जड़ भरत द्वारा ज्ञान॥ (राजा रहूगण का संदेह भंजन )श्रीमद भागवद पुराण बारहवां अध्याय [स्कंध ५]


श्रीमद भागवद पुराण  बारहवां अध्याय [स्कंध ५] (राजा रहूगण का संदेह भंजन )  दोहा - शंसय कियो अनेक विधि, रहुगण भूप अनेक।  बारहवें अध्याय में, मैंटे सहित विवेक ।।  श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब इस प्रकार श्री जड़ भरत ने राजा रहूगण को उपदेश किया तो रहगण की और भी अनेक संशय उत्पन्न हुये सो वह उनका निवारण करने के लिये उत्सुक हो इस प्रकार बोला-हे अवधूत ! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है । अाप ईश्वर के समान देह धारण करने वाले अपने परमानन्द में शरीर को तुच्छ किये हुए मलीन विप्र के वेष में अपने वृह्मानुभव को गुप्त रखते हुये विचरण करते हो। जिस प्रकार श्रेष्ठ औषधि, रोग से पीड़ित मनुष्य को गुणदायक है, और जिस प्रकार गर्मी से तपे व्याकुल मनुष्य को शीतल गंगा जल सुखदायी है।    उसी प्रकार मेरी ज्ञानरूपी दृष्टि को मेरी देह के अभिमान रूपी सर्प ने डसा है । सो उस अभिमान रूपी सर्प द्वारा डसी हुई मेरी ज्ञानरूपी दृष्टि के विष को उतारने के लिये आपको यह अमृत रूपी बचन अत्यन्त हितकारी है। सो आप अपने उन ज्ञानरूप गुथे हुये बचनों को भिन्न-भिन्न करके मुझ अज्ञानी को जो ज्ञान प्राप्ती की अभिलाषा रखता है कृपा करके समझाइये।    रहूगण की प्रार्थना सुनकर जड़ भरत ने कहा हे राजन्! संसार के जो भी जड़ चेतन्य पदार्थ तुम देखते हो वह सब पृथ्वी तत्व से बना हुआ है, जो कि अंत में इसी पृथ्वी तत्व में मिल जाता है। हे राजन् ! इसी तत्व को इस प्रकार जानो कि पृथ्वी आदि तत्व से बना हुआ जो कुछ भी पदार्थ पृथ्वी पर चलता है, सो उसे तुम भिन्न-भिन्न नामों से जानते हो।  .....जैसे यह कहार हैं, यह मनुष्य है, यह कुत्ता हैं, आदि प्रकार से जानते हो ।  ॐ॥ इसी प्रकार पृथ्वी तत्व से ही बना हुआ जो पत्थर आदि तत्व है नहीं चलता है, उसे तुम भाररूप समझते हो यदि तुम इस बात को विचार कर ज्ञान की दृष्टि से देखो तो चलने वाले और ना चलने वाले दोनों में तनिक भी भेद नहीं है । क्योकि पृथ्वी के ही किसी विकार से उसी पृथ्वी का तत्व चलने लगता है, और उसी पृथ्वी का तत्व विकार उत्पन्न न होने से भार रूप में जान पड़ता है।  