कलियुग में भक्ति ही केवल एकमात्र साधन। मंगला चरण
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विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]
मंगला चरण
कस्तूरी तिलकं ललाट पटले।
वक्षस्थले कौस्तुभं, नासाग्रेवरमौक्तिकं करतले वेणुकरेकंकणम्।
सर्वागे हरिचन्दनं सुललितं कंठेच मुक्तावली।
गोपस्त्री परिवेष्टितो बिजयते गोपाल चूडामणिः।
फुल्लेन्दीवरकान्तिमिन्दुवदनं बह्तावतंसंप्रियं,
श्रीवत्सांक मुदारकौस्तुभं पीताम्बरं सुन्दरम् ।
गोपीनांनयनोत्पलाचित तनु गोगो पसंघावृतं, गोविन्द कलवेणुवादनपरं दिव्यांग भूषं भजे ।।
दो: भाखयो पद्मपुराण जस नारद भक्ति मिलाप ।
पट अध्यायन सो कह्यो, श्रीदेवऋषि नारद आप।
कालरूप सर्व से पसित होने के छात्र का नाम करने वाला भागवत शास्त्र कलियुग में श्री शुकदेव जी ने वर्णन किया है, मन को शुद्ध करने के निमित्त इससे बड़कर दूसरा कोई भी साधु नहीं है।। जन्मान्तर के पुण्य के प्रभाव से भागवत की प्राप्ति होती है।।
क्यूँ सूत जी ने देवताओं को भागवद कथा रुपी अमृत से वंचित किया?
श्रीमद्भागवत माहात्म्य का पहिला अध्याय श्रीमद भागवद कथा का महात्मय (सुख सागर)
।।नारद मुनि और भक्ति, वैराग्य, और ज्ञान का मिलाप।।
।।भक्ति का दुख को प्राप्त होना।। ।।कलयुग का सत्य।।
।।सनकादिक मुनीयों का नारद जी को ज्ञान।।
भक्ति का श्री नारद मुनि से मिलाप।। ज्ञान वेराज्ञ को चेत।।
लोभ से कन्याओं का विक्रय हो रहा है, स्त्री पुरुष में कलेश रहने लगा है। मुनियों के आश्रम, मठ, तीरथ और नदियों पर यवनों का अधिकार हो गया है देवताओं के स्थान को दुष्टों ने जहां तहाँ नष्ट कर डाले है। न कोई योगी है न सिद्ध है, और न काई उत्तम क्रिया वाला पुरुष है।। कालरुपी घोर अग्नी से सब सामान जलकर भस्म हो गये हैं । इस कलयुग में मनुष्य अन्न बेचकर, ब्राह्मण वेद बेचकर व स्त्रीयाँ लज्जा बेचकर जीवन यापन कर रहे। हैं। सो इस प्रकार इन सब कल्युगी दोषों को देखता हुआ मैं यमुना जी के तट पर आया जहां श्रीकृष्ण भगवान ने अनेक लीलायें की थी।। मुनियों ! वहाँ मैने बड़ा भारी आश्चर्य देखा कि एक युवा स्त्री महादुखी मन मारे बैठी सोच कर रही थी, और उस के समीप दो वृध्द पुरुष अचेत पड़े लम्बे-लम्बे श्वास ले रहे थे, और यह दोनों को सेवा करती और समझाती हुई उनके आगे रो रहो थी। वह अपने शरीर की रक्षा करने वाले को नेत्र पसार-पसार कर चारों ओर देख रही थी, सैकड़ों स्त्रियाँ उसके पवन करती थी और बारम्बार धैर्य देकर उसको समझा रही थी। यह कौतुक दूर से देखते ही में उस शोकाकुल स्त्री के समीप गया, मुझे देखते ही वह बाला उठी और विह्वल होकर यह वचन बोली। हे साधु ! क्षण मात्र ठहर कर मेरी चिन्ता दूर करो, तुम्हारा दरसण करने से लोगों के सब पाप दूर हो जाते हैं। नारदजी बोले कि उसके यह वचन सुनकर मैंने पूछा कि देवी तुम कोन हो! और ये जो दो अचेत पड़े हैं सो ये कौन हैं और कमल समान नेत्रों वाली स्त्रियाँ जो तुम्हारे समीप बैठी हैं सो ये कौन हैं ! और तुम्हारे दुःख का कारण है। वह विस्तार पूर्वक हमसे कहो। यह सुनकर बाला बोली कि मैं भक्ति हूँ, मेरा नाम जगत में विख्यात है। ये दोनों जो अचेत पड़े सो मेरे पुत्र ज्ञान, वैराग्य नाम वाले कुसमय के प्रभाव से वृद्ध हो और ये जो स्त्रीयाँ हैं वे गंगा आदि नदियाँ मेरी सेवा के अर्थ यहां आई हैं और यद्यपि देवता मेरी सुषूना करते हैं. तथापि मुझे कोई भी कल्याण का साधन नहीं देख पड़ता । है तपोधन इस समय चित लगाकर मेरी बात को सुनो मेरी कथा बहुत बड़ी है और इसे सुनकर आपको परम सुख प्राप्त होगा।
द्रविण देश में उत्पन्न होकर में कर्णाटक देश में वृद्धि को प्राप्त है फिर कुछ काल उपरान्त युवाहोकर दक्षिण देश में रही, वहां से गुजरात और महाराष्ट्र देश में पहुँची वहां वृद्ध हो गई। वहाँ घोर कलियुग के योग से लोगों द्वारा पाखंड खण्डित शरीर वाली में पुत्रों सहित दुर्बल हो गई। इस समय विचरते२ वृन्दावन में आई तो फिर पहिले समान ही युवा और सुन्दरी रूप वाली होगई हूँ। परन्तु ये मेरे दोनों पुत्र परिश्रम के मारे दुःखित और अचेत पड़े हैं। इस कारण इनके दुःख से मैं महा दुखित हो रही हूँ। हम तीनों सदा एक साथ रहते थे परन्तु इस विपरीतता के कारण बड़ा सङ्कट है। यदि माता वृद्ध होवे और पुत्र तरुण होवे तब तो ठीक ही है, परन्तु यह उलटी बात क्यों हुई ! हे योगेश्वर' हे बुद्धिमान् !
यह क्या कारण है ! वह मुझसे कहो। यह सुन नारदजी बोले- हे निष्पाप! ज्ञान दृष्टि से मैं तुम्हारा सब वृत्तान्त जानता हूँ, तुम किसी बात की चिन्ता मत करो, भगवान तुम्हारा कल्याण करेंगे। सूत जी ने कहा कि क्षण मात्र में विचार कर नारद मुनि बोले कि हे बाले ! मैं इसका कारण कहता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो, इस समय महाघोर कलियुग बर्त रहा है। इस कारण सदाचार, योग मार्ग और तप सब लोप हो गये हैं। और इसी कारण से मनुष्य पाप कर्म करने से असुर भाव को प्राप्त होगये हैं। इस कलियुग में साधु जन वल पाते हैं और असाधू जन प्रसन्न रहते हैं। अतएव इस समय में तो जो धैर्य धारण करे, वही धीर पण्डित अथवा बुद्धिमान है। इस कराल कलिकाल में शेषजी को भार रूप वाली पृथ्वी अब छूने और देखने योग्य नहीं रही है, और प्रतिवर्ष क्रम--क्रम से ऐसी ही होती जायगी, कहीं भी मङ्गल नहीं देख पड़ेगा और अब कोई भी मनुष्य न तो तुमको देखता है न तुम्हारे पुत्रों की ओर दृष्टि देता है। सब लोग पुत्र, स्त्री और धन आदि के अनुराग में अन्धे हो रहे हैं और तुम्हार आदर नहीं करते । इस कार तुम्हारी जर्जर अवस्था होगई अर्थात् तुम्हारा शरीर दुर्बल हो गया | वृन्दावन के संयोग से अब फिर तुम नवोन तरुण होगई हो, यह वृंदावन धन्य है कि जहां भक्ति सदएव आनन्द पूर्वक नृत्य करती है। इस वृंदावन में तेरे ये दोनों पुत्र ज्ञान और वराग्य वाह की ना होने के कारण वृध्दावस्था को त्याग नहीं करेंगे, किन्तु यद्यपि इनकी वृध्दावस्था निवृत नहीं हुई है तथापि दूसरे स्थानों की उपेक्षा ये यहां बहुत स्वस्थ रहेंगे। क्योंकि दूसरे स्थानों पर तो इन्हें निद्रा ही नहीं आती परन्तु यहां आने पर ये शन्ति पूर्वक अर्थात् सुखपूर्वक नेत्र मूँद कर सोये है।
