श्रीमद भागवद पुराण ॥तेरहवां अध्याय॥ स्कंध५(भयावटो वर्णन)
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धर्म कथाएं
विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]
श्रीमद भागवद पुराण [introduction]
• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]
• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ४]
श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ५]
श्रीमद भागवद पुराण ॥तेरहवां अध्याय॥ स्कंध५(भयावटो वर्णन)
हो०-आत्म ज्ञान उपदेश जिमि' कहयो भरत समझाय।
तेरहवें अध्याय में, कथा कही दर्शाय ।।
हे राजन ! परमेश्वर इस देह से इस प्रकार अलग है कि, जिस प्रकार किसी वृक्ष की डाल पर बैठा हुआ पक्षी वृक्ष से अलग होता है । क्योंकि उस वृक्ष की डाल को अथवा उस वृक्ष को काटने पर उस पक्षी को कोई दुख नहीं होना है। यदि वह पक्षी फिर भी उस को अपना ही जान कर शोक करे, तो वह वृथा है। सो हे रहूगण नरेश ! जो मनुष्य इस देह को अपनी जान कर सांसारिक सुखों में अपने मन को लगाता है, उसे दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिलता है। जो मनुष्य इन विषय सुखों को त्याग कर हरि के चरणों में प्रीति करता है तथा देह का मोह नहीं करता वह भगवत भजन में मन लगाने से सुखों को प्राप्त करता है । क्योंकि नारायण का भजन करने से हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है । जिससे मोह, लोभ, क्रोध, मद, यह सब दूर हो जाते हैं। जिससे मनुष्य विरक्त होकर ज्ञान को प्राप्त होता है। जड़ भरत की बात सुन कर राजा रहूगण हाथ जोड़कर बोला - हे विप्रवर ! आप श्रेष्ठ द्विज हैं। मैं अज्ञान वश आपको न पहिचान सका, अब मैंने आपको पहिचाना है कि, आप ब्राह्मण हैं, अत: जिस प्रकार रोगी की पीड़ा अमृत पान करने से नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार आप संसारी प्राणियों को, जोकि माया मोह में फंस कर नष्ट हो रहे हैं, अपना दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं । अतः मुझे भी आपने अपना दास जानकर दर्शन दिया है।
रहूगण के यह विनय भरे बचन सुनकर जड़ भरत बोले-हे राजन ! इस विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन कथा सुनाता हूँ, जो कि उसे यदि तुमने ध्यान से श्रवण करके मनन कर प्रयत्न किया तो इस भव सागर के चक्र से शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाओगे।
रहूगण को जड़ भरत का ज्ञानोप्देश
एक बंजारों का टोल अपने साथ अनेक वस्तुयें साथ लेकर व्यापार करने के लिये परदेश को चला। वे अपने आपको अधिक धनी तथा बलवान समझते थे सो इसी कारण से उन बंजारों ने अपने लुटने का कोई भय न मानकर अपनी रक्षा के निमित्त किसी रक्षक स्वरूप सेवक को भी अपने साथ में नहीं लिया और वह बंजारों का समूह संसार व्यापार करने को भ्रमण करने लगा।
हे राजन! जब वह बंजारों का टोल बस्ती से निकल व्यापार के लिये चला तभी छ: चोर जो चोरी करने में अति चतुर तथा बलवान व प्रसिद्धि ठग थे अपने अनेक सहयोगियों को साथ लेकर उन बंजारों को लूटने के लिये पीछे-पीछे लग लिये।
