श्रीमद भागवद पुराण * प्रथम अध्याय* [स्कंध५] (प्रियव्रत चरित्र वर्णन)



दोहा-जगनायक, हे जग पिता, जग पालक जग ईश।  चरण कमल में आपके, नाऊँ भगवन शीश ॥  कृपा दृष्टि मो पर रखो, दीनबंधु सुख धाम।  निशि दिन मेरे हृदय में, रहै आपका नाम ।। जग तारण भव भय हरण, भक्तों के आधार।  समय समय अवतार ले, हरयौ भूमि की भार ।। हैं छब्बीस अध्याय यह या पंचम स्कन्ध।  पढ़े भक्त जन चित्त दे, मिटें पाप के फन्द ॥



श्री गणेशाय नमः


** नवीन सुख सागर


-पाँचवाँ स्कन्ध प्रारम्भ


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ॐ मंगला चरण 


दोहा-जगनायक, हे जग पिता, जग पालक जग ईश। 
चरण कमल में आपके, नाऊँ भगवन शीश ॥ 
कृपा दृष्टि मो पर रखो, दीनबंधु सुख धाम। 
निशि दिन मेरे हृदय में, रहै आपका नाम ।।
जग तारण भव भय हरण, भक्तों के आधार। 
समय समय अवतार ले, हरयौ भूमि की भार ।।
हैं छब्बीस अध्याय यह या पंचम स्कन्ध। 
पढ़े भक्त जन चित्त दे, मिटें पाप के फन्द ॥




श्रीमद भागवद पुराण * प्रथम अध्याय* [स्कंध५]
(प्रियव्रत चरित्र वर्णन)


दो ०- नूपति भये प्रियवृत जिमि, ज्ञान लियी जिमि पाय। 

सो वृतांत वर्णन कियौ, या पहिले अध्याय ।।


हस्तिनापुर नरेश अर्जुन पौत्र परिक्षत ने कहा-हे मुनि ! आपने परम आनन्द देने वाले मैत्रैय विदुर संवाद को कहा, तथा नारदजी और प्राचीन वहि राजा का सम्वाद भी कहा जो मनुष्य को परम आनन्द देने वाला एवं ज्ञान का देने वाला है। इन सब सम्बादों में आपने यह कहा कि वृह्मा जी के पुत्र राजा स्वायं भुवमनु के दो पुत्र हुये एक उत्तानपाद और दूसरा प्रियव्रत आपने राजा उत्तानपाद तथा उसके पुत्र ध्रुव तथा उसके वंश का बखान किया जिसने भगवान नारायण की अमृत रूपकथाओं का वर्णन है। परन्तु आपने प्रियव्रत का वृतान्त नहीं कहा जब कि वह उत्तानपाद से बड़ा था। उसके विषय में आपने केवल यही बताया कि वह राजा प्रियव्रत भगवान के अद्वितीय भक्त थे परंतु उन्होंने संसार में लिप्त रह कर भी सिद्धि को प्राप्त किया था। सो हे मुने ! आपके इस कथन में मुझे कुछ संदेह है कृपा करके यह वृतान्त मुझे समझा कर सुनाओ । क्योंकि इस प्रकार संसार रूप जाल में फंसे इतने बड़े गृहानुरागी को सिद्धि सहित मोक्ष पदवी किस प्रकार से प्राप्त हो गई। 


परीक्षित द्वारा यह पूछने पर श्री शुकदेव मुनि ने कहा-हेभारत्! जिन पुरुषों का मन भग वान के चरण कमलों में लग जाता है, उनकी तो भगवान की कथा ही परम मंगल मयी पदवी होती है। यदि उनके लिये इसमें कुछ बाधा भी आ जाती है तो भी वे पुरुष अपने उस कल्याणमयी मार्ग का त्याग नहीं करते हैं ।

सो हे परीक्षित! यहाँ अब स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत का वृतान्त सुनो। 