कलियुग का धर्म
नारद मुनि के ये वचन सुनकर मुक्ति बोली कि-- हे नारद जी! इस अपावन कलयुग को राजा परीक्षित ने क्यों स्थापित किया। और इसके पृवित हुए पीछे सबका सार बल कह चला गया।तथा परम दयालु हरि भगवान इस अधम रुप कलियुग को कसे देख सकते हैं।। कृपा करके मेरा यह संदेह दूर करो। नारदजी बोले कि हे बाले तुमने जो पूछा है वो मैं कहता हूँ, जिस दिन से श्री कृष्ण चन्द्र भगवान इस पृथ्वी को त्याग कर निज धाम को पधार गये उसी दिन से सम्पूर्ण साधनों का बाधक यह कलियुग इस संसार में आया। दिग्विजय के समय में राजा परीक्षित ने इस कलयुग को गौ रूप पृथ्वी और वृषभ रूप धर्म के पीछे मारने को इच्छा से बढ़ता हुआ देखा तब राजा परीक्षित ने इसको अपने शराणागत जानकर छोड़ दिया । यह कलियुग नाना प्रकार के अवगुण का धाम है परन्तु इसमें उत्तम है कि जिससे राजा परीक्षित ने इसको अपराधी जान करके भी छोड़ दिया, वह गुण है कि दूसरे युगों में जप, योग समाधि द्वारा भी जो फल प्राप्त होना दुर्लभ हो जाता वह फल इस कलयुग में भगवान का नाम भक्ति पूर्वक लेने से भली भान्ति प्राप्त हो जाता।।
ब्राह्मणों ने धन से लोभ से भगवत्सम्बन्धी कथा घर-घर में प्रत्येक भक्त के सन्मुख कहानी प्रारम्भ करता, इस कारण कथा का सार जाता रहा, और अति कुकर्मो, नास्तिक,नरक-अधिकारी लोग,कपट वेष धारण कर तीर्थ वास करने लगे, इस कारण तीर्थों का सार जाता रहा। तथा जिनक चित्त काम, क्रोध, लोम व मोह में व्याकुल हो रहे हैं, ऐसे लोग झूठा तप करने लगे, इस कारण तपस्या का सार जाता रहा, और मनके न जीतने तथा लोभ, दम्भ और पाखंड का आश्रय लेने से और शास्त्रों का अभ्यास न करने से ध्यान योग का फल जाता रहा। पंडिको को यह दशा है कि महिष के समान स्त्रियों के सग रमण कर पुत्र उत्पन्न करने में तो निपुण हैं, परन्तु मुक्ति साधन में मूर्ख है। सब सस्परदायों मे श्रे ष्ठ वैष्णव सम्प्रदाय है सो कहीं देखने में नहीं आता इस प्रकारस्थान में सब पदार्थो का सार जाता रहा। यह तो कलियुग का धर्म ही ठहरा इसमें दूसरे किसी का क्या दोष है। इस कारण पुण्डरीकाक्ष भगवान समीर स्थित होन पर भी सहन करते हैं ।
मंदिर सरकारी चंगुल से मुक्त कराने हैं?
क्या था रावण की नाभि में अमृत का रहस्य? तंत्र- एक विज्ञान।।
आचार्य वात्स्यायन और शरीर विज्ञान।
तांत्रिक यानी शरीर वैज्ञानिक।।
मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।
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