तप की शक्ति।।हिरणयकश्यपु का वर प्राप्त करना।।

नवीन सुख सागर 
श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ७]
(हिरणयकश्यपु का वर प्राप्त करना)
तप की शक्ति 
दो० - हिरण्यकश्यपु ने कियो, सब विधि तप मन लाय।
बृम्हा बरदान तब, दियो तृतीय अध्याय।। 

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तप की शक्ति।।हिरणयकश्यपु का वर प्राप्त करना।।

नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ७] (हिरणयकश्यपु का वर प्राप्त करना) तप की शक्ति  दो० - हिरण्यकश्यपु ने कियो, सब विधि तप मन लाय।  बृम्हा बरदान तब, दियो तृतीय अध्याय।।   श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित! नारद जी ने धर्मराज युधिष्ठर से कहा हे राजन् ! अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये हिरण्यकश्यपु ने विष्णु को मारने का निश्चय कर लिया, और वह वरदान पाने की इच्छा से मंदराचल पर्वत की कंदरा में जाकर ऊपर को दोनों भुजा उठा कर आकाश की ओर द्रष्टि करके, पृथ्वी पर एक पाँव का अंगूठा टेक कर उसके सहारे से खड़ा होकर परम तप करने लगा।   इस प्रकार कठिन तप के कारण हिरणकश्यपु के शिर में से धुवाँ सहित तपोमय अग्नि की प्रचंड ज्वाला प्रगट होकर ऊँची नीची चारों ओर फैल कर तीनों लोकों को तपाने लगी, पृथ्वी कंपायमान होने लगी, दशों दिशायें जलने लगी। उस अग्नि से तपायमान होकर देवता लोग स्वर्ग को छोड़ कर वृह्म लोक में जाय वृह्मा जी से विनय कर बोले- हे देव ! दैत्य हिरण्यकश्यपु के तप के कारण हम संतप्त हो रहे हैं, इस स्वर्ग में नहीं ठहर सकते हैं।   यदि सब लोकों का कल्याण चाहो तो शीघ्र ही तप की शान्ति करो।   देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर वृह्मा जी अपने साथ भृगु व दक्ष प्रजा पतियों को लेकर मंदराचल पर्वत की कंदरा में हिरण्यकश्यपु के पास गये । तप के कारण दैत्यराज के ऊपर घास फूस तथा वाँवी के समान मिट्टी चढ़ गई थी जिसे देख कर वृह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले-हे कश्यपु पुत्र! उठो तुम्हारा कल्याण हो तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँग लो। तुमने तप में पूर्ण निष्ठा करके हम को वश में कर लिया है। अतः इसी कारण मैं आशीर्वाद देकर तुम्हारा मनोरथ पर्ण करूँगा।   यह कह वृह्मा जी ने कमंडल का जल हाथ में ले दैत्येन्द्र के शरीर पर छिड़क दिया। पानी के छिड़कते ही उस कीच के वल्मीक के भीतर से तेजबल सहित सब अवयवों से संपन्न दृढ़ अंग वाला युवावस्था युक्त तपाये हुये स्वर्ण के समान कान्ति वाला अग्नि के पुंज के समान वह दैत्य उठकर खड़ा हुआ ।   वह वृह्मा जी का दर्शन करके स्तुति करने लगा।   हे भगवान! आपको मेरा प्रणाम है। हे वर देने वालों में आपसे यह वरदान माँगता हूँ कि आपके रचे हुए किसी प्राणी मात्र से मेरी मृत्यु नहीं होवे, न भीतर न बाहर, न दिन में, न रात में, न भूमि में, न आकाश में, न मृत से, विना प्राणधारी व प्राणधारी, न मनुष्य से न देवता, न दैत्य, न महासर्प, इत्यादि इनमें से कहीं भी किसी से भी कहीं भी मृत्यु न होवे और न युद्ध में मुझसे कोई जीते तथा जगत में मेरा ही राज्य हो जाय । जिस प्रकार आपकी और सब लोक पालों की महिमा है उसी प्रकार मेरी भी महिमा हो। तप व योग के प्रभाव वाले पुरुषों का कभी नाश न होने वाली अणिमां आदिक सिद्धियाँ भी मुझको प्राप्त होवें। ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम तृतीय अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_