वह परम वैष्णव श्री नारायण का अद्वितीय भक्त था । राजा प्रियव्रत ने नारद जी द्वारा ज्ञानोपदेश को प्राप्त कर आत्मतत्व को भली प्रकार जान लिया था। यद्यपि राजा प्रियव्रत अपने पिता स्वायं भुव मनु की आज्ञा का उलघंन नहीं कर सकता था। परन्तु जब स्वायंभुव मनु ने राज्य भार देना चाहा तो वह मिथ्या भूत राज्य प्रपंच से अपने पराभव के स्वरूप तिरस्कार को सोच कर ही प्रियवत्त ने राज्य भार को गृहण नहीं किया था। वह गृह परित्याग कर चला गया था। तब वृह्याजी प्रियव्रत्त को शिक्षा देने के लिये सत्य लोक से मारीच आदि ऋषियों के साथ आये। उस समय नारद जी भी आये स्वायंभुव मनु ने वृह्माजी को अन्य अनेक ॠषियों के साथ आया देखकर अनेक प्रकार से स्तुति की।



ब्रह्माजी ने स्तुति को अंगीकार कर के प्रियवत्त से इस प्रकार कहा-है वत्स! जिस परमेश्वर की आज्ञा का पालन हम सब देव करते हैं, उस परमात्मा की आज्ञा पालन करने से तुम्हें विमुख नहीं होना चाहिये। हे प्रियवत ! वह परमात्मा ! अपनी इच्छा से हमारे गुण व कर्म के अनुसार जिस किसी भी योनि को देता है, हम उसी योनि को स्वीकार करके अपने कर्मों के अनुसार दुःख सुख को भोगा करते हैं। सो हे प्रियवत! जिसने इंद्रियों सहित मन को वश कर लिया है और जिसे आत्मा में ही प्रीति उत्पन्न हुई है उस पुरुष को गृहस्थाश्रम में भी कुछ हानि नहीं होती है। इसी प्रकार हे परीक्षत ! वृहा जी ने प्रियव्रत को अनेक उपदेश किया । जिससे वह प्रियव्रत्त राजा पूर्ण सन्तुष्ट हुआ, जिससे ब्रह्मा जी को प्रणाम कर कहा जैसी आज्ञा हो मैं वही पालन करूंगा । तत्पश्चात प्रियव्रत्त से वृह्याजी अति प्रसन्न हुये और नारद आदि सभी ऋषियों के साथ सत्यलोक को लौट गये । तब महाराजा स्वायंभुव मनुने भी वृह्माजी एवं नारद जी की सम्मति के अनुसार ही प्रियव्रत्त को पृथ्वी तल का राज्य भार सौंप कर संसार की भोग वासना को त्याग कर शान्ति प्राप्त की। हे परीक्षत ! परमेश्वर की इच्छा से राजा प्रियव्रत्त पृथ्वी की रक्षा करता हुआ राज्य करने लगा। परन्तु वह भगवान विष्णु का निरंतर ध्यान करता रहा जिससे उसका अंतःकरण परम शुद्ध हो गया। तदनंतर प्रियव्रत्त ने विश्व कर्मा नाम प्रजा पति की वरहिष्मती नाम की कन्या के साथ विवाह किया । प्रियव्रत्त ने अपनी उस वरहिष्मती नाम भार्या में अपने समान बल पराक्रम वाले दश पुत्र उत्पन्न किये । जिनके नाम १-अग्निघ, २-इष्मजिव्ह, ३-यज्ञबाहु, ४-महावीर, ५-हिरण्यरेता, ६,-धृत पृष्ठ, ७-सबन, ८-समेघतिथि, ९-बीतहोत्र, १०-कवि, थे। इसके अतिरिक्त अर्जस्वत नाम वाली एक कन्या को उत्पन्न किया।

राजा प्रियव्रत के इन दस पुत्रों में से तीन पुत्र कवि, महावीर, और सवन ने बाल्यावस्था से ही आत्म विद्या में परिश्रम करके परम हंस आश्रय को धारण किया । इस प्रकार प्रियव्रत्त के यह तीन पुत्र तो नैष्ठिक वृक्षाचारी हो भगवान वासुदेव के चरण कमलों का निरंतर स्मरण कर अखंड भक्ति योग के प्रभाव से अपने अंतः करण में विष्णु भगवान को प्रतीत कर भगवद्भक्तता को प्राप्त हुये। इसके अलावा राजा प्रियव्रत्त ने अपनी दूसरी भार्या में उत्तम, तामस, और श्वेत नाम के तीन पुत्र उत्पन्न किये। यह तीनों पुत्र मन्वंतरों के अधिकारी हुये । हे राजा परीक्षत ! राजा प्रियव्रत्त अत्यंत आत्म ज्ञानी हुआ जिसने ग्यारह करोड़ वर्ष तक अखंड राज्य करके पृथ्वी की रक्षा को । अपने राज्य काल में ही राजा प्रियव्रत्त ने एक बार यह विचार किया कि सूर्य नारायण सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते हुये लोका लोक पर्यन्त पृथ्वी तल को प्रकाशित करते समय आधे भाग को अंधकार से ढकते है। वे एक ही साथ सब लोकों को प्रकाशित नहीं करते हैं।।

