श्रीमद भागवद पुराण चौथा अध्याय [स्कंध ६] ( दक्ष द्वारा हंस गुहा के स्तवन द्वारा हरि की आराधना )

 

श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]

श्रीमद भागवद पुराण स्कंध ६

नवीन सुख सागर 

श्रीमद भागवद पुराण चौथा अध्याय [स्कंध ६]
( दक्ष द्वारा हंस गुहा के स्तवन द्वारा हरि की आराधना )

दो०-दक्ष तपस्या अति करी, करन प्रजा उत्पन्न।

सो चौथे अध्याय में कही कथा सम्पन्न॥



नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण  चौथा अध्याय [स्कंध ६] ( दक्ष द्वारा हंस गुहा के स्तवन द्वारा हरि की आराधना )  दो०-दक्ष तपस्या अति करी, करन प्रजा उत्पन्न।  सो चौथे अध्याय में कही कथा सम्पन्न ||  परीक्षत ने पूछा-हे मुनि ! आपने तृतीय स्कंध में उत्पत्ति विषयक वार्ता सूक्ष्मरूप में कही है, सो अब मैं उसी को आपके मुख से विस्तार पूर्वक सुनना चाहता हूँ। परीक्षित के यह बचन सुनकर श्री शुकदेवजी बोले-   हे राजन! प्राचीन वहि राजा के दश पुत्र जो प्रचेता नाम वाले थे, तप करके समुद्र से निकल कर चले तो उन्होंने पृथ्वी को वृक्षों से घिरा हुआ देखा । तो उन्होंने तप के प्रभाव से अपने मुख से अग्नि और वायु को उत्पन्न किया जिससे भूमण्डल के हरे भरे वृक्ष भस्म होने लगे। तब वृक्षों को जलता देख वृक्षों के राजा चन्द्रदेव ने आय प्रचेताओं से कहा-  हे प्रचेतागणों ! आप इन दीन वृक्षों पर क्रोध करने योग्य नहीं हो। आपके पिता तथा वृम्हाजी ने आप लोगों को प्रजा रचने की आज्ञा दी है। फिर आप इन वृक्षों को क्यों भस्म करना चाहते हो!  जिस सतमार्ग पर आपके पिता, पितामह एवं प्रपितामह चले हैं, उसी पर आप सब भी चित्त को स्थिर करके चलो। अब तक आपने जिन वृक्षों को भस्म कर दिया सो कर दिया, अब अागे और वृक्षों को भस्म मत करो। इन वृक्षों की एक सुन्दर कन्या है उसे तुम सब अपनी पत्नी स्वीकार करो।   हे परीक्षित! इस प्रकार वृक्षों का राजा चन्द्रदेव, प्रम्लोचा अप्सरा के श्रेष्ठ कन्या को देकर चला गया। तब धर्म पूर्वक प्रचेताओं ने उस कन्या के साथ अपना विवाह किया। उस कन्या में प्रचेताओं द्वारा दक्ष नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो भूमण्डल का प्रजापति हुआ पहले तो प्रजापति दक्ष ने अपने मन से ही जल, थल, नभ में रहने वाली नाना प्रकार की प्रजा, तथा देवता, दैत्य और मनुष्यों आदि को उत्पन्न किया।   परन्तु अपनी इस स्त्री से हुई प्रजा से सृष्टि की वृद्धि को होते न देखा तो वह विद्याचल पर्वत पर जाय अति दुष्कर तपस्था करने लगा। उस स्थान पर तीनों काल के पाप नाशक एक अमर्षण नाम का तीर्थ था, उसी में यह तीनों काल स्नान करता था। तब दक्ष की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान विष्णु दर्शन देने के लिये साक्षात रूप से प्रगट हुये। उसी समय सिद्धचारण, गन्धर्व, नारदनन्दन इत्यादि पार्षद और सम्पूर्ण लोकपाल भगवान को चारों ओर से घेर खड़े हो अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे। अपने सन्मुख इस प्रकार भगवान की प्रगट हुआ देख प्रजापति दक्ष ने हृदय में आनन्दित हो भगवान को दण्डवत प्रणाम किया परन्तु गद गद होने के कारण दक्ष में बोलने की सामर्थ न रही।  श्री भगवान बोले-हे महाभाग पुत्र दक्ष ! तुम अपने तप के प्रभाव से सिद्ध हुये हो। तुम्हारा तप जगत की वृद्धि करने के अर्थ है इसी से मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ । वृह्मा, महादेव, तुम सब प्रजापति, मनु, देवता, देवेश्वरगण, यह सब सृष्टि की वृद्धि के हेतु होने हमारी ही विभूति है।   तप मेरा हृदय है विद्या मेरी देहरूप है, मेरी आकृति क्रिया है, तथा यज्ञ मेरे अंगरूप है, देवता मेरे प्राणरूप हैं। हे दक्ष ! सृष्टि से पूर्व में ही था, तब मुझसे वृम्हाजी उत्पन्न हुये, वह सृष्टि रचने लगे, परन्तु जब वे सृष्टि रचने में असमर्थ हुये तो उन्होंने अपनी आत्मा को असक्त के समान माना । तब मेरे कहने से वृम्हाजी ने बिकट तप किया, जिसके प्रभाव से वृम्हाजी ने पहिले नौ प्रजापतियों को उत्पन्न किया। सो अब आप प्रजा उत्पन्न करने के निमित्त पंवजन की इस उपस्थित अक्सिनी नाम वाली कन्या को अपनी स्त्री बनाओ। तब इस स्त्री के साथ मैथुन द्वारा प्रजा को बढ़ाओ। तब तुमसे पीछे होने वाली सब प्रजा मेरी माया के प्रभाव से मैथुन धर्म से ही प्रजा को उत्पन्न करेंगे।    तब हे परीक्षत! वे भगवान विष्णु दक्ष को यह उपदेश कर सबके देखते-देखते अन्तर्ध्यान हो गये।