ॐ॥ अतः चलने वाले को तुम जीव धारी कहते हो, उसी श्रेणी में मनुष्य को भी मानते हो । अर्थात पृथ्वी के विकार युक्त बलने वाले तत्व को तुम मनुष्य कहते हो।  ...अब आप इस बात को हे राजन् ! इस प्रकार जानो कि पृथ्वी की बनावट भी उसी प्रकार है कि, जैसे पाँव के ऊपर टिकुना, टिकुनों के ऊपर पिंडली, पिंडलियों के ऊपर जाँघ, जाँघों के ऊपर कमर, कमर के ऊपर छाती, छाती के ऊपर ग्रीवा, ग्रीवा के ऊपर कन्धे, फिर कन्धों के उपर यह काठ की सुखपाल है, और इस सुखपाल में सौवीर और और सिंधु देश का राजा रहूगण बैठा है, जो वह भी उसी पृथ्वी तत्व से बना एक मिट्टी का थुपा बैठा है।   ...सो हे राजन् ! तुम इस अहंकार में मदान्ध हुये बैठे हो कि मैं एक सौवीर सिंधू देश का राजा हूँ, और एक सुखपाल में बैठा हुआ हूँ। सो मेरा चित्त इस बात से बहुत सोच में होता है कि तुम्हारा बोझ उठाने वाले ये मनुष्य अत्यन्त कष्ट पाकर क्षीण तन तथा मलीन मन हो रहे हैं, सो इन लोगों को तुमने बल पूर्वक सुखपाल में लाकर जोत रखा है, तुम उन्हें बहुत दुख दे रहे हो । इस कारण तुमसे अधिक पापी, निर्दयी और कौन है?  जो निर्लज हो कहते हो कि मैं सबकी रक्षा करता हूँ। सो कुछ भी तुम कहते हो झूठ कहते हो जिसके कारण तुम वृद्धजनों की सभा में शोभा को प्राप्त न हो सकोगे, और यह दुःख देना ही आपके यश का नाश करने वाला है।   हे राजन ! जब हम इस बात को भली प्रकार जानते ही हैं कि इस जगत में चराचर सबकी उत्पत्ति इस पृथ्वी से ही हैं, और जब इसकी लय होती है । तब इस भूमि में ही होती है । तब आप यह बताओ कि इस संसार में केवल मात्र नाम रहने के और क्या रह जाता है। यदि तुम इस विषय में आगे कुछ योग्य अनुभव पूर्ण जानते हो तो इस मेरी बात का निरूपण कीजिये। हे राजन! यह पृथ्वी भी सत्य नहीं है, क्योंकि यह भी अपने कारण रूप सूक्ष्म परमाणुओं मे लीन हो जाती है। वह परमाणु भी सत्य नहीं हैं, क्योंकि वे भी भगवान की माया के विलास स्वरूप अज्ञान करके कल्पित किये हुये हैं । इसी प्रकार अन्य सब भी अर्थात कृश, स्थूल, छोटा, बड़ा, कारण, कार्य, चेतन, जड़, यह सब बुद्धि भेव के द्वैतमात्र से कल्पित हैं । द्रव्य, स्वभाव, वासना, काल कर्म से सब माया के किये हुये नाम भेद हैं।  ....यह सब हमने हे राजन! आपसे असत्य वस्तुओं के विषय में कहा है। अब हम तुमसे उन सब सत्य वस्तुओं के विषय में कहते हैं कि, जिन्हें तुम मन के वशीभूत हो ज्ञान को विसर्जन करके पहिचान नहीं पाते हैं।   सो हे राजन ! केवल सत्य तो ज्ञानमय परमवृह्म ही है, जो कि निविकार परमार्थ स्वरूप प्रत्यक्ष है, उसी का नाम भगवान वासुदेव है।...सो हे राजन! इस पारब्रह्म परमेश्वर की प्राप्ति अन्य किसी प्रकार नहीं होती है, वह तो केवल महात्मा लोगों के चरणों की रज की सेवन करने से ही होती है। जो लोग वेद विहित कर्म करके अथवा तप करके या अन्नादिक वस्तुयें बाँट के या गृहस्थ आश्रम में परोपकार करके इस परमवृह्म को प्राप्त करना चाहते हैं, सो यह उनका कोरा भ्रम ही है।   सो हे नृपाल ! सुन मैं अपने प्रथम जन्म में एक राजा था वहाँ उस जन्म में मेरा नाम भरत था और मेरे ही नाम पर इस पृथ्वी खण्ड का नाम भारत हुआ है। सो उस समय में सबसे सम्बन्ध त्याग कर विष्णु भगवान की आराधना किया करता था। परन्तु उस समय एक हिरन के  बच्चे में मेरा मोह हो जाने के कारण ही से मेरा प्रयोजन नष्ट हो गया था। जिसके कारण मुझे भी मग योनि में जन्म लेना पड़ा था।   .....सो हे भूपाल! उस मृग योनि में भी मुझे भगवान विष्णु की कृपा से अपने पूर्व जन्म की याद बनी रही थी। तत्पश्चात फिर इस जन्म में एक ब्राह्मण का पुत्र बन मनुष्य योनि को प्राप्त हुअा हूँ। अतः मुझे अपने दोनों पिछले जन्मों का स्मरण था, इसलिये में उसी भय के कारण मनुष्यों के संग से अलग हो गुप्त रूप से विचरण किया करता हूँ। अतः ज्ञान प्राप्त करने के लिये मनुष्य को चाहिये कि संग रहित हो महात्मा जनों की संगति कर ज्ञानोपार्जन कर ज्ञानरूप संग से मोह को दूर करो।  ॐ॥  हे राजन! भगवान की लीलीओं का मंथन और स्मरण करने से स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तब मनुष्य उसी ज्ञान के सहारे संसार मार्ग से पार हो जाता है। अतः तुम्हें चाहिये कि सदैव महात्माजनों की संगति संग रहित हो करो और भगवान की लौलाओं को सुनो और मथन करके स्मरण करो तो अवश्य तुम पार हो जाओगे।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम बारहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