नवीन सुख सागर  श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ७] (हिरणयकश्यपु का वर प्राप्त करना) तप की शक्ति  दो० - हिरण्यकश्यपु ने कियो, सब विधि तप मन लाय।  बृम्हा बरदान तब, दियो तृतीय अध्याय।।   श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित! नारद जी ने धर्मराज युधिष्ठर से कहा हे राजन् ! अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये हिरण्यकश्यपु ने विष्णु को मारने का निश्चय कर लिया, और वह वरदान पाने की इच्छा से मंदराचल पर्वत की कंदरा में जाकर ऊपर को दोनों भुजा उठा कर आकाश की ओर द्रष्टि करके, पृथ्वी पर एक पाँव का अंगूठा टेक कर उसके सहारे से खड़ा होकर परम तप करने लगा।   इस प्रकार कठिन तप के कारण हिरणकश्यपु के शिर में से धुवाँ सहित तपोमय अग्नि की प्रचंड ज्वाला प्रगट होकर ऊँची नीची चारों ओर फैल कर तीनों लोकों को तपाने लगी, पृथ्वी कंपायमान होने लगी, दशों दिशायें जलने लगी। उस अग्नि से तपायमान होकर देवता लोग स्वर्ग को छोड़ कर वृह्म लोक में जाय वृह्मा जी से विनय कर बोले- हे देव ! दैत्य हिरण्यकश्यपु के तप के कारण हम संतप्त हो रहे हैं, इस स्वर्ग में नहीं ठहर सकते हैं।   यदि सब लोकों का कल्याण चाहो तो शीघ्र ही तप की शान्ति करो।   देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर वृह्मा जी अपने साथ भृगु व दक्ष प्रजा पतियों को लेकर मंदराचल पर्वत की कंदरा में हिरण्यकश्यपु के पास गये । तप के कारण दैत्यराज के ऊपर घास फूस तथा वाँवी के समान मिट्टी चढ़ गई थी जिसे देख कर वृह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले-हे कश्यपु पुत्र! उठो तुम्हारा कल्याण हो तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँग लो। तुमने तप में पूर्ण निष्ठा करके हम को वश में कर लिया है। अतः इसी कारण मैं आशीर्वाद देकर तुम्हारा मनोरथ पर्ण करूँगा।   यह कह वृह्मा जी ने कमंडल का जल हाथ में ले दैत्येन्द्र के शरीर पर छिड़क दिया। पानी के छिड़कते ही उस कीच के वल्मीक के भीतर से तेजबल सहित सब अवयवों से संपन्न दृढ़ अंग वाला युवावस्था युक्त तपाये हुये स्वर्ण के समान कान्ति वाला अग्नि के पुंज के समान वह दैत्य उठकर खड़ा हुआ ।   वह वृह्मा जी का दर्शन करके स्तुति करने लगा।   हे भगवान! आपको मेरा प्रणाम है। हे वर देने वालों में आपसे यह वरदान माँगता हूँ कि आपके रचे हुए किसी प्राणी मात्र से मेरी मृत्यु नहीं होवे, न भीतर न बाहर, न दिन में, न रात में, न भूमि में, न आकाश में, न मृत से, विना प्राणधारी व प्राणधारी, न मनुष्य से न देवता, न दैत्य, न महासर्प, इत्यादि इनमें से कहीं भी किसी से भी कहीं भी मृत्यु न होवे और न युद्ध में मुझसे कोई जीते तथा जगत में मेरा ही राज्य हो जाय । जिस प्रकार आपकी और सब लोक पालों की महिमा है उसी प्रकार मेरी भी महिमा हो। तप व योग के प्रभाव वाले पुरुषों का कभी नाश न होने वाली अणिमां आदिक सिद्धियाँ भी मुझको प्राप्त होवें। ।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम तृतीय अध्याय समाप्तम🥀।।  ༺═──────────────═༻ ༺═──────────────═༻ _人人人人人人_अध्याय समाप्त_人人人人人人_


