क्यूँ दक्ष प्रजापति ने देवों के देव महादेव को यज्ञ में नही बुलाया।।श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ४]

 

क्यूँ दक्ष प्रजापति ने देवों के देव महादेव को यज्ञ में नही बुलाया।।  श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ४] (सती का प्रजापति दक्ष के घर जाने को कहना ) दोहा-जिस प्रकार शिव से सती, वरजी बारम्बार । सौ तृतीय अध्याय में, वरणी कथा उचार ॥   श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत!,--श्री मैत्रेय जी कहने लगे-हे विदुर जी! इस प्रकार द्वेष-भाव रखते हुये प्रजापति दक्ष और देवों के देव महादेव जी को बहुत समय व्यतीत हो गया। तब ब्रह्माजी ने दक्ष को सब प्रजा पतियों का स्वामी बनाकर राज्यभिषेक कर दिया। जब दक्ष सब प्रजापतियों का भी राजा हो गया तो उसे फिर अभिमान के कारण शिव से अपना बदला लेने की याद आई। जिससे उसने अपने मन में विचार कि मैंने देवताओं एवं ब्राह्मणों की सभा में यह श्राप शिव को दिया था कि, उसे यज्ञ का भाग न मिले। अतः इस कार्य का प्रारम्भ पहिले मुझे ही करना चाहिए। जिससे मेरे इस कृत्य को देख कर शिव को फिर अन्य कोई भी अपने यज्ञ में भाग नहीं देग ऐसा विचार कर प्रजापति दक्ष ने यज्ञ का निश्चय कर के सम्पूर्ण ब्राम्हण ऋषि, देवर्षि, ब्रह्म ऋषि, पितृगण, देवताओं को यज्ञ का निमंत्रण भेज कर बुलाया। तब उन सब की स्त्रियां श्रृंगार करके अपने-अपने पतियों के साथ आई।  उस समय परस्पर वार्तालाप करते हुये आकाश मार्ग से देवताओं को जाते हुये देख कर सती ने यह जाना कि उसके पिता के घर यज्ञ का भारी उत्सव हो रहा है, यह सब उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये वहाँ जा रहे हैं। तब वह सती अपने स्थान के समीप से चंचल नेत्रों वाली, उज्वल रत्न-जटित कुण्डलों से देदीप्यमान सुन्दर सुन्दर युवतियों को जाते हुए देखकर महा सती ने अपने पति भगवान महादेवजी से कहा-कि हे प्रभु! आपके स्वसुर दक्ष प्रजा पति के यहाँ इस समय यज्ञ का महा उत्सव हो रहा है। हे वाम! आपको यदि इच्छा हो तो आप भी वहाँ चलें अभी यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ है। क्योंकि यह सब भी अपनी-अपनी पत्नी देवांगनाओं को साथ लिये जा रहे हैं। हे नाथ ! यह निश्चय है कि अपने-अपने पतियों सहित हमारी बहिनें, पिता की बहिनें, और स्नेह से भरी हुई अपनी माता इन सबों को जाकर मैं भी देखूगी । हे प्रेम! हे भव ! मैं जो दीन स्त्री जाति हूँ, सो आपके तत्व को नहीं जान सकती हूँ। अतः यही कारण है कि मैं भी एकबार अपनी जन्मभूमि को अवश्य देखना चाहती हूँ। हे अभव ! देखिये यह सब अन्य स्त्रियां अपने -अपने पतियों के साथ सुन्दर वस्त्र, आभूषण पहिने हंस के समान सुन्दर-सुन्दर विमानों में बैठी हुई  यूथ के यूथ हमारे पिता के घर यज्ञ के उत्सव में सम्मिलित होने को चली जा रही हैं। हे नीलकंठ ! उनकी शोभा से आज यह सारा आकाश शोभित हो रहा है। हे सुरोत्तम ! पिता के घर में के उत्सव हुआ सुनकर कन्या का मन क्यों कर चलायमान नहीं होगा। यदि आप कहें कि हे सती ! आपके पिता ने आपको निमंत्रण तक तो दिया ही नहीं है, और आप फिर बिना बुलाये किस प्रकार जाना चाहती हो। सो उसका उत्तर इस प्रकार जानिये कि हे प्रभु ! मित्र, पति, गुरु, तथा पिता के घर बिना निमंत्रण के जाने पर भी कोई आपत्ति नहीं होती है । हे देव! मेरे ऊपर आप प्रसन्न हो, मेरी इस मनोकामना को पूर्ण करो। हे दिव्य दृष्टि धारी! आपने कृपा करके मुझे अपनी अर्धांगिना बनाया है, इसी कारण मैं आपसे करवद्ध प्रार्थना करती हूँ कि इस समय मेरे ऊपर दया करके मुझे मेरे पिता के घर जाने की आज्ञा प्रदान करिये। श्री मैत्रेय जी बोले-हे विदुर! जब इस प्रकार सती ने भगवान शिव से अनेक बार प्रार्थना की तो, भगवान शंकर भोलानाथ ने अपनी प्यारी अद्धांगाना, सती जी से इस प्रकार कहाँ-हे शोभने ! आपका यह कथन भी सत्य है कि बिना बुलाये अपने स्वजनों और बन्धुजनों में जाने से कोई हानि नहीं है। अपनों के यहां बिना बुलाए भी जाना चाहिये। परन्तु इस बात में भी एक भेद है वह ये कि यदि बिना बुलाये जिनके घर जावे और उसके हृदय में हमें देख कर आनन्द हो तो उनके यहाँ तो हमारा बिना बुलाये जाना ठीक भी है। परन्तु जहाँ  बिना बुलाये जाने पर अपने को देख कर प्रसन्न न हों, ऐसे को स्थान पर नहीं जाना चाहिए, चाहे वह अपने पिता का ही घर पर क्यों न होवे । हे सती! गुण रूप युक्त वे ही पुरुष हैं, जिनमें विद्या, तप, धन, शरीर, अवस्था, यह