कैसे हुई गायत्री मंत्र की उत्त्पत्ति।।
श्रीमद भगवदपुराण अध्याय१२ [स्कंध ३]
ब्रह्मा द्वारा सृष्टि, शिव, इन्द्रियों, ऋषियों, सरस्वती, दिन, रात, वेद, यज्ञ, आश्रम, अक्षर, मंत्र, प्रजा की उत्त्पत्ति अर्थ मैथुन
शिव
प्रकट होते ही तुम बालक के समान रोये थे इस कारण प्रजा तुम्हें रुद्र के नाम से पुकारेगी। तुम्हारे निवास के लिये ग्यारह स्थिान हमने पहले से ही नियत कर रखे हैं जो इस प्रकार हैं, हृदय, इन्द्रियों प्राण, आकाश, पवन, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, में निवास करो। इसके अतिरिक्त तुम्हारे यह ग्यारह नाम कहे जायेंगे। जो उस प्रकार हैं -घृतब्रत, वामदेव, काल, भव, उग्रेता, ऋतुध्वज, शिव, महान्, मुनिमहिनस, और मन्यु यह सब तुम्हारे नाम होंगे इन्ही नामों से प्रजा जन तुम्हारी पूजा करेंगे। तुम्हारी स्त्रियाँ घी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत, सपि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा, दीक्षा, और रुद्राणी नाम की होंगी। तत्पचात वृम्हा जी ने रुद्र से कहा कि अब तुम लोक निर्माण के लिये प्रजा को रचना करो!
ऋषि उत्त्पत्ति
इधर वृह्मा जी फिर प्रजा की रचना करने की सोचने लगे। तब उनने लोक में संतान के हेतु कारण रूप अपने दस पुत्र उत्पन्न किये! जो इस प्रकार थे मन से मरीच, नेत्रों से अत्रि, मुख से अंगिरा, कानों से पुलत्स्य, नाभि से पुलह, हाथ से क्रतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगूठे से दक्ष और गोद से दसवें पुत्र नारद जी को उत्पन्न किया। फिर दाहिने स्तन से धर्मऔर वायें स्तन से अधर्म को उत्पन्न किया। हृदय से कामदेव, भृकुटी से क्रोध, को नीचे वाले ओंठ से लोभ, मुख से वाणी लिंग से समुद्र, गुदा से मृत्यु, उत्पन्न किया । वृम्हा जी को छाया से कर्दम ऋषि।
सरस्वती की उत्त्पति एवं ब्रह्मा जी का कामतुर होना।
मुख से वीणा धारणी सरस्वती जी को प्रकट किया। इस प्रकार वृम्हा जी ने अपने शरीर तथा अंगों से इस सृष्टि को उत्पन्न किया । यद्यपि सरस्वती जी अकामी थी।
जब उनके पुत्रों ने उन्हें इस प्रकार समझाया तो वृम्हाजी अति लज्जित हुये और उनने अपने उस शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण कर लिया सो हे विदुरजी ! उस छोड़े हुये शरीर को दिशाओं ने गृहण किया जिससे अन्धकारमय कुहरा उत्पन्न हुआ। जब दूसरा शरीर धारण कर लिया।।
चार वेद और उनके होता की उत्त्पत्ति
पूर्व वाले मुख से ऋगवेद और होता का कर्म उत्पन्न हुये, तथा दक्षिण मुख से यजुर्वेद और देवताओं के कर्म उत्पन्न हुये पश्चात पशचिम मुख से साम वेद और स्तुतियों का समूह उत्पन्न हुआ,
फिर उत्तर मुख से अथर्वेद और आयुर्वेद, धनुर्वेद, गाँधर्ववेद, स्थापत्यवेद उत्पन्न हुये। तत्पश्चात इतिहास पुराण नाम वाले पंचवेद को सब मुखों से उत्पन्न किया। फिर षोडशी तथा उक्त को पूर्व वाले मुख से प्रकट किया, पुरीप्य तथा अग्निष्टोम यज्ञ गृह दक्षिण मुख से और आपतोमि तथा अत्रि रात्रि दोनों पश्चिम मुख से और बाजपेय यज्ञ व गोमेध उत्तर वाले मुख से उत्पन्न किये।
धर्म, अक्षर, मंत्र, मैथुन धर्म
इस प्रकार अनेक भाँति रचना करने पर कुल वल वाले ऋषियों की सन्तान को प्राप्त नहीं हुये । तव ब्रम्हाजी अपने हृदय में चिन्ता करने लगे कि यह बड़े आश्चर्य की बात है कि नित्य अनेक
उद्यम करने पर भी प्रजा की वृद्धि नहीं पाती है। वह सोचने लगे कि निश्चय ही इसमें देव प्रतिबन्धक हैं जो प्रजा को वृद्धि नहीं होने देता है। इस प्रकार सोच रहे थे कि तभी उनके शरीर
के दायेंअंग से स्वयंभुव मनु नाम का एक पुरुष और बाँये अंग से शतरूपा नामक एक स्त्री की उत्पत्ति हुई। तब वृम्हाजी ने उन दोनों का विवाह कर दिया और आज्ञा दी कि तुम मैथुन क्रिया द्वारा प्रजा उत्पन्न करो। विदुरजी ! तभी से ये मैथुन धर्म प्रगट हुआ।
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