकार सृष्टि की रचना कर सकोगे।
नारदजी के कटु बचनों को सुन हर्यश्वगणों ने ध्यान कर परस्पर अपने मन में स्वाभाविक बुद्धि से विचार किया कि नारदजी ने भूमि नाम क्षेत्र का है, क्षेत्र नाम जीव का है, लिंग शरीर है। एक ही पुरुष का देश कहा सो अन्तर्यामी भगवान है, सो उनके अर्थ समर्पण किये बिना असत् कर्मों के करने से क्या होता है। जो ये कहा कि निकलने का मार्ग नहीं सो मोक्ष हैं, और अनेक रूप वाली स्त्री सो अपनी बुद्धि हो व्यभिचारिणी वह स्त्री हैं। बुद्धि के संग से ऐश्वर्य भ्रष्ट होकर यह जीव जन्म लेता है। सो इसे ही उस बुद्धि रूपी व्यभिचारिणी स्त्री का पति जानो। जो दोनों तरफ बहने वाली नदी कही है, सो वह भगवान की भुवन मोहिनी माया है। जो पच्चीस पदार्थो का घर कहा है सो वह पच्चीस तत्वों से बना हुआ यह शरीर है। हंस वह शास्त्र है जो ईश्वर का प्रतिपादन करने वाला है। जो चक्र कहा सो काल को जानो । शास्त्र हमारा पिता है जो द्वितीय जन्म का कारण है, उसकी आज्ञा निवर्तक होना है। उस आज्ञा को जो नहीं जानता है वह सृष्टिकार्य में किस प्रकार लग सकता है। हे राजा परीक्षत ! यह विचार कर वे हर्यश्वगण नारदजी से बोले-हे मुनि ! आपका कहा हमने अब समझ लिया है सो अब हम जाते हैं, हमारा आपको प्रणाम है। इस प्रकार कहकर वे ऐसे मुक्ति मार्ग को चले गये कि जहाँ से आज तक कोई भी नहीं लौटा है।
दक्ष ने जब ये समाचार सुना तो वे प्रति दुखी हुये। तब उन्हें सन्ताप करते देख वृह्माजी ने आकर समझाया, तब दक्ष ने प्रजा रचने की इच्छा से फिर अपनी वही अक्सिनी नाम भार्या में एक हजार (१०००) शवलाश्व नाम के पुत्र पैदा किये। उन्हें भी दक्ष ने प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब वे भी उसी स्थान पर तीर्थ में तप करने को गये जहाँ पर उनके भाई गये थे। तब फिर नारदजी ने उन्हें उसी प्रकार कहा जिस प्रकार हर्यश्वों को कहे थे उन कूट बचनों में केवल इतना अधिक कहा कि, यदि तुम अपने भाइयों पर प्रीति रखने वाले हो तो उनका ही अनुकरण करो । नारद तो इतना कह चले गये। तब वे १००० शवलाश्व भी उसी मार्ग पर चले गये। तब पुत्रों के शोक से विह्वल हो दक्ष ने नारदजी से क्रोधकर कहा-
हे नारद ! क्या यह तेरा साधु धर्म था जो हमारे पुत्र अपने धर्म में प्रवृत्त थे उन्हें भिक्षुकों के मार्ग पर भेज दिया। हे पापी! तूने उनके दोनों लोक बिगाड़ दिये। तुम्हारे इस भीषण अपराध को हमने सहन कर लिया है। परन्तु फिर भी तूने हमारे पुत्रों का स्थान भ्रष्ट करके अमंगल किया है। इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि तेरा जन्म लोकों में विचरते-विचरते ही बीतेगा । जब प्रजापति दक्ष ने नारदजी को यह श्राप दिया तो उसे देवर्षि ने मौन हो स्वीकार कर लिया।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम पंचम अध्याय समाप्तम🥀।।
༺═──────────────═༻
༺═──────────────═༻
_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_
२) जो एक मनुष्य वाला देश; और उस में प्रवेश के पश्चात निकलने का मार्ग नहीं देख पाता,
३) ऐसी गुफा बहुत रूप धारण करने वाली स्त्री, और
४) वह मनुष्य जो व्यभि चारिणी स्त्री का पति हो,
५) दोनों ओर बहने वाली नदी,