छः वस्तुयें हों। यदि यही छैः वस्तु किसी सज्जन पुरुष में हैं तब तो ठीक है। परन्तु यही, यदि किसी असज्जन पुरुष में हो तो वहाँ जाना किसी प्रकार भी होने ठीक नहीं है। क्योंकि इन सब के होने से वे असज्जन अभिमानी यह पुरुष अपने अभिमान के कारण ज्ञान हीन होकर महान पुरुषों उसके तेज को नहीं देख पाते हैं। अतः हे प्रिये ! जिन लोगों को ऐसा नहीं अभिमानी जाने तो चाहे वह कैसा भी अपना ही बन्धुजन क्यों न हो उसके घर की तरफ भी कभी दृष्टि करके नहीं देखना चाहिये। हे सती ! देखिये युद्ध में शस्त्र द्वारा शरीर में घाव जाने अथवा किसी अंग भंग हो जाने पर भी इतनी पीड़ा नहीं व्यापती है कि, जितनी कि अपने घर पर आये स्वजनों द्वारा भृकुटी चढ़ाकर त्रिस्कृत किये जाने पर होती है। हे शुभ्र ! मैं  यह जानता हूँ कि तुम अपने पिता प्रजापति दक्ष की सब कन्याओं में सबसे अधिक प्रिय हो, परन्तु फिर भी मैं यह जानता हूँ कि इस प्रकार बिना बुलाये उनके घर जाने पर भी तुम अपने पिता द्वारा सम्मान नहीं पाओगी। क्योंकि तुम्हारे पिता दक्ष की मेरे सम्बन्ध से बड़ा सन्ताप है। इस कारण हे प्रिये ! इस प्रकार जानो कि जिस प्रकार दुष्टजन किसी भी महात्माओं की उत्तम कीर्ति और प्रताप को देख कर उनके समान उच्चपद और यश को तो प्राप्त नहीं कर पाते है, परन्तु वे लोग ऐसे लोगों से द्वेष- भाव करने लग जाते हैं। हे सती जी ! जिस प्रकार दैत्य लोग विष्णु से वैर रखते हैं उसी प्रकार ऐसे ज्ञानहीन अभिमानी लोग भी सज्जन पुरुषों से वैर-भाव मान लेते हैं। हे वरारोहे ! यद्यपि प्रजापति दक्ष तुम्हारे पिता हैं, परन्तु वे हमारे शत्रु हैं, क्योंकि उनने वृम्हा के यहां सभा में दुष्ट बचन कहकर हमारा निरादर किया था। सो इस कारण आपको तो हमारा निरादर करने वाले के यहाँ अथवा उनके पक्ष वालों के यहाँ जाने की तो क्या चले उनकी ओर देखना भी नहीं चाहिए । जो तुम हमारा कहा न मानकर अपने पिता के घर जाओगी भी तो इसमें तुम्हारा भला नहीं होगा। क्योंकि जो लोग अति प्रतिष्ठित होते हैं और वे जब उन्हीं के सम्बधियों द्वारा अपमानित होते हैं। तो ही अपमान उनकी मृत्यु का कारण बनजाता है। सो हे प्रिये ! हमारी बात मानकर तुम वहाँ मत जाओ इसी में आपका शुभ है।

