परीक्षित के जन्म की कथा।।

श्रीमद्भागवद पुराण महात्मय का बारहवॉं आध्यय [स्कंध १]भागवत (सुखसागर) की कथाएँ -- कलियुग का आगमन

दोहा: अब द्वादश अध्याय में, जन्म परीक्षित हेतु ।।

वर्णों जो जग सुख दिये, न्याय नेतिबनी सेतु ॥१२॥






शौनकजी बोले-अश्वत्थामा के चलाये हुए अत्यन्त तेज वाले ब्रह्मास्त्र से उत्तरा का गर्भ खंडन हुआ, फिर परमेश्वर श्री कृष्ण भगवान ने उसकी रक्षा की। 

उस महान बुद्धिमान परीक्षित के जन्म और कर्मों को हमारे आगे कहो और उसकी मृत्यु जैसे हुई व जिस प्रकार देह को त्यागकर परलोक में गया और जिसके वास्ते शुकदेवजी ने ज्ञान दिया, सो यह सब हम सुनना चाहते हैं सो हमको सुनाओ। 


सूतजी कहने लगे----


----श्रीकृष्ण के चरणाविंदौ की सेवा करके सम्पूर्ण कामनाओं की इच्छा से रहित हुआ युधिष्ठिर राजा अपने पिता की तरह प्रजा को प्रसन्न रखकर पालन करने लगा। हे शौनकादिकों ! उस समय युधिष्ठिर राजा की सम्पत्ति और यश देवताओं के भी मन को ललचाने लायक थे।

 परन्तु हे शौनकादि द्विजो! भगवान में मन रखने वाले उस राजा युधिष्ठिर को, श्रीकृष्ण के बिना यह सब कुछ अधिक प्रीति देने वाले नहीं हुए। 

हे भृगुनन्दन! जब अपनी माता के गर्भ में वह शूरवीर बालक अस्त्र के तेज से जलने लगा तब उसने किसी पुरुष को देखा। वह अंगूठे के बराबर आकार का उसका शरीर निर्मल चमकता हुआ, स्वर्ण का मुकुट कुण्डल धारण किए, अति सुन्दर श्याम स्वरूप बिजली समान पीले वस्त्र धारण किये हुए, शोभा युक्त, भुजा वाला था। वह कोप के वेग से, लाल नेत्र किये हाथ में गदा लिये फिर अग्नि की तरह दमकती हुई उस गदा को अपनी चारों तरफ बारम्बार घुमाने लगा।  उसने अपनी गदा से ब्रह्मास्त्र तेज को जैसे सूर्य कुहिरे को नष्ट करता है, वैसे नष्ट कर दिया।

 गर्भस्थ बालक ने यह कौन है ऐसे विचार किया। जिसके गुण और स्वरूप का प्रभाव नहीं किया जावे, ऐसे धर्म रक्षक भगवान उस अस्त्र के तेज को
सहार कर दस महीने तक उस गर्भ को दर्शन देते हुए जन्म लेने समय वहाँ हो अंतर्ध्यान हो गये।

 फिर शुभ लग्न में पाण्डु राजा के वंश को धारण करने वाला यह शूरवीर बालक उत्पन्न हुआ। मानो फिर बलवान वही पाण्डु राजा उत्पन्न हुआ हो।




फिर राजा युधिष्ठिर ने प्रसन्न तन से धौम्य, कृप आदि ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन करवा के उसका जातक संस्कार करवाया और ब्राह्मणों के लिये स्वर्ण, गौ, पृथ्वी, ग्राम हस्ती, श्रेष्ठ घोड़े, वस्त्र और सुन्दर अन्न दिये।


 फिर सन्तुष्ट हुए ब्राह्मण राजा से बोले-- हे यदुवंशियों में श्रेष्ठ ! उस अबिचल देव ने इस गर्भ की रक्षा करके रक्खा है इसलिए यह लोक में विष्णुरत नाम से प्रसिद्ध होगा। 