परीक्षत ने पूछा-हे मुनि ! आपने तृतीय स्कंध में उत्पत्ति विषयक वार्ता सूक्ष्मरूप में कही है, सो अब मैं उसी को आपके मुख से विस्तार पूर्वक सुनना चाहता हूँ। परीक्षित के यह बचन सुनकर श्री शुकदेवजी बोले-

हे राजन! प्राचीन वहि राजा के दश पुत्र जो प्रचेता नाम वाले थे, तप करके समुद्र से निकल कर चले तो उन्होंने पृथ्वी को वृक्षों से घिरा हुआ देखा । तो उन्होंने तप के प्रभाव से अपने मुख से अग्नि और वायु को उत्पन्न किया जिससे भूमण्डल के हरे भरे वृक्ष भस्म होने लगे। तब वृक्षों को जलता देख वृक्षों के राजा चन्द्रदेव ने आय प्रचेताओं से कहा-

हे प्रचेतागणों ! आप इन दीन वृक्षों पर क्रोध करने योग्य नहीं हो। आपके पिता तथा वृम्हाजी ने आप लोगों को प्रजा रचने की आज्ञा दी है। फिर आप इन वृक्षों को क्यों भस्म करना चाहते हो! जिस सतमार्ग पर आपके पिता, पितामह एवं प्रपितामह चले हैं, उसी पर आप सब भी चित्त को स्थिर करके चलो। अब तक आपने जिन वृक्षों को भस्म कर दिया सो कर दिया, अब अागे और वृक्षों को भस्म मत करो। इन वृक्षों की एक सुन्दर कन्या है उसे तुम सब अपनी पत्नी स्वीकार करो।

हे परीक्षित! इस प्रकार वृक्षों का राजा चन्द्रदेव, प्रम्लोचा अप्सरा के श्रेष्ठ कन्या को देकर चला गया। तब धर्म पूर्वक प्रचेताओं ने उस कन्या के साथ अपना विवाह किया। उस कन्या में प्रचेताओं द्वारा दक्ष नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो भूमण्डल का प्रजापति हुआ पहले तो प्रजापति दक्ष ने अपने मन से ही जल, थल, नभ में रहने वाली नाना प्रकार की प्रजा, तथा देवता, दैत्य और मनुष्यों आदि को उत्पन्न किया।

परन्तु अपनी इस स्त्री से हुई प्रजा से सृष्टि की वृद्धि को होते न देखा तो वह विद्याचल पर्वत पर जाय अति दुष्कर तपस्था करने लगा। उस स्थान पर तीनों काल के पाप नाशक एक अमर्षण नाम का तीर्थ था, उसी में यह तीनों काल स्नान करता था। तब दक्ष की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान विष्णु दर्शन देने के लिये साक्षात रूप से प्रगट हुये। उसी समय सिद्धचारण, गन्धर्व, नारदनन्दन इत्यादि पार्षद और सम्पूर्ण लोकपाल भगवान को चारों ओर से घेर खड़े हो अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे। अपने सन्मुख इस प्रकार भगवान की प्रगट हुआ देख प्रजापति दक्ष ने हृदय में आनन्दित हो भगवान को दण्डवत प्रणाम किया परन्तु गद गद होने के कारण दक्ष में बोलने की सामर्थ न रही।


श्री भगवान बोले-हे महाभाग पुत्र दक्ष ! तुम अपने तप के प्रभाव से सिद्ध हुये हो। तुम्हारा तप जगत की वृद्धि करने के अर्थ है इसी से मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ । वृह्मा, महादेव, तुम सब प्रजापति, मनु, देवता, देवेश्वरगण, यह सब सृष्टि की वृद्धि के हेतु होने हमारी ही विभूति है।

तप मेरा हृदय है विद्या मेरी देहरूप है, मेरी आकृति क्रिया है, तथा यज्ञ मेरे अंगरूप है, देवता मेरे प्राणरूप हैं। हे दक्ष ! सृष्टि से पूर्व में ही था, तब मुझसे वृम्हाजी उत्पन्न हुये, वह सृष्टि रचने लगे, परन्तु जब वे सृष्टि रचने में असमर्थ हुये तो उन्होंने अपनी आत्मा को असक्त के समान माना । तब मेरे कहने से वृम्हाजी ने बिकट तप किया, जिसके प्रभाव से वृम्हाजी ने पहिले नौ प्रजापतियों को उत्पन्न किया। सो अब आप प्रजा उत्पन्न करने के निमित्त पंवजन की इस उपस्थित अक्सिनी नाम वाली कन्या को अपनी स्त्री बनाओ। तब इस स्त्री के साथ मैथुन द्वारा प्रजा को बढ़ाओ। तब तुमसे पीछे होने वाली सब प्रजा मेरी माया के प्रभाव से मैथुन धर्म से ही प्रजा को उत्पन्न करेंगे।


तब हे परीक्षत! वे भगवान विष्णु दक्ष को यह उपदेश कर सबके देखते-देखते अन्तर्ध्यान हो गये।

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम चतुर्थ अध्याय समाप्तम🥀।।

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