क्यूँ दक्ष प्रजापति ने देवों के देव महादेव को यज्ञ में नही बुलाया।।  श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ४] (सती का प्रजापति दक्ष के घर जाने को कहना ) दोहा-जिस प्रकार शिव से सती, वरजी बारम्बार । सौ तृतीय अध्याय में, वरणी कथा उचार ॥   श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत!,--श्री मैत्रेय जी कहने लगे-हे विदुर जी! इस प्रकार द्वेष-भाव रखते हुये प्रजापति दक्ष और देवों के देव महादेव जी को बहुत समय व्यतीत हो गया। तब ब्रह्माजी ने दक्ष को सब प्रजा पतियों का स्वामी बनाकर राज्यभिषेक कर दिया। जब दक्ष सब प्रजापतियों का भी राजा हो गया तो उसे फिर अभिमान के कारण शिव से अपना बदला लेने की याद आई। जिससे उसने अपने मन में विचार कि मैंने देवताओं एवं ब्राह्मणों की सभा में यह श्राप शिव को दिया था कि, उसे यज्ञ का भाग न मिले। अतः इस कार्य का प्रारम्भ पहिले मुझे ही करना चाहिए। जिससे मेरे इस कृत्य को देख कर शिव को फिर अन्य कोई भी अपने यज्ञ में भाग नहीं देग ऐसा विचार कर प्रजापति दक्ष ने यज्ञ का निश्चय कर के सम्पूर्ण ब्राम्हण ऋषि, देवर्षि, ब्रह्म ऋषि, पितृगण, देवताओं को यज्ञ का निमंत्रण भेज कर बुलाया। तब उन सब की स्त्रियां श्रृंगार करके अपने-अपने पतियों के साथ आई।  उस समय परस्पर वार्तालाप करते हुये आकाश मार्ग से देवताओं को जाते हुये देख कर सती ने यह जाना कि उसके पिता के घर यज्ञ का भारी उत्सव हो रहा है, यह सब उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये वहाँ जा रहे हैं। तब वह सती अपने स्थान के समीप से चंचल नेत्रों वाली, उज्वल रत्न-जटित कुण्डलों से देदीप्यमान सुन्दर सुन्दर युवतियों को जाते हुए देखकर महा सती ने अपने पति भगवान महादेवजी से कहा-कि हे प्रभु! आपके स्वसुर दक्ष प्रजा पति के यहाँ इस समय यज्ञ का महा उत्सव हो रहा है। हे वाम! आपको यदि इच्छा हो तो आप भी वहाँ चलें अभी यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ है। क्योंकि यह सब भी अपनी-अपनी पत्नी देवांगनाओं को साथ लिये जा रहे हैं। हे नाथ ! यह निश्चय है कि अपने-अपने पतियों सहित हमारी बहिनें, पिता की बहिनें, और स्नेह से भरी हुई अपनी माता इन सबों को जाकर मैं भी देखूगी । हे प्रेम! हे भव ! मैं जो दीन स्त्री जाति हूँ, सो आपके तत्व को नहीं जान सकती हूँ। अतः यही कारण है कि मैं भी एकबार अपनी जन्मभूमि को अवश्य देखना चाहती हूँ। हे अभव ! देखिये यह सब अन्य स्त्रियां अपने -अपने पतियों के साथ सुन्दर वस्त्र, आभूषण पहिने हंस के समान सुन्दर-सुन्दर विमानों में बैठी हुई  यूथ के यूथ हमारे पिता के घर यज्ञ के उत्सव में सम्मिलित होने को चली जा रही हैं। हे नीलकंठ ! उनकी शोभा से आज यह सारा आकाश शोभित हो रहा है। हे सुरोत्तम ! पिता के घर में के उत्सव हुआ सुनकर कन्या का मन क्यों कर चलायमान नहीं होगा। यदि आप कहें कि हे सती ! आपके पिता ने आपको निमंत्रण तक तो दिया ही नहीं है, और आप फिर बिना बुलाये किस प्रकार जाना चाहती हो। सो उसका उत्तर इस प्रकार जानिये कि हे प्रभु ! मित्र, पति, गुरु, तथा पिता के घर बिना निमंत्रण के जाने पर भी कोई आपत्ति नहीं होती है । हे देव! मेरे ऊपर आप प्रसन्न हो, मेरी इस मनोकामना को पूर्ण करो। हे