श्रीमद भागवद पुराण  बारहवां अध्याय [स्कंध ५] (राजा रहूगण का संदेह भंजन )  दोहा - शंसय कियो अनेक विधि, रहुगण भूप अनेक।  बारहवें अध्याय में, मैंटे सहित विवेक ।।  श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब इस प्रकार श्री जड़ भरत ने राजा रहूगण को उपदेश किया तो रहगण की और भी अनेक संशय उत्पन्न हुये सो वह उनका निवारण करने के लिये उत्सुक हो इस प्रकार बोला-हे अवधूत ! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है । अाप ईश्वर के समान देह धारण करने वाले अपने परमानन्द में शरीर को तुच्छ किये हुए मलीन विप्र के वेष में अपने वृह्मानुभव को गुप्त रखते हुये विचरण करते हो। जिस प्रकार श्रेष्ठ औषधि, रोग से पीड़ित मनुष्य को गुणदायक है, और जिस प्रकार गर्मी से तपे व्याकुल मनुष्य को शीतल गंगा जल सुखदायी है।    उसी प्रकार मेरी ज्ञानरूपी दृष्टि को मेरी देह के अभिमान रूपी सर्प ने डसा है । सो उस अभिमान रूपी सर्प द्वारा डसी हुई मेरी ज्ञानरूपी दृष्टि के विष को उतारने के लिये आपको यह अमृत रूपी बचन अत्यन्त हितकारी है। सो आप अपने उन ज्ञानरूप गुथे हुये बचनों को भिन्न-भिन्न करके मुझ अज्ञानी को जो ज्ञान प्राप्ती की अभिलाषा रखता है कृपा करके समझाइये।    रहूगण की प्रार्थना सुनकर जड़ भरत ने कहा हे राजन्! संसार के जो भी जड़ चेतन्य पदार्थ तुम देखते हो वह सब पृथ्वी तत्व से बना हुआ है, जो कि अंत में इसी पृथ्वी तत्व में मिल जाता है। हे राजन् ! इसी तत्व को इस प्रकार जानो कि पृथ्वी आदि तत्व से बना हुआ जो कुछ भी पदार्थ पृथ्वी पर चलता है, सो उसे तुम भिन्न-भिन्न नामों से जानते हो।  .....जैसे यह कहार हैं, यह मनुष्य है, यह कुत्ता हैं, आदि प्रकार से जानते हो ।  ॐ॥ इसी प्रकार पृथ्वी तत्व से ही बना हुआ जो पत्थर आदि तत्व है नहीं चलता है, उसे तुम भाररूप समझते हो यदि तुम इस बात को विचार कर ज्ञान की दृष्टि से देखो तो चलने वाले और ना चलने वाले दोनों में तनिक भी भेद नहीं है । क्योकि पृथ्वी के ही किसी विकार से उसी पृथ्वी का तत्व चलने लगता है, और उसी पृथ्वी का तत्व विकार उत्पन्न न होने से भार रूप में जान पड़ता है।  ॐ॥ अतः चलने वाले को तुम जीव धारी कहते हो, उसी श्रेणी में मनुष्य को भी मानते हो । अर्थात पृथ्वी के विकार युक्त बलने वाले तत्व को तुम मनुष्य कहते हो।  ...अब आप इस बात को हे राजन् ! इस प्रकार जानो कि पृथ्वी की बनावट भी उसी प्रकार है कि, जैसे पाँव के ऊपर टिकुना, टिकुनों के ऊपर पिंडली, पिंडलियों के ऊपर जाँघ, जाँघों के ऊपर कमर, कमर के ऊपर छाती, छाती के ऊपर ग्रीवा, ग्रीवा के ऊपर कन्धे, फिर कन्धों के उपर यह काठ की सुखपाल है, और इस सुखपाल में सौवीर और और सिंधु देश का राजा रहूगण बैठा है, जो वह भी उसी पृथ्वी तत्व से बना एक मिट्टी का थुपा बैठा है।   ...सो हे राजन् ! तुम इस अहंकार में मदान्ध हुये बैठे हो कि मैं एक सौवीर सिंधू देश का राजा हूँ, और एक सुखपाल में बैठा हुआ हूँ। सो मेरा चित्त इस बात से बहुत सोच में होता है कि तुम्हारा बोझ उठाने वाले ये मनुष्य अत्यन्त कष्ट पाकर क्षीण तन तथा मलीन मन हो रहे हैं, सो इन लोगों को तुमने बल पूर्वक सुखपाल में लाकर जोत रखा है, तुम उन्हें बहुत दुख दे रहे हो । इस कारण तुमसे अधिक पापी, निर्दयी और कौन है?  