नवीन सुख सागर
श्रीमद भागवद पुराण तीसरा अध्याय [स्कंध ७]
(हिरणयकश्यपु का वर प्राप्त करना)
तप की शक्ति
दो० - हिरण्यकश्यपु ने कियो, सब विधि तप मन लाय।
बृम्हा बरदान तब, दियो तृतीय अध्याय।।

श्री शुकदेव जी बोले-हे परीक्षित! नारद जी ने धर्मराज युधिष्ठर से कहा हे राजन् ! अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये हिरण्यकश्यपु ने विष्णु को मारने का निश्चय कर लिया, और वह वरदान पाने की इच्छा से मंदराचल पर्वत की कंदरा में जाकर ऊपर को दोनों भुजा उठा कर आकाश की ओर द्रष्टि करके, पृथ्वी पर एक पाँव का अंगूठा टेक कर उसके सहारे से खड़ा होकर परम तप करने लगा।

इस प्रकार कठिन तप के कारण हिरणकश्यपु के शिर में से धुवाँ सहित तपोमय अग्नि की प्रचंड ज्वाला प्रगट होकर ऊँची नीची चारों ओर फैल कर तीनों लोकों को तपाने लगी, पृथ्वी कंपायमान होने लगी, दशों दिशायें जलने लगी। उस अग्नि से तपायमान होकर देवता लोग स्वर्ग को छोड़ कर वृह्म लोक में जाय वृह्मा जी से विनय कर बोले- हे देव ! दैत्य हिरण्यकश्यपु के तप के कारण हम संतप्त हो रहे हैं, इस स्वर्ग में नहीं ठहर सकते हैं।


यदि सब लोकों का कल्याण चाहो तो शीघ्र ही तप की शान्ति करो।

देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर वृह्मा जी अपने साथ भृगु व दक्ष प्रजा पतियों को लेकर मंदराचल पर्वत की कंदरा में हिरण्यकश्यपु के पास गये । तप के कारण दैत्यराज के ऊपर घास फूस तथा वाँवी के समान मिट्टी चढ़ गई थी जिसे देख कर वृह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले-हे कश्यपु पुत्र! उठो तुम्हारा कल्याण हो तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँग लो। तुमने तप में पूर्ण निष्ठा करके हम को वश में कर लिया है। अतः इसी कारण मैं आशीर्वाद देकर तुम्हारा मनोरथ पर्ण करूँगा।


यह कह वृह्मा जी ने कमंडल का जल हाथ में ले दैत्येन्द्र के शरीर पर छिड़क दिया। पानी के छिड़कते ही उस कीच के वल्मीक के भीतर से तेजबल सहित सब अवयवों से संपन्न दृढ़ अंग वाला युवावस्था युक्त तपाये हुये स्वर्ण के समान कान्ति वाला अग्नि के पुंज के समान वह दैत्य उठकर खड़ा हुआ ।

वह वृह्मा जी का दर्शन करके स्तुति करने लगा।

हे भगवान! आपको मेरा प्रणाम है। हे वर देने वालों में आपसे यह वरदान माँगता हूँ कि आपके रचे हुए किसी प्राणी मात्र से मेरी मृत्यु नहीं होवे, न भीतर न बाहर, न दिन में, न रात में, न भूमि में, न आकाश में, न मृत से, विना प्राणधारी व प्राणधारी, न मनुष्य से न देवता, न दैत्य, न महासर्प, इत्यादि इनमें से कहीं भी किसी से भी कहीं भी मृत्यु न होवे और न युद्ध में मुझसे कोई जीते तथा जगत में मेरा ही राज्य हो जाय । जिस प्रकार आपकी और सब लोक पालों की महिमा है उसी प्रकार मेरी भी महिमा हो। तप व योग के प्रभाव वाले पुरुषों का कभी नाश न होने वाली अणिमां आदिक सिद्धियाँ भी मुझको प्राप्त होवें।

मनुष्य के वर्तमान जन्म के ऊपर पिछले जन्म अथवा जन्मों के प्रभाव का दस्तावेज है।




यज्ञशाला में जाने के सात वैज्ञानिक लाभ।। 


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम तृतीय अध्याय समाप्तम🥀।।


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