दिव्य दृष्टि धारी! आपने कृपा करके मुझे अपनी अर्धांगिना बनाया है, इसी कारण मैं आपसे करवद्ध प्रार्थना करती हूँ कि इस समय मेरे ऊपर दया करके मुझे मेरे पिता के घर जाने की आज्ञा प्रदान करिये। श्री मैत्रेय जी बोले-हे विदुर! जब इस प्रकार सती ने भगवान शिव से अनेक बार प्रार्थना की तो, भगवान शंकर भोलानाथ ने अपनी प्यारी अद्धांगाना, सती जी से इस प्रकार कहाँ-हे शोभने ! आपका यह कथन भी सत्य है कि बिना बुलाये अपने स्वजनों और बन्धुजनों में जाने से कोई हानि नहीं है। अपनों के यहां बिना बुलाए भी जाना चाहिये। परन्तु इस बात में भी एक भेद है वह ये कि यदि बिना बुलाये जिनके घर जावे और उसके हृदय में हमें देख कर आनन्द हो तो उनके यहाँ तो हमारा बिना बुलाये जाना ठीक भी है। परन्तु जहाँ  बिना बुलाये जाने पर अपने को देख कर प्रसन्न न हों, ऐसे को स्थान पर नहीं जाना चाहिए, चाहे वह अपने पिता का ही घर पर क्यों न होवे । हे सती! गुण रूप युक्त वे ही पुरुष हैं, जिनमें विद्या, तप, धन, शरीर, अवस्था, यह छः वस्तुयें हों। यदि यही छैः वस्तु किसी सज्जन पुरुष में हैं तब तो ठीक है। परन्तु यही, यदि किसी असज्जन पुरुष में हो तो वहाँ जाना किसी प्रकार भी होने ठीक नहीं है। क्योंकि इन सब के होने से वे असज्जन अभिमानी यह पुरुष अपने अभिमान के कारण ज्ञान हीन होकर महान पुरुषों उसके तेज को नहीं देख पाते हैं। अतः हे प्रिये ! जिन लोगों को ऐसा नहीं अभिमानी जाने तो चाहे वह कैसा भी अपना ही बन्धुजन क्यों न हो उसके घर की तरफ भी कभी दृष्टि करके नहीं देखना चाहिये। हे सती ! देखिये युद्ध में शस्त्र द्वारा शरीर में घाव जाने अथवा किसी अंग भंग हो जाने पर भी इतनी पीड़ा नहीं व्यापती है कि, जितनी कि अपने घर पर आये स्वजनों द्वारा भृकुटी चढ़ाकर त्रिस्कृत किये जाने पर होती है। हे शुभ्र ! मैं  यह जानता हूँ कि तुम अपने पिता प्रजापति दक्ष की सब कन्याओं में सबसे अधिक प्रिय हो, परन्तु फिर भी मैं यह जानता हूँ कि इस प्रकार बिना बुलाये उनके घर जाने पर भी तुम अपने पिता द्वारा सम्मान नहीं पाओगी। क्योंकि तुम्हारे पिता दक्ष की मेरे सम्बन्ध से बड़ा सन्ताप है। इस कारण हे प्रिये ! इस प्रकार जानो कि जिस प्रकार दुष्टजन किसी भी महात्माओं की उत्तम कीर्ति और प्रताप को देख कर उनके समान उच्चपद और यश को तो प्राप्त नहीं कर पाते है, परन्तु वे लोग ऐसे लोगों से द्वेष- भाव करने लग जाते हैं। हे सती जी ! जिस प्रकार दैत्य लोग विष्णु से वैर रखते हैं उसी प्रकार ऐसे ज्ञानहीन अभिमानी लोग भी सज्जन पुरुषों से वैर-भाव मान लेते हैं। हे वरारोहे ! यद्यपि प्रजापति दक्ष तुम्हारे पिता हैं, परन्तु वे हमारे शत्रु हैं, क्योंकि उनने वृम्हा के यहां सभा में दुष्ट बचन कहकर हमारा निरादर किया था। सो इस कारण आपको तो हमारा निरादर करने वाले के यहाँ अथवा उनके पक्ष वालों के यहाँ जाने की तो क्या चले उनकी ओर देखना भी नहीं चाहिए । जो तुम हमारा कहा न मानकर अपने पिता के घर जाओगी भी तो इसमें तुम्हारा भला नहीं होगा। क्योंकि जो लोग अति प्रतिष्ठित होते हैं और वे जब उन्हीं के सम्बधियों द्वारा अपमानित होते हैं। तो ही अपमान उनकी मृत्यु का कारण बनजाता है। सो हे प्रिये ! हमारी बात मानकर तुम वहाँ मत जाओ इसी में आपका शुभ है।