जो निर्लज हो कहते हो कि मैं सबकी रक्षा करता हूँ। सो कुछ भी तुम कहते हो झूठ कहते हो जिसके कारण तुम वृद्धजनों की सभा में शोभा को प्राप्त न हो सकोगे, और यह दुःख देना ही आपके यश का नाश करने वाला है।   हे राजन ! जब हम इस बात को भली प्रकार जानते ही हैं कि इस जगत में चराचर सबकी उत्पत्ति इस पृथ्वी से ही हैं, और जब इसकी लय होती है । तब इस भूमि में ही होती है । तब आप यह बताओ कि इस संसार में केवल मात्र नाम रहने के और क्या रह जाता है। यदि तुम इस विषय में आगे कुछ योग्य अनुभव पूर्ण जानते हो तो इस मेरी बात का निरूपण कीजिये। हे राजन! यह पृथ्वी भी सत्य नहीं है, क्योंकि यह भी अपने कारण रूप सूक्ष्म परमाणुओं मे लीन हो जाती है। वह परमाणु भी सत्य नहीं हैं, क्योंकि वे भी भगवान की माया के विलास स्वरूप अज्ञान करके कल्पित किये हुये हैं । इसी प्रकार अन्य सब भी अर्थात कृश, स्थूल, छोटा, बड़ा, कारण, कार्य, चेतन, जड़, यह सब बुद्धि भेव के द्वैतमात्र से कल्पित हैं । द्रव्य, स्वभाव, वासना, काल कर्म से सब माया के किये हुये नाम भेद हैं।  ....यह सब हमने हे राजन! आपसे असत्य वस्तुओं के विषय में कहा है। अब हम तुमसे उन सब सत्य वस्तुओं के विषय में कहते हैं कि, जिन्हें तुम मन के वशीभूत हो ज्ञान को विसर्जन करके पहिचान नहीं पाते हैं।   सो हे राजन ! केवल सत्य तो ज्ञानमय परमवृह्म ही है, जो कि निविकार परमार्थ स्वरूप प्रत्यक्ष है, उसी का नाम भगवान वासुदेव है।...सो हे राजन! इस पारब्रह्म परमेश्वर की प्राप्ति अन्य किसी प्रकार नहीं होती है, वह तो केवल महात्मा लोगों के चरणों की रज की सेवन करने से ही होती है। जो लोग वेद विहित कर्म करके अथवा तप करके या अन्नादिक वस्तुयें बाँट के या गृहस्थ आश्रम में परोपकार करके इस परमवृह्म को प्राप्त करना चाहते हैं, सो यह उनका कोरा भ्रम ही है।   सो हे नृपाल ! सुन मैं अपने प्रथम जन्म में एक राजा था वहाँ उस जन्म में मेरा नाम भरत था और मेरे ही नाम पर इस पृथ्वी खण्ड का नाम भारत हुआ है। सो उस समय में सबसे सम्बन्ध त्याग कर विष्णु भगवान की आराधना किया करता था। परन्तु उस समय एक हिरन के  बच्चे में मेरा मोह हो जाने के कारण ही से मेरा प्रयोजन नष्ट हो गया था। जिसके कारण मुझे भी मग योनि में जन्म लेना पड़ा था।   .....सो हे भूपाल! उस मृग योनि में भी मुझे भगवान विष्णु की कृपा से अपने पूर्व जन्म की याद बनी रही थी। तत्पश्चात फिर इस जन्म में एक ब्राह्मण का पुत्र बन मनुष्य योनि को प्राप्त हुअा हूँ। अतः मुझे अपने दोनों पिछले जन्मों का स्मरण था, इसलिये में उसी भय के कारण मनुष्यों के संग से अलग हो गुप्त रूप से विचरण किया करता हूँ। अतः ज्ञान प्राप्त करने के लिये मनुष्य को चाहिये कि संग रहित हो महात्मा जनों की संगति कर ज्ञानोपार्जन कर ज्ञानरूप संग से मोह को दूर करो।  ॐ॥  हे राजन! भगवान की लीलीओं का मंथन और स्मरण करने से स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तब मनुष्य उसी ज्ञान के सहारे संसार मार्ग से पार हो जाता है। अतः तुम्हें चाहिये कि सदैव महात्माजनों की संगति संग रहित हो करो और भगवान की लौलाओं को सुनो और मथन करके स्मरण करो तो अवश्य तुम पार हो जाओगे।  ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम बारहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