सो हे राजन ! वे बन्जारे निकले तो व्यापार करने को थे, पर रास्ता भटक कर एक ऐसे जंगल में पहुंच गये कि जहाँ अनेक दुखदाई कारण उपस्थित थे । अति उस वन में भेड़िये, व्याघ्र, आदि भयानक जीव भी थे, जो किसी भी क्षण इनको कष्ट पहुँचाने के लिये तत्पर थे।
उस वन में सघन लता, घास, और झाड़ियों से गहन घिरा हुआ स्थल था। जिसमें भयंकर डांस और मच्छर आदि कष्ट देने वाले जीव बड़ा उपद्रव करते थे।
जब उन बंजारों के समूह को कोसों तक किसी नगर का चिन्ह तक दृष्ट न आया, और उस वन में सिंह, भालू, कंटीले वृक्ष एवं बड़े-बड़े नदी नाले अधिक होने के कारण मार्ग चलना भी कठिन हो गया था। अतः वे उस जंगल को पार करने के विचार से संध्या तक निरन्तर चलता रहा । नहीं वह समूह गन्धर्व नगर को देख सत्य मानता था, और किसी स्थान पर बड़े वेग से जाते हुए भूत के छिलके की अग्नि को लेने की इच्छा से दौड़ता था। निवास स्थान, जल और धन के लोभ से वह बन्जारों का समूह जहाँ तहाँ दौड़ता था। और कहीं बबूले से उठी हुई धूल से अच्छादित हो धूमरी हुई दिशाओं को भी नहीं जान पाता था, क्यों कि वायु के वेग से उड़ने वाली धूल उनकी आँखों में भर जाती थी। कहीं कही झींगुरों के बोलने की आवाजों से उनके कानों में पीड़ा होने लगती थी। हे राजन जब वह बंजारे इन दुखों से दुखी होते और भूख की पीड़ा से पीड़ित होते तो अपवित्र वृक्षों की छाया में जाकर बैठ जाते थे, कभी कभी प्यास बुझाने के लिये सूर्य की पृथ्वी पर दूर से पड़ी किरणों को जल समझ कर मृग तृष्णा के समान उधर को ही दौड़ने लगते थे । इसी बीच राह में कहीं कहीं उन बन्जारों के धन को शूरवीर बलवान लोग हर लेते थे । जिसके कारण वे बन्जारे लोग अति खेद को प्राप्त हो, शोक से व्याकुल हो मूर्छित हो गिर पड़ते हैं।
कभी कभी किसी गंधर्व पुर में प्रवेश करके सुख की भाँति समझ कर कुछ काल तक वे बन्जारे आनंद मान लेते थे। कभी कभी मार्ग चलने में जो पैरों में कांटे कंकड़ आदि लग जाते जिनके कारण पैरों के घायल होने से और फिर किसी ऊँचे पर्वत पर भी चढ़ना होता तो वे अति दुखी हो घबड़ाते थे । कहीं वे पुरुष जठरानल के द्वारा पीड़ित होने से भूख के कारण क्षण-क्षण में लोगों पर क्रोध करता था। कभी इस भयाटवी में अजगर सर्प से ग्रस्त होता है, तब अजगर के मुंह में फसे होने के कारण कुछ सुध नहीं रहती। सो वह डसा हुआ उन बन्जरों में से कोइ बन्जारा वन में ही डसा होने के कारण सोता था। कहीं हिसक पशुओं के काटने से कोई बन्जारा दुःख पाकर अंधता मिस्त्रवत् कूप में गिर पडता है। कोई बन्जारा शहब (मधु) के ढूंढ़ने में मक्खियों के द्वारा काटने पर अधिक दुःख पाता है । कदाचित इस प्रकार शहद के खोजने में इतने दुख पाने पर किसी बन्जारे को (मधु) मिल भी जाता है तो वहाँ अन्य खोजने वालों में कोई बलवान आकर बलात्कार करके छीन ले जाता है। जिससे वह इतना दुःख प्राप्त करने पर भी भोग नहीं कर पाता है। कभी कहीं कोई बन्जारा धन कमाने के लिये लेन देन करने के लिये ठगी करने में अधिक ठगी कर लेता है, तो वह उस स्थान पर ठगी के कारण द्वेष का पात्र भी बन जाता है। कभी-कभी कोई बन्जारा व्यापार में घाटा कर धन हीन होकर शैय्या, आसन, विहार आदि से रहित हो जाता है। तब वह दूसरों से वस्तु माँगता है। परन्तु जब दूसरे से कामना पूरी नहीं पोती है तो वह पराई वस्तु की अभिलाषा के कारण और न मिलने पर अपमान को भी सहन करता है। उस वन के मार्ग में उन बन्जारों के समूह में से जो कोई मर जाता है तो वे बंजारे उस मृतक की देह को वहीं छोड़ कर चल देते हैं, और जो उनके समूह में नया बन्जारा उत्पन्न होता है उसे वे साथ में लेकर चल देते हैं ।