श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ४]

(सती का प्रजापति दक्ष के घर जाने को कहना )

दोहा-जिस प्रकार शिव से सती, वरजी बारम्बार ।

सौ तृतीय अध्याय में, वरणी कथा उचार ॥


श्री शुकदेव जी बोले-हे राजा परीक्षत!,--श्री मैत्रेय जी कहने लगे-हे विदुर जी! इस प्रकार द्वेष-भाव रखते हुये प्रजापति दक्ष और देवों के देव महादेव जी को बहुत समय व्यतीत हो गया। तब ब्रह्माजी ने दक्ष को सब प्रजा पतियों का स्वामी बनाकर राज्यभिषेक कर दिया। जब दक्ष सब प्रजापतियों का भी राजा हो गया तो उसे फिर अभिमान के कारण शिव से अपना बदला लेने की याद आई। जिससे उसने अपने मन में विचार कि मैंने देवताओं एवं ब्राह्मणों की सभा में यह श्राप शिव को दिया था कि, उसे यज्ञ का भाग न मिले। अतः इस कार्य का प्रारम्भ पहिले मुझे ही करना चाहिए। जिससे मेरे इस कृत्य को देख कर शिव को फिर अन्य कोई भी अपने यज्ञ में भाग नहीं देग ऐसा विचार कर प्रजापति दक्ष ने यज्ञ का निश्चय कर के सम्पूर्ण ब्राम्हण ऋषि, देवर्षि, ब्रह्म ऋषि, पितृगण, देवताओं को यज्ञ का निमंत्रण भेज कर बुलाया। तब उन सब की स्त्रियां श्रृंगार करके अपने-अपने पतियों के साथ आई। उस समय परस्पर वार्तालाप करते हुये आकाश मार्ग से देवताओं को जाते हुये देख कर सती ने यह जाना कि उसके पिता के घर यज्ञ का भारी उत्सव हो रहा है, यह सब उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये वहाँ जा रहे हैं। तब वह सती अपने स्थान के समीप से चंचल नेत्रों वाली, उज्वल रत्न-जटित कुण्डलों से देदीप्यमान सुन्दर सुन्दर युवतियों को जाते हुए देखकर महा सती ने अपने पति भगवान महादेवजी से कहा-कि हे प्रभु! आपके स्वसुर दक्ष प्रजा पति के यहाँ इस समय यज्ञ का महा उत्सव हो रहा है। हे वाम! आपको यदि इच्छा हो तो आप भी वहाँ चलें अभी यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ है। क्योंकि यह सब भी अपनी-अपनी पत्नी देवांगनाओं को साथ लिये जा रहे हैं। हे नाथ ! यह निश्चय है कि अपने-अपने पतियों सहित हमारी बहिनें, पिता की बहिनें, और स्नेह से भरी हुई अपनी माता इन सबों को जाकर मैं भी देखूगी । हे प्रेम! हे भव ! मैं जो दीन स्त्री जाति हूँ, सो आपके तत्व को नहीं जान सकती हूँ। अतः यही कारण है कि मैं भी एकबार अपनी जन्मभूमि को अवश्य देखना चाहती हूँ। हे अभव ! देखिये यह सब अन्य स्त्रियां अपने -अपने पतियों के साथ सुन्दर वस्त्र, आभूषण पहिने हंस के समान सुन्दर-सुन्दर विमानों में बैठी हुई यूथ के यूथ हमारे पिता के घर यज्ञ के उत्सव में सम्मिलित होने को चली जा रही हैं। हे नीलकंठ ! उनकी शोभा से आज यह सारा आकाश शोभित हो रहा है। हे सुरोत्तम ! पिता के घर में के उत्सव हुआ सुनकर कन्या का मन क्यों कर चलायमान नहीं होगा। यदि आप कहें कि हे सती ! आपके पिता ने आपको निमंत्रण तक तो दिया ही नहीं है, और आप फिर बिना बुलाये किस प्रकार जाना चाहती हो। सो उसका उत्तर इस प्रकार जानिये कि हे प्रभु ! मित्र, पति, गुरु, तथा पिता के घर बिना निमंत्रण के जाने पर भी कोई आपत्ति नहीं होती है । हे देव! मेरे ऊपर आप प्रसन्न हो, मेरी इस मनोकामना को पूर्ण करो। हे दिव्य दृष्टि धारी! आपने कृपा करके मुझे अपनी अर्धांगिना बनाया है, इसी कारण मैं आपसे करवद्ध प्रार्थना करती हूँ कि इस समय मेरे ऊपर दया करके मुझे मेरे पिता के घर जाने की आज्ञा प्रदान करिये। 