श्रीमद भागवद पुराण बारहवां अध्याय [स्कंध ५] जड़ भरत द्वारा ज्ञान॥

(राजा रहूगण का संदेह भंजन )

दोहा - शंसय कियो अनेक विधि, रहुगण भूप अनेक।

बारहवें अध्याय में, मैंटे सहित विवेक ।।




श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत ! जब इस प्रकार श्री जड़ भरत ने राजा रहूगण को उपदेश किया तो रहूगण की और भी अनेक संशय उत्पन्न हुये सो वह उनका निवारण करने के लिये उत्सुक हो इस प्रकार बोला-हे अवधूत ! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है । अाप ईश्वर के समान देह धारण करने वाले अपने परमानन्द में शरीर को तुच्छ किये हुए मलीन विप्र के वेष में अपने वृह्मानुभव को गुप्त रखते हुये विचरण करते हो। जिस प्रकार श्रेष्ठ औषधि, रोग से पीड़ित मनुष्य को गुणदायक है, और जिस प्रकार गर्मी से तपे व्याकुल मनुष्य को शीतल गंगा जल सुखदायी है।


उसी प्रकार मेरी ज्ञानरूपी दृष्टि को मेरी देह के अभिमान रूपी सर्प ने डसा है । सो उस अभिमान रूपी सर्प द्वारा डसी हुई मेरी ज्ञानरूपी दृष्टि के विष को उतारने के लिये आपको यह अमृत रूपी बचन अत्यन्त हितकारी है। सो आप अपने उन ज्ञानरूप गुथे हुये बचनों को भिन्न-भिन्न करके मुझ अज्ञानी को जो ज्ञान प्राप्ती की अभिलाषा रखता है कृपा करके समझाइये।


रहूगण की प्रार्थना सुनकर जड़ भरत ने कहा हे राजन्! संसार के जो भी जड़ चेतन्य पदार्थ तुम देखते हो वह सब पृथ्वी तत्व से बना हुआ है, जो कि अंत में इसी पृथ्वी तत्व में मिल जाता है। हे राजन् ! इसी तत्व को इस प्रकार जानो कि पृथ्वी आदि तत्व से बना हुआ जो कुछ भी पदार्थ पृथ्वी पर चलता है, सो उसे तुम भिन्न-भिन्न नामों से जानते हो।
.....जैसे यह कहार हैं, यह मनुष्य है, यह कुत्ता हैं, आदि प्रकार से जानते हो ।
ॐ॥ इसी प्रकार पृथ्वी तत्व से ही बना हुआ जो पत्थर आदि तत्व है नहीं चलता है, उसे तुम भाररूप समझते हो यदि तुम इस बात को विचार कर ज्ञान की दृष्टि से देखो तो चलने वाले और ना चलने वाले दोनों में तनिक भी भेद नहीं है । क्योकि पृथ्वी के ही किसी विकार से उसी पृथ्वी का तत्व चलने लगता है, और उसी पृथ्वी का तत्व विकार उत्पन्न न होने से भार रूप में जान पड़ता है।

ॐ॥ अतः चलने वाले को तुम जीव धारी कहते हो, उसी श्रेणी में मनुष्य को भी मानते हो । अर्थात पृथ्वी के विकार युक्त चलने वाले तत्व को तुम मनुष्य कहते हो।
...अब आप इस बात को हे राजन् ! इस प्रकार जानो कि पृथ्वी की बनावट भी उसी प्रकार है कि, जैसे पाँव के ऊपर टिकुना, टिकुनों के ऊपर पिंडली, पिंडलियों के ऊपर जाँघ, जाँघों के ऊपर कमर, कमर के ऊपर छाती, छाती के ऊपर ग्रीवा, ग्रीवा के ऊपर कन्धे, फिर कन्धों के उपर यह काठ की सुखपाल है, और इस सुखपाल में सौवीर और और सिंधु देश का राजा रहूगण बैठा है, जो वह भी उसी पृथ्वी तत्व से बना एक मिट्टी का थुपा बैठा है।

...सो हे राजन् ! तुम इस अहंकार में मदान्ध हुये बैठे हो कि मैं एक सौवीर सिंधू देश का राजा हूँ, और एक सुखपाल में बैठा हुआ हूँ। सो मेरा चित्त इस बात से बहुत सोच में होता है कि तुम्हारा बोझ उठाने वाले ये मनुष्य अत्यन्त कष्ट पाकर क्षीण तन तथा मलीन मन हो रहे हैं, सो इन लोगों को तुमने बल पूर्वक सुखपाल में लाकर जोत रखा है, तुम उन्हें बहुत दुख दे रहे हो । इस कारण तुमसे अधिक पापी, निर्दयी और कौन है? जो निर्लज हो कहते हो कि मैं सबकी रक्षा करता हूँ। सो कुछ भी तुम कहते हो झूठ कहते हो जिसके कारण तुम वृद्धजनों की सभा में शोभा को प्राप्त न हो सकोगे, और यह दुःख देना ही आपके यश का नाश करने वाला है।