सो हे राजन् ! जिस स्थान से वह बन्जारों का टोल चलता हैं उस स्थान पर लौट कर आने तक कोई भी वापिस नहीं आया है। न ही इस मार्ग का किसी ने कोई अन्त ही जाना है। बड़े-बड़े शूरवीर दिग्मिवजय करने वाले पुरुष पृथ्वी पर अपना-अपना कह कर ममता जताने वाले वेर भाव बांधकर युद्ध आदि में मरे,
परन्तु जहाँ र्निवैर भाव से रहने वाला सन्यासी जहाँ पहुंचता है, उस स्थान पर कोई भी न पहुंचता है।
सो संसारी रीति से वे बन्जारे भी कोई कोई किसी लता की शाखा के तले बैठता है, और उस पर बैठने वाले मनोहर पक्षियों को देखकर तथा उनकी मधुर बोलियों को सुनकर मोहित ने उसी स्थान पर रहना चाहता है। कभी वृक्षों में रमण करने की इच्छा करता है कभी स्त्री पुत्रों आदि में अधिक स्नेह करता है। कभी मैथुन करने के निमित्त दीन होकर पराधीन हो बन्धन में जाता है। परन्तु फिर वह इस बन्धन को छुड़ाने में समर्थ नहीं होता है। कभी कोई बन्जारा चलते-चलते किसी पर्वत के झरे पर पहुंच जाता है, और तब वहाँ कोई हाथी मारने को आता है तो किसी वेल को पकड़ कर लटक जाता है, और अंत तक हाथी के भय से लटका ही रहता है ।
हे रहूगण ! उन्हीं में से कोई बन्जारा नहीं बल्कि सभी एक-एक करके चलते चलते एक अंधकूप में गिर पड़ते हैं और तब उस कूप में अन्दर न जाने के भय से, क्योंकि उसमें नीचे एक विषधर फन फैलाये उस बन्जारे को खाने के लिये तैयार रहता है। सो उसे देखकर वह बन्जारा अपने आपको बचाने के लिये ऊपर लटकती हुई एक वृक्ष की लता को पकड़ लेता है और अधर में लटक कर ही प्राणों की रक्षा करता है; नीचे जाता है तो सर्प है और ऊपर जाने की अपने आप में शक्ति न जान कर निकलने का प्रयत्न भी नहीं करता है, क्योंकि उसी लता की शाख पर मधु का छत्ता हैं सो उस मधु में से एक एक बूंद करके टपकता है और उसके मुख में कभी-कभी बिन्दु पहुंचती है। जिसके स्वाद को सुख मान कर नीचे गिरने का भय नहीं करता और न ऊपर निकलना ही चाहता है क्यों कि फिर वह मधु बिन्दु न मिलेगा।
हे राजन् ! उसी वृक्ष की उस लता को दो चुहे धीरे-धीरे काटते रहते हैं जो स्वेत और श्याम रंग वाले हैं धीरे धीरे जब वह चूहे उस लता को काट देते हैं। तो वह बन्जारा कूप में गिर पड़ता है तब उसकी उस देह का अंत हो जाता है।
हे राजा रहूगण ! यह मैंने तुम्हे कुछ ज्ञान प्राप्त होन के निमित्त रूपक कथा सुनाई है, जिसे समझ कर अपनी आत्मा को पहिचान कर भगवान श्री नारायण का स्मरण करके भव सागर को पार करने मार्ग पाने का प्रयत्न करो।
Preserving the most prestigious, सब वेदों का सार, प्रभू विष्णु के भिन्न अवतार...... Shrimad Bhagwad Mahapuran 🕉 For queries mail us at: shrimadbhagwadpuran@gmail.com
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