श्री मैत्रेय जी बोले-हे विदुर! जब इस प्रकार सती ने भगवान शिव से अनेक बार प्रार्थना की तो, भगवान शंकर भोलानाथ ने अपनी प्यारी अद्धांगाना, सती जी से इस प्रकार कहाँ-हे शोभने ! आपका यह कथन भी सत्य है कि बिना बुलाये अपने स्वजनों और बन्धुजनों में जाने से कोई हानि नहीं है। अपनों के यहां बिना बुलाए भी जाना चाहिये। परन्तु इस बात में भी एक भेद है वह ये कि यदि बिना बुलाये जिनके घर जावे और उसके हृदय में हमें देख कर आनन्द हो तो उनके यहाँ तो हमारा बिना बुलाये जाना ठीक भी है। परन्तु जहाँ बिना बुलाये जाने पर अपने को देख कर प्रसन्न न हों, ऐसे को स्थान पर नहीं जाना चाहिए, चाहे वह अपने पिता का ही घर पर क्यों न होवे । हे सती! गुण रूप युक्त वे ही पुरुष हैं, जिनमें विद्या, तप, धन, शरीर, अवस्था, यह छः वस्तुयें हों। यदि यही छैः वस्तु किसी सज्जन पुरुष में हैं तब तो ठीक है। परन्तु यही, यदि किसी असज्जन पुरुष में हो तो वहाँ जाना किसी प्रकार भी होने ठीक नहीं है। क्योंकि इन सब के होने से वे असज्जन अभिमानी यह पुरुष अपने अभिमान के कारण ज्ञान हीन होकर महान पुरुषों उसके तेज को नहीं देख पाते हैं। अतः हे प्रिये ! जिन लोगों को ऐसा नहीं अभिमानी जाने तो चाहे वह कैसा भी अपना ही बन्धुजन क्यों न हो उसके घर की तरफ भी कभी दृष्टि करके नहीं देखना चाहिये। हे सती ! देखिये युद्ध में शस्त्र द्वारा शरीर में घाव जाने अथवा किसी अंग भंग हो जाने पर भी इतनी पीड़ा नहीं व्यापती है कि, जितनी कि अपने घर पर आये स्वजनों द्वारा भृकुटी चढ़ाकर त्रिस्कृत किये जाने पर होती है। हे शुभ्र ! मैं यह जानता हूँ कि तुम अपने पिता प्रजापति दक्ष की सब कन्याओं में सबसे अधिक प्रिय हो, परन्तु फिर भी मैं यह जानता हूँ कि इस प्रकार बिना बुलाये उनके घर जाने पर भी तुम अपने पिता द्वारा सम्मान नहीं पाओगी। क्योंकि तुम्हारे पिता दक्ष की मेरे सम्बन्ध से बड़ा सन्ताप है। इस कारण हे प्रिये ! इस प्रकार जानो कि जिस प्रकार दुष्टजन किसी भी महात्माओं की उत्तम कीर्ति और प्रताप को देख कर उनके समान उच्चपद और यश को तो प्राप्त नहीं कर पाते है, परन्तु वे लोग ऐसे लोगों से द्वेष- भाव करने लग जाते हैं। हे सती जी ! जिस प्रकार दैत्य लोग विष्णु से वैर रखते हैं उसी प्रकार ऐसे ज्ञानहीन अभिमानी लोग भी सज्जन पुरुषों से वैर-भाव मान लेते हैं। हे वरारोहे ! यद्यपि प्रजापति दक्ष तुम्हारे पिता हैं, परन्तु वे हमारे शत्रु हैं, क्योंकि उनने वृम्हा के यहां सभा में दुष्ट बचन कहकर हमारा निरादर किया था। सो इस कारण आपको तो हमारा निरादर करने वाले के यहाँ अथवा उनके पक्ष वालों के यहाँ जाने की तो क्या चले उनकी ओर देखना भी नहीं चाहिए । जो तुम हमारा कहा न मानकर अपने पिता के घर जाओगी भी तो इसमें तुम्हारा भला नहीं होगा। क्योंकि जो लोग अति प्रतिष्ठित होते हैं और वे जब उन्हीं के सम्बधियों द्वारा अपमानित होते हैं। तो ही अपमान उनकी मृत्यु का कारण बनजाता है। सो हे प्रिये ! हमारी बात मानकर तुम वहाँ मत जाओ इसी में आपका शुभ है।


विषय सूची [श्रीमद भागवद पुराण]

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श्रीमद भागवद पुराण [introduction]


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• श्रीमद भागवद पुराण [मंगला चरण]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध १]


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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध २]

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• श्रीमद भागवद पुराण [स्कंध ३]

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