राजा परीक्षित का चारित्र वर्णन और जीवन प्रसंग।।


बड़ा यशस्वी, विष्णु भगवान का अत्य्त भक्त, यह तनु के पुत्र इक्ष्वाकु के समान प्रजा पालन करने वाला, दशरथ के पुत्र रामचंद्र जी के समान ब्राह्मणों की भक्ति करने वाला, उसी नरदेश के पति शिव राजा के बराबर दीन दुष्यंत के पुत्र भरत के समान यश को फैलाने वाला, सहस्त्रबाहु तथा अर्जुन के समान धनुषधारी, अग्नि के समान दुर्धष, समुद्र के तुल्य गम्भीर, सिंह की तरह पराक्रम वाला हिमालय की बराबर क्षमा वाला होगा। 

ब्रह्माजी के समान समता रखने वाला,शिवा जी के समान शीघ्र ही प्रसन्न होने वाला, विष्णु भगवान के समान सब प्राणियों को शरण देने वाला और पृथ्वी के तथा धर्म के कारण यह कलियुग को पकड़ दण्ड देने वाला होवेगा। श्रीकृष्ण के तुल्य सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों के महात्म्य वाला, रंतिदेव के समान उदार,ययाति के बराबर धार्मिक, वली राजा के तुल्य और प्रहलाद की बराबर श्रीकष्ण में श्रेष्ठ आग्रह करने वाला व अश्वमेघ यज्ञों का कर्ता तथा वृद्धजनों का उपासक होगा। 

राज ऋषियों को उत्पन्न करने वाला और कुमार्ग में चलने वालों को शिक्षा देने वाला होगा। फिर ऋषि के पुत्र के श्राप से प्ररित तक्षक सर्प से अपनी मृत्यु को सुनकर सब सङ्ग को त्यागकर हरि के पद को जावेगा।


 हे नृप ! फिर यह वेदव्यास के पुत्र शुकदेव मुनि से आत्म स्वरूप को यथार्थ जानकर इस शरीर को गंगा जी पर त्यागकर वैकुण्ठ परंपरा से प्राप्त होगा।

परीक्षित का दूसरा नाम --> विष्णुरत।। क्यूँ मिला परीक्षित को यह नाम।।


 ब्राह्मण, इस प्रकार राजा युधिष्ठिर को परीक्षित जन्म का हाल सुनाकर भेंट पूजा ले अपने-अपने घरों को गये और परीक्षित ने गर्भ में भगवान जिस के रूप को देखा था उसी रुप को ध्यान करता हुआ, सब नरों की परीक्षा करता था कि मैंने गर्भ में देखा था सो कहां है, इसलिये इनका दूसरा नाम परीक्षित भी हुआ। 


यह राजकुमार परीक्षित शीघ्र ही जैसे शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा पन्द्रह कलाओं करके बढ़ता है तैसे ही युधिष्ठिर आदि दादाओं के लाड़ और पालन से बढ़ने लगा । जाति द्रोह का पाप दूर करने की इच्छा से राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ करने की इच्छा की, परन्तु जब उस समय कर और दण्ड के धन से जुदा अन्य धन कहीं नहीं देखा। तब राजा सोच विचार करने लगा कि जब खजाने में धन नहीं है तब अब किस तरह यज्ञ करू।

 ऐसे उनके अभिप्राय को सुनकर श्रीकृष्ण के प्रेरे हुए अर्जुन आदि भाई उत्तर दिशा में मरुत राजा का त्यागा हुआ सुवर्ण पात्र आदि बहुत सा धन पड़ा था उसे ले आये। फिर उस धन से यज्ञ की तैयारी कर धर्म कर पुत्र युधिष्ठिर राजा ने जातिद्रोह के पाप से डरकर तीन अश्वमेध से हरि का पूजन किया।


।।🥀इति श्री पद्यपुराण कथायाम बारहवॉं अध्याय समाप्तम🥀।।


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