६) वह अद्भुत गृह जो पच्चीस पदार्थों से बना हुआ हो,
७) किसी समय विचित्र कथा कहता हुआ हंस,
८) छुरे और वज्रों से बना स्वयं चालित चक्र, और
९) अपने पिता की आज्ञा¹⁰ से इन दस बातों को बिना जाने, भला तुम मूर्ख लोग किस प्रकार सृष्टि की रचना कर सकोगे।
नारदजी के कटु बचनों को सुन हर्यश्वगणों ने ध्यान कर परस्पर अपने मन में स्वाभाविक बुद्धि से विचार किया कि नारदजी ने भूमि नाम क्षेत्र का है, क्षेत्र नाम जीव का है, लिंग शरीर है। एक ही पुरुष का देश कहा सो अन्तर्यामी भगवान है, सो उनके अर्थ समर्पण किये बिना असत् कर्मों के करने से क्या होता है। जो ये कहा कि निकलने का मार्ग नहीं सो मोक्ष हैं, और अनेक रूप वाली स्त्री सो अपनी बुद्धि हो व्यभिचारिणी वह स्त्री हैं। बुद्धि के संग से ऐश्वर्य भ्रष्ट होकर यह जीव जन्म लेता है। सो इसे ही उस बुद्धि रूपी व्यभिचारिणी स्त्री का पति जानो। जो दोनों तरफ बहने वाली नदी कही है, सो वह भगवान की भुवन मोहिनी माया है। जो पच्चीस पदार्थो का घर कहा है सो वह पच्चीस तत्वों से बना हुआ यह शरीर है। हंस वह शास्त्र है जो ईश्वर का प्रतिपादन करने वाला है। जो चक्र कहा सो काल को जानो । शास्त्र हमारा पिता है जो द्वितीय जन्म का कारण है, उसकी आज्ञा निवर्तक होना है। उस आज्ञा को जो नहीं जानता है वह सृष्टिकार्य में किस प्रकार लग सकता है। हे राजा परीक्षत ! यह विचार कर वे हर्यश्वगण नारदजी से बोले-हे मुनि ! आपका कहा हमने अब समझ लिया है सो अब हम जाते हैं, हमारा आपको प्रणाम है। इस प्रकार कहकर वे ऐसे मुक्ति मार्ग को चले गये कि जहाँ से आज तक कोई भी नहीं लौटा है।
दक्ष ने जब ये समाचार सुना तो वे प्रति दुखी हुये। तब उन्हें सन्ताप करते देख वृह्माजी ने आकर समझाया, तब दक्ष ने प्रजा रचने की इच्छा से फिर अपनी वही अक्सिनी नाम भार्या में एक हजार (१०००) शवलाश्व नाम के पुत्र पैदा किये। उन्हें भी दक्ष ने प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब वे भी उसी स्थान पर तीर्थ में तप करने को गये जहाँ पर उनके भाई गये थे। तब फिर नारदजी ने उन्हें उसी प्रकार कहा जिस प्रकार हर्यश्वों को कहे थे उन कूट बचनों में केवल इतना अधिक कहा कि, यदि तुम अपने भाइयों पर प्रीति रखने वाले हो तो उनका ही अनुकरण करो । नारद तो इतना कह चले गये। तब वे १००० शवलाश्व भी उसी मार्ग पर चले गये। तब पुत्रों के शोक से विह्वल हो दक्ष ने नारदजी से क्रोधकर कहा-
हे नारद ! क्या यह तेरा साधु धर्म था जो हमारे पुत्र अपने धर्म में प्रवृत्त थे उन्हें भिक्षुकों के मार्ग पर भेज दिया। हे पापी! तूने उनके दोनों लोक बिगाड़ दिये। तुम्हारे इस भीषण अपराध को हमने सहन कर लिया है। परन्तु फिर भी तूने हमारे पुत्रों का स्थान भ्रष्ट करके अमंगल किया है। इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि तेरा जन्म लोकों में विचरते-विचरते ही बीतेगा । जब प्रजापति दक्ष ने नारदजी को यह श्राप दिया तो उसे देवर्षि ने मौन हो स्वीकार कर लिया।
।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम पंचम अध्याय समाप्तम🥀।।
༺═──────────────═༻
༺═──────────────═༻
_人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_
Comments
Post a Comment