सात महाद्वीपों की रचना।।


सो हे राजा परीक्षत ! यह विचार कर राजा प्रियव्रत्त ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं अपने प्रभाव से रात्रि को भी दिन के रूप में परिवर्तन कर दूंगा । ऐसी प्रतिज्ञा कर अपने सूर्य के समान ज्योतिर्मय रथ में सवार हो सूर्य की ही भाँति सूर्य की सात परिक्रमायें कर ली । सो हे राजन् ! उन सात परिक्रमा के लगाने से राजा प्रियव्रत्त के रथ के पहियों से जो सात गड्ढे बन गये थे वही सात समुद्र कहलाते हैं । इन्हीं सात समुद्रों के कारण पृथ्वी सात भाग में हो गई जो कि सात द्वीपों के नाम से प्रसिद्ध हुई।

सात महाद्वीपों के नाम।।


यह द्वीप जंबू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रोंच, शाक, पुष्कर नाम से कहे जाते हैं । यह सातौ द्वीप लंबाई चौड़ाई में उत्तरोत्तर एक के प्रमाण से दूने हैं । इन सातो द्वीपों के यह सातौ समुद्र-क्षारोद, इक्षु रसोद, सुरोद, धृतोद, क्षीरोद, दधिमंडोद, शुद्धोद, खाई के समान हैं। इन्हीं सातों द्वीपों में राजा प्रियवत ने अपने आज्ञाकारी पुत्रों को एक द्वीप में एक एक को राजा बना दिया। राजा प्रियव्रत ने अपनी ऊर्जस्वता वाली का विवाह शुक्राचार्य जी के साथ में कर दिया, जिस के गर्भ से देवयानी नाम वाली एक सुन्दर कन्या ने जन्म लिया । हे राजा परीक्षत ! भगवान विष्णु के चरण रज की कृपा से छ इंद्रियों को जीतने वाले राजा प्रियव्रत का ऐसा पुरुषार्थ होना कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि चाँडाल पुरुष भी केवल भगवान का नाम उच्चारण करने से संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है । इस प्रकार राज्य का भार बढ़ने से अपनी आत्मा को कृतार्थ मान कर प्रियव्रत के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। तब वह कहने लगा-अहा, मैं इन्द्रियों के वश में हो अज्ञान से रचे विषम रूप अंधकूप में गिर पड़ा, सो यह अच्छा नहीं हुआ । अब मैं इस रानी का क्रीड़ा रूप मृग न बनूंगा। हे राजा परीक्षित! वह राजा प्रियव्रत अपने आपको अनेक प्रकार से धिक्कारते हुये अति दुखी हुआ। वह पृथ्वी का विभाग कर धन संपति उन्हें दे अपनी स्त्री तथा पुत्रों आदि सब का त्याग करके देवर्षि नारद द्वारा उपदेशित किये मार्ग आत्म निष्ठा के अनुसार ही सबके साथ में वर्तावा करने लगा। तत्पश्चात कुछ ही समय के पश्चात वह अपना परलोक बनाने के लिये साधन करने के लिये (भजन करने के लिये) बन को चला गया । हे राजा परीक्षत ! हमने तुम्हारे सामने यह सब चरित्र राजा प्रियव्रत्त का कहा है। इस चरित्र के सुनने तथा कहने और सुनने से प्राणी को ज्ञान की प्राप्ती होती है, और भगवान के चरणों में स्नेह उत्पन्न होता हैं। जिससे प्राणी भवसागर के बंधन से सहज ही में मुक्ति को प्राप्त होता है।

।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम प्रथम अध्याय समाप्तम🥀।।


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WAY TO MOKSH🙏. Find the truthfulness in you, get the real you, power up yourself with divine blessings, dump all your sins...via... Shrimad Bhagwad Mahapuran🕉
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