हे राजन ! जब हम इस बात को भली प्रकार जानते ही हैं कि इस जगत में चराचर सबकी उत्पत्ति इस पृथ्वी से ही हैं, और जब इसकी लय होती है ,तब इस भूमि में ही होती है । तब आप यह बताओ कि इस संसार में केवल मात्र नाम रहने के और क्या रह जाता है। यदि तुम इस विषय में आगे कुछ योग्य अनुभव पूर्ण जानते हो तो इस मेरी बात का निरूपण कीजिये। हे राजन! यह पृथ्वी भी सत्य नहीं है, क्योंकि यह भी अपने कारण रूप सूक्ष्म परमाणुओं मे लीन हो जाती है। वह परमाणु भी सत्य नहीं हैं, क्योंकि वे भी भगवान की माया के विलास स्वरूप अज्ञान करके कल्पित किये हुये हैं । इसी प्रकार अन्य सब भी अर्थात कृश, स्थूल, छोटा, बड़ा, कारण, कार्य, चेतन, जड़, यह सब बुद्धि भेव के द्वैतमात्र से कल्पित हैं । द्रव्य, स्वभाव, वासना, काल कर्म से सब माया के किये हुये नाम भेद हैं।

....यह सब हमने हे राजन! आपसे असत्य वस्तुओं के विषय में कहा है। अब हम तुमसे उन सब सत्य वस्तुओं के विषय में कहते हैं कि, जिन्हें तुम मन के वशीभूत हो ज्ञान को विसर्जन करके पहिचान नहीं पाते हैं।

सो हे राजन ! केवल सत्य तो ज्ञानमय परमवृह्म ही है, जो कि निविकार परमार्थ स्वरूप प्रत्यक्ष है, उसी का नाम भगवान वासुदेव है।...सो हे राजन! इस पारब्रह्म परमेश्वर की प्राप्ति अन्य किसी प्रकार नहीं होती है, वह तो केवल महात्मा लोगों के चरणों की रज की सेवन करने से ही होती है। जो लोग वेद विहित कर्म करके अथवा तप करके या अन्नादिक वस्तुयें बाँट के या गृहस्थ आश्रम में परोपकार करके इस परमवृह्म को प्राप्त करना चाहते हैं, सो यह उनका कोरा भ्रम ही है।


सो हे नृपाल ! सुन मैं अपने प्रथम जन्म में एक राजा था वहाँ उस जन्म में मेरा नाम भरत था और मेरे ही नाम पर इस पृथ्वी खण्ड का नाम भारत हुआ है। सो उस समय में सबसे सम्बन्ध त्याग कर विष्णु भगवान की आराधना किया करता था। परन्तु उस समय एक हिरन के
बच्चे में मेरा मोह हो जाने के कारण ही से मेरा प्रयोजन नष्ट हो गया था। जिसके कारण मुझे भी मृग योनि में जन्म लेना पड़ा था।

.....सो हे भूपाल! उस मृग योनि में भी मुझे भगवान विष्णु की कृपा से अपने पूर्व जन्म की याद बनी रही थी। तत्पश्चात फिर इस जन्म में एक ब्राह्मण का पुत्र बन मनुष्य योनि को प्राप्त हुअा हूँ। अतः मुझे अपने दोनों पिछले जन्मों का स्मरण था, इसलिये में उसी भय के कारण मनुष्यों के संग से अलग हो गुप्त रूप से विचरण किया करता हूँ। अतः ज्ञान प्राप्त करने के लिये मनुष्य को चाहिये कि संग रहित हो महात्मा जनों की संगति कर ज्ञानोपार्जन कर ज्ञानरूप संग से मोह को दूर करो।

ॐ॥ हे राजन! भगवान की लीलाओं का मंथन और स्मरण करने से स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तब मनुष्य उसी ज्ञान के सहारे संसार मार्ग से पार हो जाता है। अतः तुम्हें चाहिये कि सदैव महात्माजनों की संगति संग रहित हो करो और भगवान की लीलाओं को सुनो और मथन करके स्मरण करो तो अवश्य तुम पार हो जाओगे।

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